Apne-Apne Indradhanush - 6 in Hindi Moral Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | अपने-अपने इन्द्रधनुष - 6

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 6

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(6)

काॅलेज से लौटते समय मेरी और चन्द्रकान्ता की इच्छा पुनः कुछ दूर पैदल चलने की हो रही थी। मार्ग में चलते हुए हम दोनों सायं की खुशनुमा ऋतु का आनन्द व चर्चा करते हुए चल रहे थे। मन्द-मन्द चलते शीतल हवाओं के झोकों से झूमते हुए वृक्षों के पत्ते चारों तरफ विस्तृत हरियाली सब कुछ अच्छा लग रहा था। सहसा मेरे व चन्द्रकान्ता के बढ़ते पग रूक गये। मार्ग के किनारे से कुछ दूर वृक्षों व झाड़ियों के पीछे छिपा वह जल से भरा पोखर जलकुम्भी के पुष्पों से आच्छादित हो गया था। हम प्रतिदिन इसी मार्ग से आते-जाते हैं परन्तु हमे ज्ञात न हो सका कि सृष्टि सौन्दर्य का चितेरे ने कब रातों-रात आकर पोखर को लाल-गुलाबी जलकंुभियों से भर कर सौन्दर्य के अद्भुत संसार को रच गया। कितना मनोरम है प्रकृति का यह सुन्दर रूप। पतझड़ के पश्चात् गिरे चुके पत्तों से सूने हुए वृक्षों के पार यह पोखर हमें अब दिखाई दिया है। कुछ ही दिनों में वृक्षों की सूखी टहनियों पर निकलने को उत्सुक ये नई कोंपले पत्तों का रूप ले लेंगी और यह पोखर वृक्षों के मध्य छुप जाएगा। ’’

’’ हाँ ऐसा ही है। ’’ चन्द्रकान्ता ने मेरी बात का समर्थन किया। हम दोनों वहाँ पर बिखरे प्रकृति के अद्भुत सौन्दर्य को निहारते रहे। पुनः चल दिये अपने-अपने गन्तव्य की ओर।

’’ अरे भोरहे के निकले राजा

गलियां चलत होइहैं

भूख लगत होइहैं

किनसे कहत होइहैं

भूख की बात राजा

दिल में अंगेजत होइहैं

अरे भोरहे के निकले राजा

गलियां चलत होइहै

प्यास लगत होइहै........

दूर से आ रही विरह गीत की ध्वनियों के स्वर सुन कर मैं और कदाचित् चन्दकान्ता भी लोक गीत गाने वाली इस ग्रामीण स्त्री की पीड़ा का अनुभव कर रहे थे। इसका घर वाला मजूरी करने हेतु शहर में गया होगा। उसकी स्मृतियों से व्याकुल हो रही स्त्री की पीड़ा इस गीत में छलक रही थी। दूर तक उसकी ध्वनियाँ हवाओं में तैर रही थीं।

’’ यदि हम कुछ दूर पैदल न आते तो इतने अच्छे भाव पूर्ण लोकगीत हमें सुनने को कहाँ मिलते? ’’ मैंने चन्द्रकान्ता की बातों का समर्थन किया।

’’ गाँवों में स्त्रियाँ घरेलू कार्यो को करते समय गीत गाया करती हैं। यह एक अच्छी परम्परा है। गीतों के आनन्दातिरेक में वो कार्यों को सरलता से तनाव रहित हो कर पूरा कर लेती हैं। ’’

’’ हाँ, बिलकुल सही कहा तुमने। ’’ मेरी बात का समर्थन करते हुए चन्द्रकान्ता ने कहा।

आजकल विक्रान्त जब भी मुझसे मिलता और भी विनम्रता व शिष्टाचार के साथ मिलता। ऐसा प्रतीत होता जैसे वह अनावश्यक रूप से मुझसे मिलने के अवसर ढूँढा करता।

कभी अच्छी अनुभूतियाँ, तो कभी कड़वे अनुभवों के साथ गुज़रते हुए एक वर्ष व्यतीत हो गया। इस बीच मैं पिछले वैवाहिक जीवन से कानूनी रूप से भी मुक्त हो गई थी। अपने लेखन और शोध को और समय देने लगी थी।

विक्रान्त मुझसे मिलने के अवसर ढूँढ ही लेता। वह अपनी व्यक्तिगत पारिवारिक व वैवाहिक जीवन की बातों को मुझसे साझा करता। इस प्रकार व्यक्तिगत् बातें मुझसे साझा करने का उसका क्या मंतव्य था? मैं समझ नही पा रही थी। उसकी बातें सुनती रहती निर्विकार। कभी-कभी अनसुनी भी कर देती। मेरी रूपरंग की सुन्दरता, मेरी मेधा, बु़िद्धमत्ता की प्रशंसा करता। पत्रिकाओं में छपे मेरे लेखों के लिए बधाई देने व प्रशंसा के पुल बाँधने में वह कोई कोताही नही करता।

मैं यह समझ गई थी कि विक्रान्त मेरे समीप आने का प्रयत्न कर रहा है। जितना ही वह मेरे समीप आने का प्रयत्न करता उतना ही मैं उससे दूरी बानाने का प्रयत्न करती।

आज काॅलेज में इस सत्र का अन्तिम दिन है। कल से ग्रीष्म अवकाश प्रारम्भ हो जायेंगे। मुझे अच्छा लग रहा है। बचपन में जब भी स्कूल से छुट्टी मिलती थी, मैं और भईया बहुत खुश होते थे। मस्ती, खेल, तरह-तरह के चित्र-कार्टून बनाने में सारा दिन व्यतीत हो जाता था। न भूख-प्यास का अनुभव न थकान का। कल से अवकाश के बारे में सोच कर मैं बहुत प्रसन्न हो रही हूँ। बचपन के दिनों की भाँति। सच ही कहा है प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर एक बच्चा छुपा रहता है। कठिन दिनों में वह बच्चा कुछ खुिशयों के पल दे कर जीवन को नयी उर्जा से भर देता है। मुझे लगता है कि हमें अपने अन्दर के इस बच्चे को बचा कर रखना चाहिए।

अवकाश की प्रथम सुबह। प्रतिदिन की आपाधापी, भागदौड़ से मुक्त में आज प्रातः कुछ विलम्ब से उठी हूँ। काॅलेज नही जाना है। आज नाश्ते व खाने में माँ-बाबूजी की पसन्द की कोई चीज बनाऊँगी। छुट्टियों में कुट अच्छी पुस्तकें पढूँगी। कुछ लेख लिखूँगी।

शनै-शनै कुछ अलग करने की उत्सुकता शिथिल होने लगी है। प्रातः सायं का समय तो घर के कार्योें में व्यतीत हो जाता है। सुनसान दोपहर का समय व्यतीत करने में कठिनाई होती है। खालीपन काटने को दौड़ने लगता है तो कोई पुस्तक ले कर पढ़ने बैठ जाती हूँ। इस बीच कुछ लेख भी लिखें हैं मैंने जिन्हंे उचित समय पर पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भेजूँगी।

आज शाम की चाय बना कर मैं छत पर ले आयी हूँ। माँ-बाबूजी भी छत पर ही बैठे हैं। घर के अन्दर गर्मी व उमस है। छत की खुली हवा में गर्मी व उमस का प्रभाव कम है। बाबूजी की इच्छा थी कि आज शाम की चाय छत पर बैठ कर पी जाये। इसी बहाने माँ-बाबूजी के साथ मुझे भी कुछ देर बैठने को मिल जायेगा। गर्मियों की यही विशेषता हैं कि दिन में चलने वाली गर्म हवायें सायं शीतल पुरवा के झोकों में परिवर्तित हो जाती हैं। इस समय छत के खुले वातावरण में ऐसा ही लग रहा था। अभी मैंने चाय की दो घूट ही पी थी कि मेरे फोन की घंटी बज उठी।

फोन विक्रान्त का था। आज प्रथम बार विक्रान्त का फोन मेरे पास? क्यों? उसे मेरा नम्बर कहाँ से मिला? भाँति-भाँति के प्रश्न मेरे हृदय में जिज्ञासा उत्पन्न कर रहे थे। उससे पूछने पर ज्ञात हुआ कि मेरा नम्बर उसने चन्द्रकान्ता से लिया है। फोन करने का कारण मात्र मेरा हाल पूछना था।

अवकाश के अधिकांश दिनों को मैंने अपने पसंदीदा कार्य पुस्तकें पढ़ने विशेषकर अर्थशस्त्र से सम्बन्धित व कुछ लेख लिखने में व्यतीत किया। मेरा दूरभाष नम्बर मिल जाने के कारण अब विक्रान्त अक्सर मुझे फोन कर मेरा हाल पूछता। मैं यह बात समझ गयी थी कि वह मुझसे सम्पर्क बढा़ने के अवसर तलाशता रहता है। अधिसंख्य पुरूषें की मानसिकता यही होती है कि किसी स्त्री को अकेली या कह सकते हैं कि पुरूषों की दृष्टि में अकेली और अबला है तो ऐसी स्त्री को लुभाने के प्रयत्न करते हैं। विक्रान्त का मुझसे बातें कर मेल-जोल बढ़ने के अवसर तलाशना मुझे इसी मानसिकता का द्योतक प्रतीत हो रहा था।

अवकाश के दिन शनै-शनै व्यतीत हो गए। जुलाई माह प्रारम्भ हुआ और काॅलेज खुल गया। आज प्रथम दिन समस्त अध्यापक एक-दूसरे से उत्साह पूर्वक मिल रहे थे। मुलाकातों, अभिवादन दौर चल ही रहा था कि चन्द्रकान्ता मेरी तरफ आती दिखाई दी। उसे देख मैं भी उसकी ओर बढ़ चली। अवकाश की लम्बी अवधि में भी हम एक दूसरे से मिलने का समय नही निकाल पाये थे। इस उलाहने के साथ हम देर तक हँसते रहे। वैसे भी चन्द्रकान्ता हँसमुख स्वभाव की थी। परिस्थतियाँ जो भी हों वह प्रसन्न रहने के अवसर तलाश लेती। उसका यही स्वभाव मुझे अच्छा लगता है।

’’ इतने लम्बे अवकाश में क्या-क्या किया? ’’ मेरे इस प्रश्न पर वह व्यंग्यात्मक लहजे में बोली-

’’ वो आ गया था। ’’

’’ वो? वो कौन? ’’ उसकी बात का अर्थ समझते हुए भी मैंने नासमझ बनते हुए हँसी में पूछा।

’’ वो! मेरा पति। उसे तो पता है ही कि मेरी छुट्टियाँ हो गयी हैं। अतः मेरे साथ शरीर का सुख भोगने आया था। ’’

चन्द्रकान्ता के कड़वे शब्दों को सुन मैं स्तब्ध रह गयी।

’’ मैंने सोचा था कि इन छुट्टियों में सरस से एकाध बार मिलने के अवसर निकाल लूँगी किन्तु मेरा पति भी इसी समय के लिए अपनी छुट्टियाँ बचा कर रखे हुए था। अवकाश के अधिकांश दिनों तक वह यहीं रहा। ’’

’’ तुम बताओं तुमने कहाँ व्यतीत की अपनी छुट्टियाँ? सुना कि कोई बहुत व्याकुल हो रहा था तुम्हारा हाल पूछने के लिए। अपनी इस व्याकुलता में मेरा समय नष्ट करता रहा। ’’ अपनी बात पूरी करते हुए चन्द्रकान्ता ने मुझसे ये प्रश्न पूछते हुए मुझसे चुहल की। ’’ मैं समझ गई कि उसका संकेत विक्रान्त का उससे मेरा मोबाईल नम्बर माँगने से था।

उसकी बातों का उत्तर न दे, मैं बस मुस्करा पड़ी।

’’ यह न समझना कि मेरा पति मुझसे अत्यधिक प्रेम करता है। न.....न....न.... कतई नही। वह मुझसे घृणा करता है.......अत्यन्त घृणा। उसके समीप आने पर मुझे उसके घृणा की स्पष्ट अनुभूति होती है। उसके साथ मैं पूरा जीवन कैसे व्यतीत करूँगी, नही जानती। ’’ कहते- कहते चन्द्रकान्ता रूक गयी।

’’ आधी उम्र निकल जाने पर किसी दूसरे संग घर बसाना......यह तो अब सम्भव नही है। दोष मेरा न होते हुए भी सब मुझे चरित्रहीन कहेंगे। किशोरवय की तरफ बढ़ता मेरा बेटा है। मुझे उसकी फिक्र रहती है। सरस के साथ अपने लिए खुशियों के कुछ पल तलाश लेती हूँ। वह लेखक है। कवितायें लिखता है। प्रेम की....विरह की। मुझे उसकी कवितायें अच्छी लगती हैं। ’’ मुस्कराते हुए चन्द्रकान्ता ने अपनी बात पूरी की।

चन्द्रकान्ता की बातों तथा.......उसकी मुस्कराहट के पीछे छिपी पीडा़ को महसूस कर लिया था मैंने। मुझे विचारमग्न देख चन्द्रकान्ता ने बातों की दिशा पलटते हुए कहा, ’’ तुम भी लिखती होे। तुम्हारा लेखन गम्भीर व शोधपरक होता है। मुझे बुद्धिजीवी प्राणी अच्छे लगते हैं। तुम भी। ’’ चन्द्रकान्ता की बाते सुन मैं मुस्करा पड़ी।

’’ ऐसा नही है। कुछ लिखने का शौक है......तो कुछ समय व्यतीत करने की भी विवशता भी। ’’ मैंने कहा।

आज काॅलेज में नये सत्र का प्रथम दिन है। नये-पुराने छात्र-छात्रायें सब एक- दूसरे से मिल रहे हैं। काॅलेज कैम्पस में परिचय के आदान-प्रदान, गहमागहमी का माहौल था। अतः शिक्षण कार्य स्वतः स्थगित था। मैं और चन्द्रकान्ता स्टाफ रूम के एक शान्त कोने में बैठ गये। मैं स्टाफ रूम की खिड़की से बाहर कैम्पस में नयें छात्रों की अवाजाही, उनके चेहरों पर फैली युवा ऊर्जा व उत्साह को देख उन सबमें मैं अपने युवा दिन तलाशने का प्रयत्न कर रही थी। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं भी उनमें एक हूँ।

मुझे अपने काॅलेज के वे दिन स्मरण आने लगे, जब हम भी काॅलेज के कैम्पस में कुछ इसी प्रकार अपने मित्रों के साथ बातों में मशगूल रहते थे। उस समय की बातें सोच कर अब हँसी आती है। हम कैसी निरर्थक व बेवकूफियों भरी बातें करते आपस में और उन बातों पर बेतहासा हँसते। मजेदार तथ्य यह है कि उन निरर्थक बातों की लम्बाई असीमित होती थी। हम किसी भी विषय पर घंटो बातें करने का सामथ्र्य रखते थे। बातें निरर्थक हों या अर्थपूर्ण। उस समय मैं भी बहुत बातूनी हुआ करती थी। धीरे-धीरे सब कुछ पीछे छूटता गया। मैं चुप रहने लगी। मेरे व्यक्तित्व में गम्भीरता समाहित होने लगी। उन्मुक्त हँसी की अनुभूति तो मैं विस्मृत कर चुकी हूँ।

काॅलेज में विक्रान्त मुझसे बातें करने के अवसर तलाश लेता। मेरी इच्छा होने, न होने से उसे कोई फ़र्क नही पड़ता। प्रतिदिन, एक-दो बार वह अवश्य अपनी बातें मुझसे बातें साझा करता। कभी इधर-उधर की, तो कभी अपनी पत्नी तलाक देने की आगे बढ़ती प्रक्रिया के बारे में । मैं निर्लिप्त हो कर उसकी बातें सुन लेती। कई बार मैंने उसे अनदेखा करने का प्रयत्न किया किन्तु वह मेरे अनदेखा करने को भी अनदेखा कर देता। वह मुझे बुद्धिमान व आकर्षक कहता। मेरे व्यक्तित्व की प्रशंसा करता। यद्यपि उसकी इन बातों से मैं प्रभावित नही होती। मैं जानती हूँ कि उसकी पत्नी भले ही उच्च शिक्षित नही थी, किन्तु उसके व्यक्तित्व में अनेक विशेषतायें थी। वह सुघड़ गृहणी व ममतामयी माँ थी। जिसे विक्रान्त ने संसार के वाह्नय चमक-दमक से प्रभावित हो कर छोड़ दिया है। अब वह किसी अन्य स्त्री को अपने जीवन में लाना चहता है। कभी-कभी मैं सोचने पर विवश हो जाती कि क्या सभी पुरूषों की मानसिकता ऐसी ही होती है। चन्द्रकान्ता का पति...... विक्रान्त....स्वंय मेरा पति? मेरे प्रश्नों का उत्तर मुझे शीघ्र ही मिल जाता.......

’’ नही..... ऐसा नही है मेरे पापा भी तो पुरूष हैं.....पति हैं...। मुझे स्मरण नही कि उन्हांेने कभी माँ के हृदय को चोट पहुँचायी हो या अपने उत्तरदायित्व से मुँह मोड़ा हो। ’’ यहाँ आकर पुरूषों के प्रति मेरी धारणा परिवर्तित हो जाती।

एक दिन चन्द्रकान्ता से ज्ञात हुआ कि विक्रान्त का अपनी पत्नी से स्थाई रूप से अलगाव हो गया है। सुन कर हृदय पीड़ा से तथा उसकी पत्नी के प्रति सहानुभूति से भर गया। मैं जानती हूँ कि किसी भी स्त्री के लिए यह सरल नही होता नही वह अकेलेपन की पीड़ा के साथ जीवन व्यतीत करे किन्तु जब अन्य पीड़ा इस पीड़ा से बड़ी हो जाती है तब उसके समक्ष अकेलेपन की पीड़ा भी छोटी पड़ जाती है। उस दिन विक्रान्त काॅलेज नही आया। दूसरे दिन उसके आने पर मैं उससे बात करने से बचती रही। मैं सामान्य कैसे रह सकती थी? जहाँ एक स्त्री पराभूत हुई हो। विक्रान्त का आर्कषक व्यक्तित्व व शालीनता में पगी बातें सब बनावटी लग रही थीं। प्लास्टिक के फूलों की भाँति। विक्रान्त से मैं कोई बात नही करना चाहती थी।

धीरे-धीरे दिन व्यतीत होते जा रहे थे। ऋतुयें भी आतीं और चली जातीं। मानसून भी जाने वाला है। खेतों की मेड़ों पर स्वतः उग आये कांस के सफेद गुच्छे लहरा-लहरा कर मानसून को विदा कर रहे हैं। गर्मी व उमस का मौसम समाप्त होने वाला है। खुशनुमा ऋतु दस्तक देने वाली है।

चन्द्रकान्ता भावनात्मक रूप से सरस के समीप हो चुकी थी। सरस के वैवाहिक जीवन से उसे कोई शिकायत नही थी। वैवाहिक जीवन वह भी तो जी रही थी। सरस भी चन्द्रकान्ता के आकर्षण में बँध चुका था। चन्द्रकान्ता सरस के प्रति अपने प्रेम व आकर्षण को अपने जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा मानती। शारीरिक व मानसिक रूप से जीवन का एक मात्र आलम्बन व आवश्यकता।

कभी मैं सोचती कि स्त्री-पुरूषों में ऐसे सम्बन्ध स्थापित हाने चाहिए? क्या ऐसे सम्बन्ध समाज में सही परम्पराओं व मान्याताओं को स्थापित करते हैं? मेरी अन्र्तआत्मा से यही ध्वनि निकलती कि नही, ऐसे सम्बन्ध अनैतिक हैं। जाने-अनजाने इसमें भी एक स्त्री को एक स्त्री ही पीड़ित कर रही है। एक घर पर रहते हुए घर के समस्त उत्तरदायित्वों को पूर्ण करने में अपना पूरा जीवन सच्चाई के साथ अर्पित कर रही है, उस स्त्री का क्या अपराध? सरस की पत्नी को उसके परस्त्री के साथ स्थापित सम्बन्धों का पता चले तो उसके हृदय को जो आघात पहुँचेगा, पीड़ा होगी, उस पीड़ को कोई भुक्तभोगी स्त्री ही अनुभव कर सकती है। चन्द्रकान्ता भूलवश या विवशता के कारण वही त्रुटि कर रही है जो पुरूष बहुधा स्त्रियों के साथ करते हैं।

जब से विक्रान्त का उसकी पत्नी से अलगााव हुआ है। तब से वह मेरी तरफ झुकता चला जा रहा है। कई बार अनेक अवसरों पर मैंने यह अनुभव किया है। आजकल सायं काॅलेज से मेरे घर पहुँचते ही उसका फोन आता है कि मैं सकुशल घर पहुँच गई हूँ या नही। प्रतिदिन उसका फोन आना मुझे अच्छा नही लगता। अनेक बार मना करने व फोन न उठाने पर भी वह फोन करता है। अब कैसे समझाऊँ उसे कि वह मुझे फोन न करे। अतः मैंने उसका फोन उठाना ही बन्द कर दिया है। उसने भी दूसरा मार्ग चुन लिया है वो ये कि अब वह पापा को फोन कर मेरा हाल पूछता है। उस समय यदि मैं पापा के समक्ष होती हूँ असहज हो जाती हूँ।

अर्थशास्त्र पर मेरी प्रथम पुस्तक प्रकाशित हो गयी थी। पुस्तक प्रकाशित होने पर विक्रान्त अत्यन्त प्रसन्न हो रहा था। उस दिन काॅलेज में वह मेरे इर्द-गिर्द ही बना रहा। इस अवसर पर वह मुझे पार्टी देने को उत्सुक था, तथा मेरी अनुमति मांग रहा था। मंने उसे बताया कि इसमें इतनी प्रसन्नता वाली कोई बात नही है कि आप मुझे पार्टी दें। उसके हठ को देखते हुए मुझे दृढ़ता के साथ मना करना पड़ा।

समय का पहिया अपनी गति से आगे बढ़ता ही जा रहा था। मेरा अधिकांश समय पठन-पाठन, और लेखन में व्यतीत हो जाता। इतना वक्त न मिलता कि कभी मैं अपने आने वाले जीवन के लिए सोचूँ। प्रतिदिन की ठहराव भरी दिनचर्या से अब मैं उब रही थी तथा थकान का अनुभव कर रही थी। माँ-बाबूजी के बार-बार कहने पर मैंने सप्ताह भर का अवकाश ले लिया है। आज अवकाश का प्रथम दिन है। मैं बार-बार फोन की तरफ क्यों देख रही हूँ। मुझे किसके फोन की प्रतीक्षा है। कहीं विक्रान्त के फोन की तो नही? वही तो बार-बार मुझे फोन करता है। उसका फोन आना और मेरी इच्छा न होते हुए भी उससे फोन पर बातें करना मेरे स्वभाव में समाहित हो गया है। इस तथ्य को मैं स्वीकार करूँ या न करूँ मैं जानती हूँ कि मुझे विक्रान्त के फोन की ही प्रतीक्षा है। क्यों....क्यों.....क्यों....?

मैं तो विक्रान्त को पसन्द नही करती। वह अपनी व्याहता पत्नी का बचाव कर सकता था। उसके माता-पिता शिक्षित नही थे, किन्तु वह तो उच्चशिक्षित था। उसे तो सभ्यता का परिचय देते हुए उस स्थिति को सम्हाल लेना चाहिए था। मुझे विक्रान्त के जीवन का यह हिस्सा अच्छा नही लगता। उसको लेकर भाँति-भाँति के विचार उठ रहे थे मेरे हृदय में। इन सब उहापोह के बीच में कहीं न कहीं विक्रान्त के फोन की प्रतीक्षा भी कर रही थी। कुछ ही देर में फोन की घंटी बज उठी। फोन विक्रान्त का ही था। मैंने विलम्ब किये बिना ही फोन उठा लिया। विक्रान्त मेरे अवकाश लेने का कारण पूछ रहा था। अवकाश का कारण मेरी अस्वस्थता जानकर अपनी चिन्ता व्यक्त कर रहा था।

शाम का भोजन तैयार कर मैं भी बाबूजी के पास ड्राइंगरूम में आ कर बैठ गई। मेरे साथ माँ भी आ गई थीं। अभी आठ बजे हैं। पापा समाचार देखने में तल्लीन हैं। देश-दुनिया की ख़बरें। यही मुझे भी पसन्द है। अतः मैं भी समाचारों को उत्सुकता पूर्वक देखने लगी। बीच-बीच में किसी विशेष समाचार के संदर्भ में हम एक दूसरे से विचार-विमर्श भी कर लेते। सहसा दरवाजे की घंटी बज उठी। मैं बाबूजी को उठने से मना कर स्वंय दरवाजे पर गई। अपने समक्ष विक्रान्त को खड़ा देख हड़बड़ा गई। वह प्रथम बार मेरे घर आया है। अतः हड़बड़ाहट स्वाभाविक थी। मैंने ड्राइंग रूम में उसे बुला कर बैठने का संकेत किया। माँ-बाबूजी से उसका परिचय कराया। उसके नाम से वो परिचित थे। क्यों कि अपने काॅलेज की घटनाओं से मैं उन्हें रूबरू कराया करती हूँ। पापा ने चाय के लिए उससे पूछा- उसनेे सहर्ष सहमति में अपना सिर हिलाया। कुछ ही मिनटों में मैं उसके लिए चाय बना लाई। हम सब चाय पी चुके थे, किन्तु उसका साथ देने के लिए बाबूजी के लिए भी थोड़ी चाय बना कर ले आयी। विक्रान्त ने मुझसे साथ में चाय पीने का आग्रह किया। मेरे मना करने पर उसके चेहरे पर फैल गयी मायूसी को बाबूजी ने भाँप लिया था। अतः उन्हांेने अपनी चाय मेरे समक्ष रख पीने का आग्रह किया। उनका आग्रह मैं टाल न सकी।

विक्रान्त देर तक रूका रहा। मैंने अनुभव किया कि उसका देर तक रूकना माँ-बाबूजी को को अच्छा लग रहा था। उनसे बातें करने के लिए विक्रान्त से अच्छा और कौन हो सकता था। कितने अपनापन से वह भी माँ-बाबूजी से बातें कर रहा था। मानो प्रथम बार नही वह उनसे पहले भी कई बार मिल चुका हो। वह मुझसे सीमित बात ही करता रहा। किन्तु बीच-बीच में दृष्टि उठा कर मुझे अवश्य देख ले रहा था। जाते समय विक्रान्त को मैं गेट तक छोड़ने आयी। वह मुझे देर तक देखता रहा। यद्यपि शब्दहीन थी उसकी पूरी अभिव्यक्ति, किन्तु मैं समझ रही थी कि वह कहना क्या चाहता है? मैं उसकी मूक भावनाओं को समझना नही चाह रही थी। तेजी से गेट बन्द किया, शीघ्रता से भीतर आ गयी।

माँ-बाबू जी के भोजन का समय हो रहा था बल्कि कुछ विलम्ब ही हो गया था। मैं भोजन मेज पर लगा कर उन्हें आवाज दे चुकी थी। माँ-बाबूजी चुपचाप खाना खा रहे थे। खाने के बीच में किसी व्यंजन के स्वाद पर टिप्पड़ी करने वाली माँ आज न जाने क्यों खामोश थी। पिताजी भी चुप थे। मुझे खाने के टेबल पर पसरा सन्नाटा अच्छा नही लग रहा था। अतः सन्नाटे का तोड़ने के प्रयास में मैंने ही बोलना प्रारम्भ किया। बहुधा कम बोलने वाली मैं आज कुछ अधिक ही बोल रही थी या कुछ और बात थी। माँ-बाबूजी कुछ अलग रहस्यमयी दृष्टि से मुझे देख रहे थे। उनके इस प्रकार देखने से मुझे ऐसा लग रहा था जैसे कि कहीं वो यह तो नही सोच रहे कि विक्रान्त के साथ मेरा कोई लगााव है, या कहीं मैं विक्रान्त से प्रेम करती हूँ। विक्रान्त को ले कर कहीं उनके मन में कोई गलत धारणा न घर कर जाये, यह सोच कर मैं विचलित हो उठी। रसोई समेट कर शीघ्रता से मैं सोने के कमरे में आ गई। बहुत देर तक मुझे नींद नही आयी। बिस्तर पर करवटें बदलती रही। न जाने क्या-क्या सोचती रही। विक्रान्त के बारे में कतई नही।