गवाक्ष
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बिना किसी टीमटाम के कुछ मित्रों एवं स्वरा के माता-पिता की उपस्थिति में विवाह की औपचारिकता कर दी गई । स्वरा के माता-पिता कलकत्ता से विशेष रूप से बेटी व दामाद को शुभाशीष देने के लिए बंबई आए थे । जीवन की गाड़ी सुचारू रूप से प्रेम, स्नेह, आनंद व आश्वासन के पहियों पर चलनी प्रारंभ हो गई। कुछ दिनों के पश्चात शुभ्रा का विवाह भी हो गया, वह अपने पति के पास चली गई । दोनों सखियाँ बिछुड़ गईं किन्तु उनका एक-दूसरे से संबंध लगातार बना रहा ।
दर्शन-शास्त्र में एम. ए करते हुए सत्याक्षरा ने अपना जीवन पूर्ण रूप से अपने भविष्य के सुपुर्द कर दिया। दर्शन अर्थात जीवन के आवागमन के रहस्य के बारे में जानने की उत्सुकता अक्षरा की रगों में बालपन से रक्त की भाँति प्रवाहित होती रही थी। जीवन की लुका -छिपी को जानने-समझने का वह कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहती थी । उसे भली -भाँति स्मरण है जब माँ व पिता जी बहुधा जीवन की क्षण-भृंगुरता के बारे में चर्चा करते हुए कहते ;
“जीवन का आना और जाना आज तक कोई नहीं समझ पाया। कितने योगी-मुनियों ने इस रहस्य को जानने, समझने में अपने जीवन की आहुति दी होगी लेकिन इसका परिणाम केवल यह रहा कि जीवन जन्मता है तथा अपना समय पूर्ण होते ही विदा ले लेता है। कहाँ ?कैसे? क्योंकर? सब रहस्य के आलिंगन में ऐसे समाए रहते है जैसे कोई नववधू अपने घूँघट में समाई रहती है। यह रहस्य का घूँघट कभी नहीं खुलता । “
“हाँ, वधू तो कुछ समय पश्चात सबके समक्ष अपना आँचल हटा देती है परन्तु जीवन के रहस्य की वधू पूरी उम्र सबको एक भ्रम में लपेटे रखती है। "माँ मुस्कुराकर कहतीं ।
अक्षरा को माँ, पापा के मध्य होने वाली इस प्रकार की चर्चा में बहुत आनंद आता था। अट्ठारह वर्ष की उम्र होते होते अक्षरा पर स्वामी विवेकानंद जी के विचारों का बहुत गहन प्रभाव पड़ चुका था।
"यह इसकी उम्र थोड़े ही है विवेकानंद को पढ़ने की !"माँ कहतीं ।
" क्यों, विवेकानंद युवाओं के साहस थे। हमें गर्व होना चाहिए हमारे दोनों बच्चों में जागृति है, तुम भी जानती हो जीवन के संतुलन के लिए यह आवश्यक है । " पिता बच्चों का पक्ष लेते और बात समाप्त हो जाती ।
वास्तव में तो माँ भी अपने बच्चों के आचार -विचार से बहुत प्रसन्न थीं, वह तो कभी-कभी यूँ ही पति-पत्नी में छेड़छाड़ चलती रहती थी।
एम.ए में अक्षरा ने अपने विश्वविद्यालय में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया और अचानक ही वह डॉ.श्रेष्ठी तथा पूरे विश्विद्यालय की दृष्टि में आ गई। शहर के प्रत्येक दैनिक समाचार पत्र ने उसकी प्रशंसा के पुल बाँध दिए थे। कई बड़े पत्र-पत्रिकाओं में उसका साक्षात्कार प्रकाशित हुआ और वह भाई व भाभी की आँखों का तारा बन गई ।
स्नेह तो वह पहले भी प्राप्त करती रही थी परन्तु समाचार पत्रों की सुर्ख़ियों ने उसे पूरे भारत में एक ऐसे स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया जिससे वह सभी के गर्व व चर्चा का विषय बन गई । इस बार लगभग सात वर्ष पश्चात कोई विश्विद्यालय में सर्वोच्च अंक लेकर इस स्थान पर प्रतिष्ठित हुआ था ।
" बस भाभी, अब इतनी प्रशंसा के पुल मत बांधिए कि मैं उड़ने ही लगूँ । "
स्वरा उसे बहुत लाड़ लड़ाती थी और प्रयास करती थी कि उसकी सभी सुविधाओं का ध्यान रख सके । वह उसे इतना स्नेह, ममता व प्यार देती कि अक्षरा को माँ की स्मृति हो आती। स्वरा अक्षरा के अध्ययन के पक्ष में थी तो भाई विवाह की चिंता में घुलता रहता ।
“बहुत से अच्छे रिश्ते आए हैं, अवसर का लाभ उठा लेना चाहिए, तुम ही समझाओ न इसे, तुम्हारा अधिक कहना मानती है । तुम्हारे बंगला समाज के बारे में तो मैं अधिक नहीं जानता परन्तु उत्तर भारतीय तो बेटियों के विवाह में एड़ी से चोटी तक का ज़ोर लगाता है ---- "
“हाँ, ठीक कह रहे हो सत्य !अक्षरा को अपनी इस सफ़लता के अवसर का लाभ लेना ही चाहिए, समय बड़ा बलवान होता है, किसी के लिए प्रतीक्षा नहीं करता !" स्वरा मुस्कुराकर बोली ।
सत्य को लगा पत्नी से इस विषय पर चर्चा करना व्यर्थ ही है, उसने सीधा बहन से पूछा ।
"अब तो सोच सकते हैं न बेटा तेरे रिश्ते के बारे में? "
"नहीं भाई, अब तो बिलकुल नहीं ---भाभी से मेरी बात हो चुकी है। अगर मैं अपने प्रयत्न में असफल हो जाती तब तो सोच भी सकती थी परन्तु अब तो डॉ.श्रेष्ठी के साथ पी. एचडी करनी ही होगी । क्यों भाभी ?" दोनों की खिलखिलाहट ने वातावरण में प्रसन्नता और जोश भर दिया था ।
" यह तो मुझसे अन्याय हो रहा है!अब तो तुम दोनों मुझसे अपनी योजनाएं भी साँझा नहीं करतीं, क्यों ?" सत्यनिष्ठ ने शिकायत परोसी ।
“इस प्रकार अंकुश में रखना कहाँ की संगत बात है ? हर बात के पीछे कुछ कारण तो होता ही है, तुम जानते हो---बस उन पीछे के कारणों में झाँक लो, अपने आप पता चल जाएगा। "स्वरा ने मुस्कुराकर अक्षरा का पक्ष लिया।
स्वरा मानती थी कि प्रत्येक मनुष्य का सर्वप्रथम उसके जीवन पर स्वयं उसका अधिकार होता है । अक्षरा की चतुराई, बुद्धि, समझदारी, स्नेह सबको वह बहुत भली प्रकार समझने लगी थी और उसकी इच्छा थी कि उसकी छोटी बहन जैसी भगिनीवत ननद अपने जीवन को बिना किसी बोझ के जीए। अक्षरा को उसके परिश्रम का परिणाम इस बड़ी सफलता के रूप में प्राप्त हुआ था, स्वरा हर पल अक्षरा के साथ थी, प्रगति-पथ पर उसे अग्रसर देखने की इच्छुक!
" आप बहन की चिंता मत करिए, जो होगा अच्छे के लिए ही होगा | दुनिया में आए हैं तो श्वाँसों के रहते तक मनुष्य को जीवित रहना होता है, फिर अर्थपूर्ण जीवन क्यों न जीया जाए ? इसमें कोई संशय नहीं है कि अक्षरा दर्शन-क्षेत्र में अपना नाम और भी रोशन करेगी " स्वरा ने अक्षरा का पक्ष लिया।
डॉ सत्यविद्य श्रेष्ठी ! दर्शन का इतना बड़ा नाम !ज्ञान के भंडार! उनसे न प्रभावित होना संभव ही नहीं था । देश-विदेशों में दर्शन पर व्याख्यान के लिए जाना, साथ ही अपनी दर्शन पर लिखी जाने वाली महत्वपूर्ण पुस्तक के कारण उनके पास समय का बहुत अभाव था अत:अब वे कोई नया शोधार्थी लेने के पक्ष में नहीं थे । उन्होंने दर्शन की गहराई में उतरने के लिए अपने विश्विद्यालय में त्यागपत्र दे दिया था ।
विश्वविद्यालय में सत्याक्षरा व भक्ति का परिचय हुआ और बहुत शीघ्र प्रगाढ़ मित्रता में परिवर्तित हो गया । भक्ति राज्य के मंत्री की विदुषी बेटी थी जिसके पिता भी डॉ. श्रेष्ठी को अपना गुरु मानते थे । जीवन के एक ऐसे मोड़ पर प्रोफेसर ने उन्हें लड़खड़ाने से बचा लिया था जिसमें यदि वे संभल न पाते तो उनके लिए जीवन में बहुत कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जातीं ।
भक्ति की माँ स्वाति भी प्रोफेसर का बहुत आदर करती थीं । भक्ति ने जन्मते ही अपनी माँ को खो दिया था, उसके पिता ही माता-पिता थे तथा गुरु पथ-प्रदर्शक !एक प्रकार से श्रेष्ठी उसे अपनी बिटिया ही मानते थे । उन दिनों अक्षरा व स्वरा प्रतिदिन प्रो.श्रेष्ठी के 'चैंबर'के चक्कर लगाते रहते थे । अक्षरा की मित्रता के पश्चात भक्ति भी उनमें सम्मिलित हो गई और प्रोफ़ेसर को अन्य कोई छात्र न लेने का अपना प्रण तोडना ही पड़ा ।
" कोई विषय पसंद किया है ?" उन्होंने सत्याक्षरा से वैसे ही पूछ लिया था ।
"जी---" अक्षरा का चेहरा खिल उठा था । उनके प्रश्न को उसने बीच में ही लपक लिया था ।
"राजनीति में दर्शन सर ----"सत्याक्षरा के मुह से अचानक निकल गया, इस विषय पर वह वर्षों से चिंतन कर रही थी ।
" अरे वाह ! बहुत गहन विषय है--इतना विद्वत्तापूर्ण विषय का चयन कोई विद्वान ही कर सकता है, आपको सूझा कैसे?" अचानक उनके मुख-मंडल पर अक्षरा ने एक विश्वास देखा और उत्साह से भर उठी।
उल्लास के बंद वातायन में दस्तक हुई जिसकी झिर्री से झरती शीतल पवन ने
उसके चेहरे को स्निग्ध शीतलता से भर दिया, स्वप्न सत्य होने की कगार पर था ।
क्रमश..