भ्रुगू मुनि की कथा
एक बार मंदराचल पर्वत पर यज्ञ हो रहा था और यज्ञ के दौरान वहां उपस्थित ऋषि-मुनियों में यह चर्चा चली कि सर्वाेच्च रूप् से किन देवता की पूजा की जाए? क्येां कि गणेश तो सर्वमान्य थे। दूसरे सर्वाेच्च देवता के रूप में देवताओं के त्रिदेव यानी ब्रह्मा विष्णु महेश इनमें से बड़ा कौन है ,? यानी गुणवान-धैर्यवान कौन है? ऐसे देवता के रूप में किस की मानता की जाए ?
वहां उपस्थित सारे ऋषि मुनि तीन हिस्सों में बंट गए- कोई ब्रह्मा को बड़ा बताता था, तो कोई विष्णु को और कोई महादेव यानि शिव को बड़ा बताता था। तब यह निर्णय किया गया कि तीनों देवताओं की विधिवत परीक्षा की जावे और परीक्षा के बाद ही उनसे जो प्रतिक्रियाएं मिले,ं उनको आधार मानकर देवताओं के बड़े छोटे यानी सर्व श्रेष्ठ होने का दर्जा दिया जावे । अब समस्या यह थी कि देवता बहुत बड़े थे तीनों के ना प्रेम का ठिकाना, ना गुस्से का, तो परीक्षा कौन लेगा ?
तब सब लोगों ने महर्षि भृगु का चयन किया, क्योंकि वे बड़े बुद्धिमान थे और अपनी बुद्धि के प्रयोग करने की बड़ी क्षमताएं भी थी। उनमें भी मंत्र ज्ञान जानते थे और जब अध्यात्म और धर्म की बात चलती थी, तो भुगु मुनि के उपदेश सबको बहुत योग्य दिखाई देते थे। .ऋशियों ने महर्षि भृगु से निवेदन किया कि आप ही जाओ, आप ही सबके बारे में परीक्षण करके सारे मुनियों के समक्ष यह रहस्य उद्घाटित करो कि कौन श्रेष्ठ है ?
महर्षि भृगु ने अपने समाज और अपने मित्रों का दिया हुआ यह उत्तरदायित्व संभाल लिया। हालांकि उनका मन नहीं था कि वे विश्व के सबसे बड़े देवताओं की परीक्षा करें, लेकिन समाज सबसे बड़ा होता है ।
मंदराचल पर्वत से भृगु मुनि चले तो सबसे पहले महादेव जी के पास पहुंचे । कैलाश में शिव जी की कुटिया के बाहर नदीगण खड़े हुए थे और भृगु मुनि को रोकते हुए उन लोगों ने कहा कि महादेव महादेवी के साथ अपने भीतर के महल में अंतरपुर में निजी चर्चाएं कर रहे हैं और यह समय उनका बहुत निजी समय होता है ,किसी भी ऋशि मुनि और देवता को अंदर जाने की इजाजत नहीं है । लेकिन भृगु मुनि नहीं माने, वे महादेव से मिलने को चीखते चिल्लाते रहे ,गुस्सा होते रहे , पर आवाज भीतर जाने के बाद भी महादेव यानि शिव बाहर नहीं आए। तो अंततः वहां से गुस्सा होकर रघु निकल पड़े ।
वे ब्रहमलोक की ओर चल पड़े क्योंकि ब्रह्माजी ब्रह्मलोक में रहते थे। जब वे ब्रहमलोक में पहुंचे तो उन्हें अंदाजा था कि ब्रह्मा के बेटे होने के नाते उन्हें सीधा सीधा ब्रहमाजी के निवास पर प्रवेश मिल जाएगा । लेकिन ब्रहमा जी के सेवकों ने भी भृगुु को भीतर जाने से साफ मना कर दिया तो फिर उनका गुस्सा सातवें आसमान पर था । वे बोले कि मैं ना केवल ब्रह्मा जी का बेटा हूं बल्कि में इस समय सारे ऋषि मुनियों ,बुद्धिजीवियों और विश्व की जनता का प्रतिनिधि हूं।
लेकिन ब्रह्मा जी के पार्षदों ने और निजी सेवकों ने ब्रह्मा जी के खास बेटे भृगु को भी भीतर जाने की इजाजत नहीं दी तो वह अपने पिता यानी कि ब्रह्मा जी से भी क्रोधित हो गए।
अब वे अपना विमान क्षीर सागर की ओर ले जा रहे थे जहां विष्णु जी रहते थे । उन्होंने देखा कि खुले समुद्र में क्षीरसागर यानी दूध के समुद्र में शेषनाग द्वारा कुंडली मार कर बनाई गई सैया पर विष्णु जी अध लेटे हो कर आराम कर रहे हैं और उनकी पत्नी लक्ष्मी दबा रहे हैं। भृगु जी को दूर से आते देखकर विष्णु जी के द्वारपालों ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो विष्णु जी ने कहा कि भृगु मुनि को आने दो, उन्हें रोकने की आवश्यकता नहीं है, तो लक्ष्मी जी ने कहा कि पति-पत्नी जब साथ हो तो बाहर का कोई भी व्यक्ति भीतर नहीं आना चाहिए तो विष्णु भगवान ने कहा कि भृगु तो हमारे बड़े बुद्धिमान मुनि हैं। जब भी खुद पति पत्नी के साथ वाले ऐसे क्षणों में भीतर आना चाहते हैं तो उन्हें क्यों रोका जाए । विष्णु जी की इच्छा को देख कर सारे पार्षदों ने भृगु मुनि को छीर सागर में विष्णु जी की सैया के पास आने की इजाजत दे दी ।
जब विष्णु भृगु मुनि विष्णु जी के पास आकर खड़े हुए तो ना तो विष्णु जी ने खड़े होकर उन्हें प्रणाम किया ना ही लक्ष्मी जी ने पांव दबाना बंद किया । भृगु मुनि बोले- हे विष्णु तुम्हें बड़ा अभिमान है कि तुम इस संसार का पालन पोषण करते हो लेकिन तुम मुझे नहीं जानते कि मैं कितना बुद्धिमान हूं , वेदों के बहुत सारे मंत्र मेने हीं लिखे हैं, मैंने ही ज्योतिष की गणना की है और मैं ही व्यक्ति के भूत भविष्य वर्तमान की सारी बातें बता सकता हूं।
लेकिन उनकी बातों का विष्णु जी ने कोई जवाब नहीं दिया, अब रघु को गुस्सा आ गया, अपनी बात का जवाब ना देने वाले और लेटे हुए विष्णु से उन्होंने गुस्सा होकर तमक कर उनकी छाती में एक लात लगा दी।
विष्णु जी की छाती में भृगु मुनि का पैर पड़ा तो सारी दुनिया हिलने लगी । लक्ष्मी जी तुरंत कोई तो कर गुस्सा होकर बोली -हे मूर्ख ब्राह्मण, तूने संसार के पालनहार प्रभु को चरण घात किया है । तूने लात से प्रहार किया है। जा मैं तुझे श्राप देती हूं कि सारे ब्राह्मण हमेशा कंगले रहेंगे, भूखों मरते रहेंगे ।
अचानक विष्णु ने लक्ष्मी को रोका - हे लक्ष्मी जी, तुम इन को श्राप क्यों देती हो और इन के बहाने सारे ब्राह्मणों को क्यों अभिशापित कर रही हो । बहुत बड़ी गलती की तुमने यह इस समय यहां ब्राह्मण या कोई सामान्य व्यक्ति नहीं है इनको विश्व के सारे बुद्धिजीवियों ने अपना प्रतिनिधि परीक्षक बनाकर हम तीनों महादेवताओं की परीक्षण हेतु भेजा है ।
जब यह बात लक्ष्मी जी ने सुनी तो वे चुप रह गई उधर विष्णु जी ने हाथ जोड़कर भृगु मुनि से कहा कि- हे महाराज, आप के पांव बहुत मुलायम हैं, आपके चरण कमल बहुत मृदुल हैं, मेरा हृदय वज्र का है ,आपने इस वज्र में अपना पांव मार दिया है, देखिए आपके पैर में चोट तो नहीं लग गई ?
भृगु मुनिु ने जब ऐसा सुना तो वे तो मानो आसमान से गिरे थे ।
उन्होंने कहा हे प्रभु मैंने आपका इतना अपमान किया और आप मेरे हाथ जोड़ रहे हैं, मैं कितना अभिमानी हूं ! मुझे माफ करें !
प्रभु विष्णु जी ने कहा कि - हे ब्राहमण महाराज आपका यह चरण चिन्ह एक पुरस्कार की तरह सदैव मेरे वक्ष स्थल पर विराजमान रहेगा । मैआप ं विद्वानों और बुद्धिजीवियों का ं सम्मान करता हूं। यह चिन्ह हमेशा यह बताएगा भृगु मुनि ने मुझ पर कृपा की है।
बारंबार विष्णु जी का प्रणाम करते हुए वापस मंदराचल पर्वत चले गए और जाकर उन्होंने घोषणा की कि हमेशा विष्णु ही सर्वश्रेष्ठ रहेंगे ।
उन्होंने यह भी कहा कि अपनी पत्नी के साथ बतियाते रहे और मुझसे आकर मिले नही इसलिए शिव के केवल लिंग की पूजन होगी और अपनी पत्नी के साथ महल में बैठे ब्रह्मा दुनिया में कहीं भी पूजे नहीं जाएंगे ,सब जगह विष्णु के मंदिर होंगे और विष्णु की ही पूजन होगी ।
उनकी बात में को हां में हां मिलाते हुए सभी मुनियां विषयों ने कहा हां ऐसा ही होगा दुनिया में सारी पूजा सारे यज्ञ ऋषि मुनि ही कराते थे तब से यह प्रचलन बढ़ गया कि विष्णु ही सब जगह पूजे जाने लगे ।
इधर जब भृगु मुनि के पिता प्रचेता और दादाजी मरीचि मुनि ने सुना कि भृगु मुनि ने जाकर विष्णु को लात मार दी है तो बड़े गुस्सा हुए उन्होंने भृगु मुनि से कहा - तुमने बहुत बड़ी गलती की ह।ै अब तुम जाओ और अपनी पत्नी के साथ लंबी तपस्या करो , तभी तुम्हारे इस पाप का क्षय होगा। तब भृगु मुनि अपनी पहली पत्नी पौलमी के साथ सुशा नगर से चलकर गंगातट पर बलिया आए और वहां उन्होंने पत्नी के साथ शिक्षक बन के शिष्यों को शिक्षा देना आरंभ किया। उन्होंने अपने गुरुकुल का निर्माण किया और अपने हजारों शिश्यों को विभिन्न धर्म, कर्म, ज्ञान, नीति और विवेक की शिक्षा देना आरंभ किया। उनके प्रसिद्ध शिश्य दर्दरी ने प्रयास करके मार्ग बदलती गंगा के उस बलिया के तट को पानी से पल्लवित करने के लिए सरयू की धारा को वहां तक खींचकर लाए थे जहां ऋषि का आश्रम था। आज भी उस जगह ददरी का मेला लगता है। भृगु मुनि द्वारा बनाई गई ज्योतिष की सबसे बड़ी किताब भृगु संहिता को बहुत सारे ज्योतिशी सबसे प्रामाणिक पुस्तक मानते हैं और भृगु मुनि को याद करते हैं।
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