mahakavi bhavbhuti - 10 in Hindi Fiction Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | महाकवि भवभूति - 10

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महाकवि भवभूति - 10

महाकवि भवभूति 10

महाकवि भवभूति और महाराजा यशोवर्मा

जब जब चिन्तन नीति-अनीति का विश्लेषण करने के लिये प्रवाहित होता है तब तब चेतना निर्णायक भूमिका का निर्वाह करने में गर्व का अनुभव करती है।

आज भवभूति का चिन्तन, रचनाधर्मिता से पृथक होकर वर्तमान के इर्द-गिर्द ताने-बाने बुनने में लगा था। पद्मावती नरेश वसुभूति को अपनी शक्ति पर अगाध विश्वास हो गया तो उन्होंने गणपतियों के वर्चस्व को पूरी तरह नकार दिया और सेनापति के स्थान पर विक्रमवर्मा को नियुक्त कर दिया। यूँ तो गणपति पहले से ही शासन व्यवस्था से दूर हो गये थे लेकिन इस व्यवस्था के कारण वे पूरी तरह नगण्य हो गये।

इस तंत्र की यह व्यवस्था अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकी। कन्नौज के राज यशोवर्मा की दृष्टि पूर्व से ही इस राज्य पर लगी थी। उसने इस राज्य को अपने अधिपत्य में लेने के लिये यह अच्छा अवसर जाना। अपने गुप्तचरों के माध्यम से राजा वसुभूति के सेनापति विक्रम वर्मा को जातिवाद के वाचा में लेकर उसे अपनी ओर मिला लिया। इससे आक्रमण किये बिना ही राजा वसुभूति उनके अधीन हो गये।

राजा वसुभूति अच्छी तरह जान गये कि सेनापति विक्रम वर्मा यशोवर्मा के सगोत्रीय हैं। विक्रमवर्मा ने यशोवर्मा की वीरता की बातें राजा वसुभूति के अन्तस् में इस तरह बिठा दी, जिससे पद्मावती नरेश का दिल हिल गया। वे समझ गये यदि युद्ध हुआ तो हम उनसे जीत नहीं पायेंगे। राज्य के गणपति अपमानित हो चुके हैं। इसलिये वे मदद करने वाले हैं नहीं। यह सेाचकर राजा वसुभूति ने यशोवर्मा से सन्धि कर ली। इस प्रकार पद्मावती राज्य का अस्तित्व समाप्त हो गया।

महाराज यशोवर्मा महाकवि भवभूति को कन्नौज आने के लिये निमंत्रण भेज चुके थे। भवभूति इस द्वन्द्व में पड़े थे कि वे वहाँ जायें कि नहीं। इसका वे निर्णय नहीं कर पा रहे थे किन्तु उनकी कल्पना में बारम्बार यह आ रहा था कि एक बार महाराज यशोवर्मा पद्मावती जरूर पधारें। उनके समक्ष मेरे किसी नाटक का मंचन हो। क्योंकि वे जानते थे महाराज यशोवर्मा ने भी रामाभ्युदय नामक नाटक काव्य लिखा है। ऐसे विद्वान के द्वारा उनके सृजन कार्य मूल्याँकन हो। इसके बाद ही कन्नौज जाने या न जाने का निर्णय लिया जा सकता है। महाराज यशोवर्मा भवभूति के नाटकों का मंचन देखने के इच्छुक हैं, वे यह संदेश भी यहाँ भेज चुके हैं।

भवभूति सोचने लगे थे कि जब महाराज यशोवर्मा का बुलावा आ ही चुका है। वे मेरा मूल्याँकन करना चाहते हैं तो कर लें। पत्नी दुर्गा और पुत्र गणेश के बारे में सोचने लगे- न हो तो इन्हें भी कन्नौज लिये जाता हूँ। याद हो आई गुरुदेव ज्ञाननिधि के विद्याविहार की। मेरे जाने के बाद विद्याविहार का क्या होगा ? कौन देखेगा इसकी व्यवस्था। पुत्र गणपति विद्याविहार के काम में रुचि लेने लगा है। यहाँ उसका जीवन आनन्द से व्यतीत हो सकेगा। कोई सत्ता आये, कोई राज बदले, विद्याविहार की सेवा मे रहकर उसे कोई अभाव नहीं रहेगा। रही पत्नी दुर्गा की बात तो उसे साथ ले जाना ही उचित होगा। उसके बिना मैं भी तो नहीं रह पाऊँगा। यह सोचते हुये वे सुमंगला जी के घर की तरफ बढ़ गये। सड़क के किनारे गड्डे में एक शूकर आनन्द से मुँह चला चलाकर खाद्य वस्तुओं को खोज रहा था। उसे देखकर भवभूति सोचने लगे- हमारे लिये जो अभक्ष्य है वही दूसरों के लिये भक्ष्य हो सकता है। हमारे लिये जो प्रिय है वही वस्तु दूसरे के लिये अप्रिय हो सकती है। कैसा विचित्र है संसार चक्र। सभी अपने-अपने परिवेश में जीने का आनन्द खोज रहे हैं।

अब तक सुमंगला जी के घर का दरवाजा आ चुका था। लोहे की बड़ी-बड़ी सलाकाओं से सजा काष्ठ का द्वार लगा था। अन्दर जाने के लिये उसमें भी एक और छोटा सा दरवाजा था। दरवाजे पर तलवार लिये दरबान खड़ा था। अन्दर बड़ा सा चौक था, जो अध्ययन कक्षों से घिरा था। छात्र अपने-अपने कक्ष में अध्ययनरत् थे।

आचार्य छात्रों को इस तरह शिक्षित कर रहे थे जिससे संबंधित प्रसंग बालमनों में पूरी तरह बैठ जायें। आचार्यों का जी जान लगाकर छात्रों को पढ़ाना, उन्हें बहुत अच्छा लगा। जब-जब वे सुमंगला जी के यहाँ आते हैं उनका मन अनायास ही विद्यालय की शिक्षा पद्धति की ओर चला जाता था। उन्हें लगता था निश्चय ही यहाँ अध्ययन ठीक ढंग से कराया जाता है। यहाँ की व्यवस्था उन्हें अपने विद्याविहार की व्यवस्था से श्रेष्ठ लगती है। छोटे-छोटे शिशु यहाँ मन लगाकर अध्ययनरत हैं। यह उन्हें बहुत रूचिकर लगता है। इस तरह तुलनात्मक अध्ययन करते हुये भवभूति ण्0सुमंगला जी के बैठककक्ष में पहुँच गये।

नगर के निर्वासित गणपतियों की बैठक चल रही थी। भवभूति के वहाँ पहुँचने पर सभी ने उनका अभिवादन किया। वे अपने आसन पर बैठ गये। सुमंगला जी ने बात शुरू की- ‘वर्तमान में राजनैतिक घटनाऐं इस तरह की घटित हो रहीं हैं कि पद्मावती नगरी का भविष्य अंधकार में दिखाई दे रहा है।’

भवभूति उनके विद्यालय की प्रशंसा करते हुये बोले- ‘लेकिन आपका विद्यालय तो इसके उज्ज्वल भविष्य के बारे में प्रयासरत है। ऐसी प्रयोगात्मक अध्ययन की व्यवस्था तो मैंने बहुत कम स्थानों पर देखी है। आपके के आचार्यों का पढ़ाने का ढंग पूर्णरूप से मनोवैज्ञानिक है।’

सुमंगला ने बात स्वीकार करते हुये उत्तर दिया- ‘मैं यह स्वीकार करती हूँ कि हमारे विद्यालय के छात्र एवं आचार्य मनोयोग से अध्ययन-अध्यापन में लगे हैं, लेकिन यहाँ की राजनीति ने सारी प्रगति धूमिल कर दी है। गणराज्य की समाप्ति के कारण ही कन्नौज के महाराज यशोवर्मा का यहाँ आधिपत्य हो गया है। यहाँ के राजा ने गणपतियों का विरोध करके अपने मन का सेनापति नियुक्त कर दिया। यही उसकी सबसे बड़ी भूल हो गई। वे तो इस भूल को अभी भी स्वीकार नहीं कर पा रहे हैैं । अब तो राजा वसुभूति तो नाममात्र के राजा रह गये हें। यह सब सुनकर पार्वतिनन्दन से रहा न गया तो बोले- ‘महाराज यशोवर्मा का विक्रम वर्मा सगोत्रीय है। उनके गुप्तचरों को यहाँ सेंध लगाने में देर नहीं लगी। आजकल जातिवाद का प्रचलन तेजगति से बढ़ता जा रहा है। यह देशहित एवं राष्ट्रहित में नहीं है। प्रश्न खड़ा है इस पर अंकुश कैसे लगे ?’

बात का उत्तर देने के लिये गणपति नरोत्तम बोले- ‘यह तो समाज में मीठा जहर फैल रहा है। यह रोग आज से नहीं है। गणपतियेंा की नियुक्ति भी जाति अथवा कबीले के प्रमुख लोगों में से होती रही है। हम और आप सभी गणपति, अपनी जाति के प्रमुख व्यक्तित्व हैं। यहाँ के राजा को जातियों की प्रमुखता बहुत अधिक खल रही थी। उन्होंने इसी कारण गणपतियों के अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया। क्यों गणपति सुन्दर सिंह जी ?’

गणपति सुन्दर सिंह बोले- ‘जातिवाद की एक कुप्रथा को समाप्त करना चाहा तो दूसरी जातिवाद की जंजीरों में जकड़ गये।’

बात सुमंगला ने पूरी की- ‘एक के विरोध का उत्तर दूसरे वर्मा सगोत्रीय भावना ने पद्मावती का अस्तित्व ही समाप्त कर दिया। अब यहाँ का सारा धन कन्नौज के खजाने में कर के रूप में पहुँच रहा है।’

भवभूति ने अपने मन की वेदना व्यक्त की- ‘अब यहाँ की प्रगति अवरुद्ध हो गयी है। सड़कें टूट रही हैं। सड़कों के किनारे पानी के गड्डे भरे हैं। दिन पर दिन शूकरों का प्रकोप बढ़ता जा रहा है।’

पार्वतिनन्दन ने अपनी भावना को व्यंग्य की शब्दावली से पूरी किया- ‘हमारे महाकवि भवभूति को तो कन्नौज से बुलावा आ चुका है, अब उन्हें यहाँ की क्या चिन्ता? ’

भवभूति उद्विग्न हो उठे-‘ पद्मावती के प्रति मेरी निष्ठा की बात आप यह कैसे कहते हैं?! यों अवमानना न करें वैसे भी हमारा सुपुत्र गणेश हमेशा यही रहेगा और विद्याविहार की प्रगति की चिन्ता में मैं सदैव सजग प्रहरी का दायित्व निभाता रहा हूँ।’

सुमंगला बोली- ‘विद्याविहार का दायित्व आचार्य शर्मा, महाशिल्पी एवं आपके पुत्र गणेश को सौंप दीजिये। ये तीनों किसी भी प्रकार से कम नहीं हैं। ’

गणपति रंगनाथ ने बात का अनुमोदन करते हुये कहा- ‘हम सब सुमंगला जी की बात का समर्थन करते हैं। यदि नाट्य मंचन की दृष्टि से आपको वहाँ जाना पड़े तो हमें इसमें क्या आपत्ति हो सकती है। महाराजा यशोवर्मा भी एक श्रेष्ठ नाटककार हैं। संभव है वहाँ पहुँचकर महाकवि की ख्याति को पंख लग जायें और आप कन्याकुमारी से कश्मीर तक अपनी पहचान बना सके।’

भवभूति ने उत्तर दिया़- ‘मुझे इस धरती से असीम प्यार है। मुझे यहाँ से कहीं भी जाने की इच्छा नहीं है।’

भवभूति के कन्नौज जाने में ही पद्मावती का लाभ सुमंगला को दिखा, यही सोचकर बोली- ‘हमारे महाकवि वहाँ जाकर यहाँ की अव्यवस्था पर कन्नौज नरेश महाराज यशोवर्मा का ध्यान केन्द्रित करते रहेंगे। वहाँ के महाराज विद्वान मनीषी हैं। वे आपकी बातों को टालने वाले नहीं हैं।’

भवभूति ने आत्मनिवेदन किया-‘ उत्तरचरितम् की रचना अधूरी है। वह पूरी हो जाये। उसके पश्चात मंचन का प्रश्न खड़ा होगा। वैसे इस नगर की प्रगति के लिये मैं अपना सर्वस्व अर्पण करने के लिये तैयार हूँ। पुत्र गणेश के यहाँ रहने से मेरा आना-जाना बना ही रहेगा। अच्छा चलता हूँ भोर का निकला हूँ। आज विद्याविहार भी नहीं जा पाया। भगवान कालप्रियनाथ के मन्दिर से सीधा यहाँ आ रहा हूंँ।’

यह सुनकर उन सब को लगा अब सभा विसर्जित कर दी जाये।

जैसे ही भवभूति कक्ष से बाहर निकले। आचार्य शर्मा व माहशिल्पी सामने से उसी ओर आते दिखे। भवभूति उन्हें सफाई देते हुये बोले- ‘आप लोग आज कालप्रियनाथ के मंदिर में नहीं आये थे। मैं आज विद्याविहार भी नहीं आ पाया। यहाँ निर्वासित गणपतियों की बैठक थी, इन लोगों ने मुझे भी बुलाया था, इसीलिये यहाँ उपस्थित होना पड़ा।’

महाशिल्पी ने अपनी सफाई दी- ‘मैं भी आज कालप्रियनाथ के मंदिर में नहीं आ पाया। ’

आचार्य शर्मा महाशिल्पी से बोले- ‘ मित्र, हम आपकी तरह नास्तिक नहीं हैं, मैं तो वहाँ पहुँचा था लेकिन आज विद्याविहार के कुछ विद्यार्थियों को समय दिया था।’

भवभूति महाशिल्पी की बात पर सोचते हुये बोले- ‘यहाँ के लोग आप की ही तरह नास्तिक होते जा रहे हैं। परमसत्ता के अस्तित्व से लोगों का विश्वास उठता जा रहा है ऐसा मैंने पहले कभी नहीं देखा।’

हर बार की तरह एक और नई भविष्यवाणी आचार्य शर्मा ने की-‘जब-जब धर्म की हानि होती है। असुर बढ़नेे लगते हैं तब-तब दुनिया गर्त में डूबती चली जाती है, देखना इस नगर का अंत भी निकट दिखाई दे रहा है।’

दोनों मित्रों को उनकी भविष्यवाणी बहुत ही कड़वी लगी। महाशिल्पी ने उत्तर दिया-‘आपने आज तक जितनी भविष्यवाणी की हैं उनमें से कुछ सत्य तो निकली हैं, मैं इसे महज एक संयोग ही मानता हूँ। आप अपनी भविष्यवाणी करना बन्द कर दें। इससे समाज में अन्धविश्वास फैलता है। ’

भवभूति ने उनकी भविष्यवाणी की याद दिलाते हुये कहा-‘आचार्य आपने जो सूर्यग्रहण की बात कही थी वह किस माह में पड़ रहा है।’

आचार्य शर्मा ने अँगुलियों के सहारे गिनती करते हुये कहा-‘ भाद्र मास की अमावस्या के दिन सम्पूर्ण सूर्यग्रहण होगा। हमारे विद्याविहार की वेधशाला के शोध में यह बात घोषित की गयी है।’

सेठ हरिदास भी विद्यालय से बाहर आकर इन सब बातें सुन रहे थे। भविष्यवाणी की बात सुनकर चुप न रह सके बोले- ‘हमारे महाकवि तो यहाँ से जा ही रहे है, न होगा तो मैं भी अपने परिजनों को लेकर सालवई कस्बे में चला जाता हँू। अब यहाँ पहले जैसा व्यवसाय भी नहीं रहा। हमारी जाति के अधिकांश लोग यहाँ से पलायन कर चुके हैं।

महाशिल्पी ने अपनी बात कही-‘चाहे जो हो, मैं तो यहाँ से कहीं भी जाने वाला नहीं हूँ। मैं तो इसी मिट्टी में जन्मा हूँ इसी में खेलकर बड़ा हुआ हूँ, अब इसी में समा जाना चाहता हूँ।’ उनकी यह बात सभी को बहुत भायी।

वे सब सोचने लगे-यह आदमी नास्तिक तो है, लेकिन मातृभूमि से इसे कितना गहरा प्यार है, काश! ऐसा प्यार इस धरा के लिये हम सभी का हो जाये, फिर देखना यह धरती स्वर्ग से भी बढ़कर हो जावेगी। आचार्य शर्मा यही सोचकर बोले- ‘हमारे महाशिल्पी का कुछ मामलों में चिन्तन अतिश्रेष्ठ है किन्तु कुछ विषयों पर तो पतन की पराकाष्ठा को छू जाते हैं।’

यह वाक्य महाशिल्पी को बहुत ही बुरा लगा। वे सोचने लगे, आचार्य शर्मा की सांख्यकि वाली बातंे सटीक हैं, इसके तथ्यों को आज तक कोई अस्वीकार नहीं कर पाया है न भविष्य में कर पायेगा। यही सोचकर बोल- सांख्यकि में कुछ भी असत्य नहीं हैं। असत्य हमारे प्रस्तुत करने का ढंग है।’

प्रस्तुत करने के ढंग वाली बात ने आचार्य शर्मा के मन में प्रश्न खड़ा कर दिया बोले- आप अपनी मृण्मूर्तियों में रामसीता, शिवपार्वती, कृष्ण एवं गणेश आदि देवों की प्रतिमाएँ साकार करने में लगे रहते हैं और उनकी सत्ता को नकारते भी हैं।’

महाशिल्पी गंभीर होकर बोले- ‘मैं इनकी सत्ता को अस्वीकार करता हूँ, पर हमारे शास्त्रों में इन देवों का जैसा वर्णन आया है, वह वर्णन सत्य है या असत्य हमें इससे लेना-देना नहीं है। हम तो उन वर्णित प्रतिमाओं को साकार रूप प्रदान करने में लगे रहते हैं। हमें दुःख है कि हम अपनी कल्पना से जो मूर्ति सृजित करते हैं, आप उन देवों को पूजने लगते हैं। यह हमारी नहीं ,आपके अंदर की भ्रमित भावना है।’ यह सुनकर वे एक क्षण के लिये चौराहे पर ठिठके, घर की याद करते हुये अपने घर की ओर मुड़ गये।

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