अरमान दुल्हन के भाग 13
कविता दस दिन बाद मायके से वापस लौटी। उसकी सबसे बड़ी ननद आई हुई थी। वह सास के चरण छूने के लिए झुकी।
"रहणदे घणी संस्कारी बणननै, कोय जरूरत ना सै मेरै पैरां कै हाथ लगाण की।" सास ने गुस्सा दिखाते हुए फट पड़ी।
"के होग्या मां !" सुशीला ने मां से प्रश्न किया।
"बेटी दोनू आपणी ए मर्जी चलावै सै। वो तो था ए ईस्सा।या बी अपणी ए मर्जी तैं गाम जाण लागैगी।" पार्वती ने सुशीला को नमक मिर्च लगाकर बहुत सी गलतियां कविता की निकाल डाली। सुशीला भी भला बूरा सुनाने लगी। कविता कुछ कहना चाहती थी किंतु सुशीला पर भी मां रंग चढ़ चुका था।
समय बीतता गया और सास नखरे बढ़ते गए। पार्वती दिन -प्रतिदिन कविता के कामों में मीनमेख निकालती रहती। कविता कुछ नहीं बोलती।एक कान से सुनती दूसरे से निकाल देती। पार्वती सरजू से भी कभी लड़ती तो कभी प्यार से बतिया लेती। सरजू के खिलाफ कविता को और कविता को सरजू के खिलाफ भड़काने की कोशिश करती रहती थी। सरजू कभी -कभी मां की बातों में आकर कविता पर चिल्ला पड़ता था। बाद में कविता से माफी भी मांग लेता था।
एक दिन सुबह पार्वती को काम से कहीं बाहर जाना पड़ा।वह कविता को घर के ढ़ेर सारे काम बताकर चली गई।सरजू भी ड्यूटी पर चला गया।अचानक कविता की तबीयत खराब हो गई। उसे बेचैनी होने लगी और वह उल्टियां करने लगी। उसने लौंग को भूनकर खाया ताकि उल्टियाँ बंद हो जाए। गांव में जब उसे कई बार चाय पीने से उल्टियाँ लग जाती थी, मां उसे कच्चा पक्का लौंग ही देती थी। मगर कविता को कुछ फर्क नहीं पड़ा। तबीयत ज्यों की त्यों थी। उल्टियां कर -करके पेट खाली हो चुका था। खाना न खाने की वजह से उबकाई आने लगी थी। शाम को पार्वती वापिस लौटी । घर को अस्त-व्यस्त देखकर आग बबूला हो गई। जोर जोर से चिल्लाकर सभी पड़ोसियों को इक्ट्ठा कर लिया। कविता भी सास की आवाज सुनकर बाहर आ गई। वह खड़ी नहीं रह पा रही थी इसलिए सीढियों पर बैठ गई।
शकुंतला काकी ने कविता की दशा देखकर उसे छुआ । उसका बदन बुखार से तप रहा था।
"ए पार्वती क्यातैं हंगामा खड़्या कर राख्या सै? बहू की आसंग कोनी देखिए! इसकै तो निवाई (बुखार) आरी सै। इसकी पूरी देही तपण लागरी सै। इसनै डाक्दार (डॉक्टर) कै लेज्या।"पड़ौसन ने पार्वती को समझाया।
पार्वती उसे गांव के सरकारी अस्पताल में ले गई। डॉक्टर ने कुछ टैस्ट किए, दवा दी और अगले दिन आने को बोला।
दूसरे दिन पार्वती फिर से कविता को लेकर अस्पताल गई।
डॉक्टर ने मुस्कुराते हुए कहा- "मां जी बहुत बहुत बधाई हो। आप दादी बनने वाली हैं। और हां एक बात का ध्यान अवश्य रखिएगा।कविता मैंटली डिस्टर्ब न हो। तीन महीने कम्पलीट बैड रैस्ट करना है।
पार्वती कुछ न बोली।कविता को लेकर घर आ गई।
एक सप्ताह बाद सरजू घर आया। कविता ने उसे खुशखबरी सुनाई।सरजू ने खुशी के मारे कविता को बांहों में उठा लिया और उसे प्यार से चूमने लगा।
"मीनू मां ईब्ब खुश होज्यागी! तेरा घणा ध्यान राखैगी ,देख लिये बेशक।" सरजू ने कविता को प्यार से देखते हुए कहा।
कविता को भी आस थी कि सासु मां में अवश्य परिवर्तन आएगा। किंतु उन दोनों का भ्रम बहुत जल्दी ही टूट गया।
"ए खड़ी होके काम कर ले। हाम्मनै के बाळक कोनी जामे? चार चार जाम राखे सैं। तैं घणी अनोखी जामैगी के?" पार्वती ने अपना असली रूप दिखाया।
सरजू का रहा सहा धैर्य जवाब दे चुका था।उसने फैसला कर लिया था अब वह मीनू को एक पल भी यहाँ नहीं छोड़ेगा।
"मां मैं एक दिन भी इसनै आड़ै ना छोडूं !" उसने अपना फैसला मां को सुना दिया।
कविता ने आश्चर्य से सरजू की ओर देखा और बोली-
"दिमाग तो ठीक सै आपका ? मां नै एकली छोड़के क्युकर जा सकूं सूं मैं?"
"मीनू आज तु कुछ न्हीं बोलैगी। मन्नै कह दी सै बस।" सरजू गुस्से में चिल्लाया।
"ठीक सै ठीक सै , लेजे इसनै आड़े तैं ।खामेखां इसका बी मन्नै ए काम करना पड़ैगा।" पार्वती ने भी अपने मन की बात कह दी।
कविता अजीब कशमकश में थी। उसकी स्थिति चने के साथ पिसने वाले घुण के समान थी।
सरजू ने कविता से साथ चलने का फरमान सुना दिया था। कविता कुछ न बोल पाई और सरजू के पीछे पीछे चल पड़ी थी। वस घूंघट में लिपटी हुई, आंखो में झर- झर बरसती नयन वर्षा। वह कुछ समझ ही नहीं पा रही थी। उसने क्या सपना देखा था और क्या हो रहा था? उसके दिमाग ने काम करना ही बंद कर दिया था। विचारों की उथल पुथल में कब बस स्टैंड आ गया पता ही नहीं चला।
कुछ देर दोनों मौनावस्था में खड़े रहे।
सरजू ने चुप्पी तोड़ी- "देखो मीनू ! ईब्बे तो मैं तन्नै थारै घरां छोड़के आऊं सूं। जिस कमरे मै मैं रहूं सूं हाम्म दो जणे सां। तोळा ए अलग कमरे का बंदोबस्त करके तन्नै लेण आऊंगा। अर हां , अपणे घरकां नै कुछ ना बताईये इब्बै।मैं तन्नै लेण आऊंगा जिब मैं आप्पे बता दयूंगा।"
कविता अब भी सुबक रही थी। उसने हां में गर्दन हिलाई।
तभी हार्न सुनाई दिया। बस आकर रुकी, दोनों बस में सवार हो गए।
क्रमशः
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा