हिंदी को वनवास दे दिया,अंग्रेजी को राज
हम हिंदुस्तानियों ने सत्तर साल में कैसा गढ़ दिया समाज ,
बदल गया हिंदी का इतिहास,फिर हावी हो गया अंग्रेजियत का एक बार राज।
आज हिंदी दिवस पर हिंदी बोलने पर शर्म महसूस करने वालो पर कटाक्ष!सवाल तो ये है कि आखिर क्यों हमे हिंदी बोलने में शर्म महसूस होता है और अंग्रेजी बोलने में गौरवशाली क्यों? कभी हिंदी से रूबरू तो होइए जनाब हिंदी ने असल मे पानी - पानी ना कर दिया तो कहिए। सच्चाई तो ये है जो स्पष्ट साफ पाख हिंद की बिंद से जुड़ा है वो अंग्रेजी का भी बाप है। इतनी क्लिष्ट भाषा जिसे लिखना तो दूर बोलना भी मुश्किल है।विश्व के करीब 130 विश्वविद्यालय में हिंदी पढ़ाई जाती है और पूरे दुनिया मे करोड़ो लोग हिंदी बोलने की कोशिश करते हैं।फिर भी कटु सत्य यह है कि आधी दुनिया को ऐसा क्यों लगता है कि हिंदी बोलने में शर्म महसूस होता है अंग्रेजी बोलने में इमेज बनती हैं। क्यों लगता है कि हिंदी बोलकर छोटे हो जाएंगे। क्यो अंग्रेजी बोलने से खुद को गर्व महसूस करते है, जबकि हमे तो गर्व है हिंदी व हिंदुस्तानी होने का?अरे हिंदी भाषी बोलने वाले समुह जिनको हिंदी बोलने में शर्म महसूस होती हैं मैं उन्हें इतना कहूंगी की भाई आज ना तुम हिंदी के लायक हो ना ही अंग्रेजी के ऐसा तब समझ आएगा जब हम हिंदी के इतिहास को पलट कर समझने की कोशिश करेंगे।शायद हिंदी के अस्तित्व पर वार हो इसीलिए इसे अंतराष्ट्रीय स्तर तक पहुचाने की कोशिश की गयी और हर वर्ष 14 सितम्बर के दिन हम हिंदुस्तानियों को ये याद दिलाने के लिए यह दिवस बनाया गया की हिंदी हमारी राजभाषा है,हमारी पहचान है।वैश्वीकरण और आधुनिकता के दौर में भी हिंदी सर्वोपरि है। भले ही अंग्रेजियत को हर जगह तवज्जों दिया जा रहा हो लेकिन हिंदी से क्लिष्ट भाषा कोई नहीं।हर वर्ष एक और हिंदी दिवस मनाने का दिन आता है और हम हिंदी के नाम पर कई सारे चर्चा चिंतन मंथन करते है,लेकिन सच्चाई तो यह है कि हम असल में अहमियत अंग्रेजियत को ही देते है ना कि हिंदी भाषी को। आज तमाम लोग बेरोजगारी से जूझ रहे इसका कही ना कही सीधा असर और एक सवाल उठता है आज की शिक्षा व युवा पीढ़ी पर। जी हां ,उच्च शिक्षा हो या मध्यम शिक्षा हर किसी के भीतर इतने गुण नही होते कि वे अंग्रेजी को सीख सके बोल सके। ऐसे लोगो को सदैव अच्छी पोस्ट मिलने में चूक होती है। अक्सर उन लोगो का चुनाव किया जाता है जो अंग्रेजी में तेजतर्रार हो सरपट कार्य करते हो उनका चयन सदैव आगे की ओर बढ़ता है लेकिन वही एक मध्यम वर्गी हिंदी भाषी खड़ा होकर बोले या कार्य करे तो लोग सदैव उसमे कमी को खंगालने लगेंगे जो सरासर गलत हैं। भाषा कोई भी बुरी नहीं होती। कई भाषाएं आपस में गुंथी और गुछि हुई होती हैं, उनको अलग नहीं किया जा सकता। उसी तरह हमारी राजभाषा है।जितनी चाहे भाषाएं सीख लीजिए, मगर हिंदी की पहचान उसकी कीमत अपनी ही है।कहीं ना कही मातृभाषा की अनदेखी कर नई भाषा को अपनाना उसे तवज्जो देना अच्छा नहीं है। मैं मानती हूँ कि हर भारतीय परिवार ऐसे नहीं हैं जिनमें अपनी मातृभाषा हिंदी को लेकर हीनता की भावना हो पर बहुत लोग ऐसे हैं जिन्हें अंग्रेज़ी बोलते हुए गर्व और हिंदी बोलते हुए शर्म महसूस होती है। ऐसे लोग न जाने कौन सी श्रेष्ठता या हीनता की भावना से ग्रस्त होते हैं कि उन्हें अपने जीवन और अपनी सभ्यता का एक बेहद महत्वपूर्ण अंश काटने को दौड़ता है। छोटे बच्चों में अपनी ही मातृभाषा के प्रति तिरस्कार की भावना पैदा करना किसी जघन्य अपराध से कम नहीं है।इन जैसे कई लोगों को अपनी टूटी-फूटी अंग्रेज़ी पर जितना गर्व होता है उतनी ही शर्म इन्हें अपनी मातृभाषा बोलने में आती है क्यों क्योंकि भारतीयों को हिंदी बोलने में अब शर्म महसूस होती है? एक ओर जहाँ हम अपने जीवनशैली में तेजी से बदलाव ला रहे और पश्चिम की शरण में जा रहे।जहाँ एक तरफ एक हिंदीभाषी तबका हिंदी को राष्ट्रीय भाषा घोषित करने पर तुला हुआ है, वहीं दूसरी ओर उत्तर भारत के कई ऐसे हिंदीभाषी परिवार हैं जिनमें हिंदी बोलना अनपढ़ता की निशानी माना जाता है। छोटे शहरों में जन्मे लोग अक्सर ये कहते कि उफ़्फ़फ़ ये हिंदी !
ये वो लोग है जो हिंदी को समझते भी है और दिखावा भी बखूबी करते है।अपनी ही मातृभाषा के प्रति ऐसा शर्मनाक रवैया करते है जिसे देख ये महसूस होता है कि हम हिंदुस्तानी ही क्यों है। अरे ओ अंग्रेजो के औलाद जिस देश के तुम निवासी हो जिस देश मे जीते हो वहाँ हिंदी भाषा गुनाह क्यों लगता है भाई। अगर आप ये सोचते है कि हिंदी का तिरस्कार करे और दूसरी भाषा का बोध करे तो आपको बता दू बंगाली, मलयाली, तमिल आदि परिवारों में अपनी भाषाओं में बात करने में उन्हें शर्म महसूस नहीं होता। अगर एक मध्यम वर्गीय परिवार के लोग को देखे तो वो आराम से दो भाषा मे बोल और लिख लेता है, चाहे वो आधी अधूरी टूटी फूटी अंग्रेजी हो या धकाधक बोलने वाली हिंदी।अब जहा तक बात है महानगरों की तो उच्च या मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे कितनी भाषाएँ बोलेंगे या सीख पाएंगे सिर्फ अंग्रेज़ी। पता है ऐसा क्यों,क्योंकि दरअसल उन्हें बचपन से ही इतना अंग्रेजी के प्रति दबाव दिया जाता है कि पूछिए नही। ऐसे ही बच्चे ना तो अंग्रेजी के लायक होते है ना ही हिंदी के उन्हें बीच मझधार में ही झूला दिया जाता हैं।माना आज के युग में अंग्रेज़ी का ज्ञान होना बेहद ज़रूरी है।कई सारे देश अपनी युवा पीढ़ी को अंग्रेज़ी सिखा रहे हैं पर इसका मतलब ये नहीं है कि उन देशों में वहाँ की भाषाओं को ताक पर रख दिया गया है और ऐसा भी नहीं है कि अंग्रेज़ी का ज्ञान हमको दुनिया के विकसित देशों की श्रेणी में ले जाएगा।सिवाय सूचना प्रौद्योगिकी के हम किसी और क्षेत्र में आगे नहीं हैं।यही सूचना प्रौद्योगिकी की अंधी दौड़ में शामिल होने वालों का क्या हो रहा और बाकी के प्रौद्योगिक क्षेत्रों का क्या हाल हो रहा है वो किसी से छुपा नहीं है। इसी अंग्रेजियत के चहुँमुखी विकास को लोग यदि विकास मानते हैं तो ये सरासर बेवक़ूफ़ता है।खैर दुनिया के लगभग विकसित व विकासशील देशों में काम उनकी भाषाओं में ही होता है,लेकिन मैं यहाँ एक मुद्दा जरूर उठाना चाहूंगी कि हमारे यहाँ बड़े-बड़े नेता अधिकारीगण व्यापारी हिंदी के नाम पर लंबे-चौड़े भाषण देते हैं किंतु अपने बच्चों को जब शिक्षा देने की बात आएंगी तब ये उन स्कूलों का चयन करेंगे जो सबसे महंगा हो। पता है ऐसा क्यों क्योंकि आधी आबादी का मानना है कि अंग्रेज़ी माध्यम स्कूलों में पढ़ाएँगे तो बच्चा सब चीज में अव्वल और हजार लोग के बीच उठने-बैठने योग होगा। मुझे इस कटाक्ष को लिखते हुए शर्म महसूस हो रही कि हम ऐसे देश मे रहते है जहां की मानसिकता उच्च नही जीरो है।ऐसे तबके के लोग ही हिंदी दिवस पर जोर जोर से चिल्ला चिल्लाकर हिंदी पर भाषणबाजी करते है।उन तमाम महंगे स्कूलों को बढ़ावा देते है जिनसे एक गरीब परिवार का वर्ग स्कूल देख ये सोचता है कि काश हम भी अपने बच्चों को यहां शिक्षा दिला पाते। यही कही न कही हमारे सरकारी स्कूल में देखने को मिलता है कि बच्चे सरकारी स्कूल में दाखिला लेने के बाद खुद को कमजोर महसूस करते है जो शायद उनके मानसिकता को चोटिल करता है।कुछ लोग अक्सर ऐसे मिलते है जो अंग्रेज़ी में बात करना या बीच-बीच में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग करना शान समझते है। वही कुछ लोग ऐसे भी है जो अंग्रेजी बोलना कठिन समझते है और हिंदी बोलना आसान।तो उन्हें बता दू कि एक बार महज एक बार शुद्ध हिंदी पढ़ कर देखिए,पढ़ना तो दूर बोलना उसे भी बहुत कठिन है।शुद्ध हिंदी तो केवल पोंगा पंडित या बेवक़ूफ़ लोग बोलते हैं। आधुनिकरण के इस दौर में या वैश्वीकरण के नाम पर जितनी अनदेखी और दुर्गति हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं की हो रही उतनी शायद हीं कहीं भी किसी और देश में हो रही।भारतीय भाषाओं के माध्यम के विद्यालयों का आज जो हाल है वो किसी से छुपा नहीं है। सरकारी व सामाजिक उपेक्षा के कारण ये स्कूल आज केवल उन बच्चों के लिए हैं जिनके पास या तो कोई और विकल्प नहीं है जैसे कि ग्रामीण क्षेत्र या फिर आर्थिक तंगी। इन स्कूलों में न तो अच्छे अध्यापक हैं न ही कोई सुविधाएँ तो फिर कैसे हम इन विद्यालयों के छात्रों को कुशल बनाने की उम्मीद कर सकते हैं और जब ये छात्र विभिन्न परीक्षाओं में असफल रहते हैं तो इसका कारण ये बताया जाता है कि ये लोग अपनी भाषा के माध्यम से पढ़े हैं इसलिए ख़राब हैं। यहां दोष है हमारी मानसिकता का और बदनाम होती है भाषा। आज बच्चों को हिंदी की गिनती या वर्णमाला का मालूम होना अपने आप में एक चमत्कार सिद्ध करने जैसा है। क्या यही विडंबना है हमारे देश की? क्या यही हमारी आज़ादी का प्रतीक है? मानसिक रूप से तो हम अभी भी अंग्रेज़ियत के गुलाम हैं।अब तो लगता है यही सोचकर विश्व हिंदी दिवस की शुरुआत की गई।अब भी वक्त है सुधर जाने का वरना कोसने के बजाय कुछ न होगा।सवाल है आत्मसम्मान का, अपनी भाषा का, अपनी संस्कृति का। हर वर्ष यू ही चर्चाओं में गुजार देना शायद हिंदी राजभाषा के लिए न्याय नही।