उजाला ही उजाला
पवित्रा अग्रवाल
जैसे ही मैं अस्पताल के पास पहुंचा मि. सरीन मुझे अस्पताल के मुख्य द्वार पर ही मिल गए. उनके चहरे पर संतोष के भाव उभर आये थे. वह बोले –‘बेटा डाक्टर ने जितने टैस्ट कराये थे, सब की रिपोर्ट आगई है. शायद तुम्हें पता भी हो कि अब तुम्हारा गुर्दा मेरे बेटे को लगाया जा सकता है. हो सकता है तीन – चार दिन में ही ऑपरेशन भी हो जाये. डॉक्टर साहब अभी थोड़ी देर में आते ही होंगे. आप जाकर अन्दर बैठो. वह आज ओप्रेशनकी तारीख बताएँगे. ’
जितनी जल्दी मि. सरीन को है उतनी ही व्यग्रता से मुझे भी आप्रेशन की तारीख का इंतजार है क्यों कि इस से मेरे भी अनेक सपने जुड़े हैं. जब से दुर्घटना में मैं ने अपना हाथ खोया है तब से मैं बहुत परेशान रहा हूँ. जीने की चाह ही जैसे समाप्त हो गई है. घर परिवार के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ हो गया हूँ. इस दुर्घटना की वजह से मेरा हाथ ही नहीं मेरी नौकरी भी चली गई. एक अपाहिज बेरोजगार आदमी जो अपने परिवार पर बोझ बन गया हो,वह खुश कैसे रहा सकता है ?
लक्ष्मी मेरी पत्नी जिस से मैंने प्रेम विवाह किया था, साथ जीने मरने की कसमे खाई थीं,आज परिवार की गाड़ी खीचने का काम अकेले उसके कन्धों पर आ पड़ा है.. फिर भी मेरे सामने हर समय खुश दिखने का प्रयास करती है. कभी घर ग्रहस्थी,बच्चों का भविष्य, आर्थिक परेशानियों का रोना लेकर मेरे पास नहीं बैठती. किन्तु मेरी निराशा,मेरे मन में व्याप्त अशान्ति व बेचैनी उसे भी चैन से नहीं रहने देतीं. मुझे उदास देख कर वह भी उदास हो जाती है.
एक सप्ताह पहले ही उसके पूँछने पर कि इतना उदास क्यों बैठे हो ?’मैं अपने को रोक नहीं पाया. न चाहते हुए भी मुंह से निकल गया – ‘एक ठलुआ, बेरोजगार,अपाहिज आदमी जो अपने परिवार के लिए नकारा हो गया है,उससे खुश रहने या दिखने की उम्मीद कैसे की जा सकती है लक्ष्मी ?’
वह आँखों में आंसू भर लाई थी – ‘तुमने कैसे समझ लिया कि तुम घर या मेरे लिए नकारा हो गए हो ? दुर्घटनाएं किस के साथ नहीं होतीं ? पर जिन्दगी से इस तरह हार तो नहीं मान लेते... यह दुर्घटना मेरे साथ भी हो सकती थी. तुम्हारा बस एक हाथ ही तो गया है... अपने से ज्यादा दुखी और लाचार लोगों को देखो तो खुद को उन से लाख गुना बेहतर पाओगे. सोचो उन के बारे में जो जन्म से ही द्रष्टिहीन हैं या बाद में अन्धता के शिकार हो गए हैं... सोचो उन के बारे में जो बोल और सुन नहीं सकते. सोचो उनके बारे में जो चल नहीं सकते या दोनों हाथ खो चुके हैं. क्या तुम्हें नहीं लगता कि उनकी तुलना में तुम्हें कुछ भी नहीं हुआ है. तुम ढंग से चल व दौड़ सकते हो,देख सुन सकते हो. भगवान की कृपा से तुम्हारा एक हाथ सलामत है,अपना सब काम तुम खुद ही कर लेते हो. धीरे धीरे लिखने व कुछ दूसरे काम जिन्हें बांये हाथ से काम करने की तुम्हें आदत नहीं है वह भी अभ्यास करने से आदत में आजायेंगे. रही बात नौकरी की.... नहीं मिलती तो कोई बात नहीं. अपनी एक छोटी सी दुकान खोल लेंगे लेकिन हर काम में समय लगता है. दुर्घटना हुए अभी एक वर्ष भी तो पूरा नहीं हुआ,तुम अभी से मायूस होने लगे हो. ’
इस तरह से वह मुझे सांत्वना देती रहती है. मेरा मनोबल बढ़ाने और मेरे आत्मविश्वास को लौटाने के लिए वह अक्सर मुझे समझाती रहती है. कभी कभी मैं उसे भी झिड़क देता हूँ... फिर पछताता हूँ कि उसने एसा कुछ नहीं कहा था जिस पर नाराज हुआ जा सके. किन्तु उस दिन मैं उसकी इन बातों पर चिड़ा नहीं था बल्कि उसे छेड़ा था –‘तुम लैक्चर बहुत अच्छा दे लेती हो तुम्हें हाईस्कूल में टीचर नहीं डिग्री कालेज में लैक्चरार होना चाहिए था ‘ वह हँस कर चाय बनाने चली गई थी.
उसे कैसे समझाऊँ कि लाख चाहने पर भी यह विचार,ये अंतरद्वन्द मेरा पीछा नहीं छोड़ते. खाली बैठे उल्टे सीधे विचार मकड़ी के जाल की तरह मुझे चाहे जब अपनी गिरफ्त में ले लेते हैं. उद्देश्यहीन जीवन किस काम का ?... यह कहना गलत होगा कि जीवन में कोई उद्देश्य हैं ही नहीं. उद्देश्यों की कमी नहीं है. पांच और सात वर्ष की दो बेटियां हैं. उनको पढ़ा लिखा कर योग्य बनाना... बाद में अच्छे घर वर देख कर उनका विवाह करना है... क्या यह जिम्मेदारियां जीवन का उद्देश्य नहीं हैं ? सच कहूं तो यही उद्देश्य था. इन्ही उद्देश्यों के लिए जीना,कुछ करना सार्थक लगता था पर लगता है अपना दायित्व निभाने में मैं अक्षम हो गया हूँ. यही अक्षमता,जीने की लालसा को समाप्त किये दे रही है. क्यों जियूं,किस के लिए जियूं ? यही सवाल प्रश्नचिन्ह बन कर सामने खड़े हो जाते हैं. ऐसी परेशानियों में घिर कर लोग सिगरेट,शराब की लत लगा लेते हैं. मेरा भी मन करता है किन्तु मैं ने तो लंच के बाद एक पान खाना,दिन में दो सिगरेट पीना तथा महीने में एक दो बार बीयर पीने जैसे शौक कहूँ या आदत को भी छोड़ दिया है. पत्नी को आर्थिक मदद तो नहीं कर पाता पर अपने फालतू के शौकों पर होने वाले खर्चे तो रोक सकता हूँ.
लक्ष्मी के बार बार समझाने से जीवन में कुछ करने की चाह व उस चाह को पूर्ण कर पाने का आत्मविश्वास मन में पैदा होने लगा है. लक्ष्मी ने कितनी ही बार दोहराया है की न सही नौकरी,अपनी छोटी सी दुकान खोल सकते हैं ’ मुझे भी लगता है दुकान मैं आराम से संभाल सकता हूँ. अपने घर के तीन कमरों में से एक कमरे को दुकान के रूप में स्तेमाल किया जा सकता है. घर के आस पास काफी बस्ती है किन्तु पास में कोई दुकान नहीं है. छोटे छोटे सामान के लिए दूर बाजार जाना पड़ता है. एक छोटा सा प्रोवीजनल स्टोर खोल लिया जाए तो निश्चय ही अच्छा चलेगा. मदद के लिए एक लडके को काम पर रखा जा सकता है.
किन्तु अड़चनें यहाँ भी हैं. कमरे को दुकान में बदलने व व्यापार शुरू करने के लिए भी धन की जरुरत होती है. बाप दादा से विरासत में मिला यह मकान पिता जी को बहन की शादी के समय गिरवी रखना पड़ा था जो अभी तक छुड़ाया नहीं जा सका है. जो जमा पूँजी थी वह मेरे इलाज में खर्च हो गई. कहीं से तीस-पैंतीस हजार रुपयों की व्यवस्था हो जाए तो फिर मैं सब सम्हाल लूँगा. हर दम सोते-जागते, उठते-बैठते बस एक ही विचार मन को घेरे रह्ता है कि कहीं से तीस – पैंतीस हजार का कर्जा मिल जाये. भगवान ने चाहा तो अब इन रुपयों का इंतजाम हो जायेगा. गुर्दा देकर चालीस हजार रुपयों का इंतजाम हो जायेगा... इस बात से मैं बहुत खुश हूँ. सोचता हूँ वह दिन भी कितना शुभ था जिस दिन मैं विचारों में उलझा सुबह सुबह लम्बी सैर पर निकल गया था, घूमते घूमते जब थक गया तो गार्डन की एक बैंच पर बैठ कर सुस्ताने लगा था. गार्डन से बाहर का नजारा भी दिख रहा था. तभी मेरे पास एक आदमी आकर बैठ गया था. बात करने की गरज से मैं ने उससे ऐसे ही पूछ लिया था कि गार्डन के बाहर बनीं उस इमारत पर इतनी भीड़ क्यों है ?’
उस आदमी ने बताया था कि वहां एक ब्लड बैंक है. लोग वहां अपना खून बेचते हैं. ’
‘खून बेचते हैं ? लेकिन क्यों ?’ ‘ये लोग रुपयों के लिए खून बेचते हैं. खून बेचना अब इनका धंधा बन गया है. कुछ शराब के लिए,कुछ ड्रग्स के लिए,कुछ रोटी के लिए अपना खून बेचते हैं. इन में बहुत से तो भिखारी हैं. ’
‘यह लोग पैसों के लिए खून बेचते हैं ?’ मैं आश्चर्य में था.
‘ये तो खून बेच रहे हैं. पैसे के लिए तो लोग शरीर के अंग भी बेच देते हैं’
‘धन के लिए स्त्रियों द्वारा शरीर बेचने की बात तो सुनी थी किन्तु धन के लिए अंग बेचते हैं यह बात मेरी समझ में नहीं आई. ’
‘दूसरों की कौन कहे मैं ने ही धन के लिए अपना गुर्दा बेचा है. बेटी की शादी के लिए मुझे धन की जरुरत थी. जो कमाया था वह बच्चों की परवरिश व पढ़ाने - लिखाने में खर्च होता रहा …. बेटे को तो होस्टल में रख कर पढाया था, सोचा था जब वह कमाने लगेगा तो पहले बेटी की शादी करूंगा फिर बेटे की नौकरी लगते ही बेटे ने साथ में काम करने वाली लड़की पसंद करली और मुझे भी समझाया कि ‘बाबू जी कामकाजी लड़की से शादी करना अपने परिवार के हित में रहेगा. हम दोनों कमाएंगे और आप की मदद करेंगे. अब तक आपसे लेता ही रहा हूँ... अब अपना फर्ज निभाने का समय आया है. देखना अपनी बहन की शादी कैसे धूम धाम से करता हूँ. ’
बेटे की शादी की... लोग बेटियों को बोझ कहते हैं,मेरे लिए तो बेटे की शादी भी बेटी की शादी की तरह ही भारी पड़ी. जो कुछ गहने,कपड़े और धन पत्नी ने बेटी की शादी के लिए जोड़ कर रखे थे वह सब बेटे की शादी में खर्च हो गया... बहु जो कुछ लाई थी वह तो बहू का था ही,शादी के कुछ दिन बाद ही बेटा पत्नी को लेकर अलग हो गया. बहन की शादी में भी कोई मदद करने को तैयार नहीं था. अकेले में आकर खूब रोया था ‘बाबूजी यदि बहन की शादी में मैं ने मदद की तो वह मुझे छोड़ कर अपनी माँ के घर चली जायेगी और हम सब को दहेज़ के लालच में सताने के जुर्म में जेल के अन्दर करा देगी... ऐसी धमकियां वह मुझे दे रही है,उससे छिपी मेरी कोई आमदनी नहीं है.. मैं आप की कैसे मदद करूं ?’
बेटे से क्या कहता... अपना गुर्दा बेच कर मुझे चालीस हजार मिले थे,उस से बेटी की शादी में बहुत मदद मिली.
‘अपना गुर्दा तुम ने किसको बेचा ? उसके बिना तुम जीवित कैसे हो ? ‘
‘लगता है तुम्हें इस विषय में कुछ भी नहीं मालूम. पहले मुझे भी कुछ नहीं मालुम था. यह भी पता नहीं था कि गुर्दा क्या होता है ?... मेरे एक परिचित ने अपना गिरवी रखा मकान छुड़ाने के लिए अपना गुर्दा किसी को दिया था. उसी ने बताया था कि हरेक के शरीर में दो गुर्दे होते हैं. किसी भी आदमी को जीने के लिए एक गुर्दा काफी होता है. दूसरा गुर्दा तो स्टेपनी की तरह होता है. किसी वजह से एक गुर्दा काम करना बंद करदे तो दूसरे गुर्दे के सहारे आदमी जीवित रह सकता है. परेशानी तब पैदा होती है जब दोनों गुर्दे ख़राब हो जाते हैं... ऐसी स्थिति में यदि मरीज को किसी स्वस्थ व्यक्ति का एक गुर्दा लगा दिया जाए तो वह जिन्दा रह सकता है... डॉक्टर साहब ने मेरा गुर्दा निकाल कर एक औरत को लगा दिया था. मरीज के घरवालों ने मुझे चालीस हजार रुपये दिए थे. ’
मैंने पूछा ‘इस से गुर्दा दाता की जान को तो कोई खतरा नहीं होता ?’
‘खतरा कहाँ नहीं है ?... गुर्दा निकालने के लिए भी बड़ा आप्रेशन करना पड़ता है. वैसे मेडिकल साइंस ने बहुत प्रगति करली है फिर भी ओप्रेशन तो ओपरेशन ही होता है. कुछ प्रतिशत खतरा तो रहता ही है.... पर मैं तो स्वस्थ हूँ... छह –सात दिन बाद हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई थी... बदले में मिले धन से मेरा काम भी चल गया था और मेरी वजह से किसी को नया जीवन भी मिल गया था. ’
पैसे की मुझे भी जरुरत थी. उस आदमी से पूरी जानकारी ले कर मैं भी अस्पताल पहुँच गया और अपना गुर्दा देने की इच्छा व्यक्त की. उन्होंने मेरा नाम, पता लिख लिया. डॉक्टर ने रक्त परीक्षण के बाद जब मेरा ब्लड ग्रुप देखा तो बोले हो सकता है तुम्हारा गुर्दा मेरे मरीज के काम आजाये... तीन महीने से मरीज डायलेसिस पर है. इस ब्लड ग्रुप का डोनर नहीं मिल रहा था. यदि गुर्दा दान करने का तुम्हारा इरादा मजबूत है तो अभी कुछ परीक्षण और कराने पड़ेंगे. ’
मेरी स्वीकृति पाकर उन्होंने कुछ और परीक्षण कराये और पाया कि मेरा गुर्दा उस मरीज को लग सकता है. अब तक मैं निराशाओं की बंद गुफा में कैद था. उजाले की किरण तो अब दिखी थी. मरीज के घर वाले चालीस हजार देने को तैयार थे. मेरा मन योजनायें बनाने में डूबा था की पहले गिरवी रखा मकान छुड़वाऊँगा बाकी के रुपयों से घर पर छोटी सी दुकान खोलूँगा. सोचा था इस विषय में पत्नी को कुछ नहीं बताऊँगा. कह दूंगा सात आठ दिन के लिए गाँव जारहा हूँ. आज ओप्रेशन की तारीख पता करने ही यहाँ आया था.
डाक्टर साहब आगये थे,उन्होंने आप्रेशन की पांच तारीख बताई थी और कहा था चार तारीख की रात को ही तुम्हें अस्पताल में दाखिल हो जाना है. एक दो परीक्षण अभी और करने हैं. पांच की सुबह आप्रेशन द्वारा तुम्हारा गुर्दा निकाल कर मरीज को लगा दिया जायेगा. लेकिन आपरेशन से पहले तुम्हारे रिश्तेदार माँ,बाप या पत्नी किसी एक का यहाँ रहना जरुरी है. उनकी स्वीकृति के बिना हम तुम को हाथ भी नहीं लगायेंगे. ’
मैं परेशान होगया, अब तक पत्नी को तो इस विषय में कुछ पता ही नहीं है पर अब तो उस को बताना ही पड़ेगा और वह इसके लिए किसी दशा में राजी नहीं होगी... उससे बात करना बड़ा मुश्किल नजर आ रहा था. तीन दिन इसी उलझन में निकल गए. जिस दिन मुझे भरती होना था उस दिन बड़ी हिम्मत जुटा कर मैं ने भूमिका बांधी थी – ‘लक्ष्मी मुझे एक जगह से चालीस हजार रुपये मिल रहे हैं,उन से हम अपना मकान छुड़ा लेंगे और दुकान भी खोल पायेंगे. ’
जब उसे पता चला कि रुपयों के बदले मुझे अपना गुर्दा निकलवा कर दूसरे मरीज को देना होगा तो रो रो कर उसने बुरा हाल कर लिया और बोली ‘नहीं चाहिए मुझे चालीस हजार,हम रुखी – सूखी खा कर गुजारा कर लेंगे. मुझे और मेरे बच्चों को तुम्हारी जरुरत है. तुम्हारे बिना हम जीते जी मर जायेंगे. ’
मैं उस आदमी को भी घर लाया जो दो साल पहले अपना गुर्दा दे चुका था. उसने भी मेरी पत्नी को बहुत समझाया किन्तु उस पर किसी के समझाने का असर नहीं हुआ तो मैं ने उसे धमकी दी ‘देखो लक्ष्मी मेरे मन की दशा तुम्हें नहीं मालुम. कई बार आत्महत्या का विचार मेरे मन में आचुका है किन्तु मैं ने तब खुद को सम्हाल लिया. तुम मेरी घुटन... मेरी तड़प को नहीं समझ पा रहीं. मैं अंधेरों में जी रहा हूँ,रोशनी की एक किरण मुझे दिखी है. यदि तुम ने उसे भी रोक लिया तो नहीं मालुम अवसाद के उन क्षणों में मैं कब क्या कर बैठूँ. ’
असल में यह धमकी थी भी नहीं,मेरे मन की सच्ची दशा थी. पत्नी एकदम से घबड़ा गई – ‘तुम यह क्या कह रहे हो ? क्या तुम्हारा जीवन इतना सस्ता है ?... मात्र चालीस हजार रुपयों के लिए उसे दाव पर लगा दोगे ?... कोई डेढ़ दो लाख दे रहा हो तो सोचती भी ’
मैं जानता हूँ उसने भी अंधेरे में तीर छोड़ा है. वह जानती है डेढ़ दो लाख रुपये कोई छोटी रकम नहीं होती है,इतने कौन देगा ?... इस तरह वह मुझे रोक लेगी.
किन्तु उसकी यह बात मुझे ठीक लगी. मेरी आँखों के सामने पच्चीस वर्ष का नाजुक सा युवक घूम गया. जो लखपति बाप का इकलौता पुत्र है. तीन वर्ष पूर्व ही उसकी शादी हुई थी,दो नन्ही मासूम बच्चियों का पिता है. बीस बाईस वर्ष की सुन्दर सी बीबी है उसकी. उसके चेहरे पर हरदम उदासी छाई रहती है. मुझे मालूम है उस मरीज के माँ बाप अपना शहर छोड़ कर दूसरे प्रान्त के इस अजनवी शहर में बेटे के इलाज के लिए तीन महीने से पड़े हैं. वे इतने समर्थ हैं कि दो लाख भी दे सकते हैं.
मैंने लक्ष्मी से कहा—‘मुझे तुम्हारी बात मंजूर है यदि वे लाख – सवा लाख देने को तैयार हो गए तो ही अपना गुर्दा दूंगा वरना ना कह दूंगा. ’
शाम को मुझे अस्पताल में दाखिल होना था पर मैं नहीं गया. मुझे मालुम था वे लोग मुझे ढूढेंगे. शायद मेरे दोस्त के यहाँ भी गए हों जिसका पता मैं ने अस्पताल में (मुझ से संपर्क करने को) दिया था किन्तु मेरा वह दोस्त सपरिवार शहर से बाहर गया हुआ है. रात को मैं आराम से घर पर सोया. दूसरे दिन मैं सुबह अस्पताल पहुंचा तो मरीज के घरवालों को बहुत परेशान पाया. मुझे देखते ही सब इस तरह खुश हो गये जैसे खोई हुई अमूल्य वस्तु मिल गई हो.
मरीज की माँ बोली –‘बेटा कल तुम कहाँ चले गए थे ? तुम्हें न जाने कहाँ कहाँ ढूँढा,इस समय तक तो ओप्रेशन भी हो चुका होता. जल्दी से चल कर एडमिट हो जाओ ’
‘नहीं माता जी मैं अपना गुर्दा नहीं दे सकता... मेरी पत्नी ने रो रो कर बुरा हाल कर लिया है. वह नहीं चाहती की पैसों के लिए मैं अपनी जान खतरे में डालूँ ‘
‘यह तुम क्या कह रहे हो बेटा ? अंत समय में धोखा मत दो,चाहिए तो कुछ रुपये ज्यादा ले लो... मना मत करो, मेरे बेटे को बचालो ’माँ रोने लगी थी
‘प्लीज भैय्या मेरे पति को बचा लो... मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ ’
‘मैं कौन होता हूँ बहन, बचाने वाला तो वो भगवान है ’ पर उन्हें बिलखता देख कर मन कर रहा था बिना किसी शर्त या मांग के मैं अपना गुर्दा दान करदूं किन्तु मेरी परिस्थितियां भी तो भयंकर थीं. मेरी गृहस्थी की नाव भी तो मझधार में हिचकोले खा रही थी,उसे भी तो डूबता हुआ नहीं देखा सकता. मैं ने मन को भावुक होने से बचाया और कहा – ‘नहीं बहन आप रो मत,आपके पति जरूर ठीक हो जायेंगे. अपनी पत्नी की इच्छा के विपरीत मैं अपना गुर्दा देने को तैयार हूँ,मेरी दो छोटी छोटी बेटियां हैं... मेरा मकान गिरवी रखा है. हाथ कट जाने की वजह से मैं बेरोजगार हो गया हूँ. मुझे धन की सख्त आवश्यकता है. यदि आप मुझे सवा लाख रूपए दें तो मैं अपनी पत्नी को मना लूँगा... मुझे गलत मत समझना बहन. मजबूरी में मुझे अपने शरीर के एक हिस्से का सौदा करना पड़ रहा है... गरीबी व हालात के हाथों मजबूर हूँ ’
माँ ने कहा - ‘ठीक है हम तुम्हें सवा लाख दे देंगे’
तभी मरीज के पिता मि. सरीन आगये. अपनी पत्नी को गुस्से से घूरते हुए बोले –‘इतने रूपए हमारे पास नहीं हैं... हम नहीं दे पायेंगे. ’
पत्नी हाथ पकड़ कर उन्हें कौने में ले गई –‘तीन महीने से हम इस शहर में पड़े हैं. इतने दिन से तुम्हारा व्यापार भी बंद पड़ा है. बेटे की हालत लगातार बिगड़ती जा रही है. पैसों क वजह से यह भी हाथ से निकल गया तो ? ऐसा न हो दूसरे डोनर के इंतज़ार में हम अपना बेटा ही खो दें. रूपए मत देखो... उसे हाथ से मत जाने दो... रोक लो उसे. ’कह कर उनकी पत्नी बिलख बिलख कर रोने लगी थी.
‘ठीक है... ठीक है बेटा मैं तैयार हूँ. अब चल कर तुम अस्पताल में भरती हो जाओ. डाक्टर साहब कह रहे हैं कल सुबह ओप्रेशन भी हो जायेगा ’
‘सरीन साहब एक प्रार्थना और है,मुझे पूरी रकम आप्रेशन से पहले चाहिए. आप्रेशन के दौरान यदि मेरी मौत हो गई तो पता नहीं रुपये मेरी पत्नी को मिल पायेंगे या नहीं ?... मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता ’
मि. सरीन को गुस्सा आ गया –‘सब धन राशि हम तुम्हें पहले कैसे दे दें ? कल से तुम्हें ढूंढ रहे हैं किन्तु नहीं ढूंढ पाए. अस्पताल में तुमने गलत पता लिखा रखा था. रुपये ले कर तुम्हारा मन बदल गया तो हम तुम्हें कहाँ ढूंढेगे ?’
‘आपका सोचना गलत नहीं है सरीन साहब. आप मेरे साथ चलें,आपको अपना घर भी दिखा दूंगा. अपनी इस योजना को पत्नी से छुपाने के लिए मैं ने अपने दोस्त के घर का पता दे दिया था किन्तु अब तो वह सब जान गई है. आप रुपये ले कर आइये. पहले हम उसके पास जायेंगे जहाँ मेरा मकान गिरवी रखा है. उसके पैसे चुका कर अपने मकान के कागज़ वापस ले लेंगे. पंद्रह पंद्रह हजार बैंक में अपनी दोनों बेटियों के नाम फिक्स कराऊँगा. बाकी बचे हुए रुपये पत्नी के खाते में डाल दूंगा. यह सब काम निबटा कर अपने घर जाऊँगा. लौटते समय पत्नी को लेकर अस्पताल आ जायेंगे. आकर मैं भरती हो जाऊँगा. पूरे समय आप मेरे साथ रहेंगे. ’
‘लेकिन अभी तो मेरे पास एक लाख रूपया ही है ’
‘चलिए कोई बात, मैं न रहूँ तब भी बाद में पच्चीस हजार आप मेरी पत्नी को दे दीजियेगा. ’
इस सौदेबाजी से मैं खुश तो नहीं था. पर इतने दिनों से जिल्लत भरी जिंदगी जी रहा था. नौकरी के लिए कहाँ कहाँ नहीं भटका पर मांगने पर एक नौकरी नहीं मिली. सब जगह एक ही जवाब था बिना एक हाथ के काम कैसे करोगे ? पैसे वाले सगे रिश्तेदार भी कन्नी काट गए कि उधार दिया तो पता नहीं यह वापस कर पायेगा या नहीं ?इस बुरे समय में अपने पराये सब की पहचान हो गई. किसी ने किसी तरह की मदद नहीं की. आज इन साहब की भी गरज है तो मिन्नतें कर रहे हैं... आगे पीछे घूम रहे हैं. पर मैं आज स्वयं को नकारा महसूस नहीं कर रहा. कौन कहता है मैं किसी काम का नहीं. कुछ तो है मेरे पास तभी एक लखपती मेरी हर शर्त मानने को तैयार है,मुंह माँगा पैसा दे रहा है. सब गरज के सौदे हैं. इस हाथ दे उस हाथ ले का जमाना है. आपसी रिश्ते भी अब भावनाओं से नहीं,फायदे नुकसान का हिसाब लगा कर निभाए जाने लगे हैं... तो मैं क्या कुछ गलत कर रहा हूँ ?
यों मैं ने भी उनकी मजबूरी का फायदा उठाया है फिर भी एक सीमा तक. चाहता तो और अधिक मांग सकता था... और वह देते यह भी मैं जानता हूँ. पर मन के किसी कौने से उठती मेरी अंतरात्मा की आवाज इस सौदे बाजी के लिए मुझे धिक्कार रही थी और उस आवाज को मैं अपने तर्कों द्वारा दबाने की कोशिश कर रहा हूँ.
मैं अपने मन को समझा रहा हूँ कि जिससे मैं ने यह सौदा किया है वह गरीब, लाचार इन्सान नहीं है. उसे इस सब के लिए अपना घर द्वार नहीं बेचना पड़ेगा. वह एक समर्थ,संपन्न व्यक्ति है. लाख दो लाख का उस के लिए कोई महत्व नहीं है,भाग्यशाली है वह,पैसे के बल पर अपने बेटे की जिन्दगी की आखिरी साँस तक उसे जीवित रखने का प्रयास तो कर पा रहा है वरना देश में हजारों लोग दवा या इलाज नहीं, रोटी के अभाव में भूख से दम तोड़ देते हैं.
मैं ने रुपये झपटमारी कर के तो नहीं लिए हैं... बस मांग की है. मांग करना कोई गुनाह तो नहीं है. मरीज का इलाज करने की डाक्टर फीस लेता है. आपरेशन करने की सर्जन अच्छी मोटी रकम लेता है. मैं ने तो अभावों की दलदल से अपने परिवार को बचाने के लिए अपनी जिन्दगी का सौदा किया है,अपने जीवन को दाव पर लगाया है.
सरीन साहब रुपये लेकर आ गये थे. पूरे दिन वह मेरे साथ रहे. अपने सब काम मैं ने पूरे कर लिए. अंत में घर जाकर मकान व बैंक के कागजात पत्नी के हाथ में सोंपते हुए स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था. अब मुझे मौत से जरा भी डर नहीं था,आती है तो आये.
कागजात हाथ में लेकर पत्नी रोती रही थी. मैं उसे समझता रहा था कि यह सच है कि पैसा सब कुछ नहीं होता पर जिन के पास नहीं है उनके लिए बहुत कुछ होता है. जीवन में उसके महत्व को नकारा नहीं जा सकता. कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है. अपने बच्चों के सुखद भविष्य के बारे में हम नहीं सोचेंगे तो और कौन सोचेगा ? रहने को तुम्हारे पास अब अपना घर है. कोई साहूकार कर्ज वसूलने या मकान मालिक किराये के लिए हर माह पठान की तरह आकर तुम्हारे दरवाजे पर खड़ा नहीं होगा. घर के गुजारे के लायक तुम कमा लेती हो. बच्चों के भविष्य के लिए,उनकी उच्च शिक्षा के लिए पैसा बैंक में है ही. दुर्भाग्य से मुझे कुछ हो भी गया तो मेरी रूह भटकेगी नहीं. यों मुझे कुछ नहीं होगा... आज मुझे दवाखाने में दाखिल होना है. कल सुबह आपरेशन भी हो जाएगा... मैं बहुत खुश हूँ... वापस आकर मुझे बहुत कुछ करना है... अँधेरी गुफा से मैं निकल आया हूँ... बाहर उजाला ही उजाला है.
पवित्रा अग्रवाल
4-7-126 इसामियाँ बाजार हैदराबाद - 500027
मोबाइल - 9393385447
ईमेल – agarwalpavitra78@gmail. com