Jindagi mere ghar aana - 9 in Hindi Moral Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | जिंदगी मेरे घर आना - 9

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जिंदगी मेरे घर आना - 9

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – ९

और अभी कैसे घूर रहा है, खा ही जाएगा जैसे। मन नहीं था तो क्यों आया? नहीं ले आता, तो कोई मर तो नहीं जाती वह... जोर से बोली, ‘तुम्हें अच्छा नहीं लग रहा क्या?‘

अब जैसे अपने में लौटा वह... वही पुरानी अकड़... ‘हाँ! हाँ! बहुत अच्छा लग रहा है... सारे कपड़े भीग जाएंगे न तो और भी अच्छा लगेगा... चलो अब, बहुत हुआ प्रकृति-दर्शन।‘ -उपहास भरे स्वर में बोला।

‘हे, भगवान! उसने तो ध्यान ही नहीं दिया। हवा के झोंकों के सहारे झरने से पानी की फुहारें सी पड़ रही थीं दोनों पर... कपड़े हल्के-हल्के सिमसमा आए थे।‘

***

‘तू उस दिन पार्टी में क्यो नहीं आई... तेरे इंतजार में कितनी देर तक केक नहीं काटा था मैंने।‘- स्वस्ति ने शिकायत की।

‘अरे! उसी शरद महाराज का काम था, गाड़ी खराब थी। भैया को तो जानती ही है, मेरी सहेलियों के घर के तो जैसे ‘एलसेशियन-डॉग' रहते हैं, काट ही लेंगे उसे। और बस शरद ने चढ़ा दिया मम्मी को... ‘रात में अकेले कैसे जाएगी।‘ - कितनी मिन्नते की... बस आधे घंटे में चली आऊँगी पर नही तो बस नहीं। मैंने तो तेरे लिए जगजीत-चित्रा के ग़ज़लों की सी॰डी॰ भी सुबह ही ले ली थी।‘

‘अरे तू और गजल... कब से?‘ - उछल पड़ी स्वस्ति।

‘क्यों?‘

‘अरे! पहले तो तुझे बड़ी बोरिंग लगती थी?‘

'पहले समझती जो नही थी'

‘अय... हयऽऽ‘ नेहा गजलों में दिलचस्पी हो गई है, आपकी... क्या बात है, मैडम..?.‘ स्वस्ति ने शोखी से कहा तो मासूमियत से पूछ बैठी वह - ‘क्या बात होगी?‘

उसका भोलापन देख आगे कुछ नहीं कहा स्वस्ति ने। पुरानी बात पर लौट आई -

‘खैर, सफाई तो मैंने सुन ली, पर शरद के साथ तो आ सकती थी।‘

‘अह! चल उस लंगूर के साथ‘ – नेहा ने तेजी से कहा तो एकदम से उसकी आँखों में देख, स्वस्ति पूछ बैठी -‘एक बात पूछूं?‘

‘क्या?‘

‘ना, पहले बोल।‘

‘कोई मैंने मना किया है।‘

‘चाहे छोड़।‘

‘ना... अब तो पूछना ही पड़ेगा।‘

‘छोड़, पूछना क्या, मेरी बात का जवाब तेरी आँखें दे रही हैं... चल छत परचलते हैं कितना सुहाना मौसम है।‘

‘स्वस्ति, तेरी यही पहेलियोंवाली बातें, मेरी समझ में नहीं आती।‘

स्वस्ति ने प्यार से नाक पकड़ हिला दी और गाल थपथपा दिए - ‘अब, सब समझने लगोगी, मैडम!‘

नेहा ने चिढ़कर उसका हाथ हटा दिया...ऐसी गोल मोल बातें उसे पसंद नहीं. जो कहना -पूछना है.साफ़ साफ़ क्यूँ नहीं पूछती.

***

‘नेहा ऽ ऽ ऽ...‘ किसी ने इतनी मिठास भरी आवाज में पुकारा कि किताबें फेंक, उद्भ्रांत सी चारों तरफ देखने लगी।

‘नेहा ऽऽऽ-‘ फिर आवाज आई; मुड़ कर देखा, ओह! कोई नजर तो नहीं आ रहा। परेशान सी इधर-उधर देख ही रही थी कि तभी क्राटन के पीछे कुछ सरसराहट सी लगी।

एक ही छलाँग में पहुँच गई - ‘अरे! शऽरऽद... कब आए‘ - और हाथों से बैग थाम लिया।

‘कमाल है, सामन अभी हाथों में ही है, और पूछने लगीं... ‘कब आए‘ - जवाब नहीं लड़कियों के दिमाग का भी.

'ना कोई फोन, ना कोई खबर और इतने दिनों बाद यूँ, अचानक'...चीख ही पड़ी जैसे

'वो लीव सैंक्शन हो गयी तो घर तो जाना ही था और इधर से होकर ही तो जाना है तो सोचा मिलता चलूँ'

'अच्छा...यानी रास्ते में हमारा शहर नहीं पड़ता तो तुम मिलने नहीं आते'.....थोडा गुस्से में बोला, उसने.

'ऐसा कहा.., मैंने ??'

'और क्या'

'क्या बात है बहुत हेल्थ बन गया है इस बार,..कितना पुट ऑन कर लिया है'...शरद ने बात बदल कर चिढाते हुए कहा.

हाँ! हाँ! चश्मा ले लो चश्मा, कल ही बुखार से उठी हूँ और तुम्हें मोटी दिख रही हूँ।‘

‘तो, ये इतना भारी बैग उठाए कैसे खड़ी हो, मेरा भी दम फूल गया था।‘

और उसके हाथों से बिल्कुल छूट गया बैग, ओह अँगुलियाँ टूट गईं, उसकी तो।

शरद जोरों से हँस पड़ा -‘हाँ! अब ख्याल आया कि लड़कियाँ नाजुक होती हैं।‘

‘नहीं, शरद, सच्ची बहुत भारी है।‘

‘अभी तो अच्छी भली उठाए खड़ी थी।‘

अब कौन बहस करे इससे। अंदर की ओर दौड़ पड़ी... 'मम्मी....शरद आया है'

थोड़ी देर तक जम कर गुल-गपाड़ा मचा रहा। सावित्री काकी भी हाथ पोंछती किचेन से निकल आई थीं. रघु फुर्ती से पानी ले आया. कौन क्या कह रहा है, कुछ सुनाई ही नहीं पड़ रहा. पर सबसे ऊपर नेहा की आवाज़ ही सुनायी दे रही थी. जब माली दादा ने दरवाजे से ही' “नमस्कार..शरद बाबू' बोला..तो नेहाबोल पड़ी, 'अरे माली दादा, अब इन्हें सैल्यूट करो. इन्हें नमस्कार समझ में नहीं आता. अब ये लेफ्टिनेंट बन गए हैं, देखते नहीं कितना भाव बढ़ गया है'...अनर्गल कुछ भी बोले जा रही थी.

शरद मंद मंद मुस्काता हुआ उसकी तरफ देखता बैठा रहा. एक बार लगा, शायद बुखार से कुछ ज्यादा ही दुबली हो गयी है, तभी इतने गौर से देख रहा है.पर नेहा ने ध्यान दिए बिना अपना शिकायत पुराण जारी रखा... “पोस्टिंग इतनी पास मिली है, तब भी इतने दिनों बाद शकल दिखाई है.”

“अरे बाबा तुम्हे पता नहीं कितना टफ जॉब है इसका और छुट्टी कहाँ मिलती है “...मम्मी ने बचाव करने की कोशिश की पर नेहा ने अनसुना कर दिया...”अच्छा फोन भी करने की मनाही है?..इतनी बीमार थी मैं, एक बार फोन करके हाल भी पूछा?? “

'उसे सपना आया था कि तुम बीमार हो'

'क्यूँ नहीं आया,...आना चाहिए था'

मम्मी पर से निगाहें हटा, शरद ने कुछ ऐसी नज़रों से उसे देखा कि एकदम सकपका गयी, नेहा..'लगता है कुछ ज्यादा ही बोल गयी.

शरद ने भी जैसे उसकी असहजता भांप ली. रघु से बोला, जरा मेरा बैग लाना. सबके लिए कुछ ना कुछ गिफ्ट लाया था. कहता रहा, मम्मी ने बोला, जॉब लगने के बाद पहली बार जा रहे हो...कुछ लेकर जाना, वैसे मुझे तो कुछ समझ में आता नहीं..मम्मी ने जैसा बताया ले आया...और उस ज़खीरे में से एक एक कर तोहफे निकालता रहा. वह सांस रोके देखती रही, सावित्री काकी के लिए शॉल, रघु के लिए टी-शर्ट, माली दादा के लिए मफलर, ममी के लिए नीटिंग की आकर्षक बुक, और डैडी के लिये सुन्दर सी टाई...

सबसे अंत में उसकी तरफ एक गुड़िया उछाल दी -‘लो बेबी रानी! ब्याह रचाना गुड़िया का।‘(वैसे गुड़िया थी तो बहुत सुंदर... सजावट के काम आ जाती... लेकिन चेहरा उतर गया उसका। शरद सच्ची बिल्कुल बच्ची समझता है, उसे।)

‘अब मुँह काहे को सूज गया... मैंने कहा, एक छोटी लड़की भी है, तो मम्मी ने कहा, एक गुडिया ले लो'

‘ और लो! ये उसकी बचपना का प्रचार भी करते चलता है।