tanabana - 15 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | तानाबाना - 15

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तानाबाना - 15

15

रवि का जब रिश्ता तय हुआ था, तब वह मुश्किल से पंद्रह साल का था और उसकी मंगेतर बारह या तेरह की रही होगी । यह विभाजन वाली आँधी न चलती तो दो साल पहले ही शादी और गौना निबट जाता । पर आजादी का आना तो किसी मुसीबत से कम न था, दंगो फसादों में लुटे - पिटे लाखों करोङो लोग भूख, गरीबी बेरोजगारी और बीमारियों से जूझ रहे थे । अपनी जन्मभूमि से बिछुङे लोग गहरे अवसाद के शिकार हो गए थे । महंगाई अलग जी का जंजाल बन गयी थी । काम मिलता न था और चीजें दुगुने भाव पर बिक रहीं थीं । लोग पुराने दिनों को याद कर रोते बिलखते । अंग्रेज राज को याद करते और नेहरु और गाँधी को गालियाँ देते । उन्हें लगता कि इन दोनों ने खुद राजा बनने के लिए उनके घर बार बेच दिए हैं और घर से बेघर कर यहाँ पराई धरती पर ला पटक दिया है मरने के लिए ।

ऐसे निराशावादी माहौल में बेटी की शादी सुख शांति से निर्विघ्न निबट गयी, इससे बङी बात परिवार के लिए क्या हो सकती थी । सीमित साधनों में जैसे तैसे कन्यादान कर प्रीतम गिरि और सरस्वती ने गंगा नहा ली ।

दुल्हन बनकर घर्मशीला को गजब का रूप चढा था । वह अब चौदह - पंद्रह साल की हो चली थी । एकदम खिलता हुआ गेहुँआ रंग, लगता किसी ने बाहों, हाथों - पैरों पर मुट्ठी भर कर अब्रक छिङक दी हो । उस पर गजब ढाती उसकी बङी बङी आँखें । लंबे घने काले बाल जब तक चोटी में बंधे रहते, कमर पर नागिन की तरह इधर उधर डोलते रहते और जब खुल कर कमर पर फैल जाते तो घुटनों तक छू जाते । पङोसने छू कर देखना चाहती तो नववधु डर और शरम से सिकुङ जाती । नानी के तेल पिला कर पाले बाल थे, कोई मजाक थोङा था । वहाँ तो नानी ही सिर धोती, नानी ही तेल डाल मीडियाँ कर चोटी गूँथती, यहाँ पहले ही दिन बाल सँवारने बैठी तो बालों में कंघा ही गुम कर लिया । भला हो नाईन काकी का जो मौके पर आ टपकी और उसके बाल सँवार दिए ।

अगले दिन सारे मौहल्ले में नयी दुल्हन के रूप और गुण के चर्चे घर घर आम हो गए ।

धर्मशीला कढाई, सिलाई, बुनाई सब में माहिर थी । मायके में पूरा दिन बहन भाइयों से घिरी चंचल हिरणी की तरह हँसती –खेलती रहती, यहाँ ससुराल में ले देकर एक सास थी जो पूरा दिन काम में उलझी रहती, एक चाचीसास जो सज सँवर कर पूरा दिन चारपाई पर बैठी हाथ से पंखी झलती रहती । पंखी झलते थक जाती तो लेट जाती । सिर्फ खाने के लिए उठती । एक चाचा ससुर थे जिनसे घूँघट निकालना होता और उस पर रब की मार यह कि चाचा को घर पर ही बच्चों को पढाना होता । बाहर कभीकभार ही जाते,वह भी थोङी बहुत देर के लिए । दो दिन में ही वह हाल से बेहाल हो गयी । तीसरे दिन चौका पूजन होना था, दुरगी नहला धुला कर उसे चौके में ले गयी – खीर बना लेगी न । चूल्हा पूजन के बाद चावल, दूध और बूरा थमाकर वह चौके से बाहर गयी । धर्मशीला ने खीर चढाने के लिए एक पतीला उठाया तो चीख उठी । घबराहट के मारे पतीला हाथ से छूट गया और सारी सब्जी हर जगह बिखर गयी । चीख मारकर वह बाहर भाग गयी । सीधे नाली पर पहुँची । लगातार तीन चार उल्टियाँ कर डाली । और रोती हुई सीधे कमरे में जाकर अंदर से कुंडी चढा ली । उसकी सिसकियाँ सुबकियाँ बढती जाती । वह घंटों रोई । दुरगी और मुकुंद दरवाजा खुलवाने की कोशिश कर करके हार गये पर दरवाजा नहीं खुला । रवि को ढूँढा गया । वह एक शिवालय की सीढियों पर बैठा हुआ मिला । उसे पकङ मँगवाया गया । रवि के आवाज देने पर करीब तीन घंटे बाद दरवाजा खुला । धर्मशीला की आँखें रतनजोत जैसी लाल हुई पङी थी । डर से चेहरा पीला पङ गया था । किसी ने उसे न छेङा, न बुलाया । उसे उसी तरह बैठे छोङ दुरगी ने चौका धोया पौंछा । सारे बरतन साफ किये तब जाकर खाना तैयार हुआ । सास की बनी मीठी रोटी में उसका हाथ लगवा कर रसम पूरी कर ली गयी । सबने खाना खाया पर नयी दुल्हन के गले से पानी की घूँट नीचे न गयी । जब थोङा संयत हुई तो उसने सास से पूछा – क्या तुम लोग राक्षस हो ? सुन कर हँसी का वह दौर चला कि पूछो मत ।

मुकुंद ने सिर पकङ लिया - लङका तो पागल था ही, ये बहु महापागल है ।

बेचारी नयी नवेली दुल्हन सोचती रह गयी कि उसने क्या गलत कह दिया । आज तक उसने जितने भी ग्रंथ पढे, सब में यही तो लिखा है, चाहे रामायण, चाहे भागवत .चाहे पुराण सभी में कि जो राक्षस होते हैं, वे मांस खाते हैं । देवता और मानव शाकाहारी होते हैं । ये लोग .... ।

शाम को उसने पति से यही सवाल पूछा – तुम लोग राक्षस हो ?

रवि ने अचकचा कर उसे देखा।

वो सब्जी

तुझे नहीं खाना, मत खा । चाचा को टी बी है । वैद्य ने दवा बताई है । इसलिए उन्हें खाना पङता है ।

आप उसे नहीं खाना ।

ठीक है । नहीं खाउँगा । पर तू रोना बंद कर ।

दोनों ने एक दूसरे की बात मान ली और ताउम्र निभाई पर धर्मशीला से दो दिन खाना नहीं खाया गया । पूरे पचास घंटे बाद जब उसके भाई, ताया के दोनों बेटे पगफेरे के लिए लेने आए तो उसकी जान में जान आई वरना तो उसे लगता रहा कि वह अशोक वाटिका में राक्षसों से घिरी बैठी है । भाइयों को शाम वाली लाहौरी से वापस लौटना था सो बैग, पेटी तैयार होने लगे । पाँच बजे तांगा आया और तीनों को स्टेशन छोङ आया । रेल चली तो उसने सुकून की सांस ली ।