गूगल बॉय
(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)
मधुकांत
खण्ड - 6
सुबह-सुबह नारायणी रसोई में नाश्ता बना रही थी। गोपाल व गूगल भी नाश्ता करने के लिये वहीं आ गये।
‘बेटे गूगल, तू कहे तो आज मैं कुछ सामान ख़रीदने के लिये शहर चला जाऊँ! कई दिनों से शहर जाना ही नहीं हो रहा’, गोपाल ने प्रस्ताव रखा।
‘आप बेफ़िक्र हो कर चले जाएँ। आज आई.टी.आई. में कुछ विशेष काम नहीं है। गाँधी जयंती पर होने वाली प्रतियोगिता के लिये मुझे भी गाँधी जी के तीन बंदरों वाली प्रतिमा बनानी है, यह काम तो मैं घर पर भी कर सकता हूँ’, गूगल ने उत्साह से कहा।
‘बेटे, तेरा काम और ग्राहक के साथ व्यवहार देखकर मैं एकदम बेफिक्र हो गया हूँ। तू मुझसे तो अच्छा काम करता है और जल्दी भी करता है। बेटे, यही तो पढ़ाई-लिखाई का फायदा है।’
‘पापा, आप से एक निवेदन है, आज आप ग्राहक के अनुसार सामान ख़रीद कर मत लाना। सब दुकानों पर घूम-फिरकर, मोलभाव करके, एक-एक दर्जन सामान ख़रीदना और सब सामान नक़द ही ख़रीदना। देखना, कितना सस्ता माल मिलता है..।’
‘बात तो तेरी ठीक है, परन्तु इतना पैसा एक साथ आयेगा कहाँ से?’
‘पैसे की तुम चिंता मत करो। मैंने पाई-पाई जोड़ कर दस हज़ार रुपये जोड़ रखे हैं। कहो, तो अभी निकाल कर दे दूँ...।’ नारायणी ने उत्साह से कहा। बेटे की योग्यता को देखकर वह भी भविष्य के प्रति निश्चिंत हो गयी थी।
‘दस हज़ार!’ आश्चर्य से गोपाल का मुँह खुला का खुला रह गया। ‘नारायणी, तुमने तो कमाल कर दिया। सचमुच तुम गृहलक्ष्मी हो।’
प्रशंसा सुनकर तथा लज्जाने के कारण नारायणी का चेहरा ख़ुशी से दमकने लगा और उसके साथ चुल्हे की अग्नि पड़ने से और भी सुन्दर लगने लगा। नाश्ता कर लेने के बाद उसने रसोई में अनाज के पीपे से एक कटोरदान निकाला और गोपाल के सामने कर दिया - ‘ले लो, जितना चाहिए...सब आपके ही हैं।’
गोपाल ने आवश्यकता के अनुमान के अनुसार छ: हज़ार रुपये निकाल लिये। दो हज़ार उसके पास भी थे। काम चल ही जायेगा...। पहली बार बड़ी ख़रीद करनी है, कुछ बेकार का सामान न आ जाये, इसलिये उसने कम ही ख़रीददारी करने का विचार किया। आज काम अधिक है, इसलिये वह जल्दी से अपना थैला उठाकर घर से निकल लिया।
गूगल भी अपने पापा के साथ तैयार हो लिया था। उसने भी पूरे उत्साह से दुकान खोल ली। ‘बापू के तीन बंदर’ की प्रतिमा बनाने के लिये उसने एक मज़बूत लकड़ी को कई दिनों से सँभाल कर रखा था। सुबह-सुबह उसने उसी को निकाल लिया। चाक-मिट्टी का बना हुआ एक खिलौना भी उसे आई.टी.आई. से मिला था, जिसको देखकर गूगल ने लकड़ी की एक बड़ी प्रतिमा बनानी थी। उसने खिलौने का नाप-तोल करके अपने सामने रख लिया। उससे चार गुणा बड़ी प्रतिमा बनाने का गूगल ने निश्चय किया।
चारों ओर पेंसिल के निशान लगाकर उसने फ़ालतू लकड़ी को काट दिया। गूगल को लगा, ‘बापू के तीन बंदर’ की प्रतिमा श्री कृष्ण भगवान के विराट रूप से बनानी आसान है, क्योंकि इसमें रंगों का प्रयोग भी नहीं होना। विशेष बात तो यह भी है कि अब वह आत्मविश्वास और उत्साह से भर गया है।
ताऊ रजनीश को दुकान में आया देख गूगल के हाथ ठहर गये। ‘राम-राम ताऊ’, कहते हुए उसने कोने में पड़ा मुड्ढा उठाकर उनके सामने कर दिया।
‘राम-राम बेटे, आज गोपाल नहीं है दुकान पर?’
‘ताऊ, वो शहर गये हैं सामान ख़रीदने। मुझे बताओ, क्या काम है?’
‘बेटे, एक चौखट ठीक करनी है..।’
‘मैं दोपहर को आ जाऊँगा।’
‘ठीक ....पर ये बता, तू यह क्या बनाने लग रहा है?’
‘ताऊ, ये बापू के तीन बंदर हैं। इनके द्वारा गाँधी जी ने हमको बहुत बड़ा संदेश दिया है।’
‘क्या संदेश दिया है?’
‘ताऊ, इनमें से एक बंदर अपने मुँह पर हाथ रखे हुए है’, गूगल ने दिखाकर समझाने के लिये मिट्टी का खिलौना हाथ में उठा लिया। यह हमको संदेश देता है कि मनुष्य को किसी भी व्यक्ति से झूठ नहीं बोलना चाहिए। दूसरा बंदर अपने हाथों से आँखें बंद किये है। यह हमारे को शिक्षा देता है कि हमें किसी की बुराई नहीं देखनी चाहिए और तीसरा बंदर अपने हाथ कानों पर रखे है। वह हमें कहना चाहता है कि हमें लोगों की बुराइयाँ, चुग़ली आदि नहीं सुननी चाहिए। संक्षेप में, तीनों बंदरों का यह संदेश है कि बुरा मत बोलो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो।’
‘वाह बेटे, इन बंदरों के द्वारा बापू गाँधी ने बहुत अच्छी शिक्षा दी है। ...जीवन का सार बता दिया’, उठते हुए ताऊ रजनीश ने उसे फिर याद दिलाया - ‘बेटे, दोपहर बाद उस चौखट ने ज़रूर ठीक कर आइओ।’
‘ज़रूर ताऊ, याद करके आ जाऊँगा, आप बेफ़िक्र हो जाओ..राम राम ताऊ..।’
गूगल फिर से बापू के बंदरों की प्रतिमा को आकार देने लगा। नारायणी कुछ समय पिछले द्वार पर खड़ी गूगल को तन्मयता के साथ प्रतिमा बनाते देखती रही। जैसे ही उसको ध्यान आया तो बोल पड़ी - ‘चल गूगल, पहले खाना खा ले, फिर अपना काम करते रहना।’
‘ठीक है माँ, आप बनाओ, मैं हाथ-मुँह धोकर आता हूँ।’ गूगल तभी अपना काम छोड़कर उठ गया और हाथ-मुँह धोने लगा।
थाली पर बैठकर पहला ही कोर तोड़ा ही था कि बाहर से आवाज़ सुनाई दी।
‘क्या हुआ....?’ गूगल के साथ नारायणी भी बाहर आ गयी।
‘तेरे पापा जीप से आ रहे थे कि रास्ते में जीप का एक्सीडेंट हो गया। मेडिकल में है’, ताऊ रजनीश ने बताया। गूगल ने एक बार माँ की ओर देखा।
‘तेरे पास पैसे हैं ना?’
‘हैं, तुम चिंता मत करो, मैं सँभाल लूँगा,’ कहता हुआ गूगल ताऊ रजनीश के साथ निकल लिया।
गूगल मेडिकल में पहुँचा, तब तक उसके पापा बेहोश हो गये थे। उनके सिर से खून बह रहा था। एक नर्स उनके उपचार में लगी थी।
‘तुम कौन हो?’ नर्स ने पूछा।
‘मैं इनका बेटा हूँ।’
‘खून बहुत निकल गया है। डॉक्टर ने कहा है, इनको तुरन्त खून चढ़ाना पड़ेगा।’
‘तो चढ़ाओ।’
‘हमारे स्टॉक में ए.बी. नेगेटिव खून नहीं है, आपको तुरन्त व्यवस्था करनी पड़ेगी, नहीं तो इनका बचना मुश्किल है।’
तभी डॉक्टर भी वहाँ आ गया। डॉक्टर को गूगल का चेहरा पहचाना-सा लगा। अपनी बेबसी पर गूगल को रोना आ रहा था। उसने कहा - ‘डॉक्टर साहब, कुछ भी करके मेरे पापा को बचा लो...मेरे शरीर से जितना खून चाहिए, निकाल लो,’ वह रोने लगा।
डॉक्टर ने उसे हौसला दिया - ‘घबराओ नहीं बेटा, मैं कुछ करता हूँ,’ कहते हुए डॉक्टर तेज़ी से बाहर निकल गया।
गाँव के सरपंच के साथ कई अन्य व्यक्ति भी वहाँ आ गये थे। जीप में पाँच सवारी गाँव की थीं, जिनमें से दो इमरजेंसी में थे। गोपाल भी इमरजेंसी में था। वह ज़िन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रहा था।
गूगल हौसला करके पापा के पास आया और बोला - ‘आँखें खोलो पापा..।’
सचमुच गोपाल ने आँखें खोल ली - ‘मैं कहाँ हूँ बेटे?’
‘आप हॉस्पिटल में हो। जल्दी ही ठीक हो जाओगे, फिर घर चलेंगे।’
‘नारायणी...!’
‘माँ घर पर है... जल्दी ही हम भी घर चलेंगे।’ कहते हुए गूगल को लगा, पापा के हाथ की पकड़ छूट गयी है। डॉक्टर भी खून की थैली हाथ में लिये आया। थैली एक ओर रखकर उसने गोपाल को नक़ली साँस देने की कोशिश की, परन्तु सब बेकार। ‘आय एम सॉरी’, कहता हुआ डॉक्टर बाहर निकल गया।
‘पापा-पापा,’ गूगल चीखता रहा। सिस्टर ने सफ़ेद चद्दर से गोपाल को सिर से पैर तक ढक दिया।
कुछ पड़ोसी तथा परिवार के सदस्यों ने आकर गूगल को सँभाला। हॉस्पिटल की औपचारिकताएँ पूरी करते-करते तीन बज गये।
‘माँ के पास क्या लेकर जायेगा.....क्या कहेगा माँ से कि मैं अपने पापा को बचा नहीं पाया.... क्या कहेगी माँ!’ सोच-सोच कर उसका मन घबराने लगा। ‘काश, हमारी गाड़ी का भी एक्सीडेंट हो जाये और सब कुछ समाप्त हो जाये, माँ का सामना न करना पड़े!’ गूगल सारे रास्ते सोचता रहा। फिर उसे अपनी माँ का ख़्याल आया, उसकी तो दुनिया ही उजड़ गयी...मुझे माँ को सँभालना होगा....उसकी देखभाल करनी होगी, सोचकर उसने अपनी आँखों के आँसू पोंछ लिये और सचेत होकर बैठ गया।
साँझ ढलने वाली थी, इसलिये जल्दी-जल्दी में अंतिम संस्कार की तैयारी कर दी गयी। गूगल ने गाड़ी से उतर कर माँ को सँभाला। माँ की रूलाई फिर फूट पड़ी। गूगल माँ से लिपट गया - ‘माँ, यह क्या हो गया..?’
‘घबरा मत बेटे....मैं हूँ ना तेरी माँ...कुछ चिंता मत कर....ऊपर वाले की मर्ज़ी के आगे किसी का ज़ोर नहीं चलता’, फ़फक-फफक रोती माँ ने गूगल को सँभाला।
आधे घंटे में ही घर से अंतिम यात्रा निकल चली और गोधुलि बेला होते-होते गोपाल का अंतिम संस्कार करके सब घर लौट आये।
पड़ोसी खाना बना कर ले आये, परन्तु किसी ने छूआ तक नहीं। सबके चले जाने के बाद एक वृद्ध बुआ घर में रह गयी थी। नारायणी ने उसको आवाज़ लगायी तो वह गहरी नींद में सो रही थी।नारायणी गूगल के पास आयी। उसकी चारपाई पर बैठकर उसका सिर अपनी गोद में रख लिया। माथा सहलाते हुए माँ ने पूछा - ‘गूगल बेटा, तूने कुछ खाया नहीं...दिन में भोजन करने बैठा ही था कि यह पहाड़ टूट पड़ा..।’
‘माँ, तुमने भी तो कुछ नहीं खाया’, उसने माँ का हाथ पकड़ कर अपने सीने पर लगा लिया।
‘बेटे, बिना खाना खाये तो काम चलेगा नहीं। अब तो सब तुझे ही सँभालना है, इसलिये कुछ खा ले बेटे..।’
‘माँ, मेरे साथ तुमको भी खाना पड़ेगा..।’
‘बेटे, अब तो तू जो कहेगा, मैं वही करूँगी’, कहते हुए माँ उठ गयी। रसोई से एक थाली में खाना ले आयी। दोनों एक-दूसरे के मुँह को देखते हुए खाना खाते रहे। खाना खाने के बाद दोनों अपने-अपने बिस्तर पर जाकर लेट तो गये परन्तु अनेक आशंकाओं, समस्याओं व अकेलेपन के तूफ़ान से जूझते रहे। असल में तो नींद आयी नहीं और कुछ क्षण के लिये अगर आँख लगी भी तो भयानक सपनों ने आ घेरा। देर तक भयभीत माँ-बेटे बिस्तर पर बैठकर जय श्री कृष्ण का मौन जाप करने लगे।
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