प्रकृति ने अपनी हर आकृति को इस प्रकार संयोजित किया है कि , हर बदलाव के लिए एक नियत समय निर्धारित कर दिया , फिर वो चाहे पेड़ पौधे हो या मनुष्य | समाज ने भी इन बदलावो को सहज स्वीकार कर इसे अपनी व्यवस्था का रूप दे दिया | जैसे शिक्षा , विवाह, संतान उत्पत्ति यहाँ तक मृत्योपरान्त कर्मकाण्डीय व्यवस्था | मानवीय भावनाएँ भी इन्ही का अनुकरण करती है | किन्तु इसके बावजूद यदि कुछ प्रबल है तो , वह हैं परिस्थतियाँ , जो कभी-कभी असंतुलन का कारण भी बन जाती हैं | यह कहानी भी इसी असन्तुलन को दर्शाती है | अकांक्षा एक भोली-भाली,दब्बु (अपनी भावनाओं को न व्यक्त कर पाने वाली या संकोची) मध्यमवर्गीय परिवार की लड़की है | सामाजिक व्यवस्था आर्थिक विपन्नता के कारण उसे, उचित शिक्षा प्राप्त नही हो पाती है | जहाँ एक ओर माँ-बाप के रिश्ते तलाशने के समय से ही लड़ियों की भावनाएँ ख़्वाबो के समंदर मे गोते लगाने लगती हैं | और विवाहोपरान्त अच्छी तैराक बन गृहस्थी रूपी नदी को अच्छे से पार कर पाती है | वही दूसरी ओर आकांक्षा जिसे विवाह का मतलब भी न पता था, परिस्थिति ने उसे इस बंधन मे बाँध दिया था | कुछ सालो तक तो सब कुछ ठीक रहा या यह कहा जाये किसी मजबूत चीज को टूटने मे जैसे थोड़ा समय लगता है वैसे ही परिस्थितियों की चोट ने आकांक्षा के रिश्ते पर भी प्रहार किया | इस प्रहार ने जहाँ एक तरफ उसे तोड़ा, वही दूसरी तरफ मजबूती से खड़ा कर उसे एक अलग पहचान दी | यह कहानी उन महिलाओं के लिए संजीवनी बूटी की तरह है जो , संबंध के टूटने पर, खुद को असहज , निस्तेज, प्राणहीन सी या बिना अपराध खुद को अपराधी सा अनुभव करती है | कई बार वह अवसाद से इस प्रकार ग्रसित होती हैं कि आत्महत्या जैसा गलत कदम तक उठा लेती हैं | समाज चाहे कितना भी तेजी से आगे बढ़ रहा हो हम इस एक पक्ष को नकार नही सकते | जब तक स्त्री नही बदलेगी, उसकी स्थिति नही बदलेगी ऐसा मेरा विचार है |.........
अम्बर ! हाँ आज तुम मेरे लिए अम्बर ही हो | क्योंकि आज मै किसी मर्यादा मे नही हूँ | और रहूँ भी तो क्यों ! मर्यादा मे रहने का ठेका स्त्रियों ने ही ले रखा है? हमेशा मर्यादा मे ही तो रहती आई हूँ | क्या स्रियों को भावनाएँ व्यक्त करने का अधिकार नहीं | क्यों हम हर बात मे पुरूषो के आधीन रहते हैं | क्यों स्त्रियो के लिए निन्दनीय और वही बात पुरूषो के लिए विचारणीय समझी जाती है | यहाँ तक भाव प्रदर्शन मे भी | खैर, मै भी स्त्री हूँ किन्तु जीवत हूँ , और मेरी भावनाओं मे भी प्राण है | बेशक मेरी अभिव्यक्ति के बीज किसी बंजर भूमि पर गिर पड़े | पर उस बीज का स्थान धरा ही है , उसके नष्ट हो जाने के भय से मै उसके उचित स्थान से उसे वंचित नही कर सकती | मेरे जीवन मे भावनाओं का वही स्थान है जो साँसो का | मैं यह पत्र क्यों लिख रही मुझे स्वयं नही पता परन्तु इस बात का भान अवश्य है कि भावनाएँ आज साहस की गोद मे बैठी इसका अवलोकन कर रहीं हैं | कुछ मर्यादाओ मे स्वयं को स्वतंत्र घोषित करने के पश्चात तो अब कानूनी (समाज द्वारा बनाए गये नियम ) डण्डे का भी भय नही रहा | मैं अब आपकी स्टूडेन्ट नही हूँ और न ही परिसर कर्मचारी | आपको आरोपित करने की भी मेरी कोई मंशा नही | परन्तु निदान आवश्यक है , कुछ दिनो से निद्रा देवी मुझसे रूठी हुईं हैं, प्रातः शरीर अस्वस्थ सा जान पड़ता है |ठीक से कोई कार्य नही हो पा रहा अतः कह सकते हैं. कि पूरी तरह से जाग भी नही पा रही | बहुत विचार करने के बाद निदान न मिलता देख निर्णय यह लिया कि , इसकी कारक मैं नहीं हूँ ,फिर सोचा जो है उसे क्यों न प्रेषित कर दूँ | यह बहुत आवश्यक हो गया है. क्योंकि यह प्रतिदिन ,चक्रवृद्धि ब्याज की तरह बढ़ती ही जा रही है | कहीं एक दिन ऐसा न आ जाये यह ,स्थितियाँ यूँ ही बनी रहे ,और धरती पर मेरा अस्तित्व ही समाप्त हो जाये, किन्तु ऐसा कदापि न समझे कि मैं आपको अपनी आशा की गठरी पकड़ा रही हूँ , मै आपसे किसी प्रकार की अपेक्षा भी नही रखती | हाँ जब भी मेरी भावाओं का दखल जीवन को बाधित करता है, मै कलम का सहारा ले लेती हूँ | आज जो भाव मेरे अन्दर आ रहे है , वो मेरे जीवन में आश्चर्यजनक बदलाव के कारक हैं | शायद अपने जीवन के एक बड़े पड़ाव को पार करते समय बीच के कुछ पन्ने खाली रह गये होंगे ,
जो, भावो मे परिवर्तित हो अब अपना अधिकार माँग रहे हैं | इसे यदि लिखकर यूँ ही छोड़ दूँगी तो, यह वापस आकर मुझे प्रताणित करेंगे | इसलिए इसे सही पते पर भेज रही हूँ |आपके पास मेरी इस समस्या का निदान केवल आपकी स्वीकृति या समप्रत्योत्तर नही वरन् तिरस्कार भी है | यदि आप समान भाव रखते हैं तो शायद ये मेरे लिए पूर्ण अनुभूति हो, और यदि तिरस्कार , तो भी ,मुझे इस स्थिति से निकालने में आपका बहुत बड़ा योगदान होगा,क्योकि इससे मै जीवन की पदयात्रा को पूर्ण करने के पश्चात प्राणान्त में एक अनन्त यात्रा मे प्रवेश पा सकूँगी, क्योंकि बंधन इस मार्ग को बाधित करते हैं | मेरी कामना अब दुबारा इस दुनिया मे आने की नही , पूर्णता और त्याग दोनो ही मुझे इस स्थिति तक पहुँचाने मे सहायक होंगे हो | आप मेरे इस पत्र का जवाब शब्दो द्वारा ही दें यह आवश्यक नही , आपका मौन भी मेरा उत्तर ही होगा | इतना लिख मैसेज सैन्ड कर आकांक्षा एक गहन आत्म मंथन मे डूबने लगी उसे लगा मानो एक अप्रत्याशित बदलाव से उत्पन्न ,आवेश से बाधित तलवार लेकर, किसी ने वर्षो से संजोई शीलता की ग्रीवा पर रख दी हो, और तलवार ने भी अपनी पहचान ग्रीवा पर जख़्म के रूप मे बना ली है |किन्तु इतने जतन के बावजूद वह स्वयं को ठगा सा ही महसूस कर रही थी | हाय ! यह मैने क्या किया ?
क्यो किया ? मेरे जीवन मे बदलाव के लिए कोई स्थान नही फिर यह मुझसे क्या हो गया | कहीं आशाओं से तो बाधित नही मै ?? स्वयं के प्रश्न का उत्तर तलासने का सामर्थ्य भी अब उसमे जैसे न रहा | तभी अचानक आकांक्षा को न जाने क्या सूझा उसने अंबर का अकाउंट भी ब्लाक कर दिया | क्रमश: