भाग 8
अनुष्ठान की तैयारियां जोर-शोर से चल रही थी। सारे रिश्तेदारों नातेदारों को निमंत्रण दिया गया था। सभी की प्रतीक्षा हो रही थी। सभी की आवश्यकता के हिसाब से व्यवस्था की जा रही थी। केशव के घर रिश्तेदार और घर वाले आ गए। मां तो सबसे पहले आ गई थी सब संभालने। उन्होंने बच्चे को और अनुष्ठान की सारी तैयारी संभाल ली। आखिर बेटा कोई धार्मिक काम करे तो माता पिता को तो खुशी होती ही है।
सबसे ज्यादा व्यस्त सुशीला थी। उसे सबसे ज्यादा चिंता महाराज जी की थी कि उन्हें कोई असुविधा न हो। इस चक्कर में उसका ध्यान बच्चे पर भी कम ही था। मकान मालिक से कह कर नीचे का पूरा ही घर ले लिया था और बाहर का कमरा जो सबसे ज्यादा बड़ा और हवादार था उसे महाराज जी के लिए खाली करवा दिया था। उसकी साज सज्जा महाराज जी की सुविधा के अनुरूप कर दिया था। एक चौड़ा तख्त पंखे के नीचे लगवा दिया था उसपर एक मुलायम गद्दा डालकर नई सफेद चादर बिछा दी थी।
तय तिथि पर मेहमानों का आना शुरू हो गया। जब भी कोई आता सुशीला झांक कर देख जाती कौन है…? और महाराज जी को न देख कर निराश हो जाती। लंबी प्रतीक्षा के बाद आखिरकार सबसे बाद में महाराज जी आगमन हुआ। जैसे ही वो आए केशव ने उन्हें आदर सहित ला कर आसन ग्रहण करवाया। सुशीला थाली में पानी लेकर आई और उनके चरण धोए। उस जल को पूरे घर में छिड़का। पुनः जलपान की व्यवस्था करने में व्यस्त हो गई।
वो दिन बीत गया। अगले दिन की तैयारी में रात भर सुशीला को नींद नहीं आई उसे पता था कि महाराज जी ब्रह्म मुहूर्त में ही उठकर स्नान ध्यान करते हैं इसलिए वह उठने वह उनके उठने के पूर्व ही जाग गई और कमरे की साफ सफाई के साथ उनके पूजा की तैयारी कर डाली। जब महाराज जी उठे और स्नान करके आए तो देखा कि पूजा की सारी तैयारी हो चुकी है यह देखकर यह देखकर वह आश्चर्यचकित रह गए कि अरे!!!! उनके मुंह से निकला यह तैयारी किसने कर डाली। इतने में सर ने पल्लू डाले सुशीला आई और सिर झुका कर खड़ी हो गई और बोली,
"महाराज जी …! मुझे पता है कि आप ब्रह्म बेला में ही साधना करते हैं इसलिए मैंने सारी तैयारी कर डाली है। जिससे आपको कोई कष्ट ना हो।"
उसने उनके चरण छूए और बोली,
"महाराज जी ..! कृपया कोई कमी हो तो बताइए मैं शीघ्र ही उसे पूरा करूंगी।"
महाराज जी गदगद हो गए और प्रसन्न स्वर में बोले,
"नहीं पुत्री …! कोई कमी नहीं है सदा सौभाग्यवती रहो।"
इसी प्रकार जो महाराज जी एक दिन के लिए आए थे। सिर्फ अनुष्ठान के लिए। वो सुशीला के सेवा भाव से अनुष्ठान के पश्चात भी रुक गए। सारे मेहमान चले गए पर वो रुके रहे। अब उन्हें घर और आश्रम का फर्क समझ आ रहा था।
वजह चाहे जो रही हो पर सुशीला ने बहुत मनोयोग से महाराज जी की सुख सुविधा का और खाने-पीने का ध्यान रखा।
अब महाराज जी को जाना था। वो जाने को तैयार तो थे पर वास्तव में उनका दिल सुशीला की सेवा से इतना प्रसन्न थे कि वह जाना नहीं चाह रहे थे।
पर जाना तो था ही वह जाने लगे तो सुशीला पास आई और बोली,
"महाराज जी….! जब भी आपका मन करें आप जरूर आइए। मुझे आपकी सेवा कर के बहुत सुकून मिलता है।"
इस पर महाराज जी बोले,
"नहीं बेटा मैंने घर परिवार त्याग दिया है, मैं वहां नहीं आऊंगा। वो तो केशव के आग्रह की वजह से आना पड़ा।"
उसे चुप और खड़े खड़े जमीन कुरेदते देख कर महाराज जी बोले,
"पुत्री…! मुझे ऐसा लग रहा है तुम कुछ कहना चाह रही हो। अगर तुम्हारे मन में कोई बात हो तो बताओ संकोच ना करो।"
इस पर सुशीला संकोच के साथ अपने पल्लू के छोर को उंगली पर लपेटते हुए बोली,
"महाराज जी…! यह (केशव) आपके पास इसी सिलसिले में बात करने गए थे। हमें पता है कि आप यहां नहीं आ जा पाएंगे इसलिए हमने शहर में मकान खरीदने की योजना बनाई है परंतु हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं। कुछ पैसे कम पड़ रहे हैं परंतु संकोच वश यह आपसे कुछ कह नहीं पाए। हम बाद में आपका पैसा धीरे धीरे लौटा देंगे। आप यकीन करिए हम आप का पैसा नहीं लेंगे यथाशीघ्र हम वापस करने का प्रयास करेंगे।
सुशीला की बात सुन कर महाराज जी बिना कुछ बोले चले गए।
महाराज जी के जाने के बाद सुशीला उधेड़ बुन में थी। पता नहीं महाराज जी बात करेंगे या नहीं। पर उसकी यह दुविधा जल्द ही समाप्त हो गई। दिन केशव ड्यूटी से जब वापस आया तो बताया महाराज जी का एक शिष्य आया था और उसने कहा कि महाराज जी जो भी संभव होगा मदद करेंगे।
ये सुनते ही सुशीला खुशी से झूम उठी। वो बोली,
"फिर तो आप मकान तलाशना शुरू कर दो।"
इसके पश्चात् केशव जोर शोर से मकान खरीदने में लग गया। बहुत तलाश के बाद एक मकान पसंद आया। केशव ने उसे सुशीला को भी दिखाया। उसे भी मकान पसंद आया । जल्दी ही सौदा पक्का हो गया और मकान खरीद लिया गया। शुभ मुहूर्त में गृह प्रवेश आदि किया गया सभी सगे संबंधियों को बुलाया गया महाराज जी को भी बुलाया। पर उन्होंने मना कर दिया।
मैं नहीं आ पाऊंगा। केशव और सुशीला ने ज्यादा जोर भी नहीं दिया।
अब सुशीला और केशव शहर में हीं रहने लगे। घर से भी कोई ना कोई आता जाता रहता था। पर सुशीला को ये आना जाना बिल्कुल नहीं सुहाता था। पर क्या किया जा सकता था। सभी का स्वागत करना हीं पड़ता था।
महाराज जी अपने आश्रम में भली भांति निवास कर हीं रहे थे।
परन्तु परिवर्तन जैसा की संसार का नियम है। अब वृद्ध हो रहे थे और एक असुरक्षा की भावना उनके अंदर घर कर रही थी। और ये भावना बेबुनियाद नहीं थी। दरअसल कुछ नए आए साधुओं ने जब आश्रम की संपत्ति देखी तो उनके मन में लालच आ गया और महाराज जी ज्यादा वृद्ध भी नहीं थे कि उनके बाद उत्तराधिकार पाने तक प्रतीक्षा करते। महाराज जी असमंजस में थे। क्या करें। वो अपने ही आश्रम में खुद को असुरक्षित महसूस करने लगे थे।
कुछ समय पश्चात महाराज जी को अपने एक शिष्य के बुलावे पर जाना पड़ा। उस शिष्य का निवास भी केशव के घर के पास हीं था। दो दिन शिष्य के यहां रहने के पश्चात उन्होंने केशव को बुला भेजा। जैसे ही केशव ने सुना दौड़ा दौड़ा आया। महाराज जी के चरण स्पर्श कर उन्हें घर चलने के लिए कहा। महाराज जी तैयार हो गए। केशव महाराज जी को लेकर घर पहुंचा।
जैसे ही केशव महाराज जी को लेकर घर पहुंचा। सुशीला तुरंत हीं अन्दर गई और थाली में पानी लेकर महाराज जी के पांव पखारे और उस जल को पूरे घर में छिड़क दिया। पुनः आकर उनके पांव छुए और कहा, "महाराज जी ..! अब आप आराम करिए। मैं जलपान का प्रबंध करती हूं।"
यह कहकर तत्परता से रसोईघर में चली गई। केवल दूध में चाय और मेवे तल कर ले आई। जल्दी से महाराज जी के सामने रख दिया। सुशीला के सेवा भाव से महाराज जी गदगद हो गए। उसके बाद जब तक दो दिन के प्रवास के पश्चात महाराज जी जब चलने लगे और सुशीला ने पूछा,
"महाराज जी ..! अब कब आपके चरण रज इस घर में पड़ेंगे?"
महाराज जी बोले,
"पुत्री ..! मैं तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न हूं। शीघ्र ही आने की कोशिश करूंगा।"
इतना कह कर महाराज जी चले गए। केशव उन्हें छोड़ने गया।
पूरे सफर में महाराज जी सोचते विचारते गए और आश्रम पहुंचते पहुंचते वो निर्णय ले चुके थे। एक महीने पश्चात् पुनः उन्होंने केशव के पास जाने का मन बनाया और जो भी वस्तुएं भक्तों द्वारा भेंट में दी गई थी अपने साथ ले लिया और चल पड़े। केशव को सूचना दे दी थी वो लेने आया था।
केशव घर पहुंचते ही महाराज जी की सेवा में पुनः सुशीला लग गई थी। जलपान के बाद महाराज जी ने सुशीला और केशव को अपने पास बिठा कर कहना शुरू किया,
"बेटा …! अब मैं वृद्ध हो रहा हूं। वहां आश्रम में कुछ नये शिष्य लालची प्रवृति के है। वो मुझे धन के लोभ में क्षति पहुंचा सकते हैं। इसलिए बेटा मैं ने सोचा है। जैसे जैसे एकत्र करता जाऊंगा थोड़ा थोड़ा धन तुम्हें सौंपता जाऊंगा। तुम किसी भी बैंक में मेरा खाता खुलवा दो। मुझको सिर्फ तुम दोनों पर हीं विश्वास है।"
ये सुन कर केशव और सुशीला मन ही मन खुश हो गए पर ऊपर से दिखावा करते हुए बोले,
"नहीं महाराज जी…! हमें सिर्फ आपका आशीर्वाद चाहिए।"
इसके बाद महाराज जी ने रूपए केशव दिए और घर गृहस्थी में इस्तेमाल होने वाले सामान जो श्रद्धालु महाराज जी को देते थे वो सब सुशीला को सौंप दिया। सुशीला प्रसन्न हो गई इतने सारे सामान को देख कर।
इस प्रकार ये सिलसिला शुरू हो गया। महाराज जी एक दो महीने सारा चढ़ावा एकत्र करते और जब ज्यादा हो जाता तो सुशीला और केशव को सौंप देते। अब केशव और सुशीला ने आपस में विचार विमर्श कर के महाराज जी को भी एक घर खरीदने के लिए तैयार करने का मन बनाया।
पुनः जब महाराज जी आए तो केशव ने कहा,
महाराज जी…! जब आप वहां सुरक्षित ही नहीं हैं तो फिर वहां रहने का क्या फायदा..? मैंने आपके लिए एक घर की व्यवस्था करने की सोची है। जब तक आपके हाथ पैर चल रहे हैं आप आश्रम में रहिए जब ना चले यहां रहने आ जाइएगा। कुछ देर सोचने के बाद नस महाराज जी ने हामी भर दी।
अब केशव जोर शोर से मैं मकान की तलाश शुरू कर दी और कुछ ही समय पश्चात एक बहुत ही अच्छा और सस्ता घर मिल गया । अब बस महाराज जी के आने की देर थी उन्हें दिखाकर पसंद करा दिया जाए इस बार महाराज जी आए तो केशव ने उन्हें दिखाया वाकई वह घर अच्छा था और महाराज जी को भी पसंद आया और कुछ समय पश्चात ही वह मकान महाराज जी के नाम से केशव ने खरीद लिया पूरे पैसे तो महाराज जी के पास नहीं थे कुछ अपना लगाकर और कुछ महाराज जी के जमा किए हैं पैसे से वह मकान खरीद लिया गया। मकान खरीदने के बाद महाराज जी ने भव्य अनुष्ठान करके उस घर का गृह प्रवेश किया उसने भी उनके ढेर सारे शिष्यों ने दान दिया। महाराज जी कुछ समय यहां रहते हो कुछ समय अपने पुराने आश्रम के जाते और जब कुछ पैसे इकट्ठे हो जाते तो पुनः शहर में आ जाते। अब महाराज जी को भी इन शब्दों में आनंद आने लगा था
एक वर्ष पश्चात फिर उन्होंने केशव से आस पास की और भूमि खरीदने का प्रस्ताव रखा केशव तो यह चाहता ही था उसने जरा सी ही प्रयास के बाद पास की भूमि खरीदने का भी प्रबंध कर दिया और वह भूमि भी खरीद ली गई । अब महाराज जी के पास वह सब कुछ है जिसकी वह कभी कल्पना भी नहीं करते थे। बड़ा सा घर गाड़ी दुधारू पशु, सब्जियां उपजाने के लिए पर्याप्त जमीन। और सेवा में तत्पर केशव और सुशीला।
इस प्रकार यह सिलसिला आज भी चल ही रहा है महाराज जी अब भी भ्रमण शील है। उनकी जरूरत कभी भी खत्म नहीं ना होती। ना वह अपने शिष्यों से कुछ चढ़ावा देने को मना करते हैं और ना ही संतुष्ट होते हैं।
मैंने बस यही समाधान ढूंढने का प्रयत्न करना चाहा कि क्या आप जब संन्यासी बनते हो हो क्या आपके लिए संसार का प्रत्येक मनुष्य एक समान नहीं हो जाता है । क्या संग्रह करना एक संन्यासी की प्रवृत्ति होनी चाहिए। क्या संन्यासी को अपनी जरूरत से ज्यादा होने पर किसी गरीब की मदद करनी चाहिए।