Gidad-gasht in Hindi Moral Stories by Deepak sharma books and stories PDF | गीदड़-गश्त

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गीदड़-गश्त

गीदड़-गश्त

किस ने बताया था मुझे गीदड़, सियार, लोमड़ी और भेड़िये एक ही जाति के जीव जरूर हैं मगर उनमें गीदड़ की विशेषता यह है कि वह पुराने शहरों के जर्जर, परित्यक्त खंडहरों में विचरते रहते हैं?

तो क्या मैं भी कोई गीदड़ हूँ जो मेरा चित्त पुराने, परित्यक्त उस कस्बापुर में जा विचरता है जिसे चालीस साल पहले मैं पीछे छोड़ आया था, इधर वैनकूवर में बस जाने हेतु स्थायी रूप से?

क्यों उस कस्बापुर की हवा आज भी मेरे कानों में कुन्ती की आवाज आन बजाती है, ‘दस्तखत कहाँ करने हैं?’ और क्यों उस आवाज के साथ अनेक चित्र तरंगें भी आन जुड़ती हैं? कुन्ती को मेरे सामने साकार लाती हुई? मुझे उसके पास ले जाती हुई?

सन् उन्नीस सौ पचहत्तर के उन दिनों मैं उस निजी नर्सिंग होम के एक्स-रे विभाग में टैक्नीशियन था जिस के पूछताछ कार्यालय में उसके चाचा किशोरी लाल क्लर्क थे|

उसे वह मेरे पास अपने कंधे के सहारे मालिक, हड्डी-विशेषज्ञ डॉ. दुर्गा दास की पर्ची के साथ लाये थे| उसका टखना सूजा हुआ था और मुझे उसके तीन तरफ से एक्स-रे लेने थे|

“छत का पंखा साफ करते समय मेरी इस भतीजी का टखना ऐसा फिरका और मुड़का है कि इस का पैर अब जमीन पकड़ नहीं पा रहा है,” किशोरी लाल ने कारण बताया था|

तीनों एक्स-रे में भयंकर टूटन आयी थी| कुन्ती की टांग की लम्बी शिन बोन, टिबिया और निचली छोटी हड्डी फिबुला टखने की टैलस हड्डी के सिरे पर जिस जगह जुड़ती थीं, वह जोड़ पूरी तरह उखड़ गया था| वे लिगामेंट्स, अस्थिबंध भी चिर चुके थे जिन से हमारे शरीर का भार वहन करने हेतु स्थिरता एवं मजबूती मिलती है|

छः सप्ताह का प्लास्टर लगाते समय डॉ. दुर्गादास ने जब कुन्ती को अपने उस पैर को पूरा आराम देने की बात कही थी तो वह खेद्सूचक घबराहट के साथ किशोरी लाल की ओर देखने लगी थी|

जभी मैंने जाना था वह अनाथ थी मेरी तरह|

मुझे अनाथ बनाया था मेरे माता-पिता की संदिग्ध आत्महत्या ने जिसके लिए मेरे पिता की लम्बी बेरोजगारी जिम्मेदार रही थी जबकि उसकी माँ को तपेदिक ने निगला था और पिता को उनके फक्कड़पन ने|

अगर अनाथावस्था ने जहाँ मुझे हर किसी पारिवारिक बन्धन से मुक्ति दिलायी थी, वहीं कुन्ती अपने चाचा-चाची के भरे-पूरे परिवार से पूरी तरह संलीन रही थी, जिन्होंने उसकी पढ़ाई पर ध्यान देने के बजाए उसे अपने परिवार की सेवा में लगाए रखा था|

मेरी कहानी उस से भिन्न थी| मेरी नौ वर्ष की अल्प आयु में मेरे नाना मुझे अपने पास ले जरूर गए थे किन्तु न तो मेरे मामा मामी ने ही मुझे कभी अपने परिवार का अंग माना था और न ही मैंने कभी उनके संग एकीभाव महसूस किया था|

मुझ पर शासन करने के उन के सभी प्रयास विफल ही रहे थे और अपने चौदहवें साल तक आते-आते मैंने सुबह शाम अखबार बांटने का काम पकड़ भी लिया था|

न्यूज़ एजेन्सी का वह सम्पर्क मेरे बहुत काम आया था| उसी के अन्तर्गत उस अस्पताल के डॉ. दुर्गादास से मेरा परिचय हुआ था जहाँ उनके सौजन्य से मैंने एक्स-रे मशीनरी की तकनीक सीखी-समझी थी और जिस पर जोर पकड़ते ही मैंने अपनी सेवाएँ वहां प्रस्तुत कर दी थीं| पहले एक शिक्षार्थी के रूप में और फिर एक सुविज्ञ पेशेवर के रूप में|

उस कस्बापुर में मुझे मेरी वही योग्यता लायी थी जिसके बूते पर उस अस्पताल से सेवा-निवृत्त हुए डॉ. दुर्गादास मुझे अपने साथ वहां लिवा ले गए थे| कस्बापुर उनका मूल निवास स्थान रहा था और अपना नर्सिंग होम उन्हीं ने फिर वहीं जा जमाया था|

कस्बापुर के लिए बेशक मैं निपट बेगाना रहा था किन्तु अपने जीवन के उस बाइसवें साल में पहली बार मैंने अपना आप पाया था| पहली बार मैं आप ही आप था| पूर्णतया स्वच्छन्द एवं स्वायत्त| अपनी नींद सोता था और उस कमरे का किराया मेरी जेब से जाता था|

जी जानता है कुन्ती से हुई उस पहली भेंट ने क्यों उसे अपनी पत्नी बनाने के लिए मेरा जी बढ़ाया था? जी से?

मेरे उस निर्णय को किस ने अधिक बल दिया था?

किशोरी लाल की ओर निर्दिष्ट रही उस की खेदसूचक घबराहट ने? अथवा अठारह वर्षीया सघन उसकी तरुणाई ने? जिस ने मुझ में विशुद्ध अपने पौरुषेय को अविलम्ब उसे सौंप देने की लालसा आन जगायी थी?

किशोरी लाल को मेरे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं रही थी और मैंने उसी सप्ताह उस से विवाह कर लिया था|

आगामी पांच सप्ताह मेरे जीवन के सर्वोत्तम दिन रहे थे|

प्यार-मनुहार भरे.....

उमंग-उत्साह के संग.....

कुन्ती ने अपने प्लास्टर और पैर के कष्ट के बावजूद घरेलू सभी काम-काज अपने नाम जो कर लिए थे|

रसोईदारी के.....

झाड़ू-बुहारी के.....

धुनाई-धुलाई के.....

बुरे दिन शुरू किए थे कुन्ती के प्लास्टर के सातवें सप्ताह ने.....

जब उस के पैर का प्लास्टर काटा गया था और टखने के नए एक्स-रे लिए गए थे|

जिन्हें देखते ही डॉ. दुर्गादास गम्भीर हो लिए थे “मालूम होता है इस लड़की के पैर को पूरा आराम नहीं मिल पाया| जभी इसकी फ़िबुला की यह प्रक्षेपीय हड्डी में लियोलस और टिबिया की दोनों प्रक्षेपीय हड्डियाँ मैलिलायी ठीक से जुड़ नहीं पायी हैं| उनकी सीध मिलाने के निमित्त सर्जरी अब अनिवार्य हो गयी है| टखने में रिपोसिशनिंग पुनः अवस्थापन, अब मेटल प्लेट्स और पेंच के माध्यम ही से सम्भव हो पाएगा..... तभी ओ.आर.आए.एफ. (ओपन रिडक्शन एंड इन्टरनल फिक्सेशन) के बिना कोई विकल्प है नहीं.....

“आप तारीख तय कर दीजिए,” कुन्ती का दिल रखने के लिए फट रहे अपने दिल को मैंने संभाला था|

“तारीख तो मैं कल की दे दूँ,” डॉ. दुर्गादास का भूतिभोगी वणिक बाहर उतर आया था, “किन्तु मैं जानता हूँ कि उस ऑपरेशन के लिए जिस बड़ी रकम की जरूरत है उस का प्रबन्ध करने में तुम्हें समय लग जाएगा.....”

शायद वह जानते थे मेरी कार्यावली में उसका प्रबन्ध था ही नहीं| कह नहीं सकता कुन्ती के प्रति मेरे दिल में फरक उसी दिन आन पसरा था या फिर आगामी दिनों में तिरस्करणी उसकी चुप्पी से मेरा जी खरा खोटा होता चला गया था|

दिल बुझता चला गया था|

वह चुप्पी किसी स्वीकर्ता की नहीं थी| एक अभियोक्ता की थी जो मुझ पर अपने पति धर्म की उपेक्षा करने का अभियोग लगा रही थी| परोक्ष रूप से गरजती हुई, अपनी पूरी गड़गड़ाहट के साथ हमारे दाम्पत्य-सुख को ताक पर रख कर उसका पथ बदलती हुई.....

और बदले हुए उस दूसरे मार्ग को झेलना मेरे लिए असह्य था| असम्भव था|

ऐसे में उस से छुटकारा पाने का एक ही रास्ता मुझे नजर आया था : तलाक|

उसकी भूमिका मैंने बाँधी थी वैनकूवर में बसे अपने एक मित्र के हवाले से, जो वहां के एक अस्पताल का कर्मचारी था|

और वकील से कानूनी तलाक नामा तैयार करवा कर उस के सामने मैंने जा रखा था, “वैनकूवर के एक अस्पताल में मुझे नौकरी मिल रही है| पासपोर्ट बनवाने लगा तो सोचा तुम्हारा भी साथ में बनवा दूँ| जभी यह फॉर्म लाया हूँ| तुम्हें इस पर दस्तखत करने होंगे|.....

और बिना उसे जांचे-परखे कुन्ती ने अपना मौन तोड़ कर खोल दिया था, “दस्तखत कहाँ करने हैं?”