इक समंदर मेरे अंदर
मधु अरोड़ा
(12)
वह ज़रा पारंपरिक कॉलेज था, पर वह अपने पसंद के स्कर्ट फेंक तो नहीं सकती थी। उसने वे स्कर्ट पहनना जारी रखा और फिगर ठीक होने से उस पर सूट भी खूब करते थे। वह थ्री प्लीट्स का टाइट स्कर्ट और इन करके टॉप पहना करती थी और साथ में दाऊद के बॉबी शूज
.....आगे से बंद। कामना को खुले पैर कभी अच्छे नहीं लगते थे। हाथ में दो तीन किताबें और पैन बॉक्स...उन दिनों बैग नहीं रखता था कोई। इसी तरह कॉलेज जाया करते थे। डीप गले का चलन नहीं था, पर स्कर्ट खूब पहने जाते थे और कामना ने खूब पहने ये स्कर्ट और फ्राक भी।
वह बायें हाथ में एचएमटी की एक घड़ी पहना करती थी। हाथ, गले और कान में कुछ भी पहनना अच्छा नहीं लगता था। वह जिस कॉलेज से बीए कर रही थी, वहां की प्रिंसिपल बहुत अनुशासित थीं। कॉलेज ग्रांट रोड में था। पास में भवंस कॉलेज था ठीक समुद्र के सामने।
वहां का एक छात्र था जो अहमदाबाद से यहां पढ़ने आया था। ग्रांट रोड पर वह उतरा और उसने कामना से भवंस कॉलेज का रास्ता पूछा। वह उसी ओर जा रही थी सो कह दिया – ‘चलो, मैं उधर ही जा रही हूं बता दूंगी।‘
दोनों बातें करते हुए जा रहे थे। बहुत दिनों के बाद उसने किसी लड़के से बात की थी। कॉलेज के पास पान की दुकान थी। वहां कॉलेज का क्लर्क पान खाने आता था। उसने उसे उस लड़के के साथ देख लिया।
उसने जाकर प्रिंसिपल से चुगली कर दी कि कामना को एक लड़के के साथ देखा। कुछ लोग चुगली करने की ही रोटी खाते हैं। जब वह कॉलेज पहुंची तो प्रिंसिपल ने बुला भेजा था और उस लड़के की कुंडली पूछी। उसने कहा – ‘वह मुंबई में नया है। उसे भवंस कॉलेज जाना था। सो मैं उसे रास्ता दिखाने अपने साथ ही ले आयी थी।‘
प्रिंसिपल ने आदेश दिया था – ‘यह पहली बार है, इसलिये जाने देती हूं। तुम कॉलेज की प्रतिनिधि हो, तो तुम्हें यह सब करने के पहले सोचना चाहिये।‘ वह 'जी मैडम' ही कह सकती थी। हां, कॉलेज आने से पहले उस पान की दुकान पर ज़रूर नज़र पड़ जाती थी।
वह उस कॉलेज में चार साल रही थी। बॉय फ्रैंड के विषय में सोचा ही नहीं था। हां, वह लड़का एकाध बार मिला था और उसने बात करने की कोशिश की थी तो उसे वह बात सुना दी थी। वह हंस कर बोला - तमारा क्लर्क लुच्चा छे, आना बाप ना सू जाये छे। हूं नवा हता मुंबईमां।‘।
उसने कहा – ‘जाने दो। अभी कॉलेज का रास्ता बता दिया ना तुमको। ऐसे लोगों को जाने देने का। सीरियसली नहीं लेने का।‘ कामना का बॉय फ्रैंड बनते बनते रह गया था वह। उसके बाद वह दिखा भी नहीं था। कोई गर्ल फ्रैंड मिल गई होगी।
पिताजी का कॉल मनी का काम खूब अच्छी तरह चल रहा था। जब ज़रूरत से ज्य़ादा पैसा आने लगे तो इंसान शौक़ भी अमीरी के पाल लेता है। पिताजी ने पहले तो अपने घरवालों को पैसे भेजना शुरू कर दिया था।
उन्होंने गांव के मंदिर का नवीकरण करवाया था और कुछ पैसा शेअर मार्केट में लगाया था। वे यह सब बातें अम्मां को नहीं बताते थे। उन्हें पता था कि वे नाराज़ होंगी और कहेंगी – ‘बिटिअन की गृहस्थी है, पैसा आय रऔ है तौ बचाऔ। कॉलमनी कौ काम है...कब का है जायैगौ, पतौऊ नाय चलैगौ।‘
इस फ्लैट में दो साल होने आये थे। एक दिन पिताजी आये तो बड़े बौराये से थे। अम्मां तब भी परेशान नहीं हुईं और पूछा – ‘का भऔ?’ इस पर वे टूटी आवाज़ में बोले थे – ‘का बतायें। आजई पतौ चलौ है कि दिल्ली के एक मनी ब्रोकर ने पांच लाख रुपइन कौ गबन कर लऔ है...गबन कौ मतलब चोरी...समझीं? अब जि काम तौ बंदई समझौ। इत्ती म्हैनत सैं घर लऔ, ऑफिस खरीदौ, सब बिक जायैगौ।‘यह कहकर वे फूट-फूटकर रोने लगे थे।
कामना ने पिताजी को कभी रोते नहीं देखा था...पूरा घर चलाने वाले पिताजी आज असहाय से दिख रहे थे। अम्मां की आंखें डबडबाई ज़रूर पर खुद को संभालते हुए कहा था – ‘दिल्ली में भऔ है न....देखतें, बंबईवाले का करेंगे
....तुम तौ ईमानदार रहे हौ अब तक। तुमें सायद काम देत रहेंगे। तुम तौ गबन नांय करौगे, जाकौ हमें पक्कौ भरोसौ है।‘ अम्मां का अपने प्रति ऐसा भरोसा देखकर पिताजी हैरान रह गये थे...
लेकिन उस रात सिर्फ़ बच्चों ने खाया...पिताजी दूध पीकर और अम्मां भूखी सो गई थीं। यह तब पता चला जब सुबह रोटी के कटोरदान में कुछ नहीं था, नहीं तो वे पहली रोटी गाय की ज़रूर बचाकर रखती थीं।
दिल्ली का असर मुंबई पर होना ही था। दिल्ली राजनीति का गढ़ था तो मुंबई देश की आर्थिक राजधानी थी। आर्थिक समीकरण यहीं बनते थे। पिताजी पर संकट के बादल गहराने लगे थे। पतौ नाय किन जन्मन के पापन कौ फल भगवान दे रऔ है।
यह अक्सर वे बुदबुदाते हुए सुने जा सकते थे। गायत्री शादी के लायक हो रही थी। यह चिंता भी थी। उन्होंने बेटियों को कभी बोझ नहीं समझा था, पर जि़म्मेदारी तो थी न...
इस सच को कैसे झुठलाया जा सकता था? पास में पैसा नहीं था। सारे शेयर बेचने की नौबत आ पड़ी थी। तभी गायत्री के लिये रिश्तेदारी में से ही रिश्ता आ गया था। लड़के वाले और लड़का गायत्री को देखने मुंबई आये थे और उन्होंने गायत्री को पसंद कर लिया था।
वे ज्य़ादा दिन नहीं रुकना चाहते थे। अब शादी के लिये पैसा कहां से आये....तो सोचा कि यह जो बड़ा फ्लैट था, इसे बेच दिया जाये...नया ही तो था, दो ही साल तो पुराना था।
जो पैसा आयेगा, उसमें से मुंबई के दूर के उपनगर में फ्लैट ले लेंगे और जो पैसा बचेगा, उससे शादी का कार्य हो जायेगा। कामना उस समय बीए के तीसरे साल में थी। अंततः: वही हुआ कि कांदिवली का घर औने पौने दामों पर बेचना पड़ा था।
सच ही तो है कि जब आदमी को ज़रूरत होती है तो सामने वाला भी फ़ायदा उठाते हैं। पिताजी जी का तो दिमागी संतुलन ही बिगड़ गया था। अपने आपसे बोलते रहते थे।
ऐसे समय में भी अम्मां ने कोई शोर नहीं मचाया था। सारे निर्णय लिये थे और पिताजी को समझाती रही थीं – ‘घर की इज्ज़त रह गई, जई का कम है। अपनी ही जगह बेची है न.....थोड़ी दूर रह लैंगे। ....कौन से हम नौकरी कर रअे हैंगे।
तुमैऊ कौन सौ चर्चगेट जानौ पड़ैगौ। घर में आराम से रहेंगे। गायत्री के ब्याह के बाद जो बचैगौ, बाय हम बैंक में रख देंगे। कामना है, लड़कन की पढ़ाई है। चिंता मत करौ। सब निबट जायैगौ
... हां, गायत्री कौ ब्याह इटारसी सें कर देंगे। बरात के खर्च कौ पैसा बच जायैगौ। बंबई में कहां सें इत्तौ इंतज़ाम करेंगे?’ इस तरह गायत्री की शादी के लिये पैसों का इंतज़ाम किया गया था। अब पिताजी पहले की तरह गुस्सैल नहीं रह गये थे।
वक्त़ अच्छों अच्छों को बदल देता है। पापा ने अपने बच्चों पर नकेल कसना कम कर दिया था। नरेश कॉलेज जाता था। घर में मतलब की बात ही करता था। बड़ों बीच में बोलता ही नहीं था। उसे डांडिया खेलना बहुत अच्छा लगता था।
वह रात भर डांडिया खेलता था और बहुत अच्छा खेलता था। गायत्री और वह उसके साथ रहती थीं। उन दिनों मुंबई में डांडिया रात भर खेलने और अलग अलग कॉलोनी में जाने का रिवाज़ था।
जब वह सुबह चार बजे दूसरे एरिया में डांडिया खेलने जाता तो गायत्री उसकी कमीज़ का कॉलर पकड़कर घर लेकर आती थी। वह सबसे बड़ी थी और उसकी बात काटने या टालने का साहस किसी में नहीं था।
वह गोटियां भी बहुत अच्छी खेलता था। छुट्टी के दिन सुबह दो गोटियां लेकर जाता था और शाम को पांच बजे उसके नेकर की दोनों जेबें भरी होती थीं। पिताजी घर में ही होते थे। वह जेबों को हाथ से दबा लेता था ताकि आवाज़ न हो।
पिताजी उसकी अतिरिक्त रूप से भरी जेबों को पहचान लेते थे और आंखें बड़ी करके पूछते...फिर गोटियां घर में लाये? चलो, जेबें खाली करो। इसी के साथ नरेश दोनों जेबें उल्टी कर देता था और पूरे फर्श पर छनन..छनन की आवाज़ से गोटियां बिखर जाती थीं।
उसके बाद उन गोटियों को बेचने के लिये कहा जाता था। उन दिनों एक आने की दस गोटियां दुकान वाले ले लेते थे। उस दिन नरेश को फोन पर यह सब याद दिलाया तो खूब हंसा था। उसने कहा – ‘उस समय मेरी कमाई का यही जरिया था। बहुत सालों के बाद उसकी हंसी सुनी थी।‘
इसके साथ ही वह एक बार फिर पुरानी यादों में चली गई थी और उसे बरबस मुंबई में नवरात्रि पर गाया जाने वाला गाना याद आ गया था, जिस पर वह गरबा और डांडिया खूब किया करती थी और बरबस वह गाने लगी थी
- मोंगा मूलनी रे मेंदी मेली म्हारे हाथ सांवरिया ने मोकली, म्हारे देवरिया के साथ। और इसी के साथ वह खिलखिलाकर हंस उठी थी। इस पर सोम ने कहा था – ‘तुम तो अच्छा गा भी लेती हो।‘ अब तो नव रात्रि का डांडिया भी दिखावे की चीज़ बनकर रह गया था।
पश्चिमी बंबई के अंतिम स्टेशन विरार में दो बेडरूम हॉल का फ्लैट मिल गया था। उन दिनों विरार विकसित नहीं हुआ था। एक बार फिर विस्थापन....कांदिवली से विरार। लोग कांदिवली से अंधेरी की ओर बढ़ने का प्रयास करते थे।
विरार यानी मुंबई का अंतिम स्टेशन। यहां से चर्चगेट के लिये ट्रेन शुरू होती थी और चर्चगेट की ट्रेन यहां खत्म होती थी। लगातार हलचल रहती थी इस स्टेशन पर। उनका परिवार प्राइम एरिया से गांव की ओर जा रहा था।
उन दिनों पिताजी गाया करते थे....’करमन की गति न्यारी.... चिठिया हो तो हर कोई बांचे....भाग न बांचा जाये...करमवा बैरी हो गये हमार’। यह तो पिताजी की हिम्मत थी कि उन्होंने मुंबई छोड़ा नहीं और यहां बसने का निश्चय कर लिया था।
...दूर ही सही...वहां भी तो लोग रहते थे....अम्मां ने पिताजी को डिप्रेशन में नहीं जाने दिया था। वे अनपढ़ थीं पर उनका दिमाग़ बहुत तेज़ था और हालात के अनुसार निर्णय लेने और उस पर अमल करने में उन्हें महारत हासिल थी। वे हिम्मत हारती नहीं थीं, बल्कि हिम्मत बंधाती थीं और एक बार फिर पैकिंग शुरू हो गई थी।
सामान ट्रक से आना था और उनका परिवार एजेंट के साथ पहले ही यहां पहुंच गया था। वे सब ट्रेन से आये थे। विरार का वह फ्लैट तीसरी मंज़िल पर था। खुला खुला घर। सामने सतपुड़ा के पहाड़ों की श्रृंखला और एक पहाड़ की चोटी पर एक मंदिर
...जो जीवदानी माता के मंदिर के नाम से विख्यात है। इस मंदिर की पहले भी मान्यता थी और आज भी मान्यता में कमी नहीं आई है। यहां भक्तगण सच्चे मन से जो कुछ मांगते हैं, माता उसकी मांग ज़रूर पूरी करती हैं।
मनोकामना पूरी होने के बाद भक्त एक बार फिर जाते थे माता के दरबार में...उनका आभार व्यक्त करने...यहां बोरिंग का पानी था और मोटर के जरिये पानी टंकी में भरा जाता था। नया उपनगर....गांव सा लगता उपनगर...सामने धान के खेत...हवा में लहलहाती धान की बालियां।
पड़ोस के मिस्टर मांजरेकर ने बताया था – ‘यहां जब बारिश होती है तो किसान धान की बालियां एक जगह से निकालकर दूसरी जगह रोपने का काम करते हैं। जितनी अधिक बारिश होती है, वे खुश होते हैं।‘ कामना के लिये यह सब नया था।
उस दिन रविवार था। कामना को खाना बनाने की हड़बड़ी नहीं थी। वह अपने कमरे से पहाड़ पर बने उस छोटे से मंदिर को देख रही थी। पता नहीं, उसके अंतर्मन से आवाज़ आई और मंदिर से ऐसा प्रतीत हुआ कि कोई उसे हाथ हिलाकर बुला रहा था।
उसे भी न जाने क्या सूझा और वह अम्मां से बोली – ‘आज तो खाना बनाने की जल्दी नहीं है। मैं ज़रा उस मंदिर में माता के दर्शन के लिये जाकर आती हूं। पता नहीं, अचानक मेरे मन में यह बात आई है’ और यह कहकर वह हवाई चप्पल पहनकर नीचे उतर गई थी।
उसके पैर तेजी से मंदिर जाने वाले रास्ते की ओर बढ़ रहे थे। वह मशीनवत चली जा रही थी। वह धान के खेतों को पार करते हुए अगले पन्द्रह मिनटों में जीवदानी माता के मंदिर की सीढ़ियों के सामने थी।
उसने नीचे से उस मंदिर को देखा और सीढ़ियों का स्पर्श करके वहां की रज को माथे से लगाया और सीढ़ियां चढ़ने लगी। उस समय सीढ़ियां नहीं बनी थीं, बस पहाड़ को काटकर उबड़-खाबड़ सी सीढ़ियां बना दी थीं। वह चढ़ती जा रही थी।
रास्ते में इक्का दुक्का नींबू शर्बत वाले आदिवासी थे। पूरे रास्ते में सिर्फ़ तीन बार वह शर्बत पिया था और एक दूरी के बाद सीढ़ियां ख़त्म हो गई थीं तथा सीधी चढ़ाई थी। उसने उस चढ़ाई को देखकर अंदर ही अंदर थूक गटका।
माता को नमस्कार करके वह चढ़ाई चढ़ने लगी थी। जब वह मंदिर के दरवाज़े पर पहुंची तो देखा कि वहां एक छोटी सी गुफा के अंदर काले पथ्थर की मूर्ति थी और उस पर पूरा चेहरा उकेरा गया था। मूर्ति पर हरी साड़ी चढ़ाई गई थी। देवी के हाथ में हरी चूड़ियां, माथे पर लाल बड़ी बिंदी और आंखों में मोटा मोटा काजल लगाया गया था। दोपहर की पूजा शुरू होने वाली थी। वह पूजा को देखना चाहती थी। बारह बजते ही नगाड़ा बजने लगा था और पुजारी आरती गाने लगे थे।
पूजा के दौरान ही एक भक्त पर देवी आ गई थीं और वह झूम-झूमकर नाचने लगा था। उसका पूरा शरीर किसी अदृश्य शक्ति से हिल रहा था। कामना के अंदर झुरझुरी दौड़ गई थी। पुजारी बिना किसी प्रतिक्रिया के आरती गा रहे थे। जैसे जैसे आरती समापन की ओर आ रही थी, उस भक्त का झूमना भी कम होता जा रहा था।
धीरे धीरे वह अपनी पूर्व मुद्रा में आ गया था, तब कहीं जाकर कामना की जान में जान आई थी। उसने देवी को नमस्कार किया और मन्नत मांगी थी – ‘अम्मां, अगर मैं आगे पढ़ सकी तो तुम्हारे दर्शन को फिर आऊंगी। बड़ी उम्मीदों तुम्हारे दर पर आई हूं।
यह कहकर उसने शायद चार आने आरती की थाली में डाले थे। वही राशि थी उसके पास उस समय। पुजारी ने कामना को प्रसाद देते हुए कहा था, ‘बाळे, देवीवर विश्वास ठेव। तुझी इच्छा पूर्ण करणार, देवी पर विश्वास रखो। तुम्हारी इच्छा पूरी करेंगी।‘
मंदिर से बाहर निकलते समय उसने दरवाज़े पर टंगा घंटा बजाया और फिर अपने घर की ओर चल दी थी। सीढ़ियां उतरते समय वक्त़ नहीं लगा था। उसे बड़ी आत्मिक शांति मिली थी। जब घर पहुंची तो पिताजी उसके आने का इंतज़ार ही कर रहे थे।
पहले जीवदानी मंदिर के पास ही एक कमरा था। वहां तंत्र-मंत्र का काम होता था। वहां महिलाएं और पुरुष आते थे तथा पता नहीं किसके हित-अहित के लिये तंत्र-मंत्र करवाते थे। सिंदूर, हल्दी, नींबू और हरी मिर्च का इस्तेमाल किया जाता था।
उसके पास ही बकरों की बलि देने की जगह थी। वहां खून के धब्बे देखे जा सकते थे। लोग अपनी मन्नत पूरी होने से बाद बकरे को लेकर आते थे। वह गत वर्ष मंदिर गई तो पता चला कि तंत्र-मंत्र का कमरा व बलि की जगह कहीं नीचे शिफ्ट कर दी गई थी। उसे यह देखकर अच्छा लगा था।
अम्मां और पिताजी तो गांव के थे मूल रूप से। वे बहुत प्रसन्न थे यह हरियाली देखकर। बिल्डिंग के सामने धान के खेत थे। बरसात के दिनों में बहुत अच्छा लगता। सामने की पहाड़ियां बादलों से ढक जाती थीं।