Dushare ka mela in Hindi Short Stories by Kalyan Singh books and stories PDF | दशहरे का मेला

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दशहरे का मेला

मनुष्य की इंसानियत भी उस दिन जाग उठती है। जिस दिन उसे अपने कर्मों का ज्ञान हो जाता है। बस कोई सच्चा गुरु होना चाहिए सही पथ दिखाने वाला या कोई ऐसी घटना घटित हो जो उसकी इंसानियत पर सवाल खड़े कर दे।


अरे पवन ! कब चलोगे दशहरे का मेला देखने ? - अजीत ने उत्सुकता भरी आवाज़ से पूछा।

अजीत मेरे पड़ोस में रहता है तो एक अच्छा पड़ोसी होने के नाते और तो और मुझसे उम्र में बड़ा होने के कारण भी ; वो मेरा सबसे अच्छा दोस्त भी है। सही मायने में कहा जाए तो दोस्ती के लिए उम्र और रुतबे मायने नहीं रखते ; बस दोनों के दिल मिलने चाहिए। जैसे रामायण में भगवान श्री राम की सुग्रीव और निषादराज से दोस्ती और महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण की सुदामा से दोस्ती !

ऐसा बहुत ही कम बार देखा गया है कि हम दोनों कही भी अलग - अलग गए हो। ना जाने कितनी ही बार हम दोनों के परिवार ने आपस में दूरियाँ बना ली हो ; लेकिन हमारी दोस्ती ने उन दूरियों को कम करते हुए दोनों परिवारों को पास ले आये ।


हां रुको ! मम्मी से पूछ के आता हूँ - इतना बोलते हुए मैं घर के अंदर हो लिया।

मम्मी ! मैं अजीत के साथ मेला देखने जा रहा हूँ।


अरे प्रीति ( छोटी बहन ) को भी लेते जाओ। मेरे को जाने में देर लगेगी , और ये अभी से मेला देखने के लिए रोना - धोना मचाई हुई है। - चकरी में चना की दाल पिसते हुए बोली ।

वही बगल में प्रीति भी बैठे हुए उसमें चना की दाल डालते हुए पीसे हुए चने के दाल को बर्तन में इकट्ठा किये जा रही थी।

मेरे यहां गांव से गेहूँ , धान , चना , मसूर सब आ जाता है , तो मम्मी सारी दाल घर के ही चकरी में दरती है । इससे पैसा तो बचता ही है और साथ ही साथ कोई मिलावट का भी ख़तरा नहीं होता ।

इनके साथ मुझे नहीं जाना ... - प्रीति इतना बोलते हुए चिल्लाने लगी।


मैं मन ही मन खुश हो रहा था। चलो अच्छा है अपने से मान गयी नहीं तो अगर इसको साथ लेके जाना पड़े तो मैं अपने इस सामानों की लिस्ट को किसी भी तरह आज पूरा नहीं कर पाऊँगा।

हर बार की तरह इस बार भी पापा ने मेला देखने के लिए दस - दस के दो नोट पहले ही हाथ में थमा दिए थे। और मैंने अपनी पॉकेट मनी से पन्द्रह रूपये भी बचा लिए थे। तो इस तरह कुल पैंतीस रूपये आ चुके थे जोकि मेरे खर्चे के हिसाब से बहुत थे। तो इस तरह मेरी उत्सुकता भी बढ़े जा रही थी और मेरी सामानों की लिस्ट भी तैयार हुए जा रही थी।


अरे ! कहाँ मेरे साथ जायेगी ; आप अपने साथ ले आना मेरे को देर हो रही है। - इतना बोलते हुए निकल लिया।

अरे सुन ! आने दे तेरे पापा को ! लगवाती हूँ तेरी पिटवाई आज। - पीछे से माँ की आवाज़ आ रही थी , जोकि समय के साथ धीमे - धीमे कम होते हुए बंद हो गयी।


क्या चन्दन ! बहुत पैसा गिन रहे हो ? लगता है कि बहुत मिला है ? - अजीत ने मेरे को बार - बार पैसा गिनते हुए देखकर बोला।

दरअसल मैं बार - बार आने पैसों को गिनकर अपने मन को तसल्ली देना चाहता था कि पैसे पूरे है।

मेरे को तो दस रूपये मिले है। तुमको कितने मिले है ? - मैंने सारे रूपये को जेब में एकत्रित करते हुए बोला।

मैं जानता था। अगर इसको बता दिया कि मेरे पास पैंतीस रूपये है। तो ये मेरे साथ पूरे मेले में चिपक लेगा और सारा खर्चा मेरी जेब से होगा। अपने उम्र के साथ जो भी समझ होती है उस समझी के खेल में हम दोनों अपने - अपने दांव लगाते हुए झूठ पे झूठ बोले जा रहे थे।

मेरे को तो तीस रूपये मिले है। - एकदम से अपनी आवाज़ को ऊपर उठा के बोला।


अरे वाह ! चलो आज खूब जम के खाएंगे। - मैंने अपना एक हाथ जेब में डालते हुए बोला।


मैं जानता था। ये इसकी चाल मेरे को गुमराह करने की है। बोलेगा मेरे पास पैसे है और जब खा पी लेंगे ; तो धीमे से निकल लेगा या बोलेगा अरे भाई ! मेरा पैसा गुम हो गया।

नहीं ! नहीं ! इस बार मैं इसके जाल में नहीं फसने वाला।यही सब सोचते - सोचते मेले की भीड़ को चीरते हुए जैसे - तैसे हम दोनों रावण के पुतले के पास वाले बैरिकेड के सबसे आगे पहुंच गए।

ऐ लड़का ! दीखता नहीं क्या ? - पीछे से किसी की आवाज़ आयी तो देखा की उसके छोटे बच्चे का पैर हमलोग के जल्दीबाज़ी की वहज से दब गया था।

इतने में लाउड स्पीकर से घोषणा होने लगी - हमारे ज़िले के ज़िलाधिकारी भी मुख्य अतिथि के रूप में आ चुके है । सभी लोग पीछे हट जाए भगवान श्री राम आ रहे है तीर चलाने !

इतने में भगवान श्री राम आग की ज्वाला से भभकती हुई तीर अपने धनुष में लिए हुए रावण का संघार करने बढ़े आ रहे थे। और उनके पीछे रामलीला समिती के ना जाने कितने सदस्य जय श्री राम ... का नारा लगाते हुए तीनों लोकों को असत्य पर सत्य की जीत के दिन का एहसास दिलवा रहे थे।

तक़रीबन दस मीटर लंबा रावण का पुतला तीर लगते ही आग की ज्वाला से लिपटा हुआ आधे घंटे में जल के ख़ाक हो गया। लेकिन उसके बाद की आतिशबाज़ी तो देखने वाली होती है। वैसे भी यहाँ की आतिशबाज़ी तो प्रचलित तो ही है। तो ये मौक़ा मैं तो छोड़ने वाला नहीं था। ऐसे - ऐसे राकेट शामिल होते है जो कि सीधे आसमान में अलग - अलग तरह के दृश्य से सभी का मन मोह लेते है।

जब मुझे ये आभास हुआ कि अब मेला समापन के नज़दीक पहुंच रहा है तो मैं धीरे से नौ दो ग्यारह होना ही बेहतर समझा नहीं तो मेरी लिस्ट पूरी नहीं हो पाती।


माँ ! दशहरे का मेला क्यों मनाया जाता है ? - मेले में प्रीति ने मम्मी से अपना सवाल - जवाब शुरू कर दिया। उसकी हमेशा से आदत रही है कि हर चीज़ के तह में जाके ही शांत होती है।


इसी दिन भगवान राम जी ने रावण को मारा था।- मम्मी ने जवाब दिया।

रावण को क्यों मारा था ?

रावण ने उनकी धर्मपत्नी सीता मइया का अपहरण किया था।

सीता मइया का अपहरण क्यों किया था ?

चुप ! बहुत बक - बक कर रही है। - मम्मी ने एकदम से झिड़क दिया। उनको पता था कि ये तो चुप रहने वाली नहीं है।

मम्मी ! बताओ न ? फिर अपनी ज़िद पर आकर रोना शुरू कर दिया।

फिर हारकर माँ ने सवाल - जवाब के सिलसिले को आगे बढ़ाना ही सही समझा।

अपनी बहन के खातिर !

क्यों ?

उसने अपने भाई से बोला था कि भगवान श्री राम और उनके अनुज लक्ष्मण ने उसका बहुत अपमान किया है। तो अपने बहन के अपमान का बदला लेने के लिए उसने सीता मइया का अपहरण किया था।

फिर ?

फिर क्या ! दोनों के बीच युद्ध हुआ ; जिसमें भगवान राम की विजय हुई और उन्होंने ने रावण को अपने तीर से मार दिया । तभी हमलोग इस दिन को असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाते है।

मम्मी रावण की बहन कितनी भाग्यशाली थी कि उसका भाई उसको कितना मानता था।

मुझे भी रावण जैसा भाई चाहिए ?


चुप ! नहीं तो मारूंगी अभी। रावण सा भाई इसको चाहिए - इतना बोलते ही एक झापड़ गाल पर पड़ भी गया जोकि उस समय बच्चो को चुप कराने का एक अच्छा शस्त्र था।

अब माँ तो समझदार है , उसको भले - बुरे की अच्छी परख है , लेकिन छोटे बच्चों को इतनी समझ तो होती नहीं है कि क्या सही है और क्या गलत !


मैं सभी ठेलो और दुकानों पर नज़र लगाते हुए कि कहाँ से शुरुवात करूँ। लेकिन कुछ समझ में नहीं आ रहा था। इतने में मेरी नज़र इलाहाबी जलेबी पर पड़ी तो मैं उधर निकल लिया। भीड़ ने पूरे ठेले को घेर रखा था। जलेबी छन के निकले नहीं कि भीड़ उसपे धावा बोल दे। उसमें से तो बहुतों पर मक्खियाँ भी चिपकी हुई थी लेकिन भीड़ ने सब कुछ स्वीकार कर लिया। आज के दिन जितने भी ठेले वाले होते है सभी अपना दो - तीन दिन का स्टॉक भी आज खपत करवाते है।


किसी ने सही कहा है -

“ भीड़ में सब कुछ बिकता है।"


जैसे - तैसे तक़रीबन बीस मिनट के बाद पत्तल के दोने में चार रूपये की जलेबी लिए मैं वहाँ से निकल लिया।

मैं जलेबी खा ही रहा था कि मेरी नज़र मेले की भीड़ में प्रीति रोती हुई प्रीति पर पड़ी। तो उसको और रुलाने के लिए मैं जल्दी से उसके पास जलेबी लेकर पहुंच गया।

क्या हुआ प्रीति ? जलेबी खाओगी ? - और इस तरह जलेबी का एक टुकड़ा उसकी तरफ ललचाते हुए दिखाकर खुद खा लिया।

मम्मी ! मम्मी ! बोलते हुए फिर खूब तेज़ - तेज़ से रोने लगी।

अरे चुप ! एक तो वो रही है और ऊपर से उसको और रुला रहा है। - मम्मी ने डाटते हुए बोला।

उस उम्र में तो हमेशा भाई - बहन के बीच किसी भी चीज़ को लेकर टकराव होती रहती हैं। चाहे वो किसी की गलती पापा या मम्मी से बोलकर उनकी पिटाई करवाने की हो ; चाहे वो किसी की गलती पापा या मम्मी से ना बोलकर बदले में अपना काम करवाने के लिए ब्लैकमेल करने की हो ; खिलौना छीनने की हो या कोई खेल में किसी भी तरह जीतने की हो।

ये ले इसका हाथ पकड़ मैं उस दूकान से लाल वाली गुड़िया लेके आती हूँ। कब से रो - रोकर ज़ीना हराम कर दी है। - इतना बोलते हुए मम्मी निकल गयी दूकान पर।

फिर मैं उसको चिढ़ाते हुए - ओह ! तो ये आँसू लाल वाली गुड़िया के लिए है। लाल वाली गुड़िया ... बोलते हुए उसको और रुलाने लगा।


इतने में मम्मी भी आ गयी। चलो बहुत महंगा दे रहा है। लेकिन प्रीति तो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी।

और मैं आज खुद को जीता हुया महसूस करते हुए उसको फिर चिढ़ाने लगा।

मम्मी काश ! रावण मेरा भाई होता तो वो मेरे लिए कुछ भी करता - एकदम रोते हुए प्रीति में की नज़रें मेरे को दुश्मन की भाँति देखते हुए निकल गयी।

लेकिन उसकी ये बातें मेरे दिल को लग गयी।

चुप ! पता नहीं क्या अनसन बातें बोलने लगी है। और उसको खींच के ले जानी लगी।

आज मुझे मेरी सारी बचपना हरकतों की वजह से मेरी बहन मुझे रावण से तुलना कर रही है। क्या मैं इतना बुरा हूँ ? अभी तक मैंने अपनी बहन के लिए क्या किया है ?

यही सब मन के भीतर उमड़ रहे सवाल - जवाब के बीच पास की दूकान पर एक भाई अपनी बहन को एक गुब्बारा खरीदते हुए देखकर मेरा मन खुद से ही शर्मिन्दगी सा महसूस करने लगा।

मेरे को पॉकेट मनी , मेले देखने के लिए पैसा और हर त्यौहार पर अच्छे - अच्छे कपड़े और ख़िलौने मिलते है। और मेरी बहन को कुछ भी नहीं। उसको तो मेले देखने के लिए भी कुछ नहीं मिलता है। पापा तो हमेशा से ही लड़का - लड़की में अंतर देखते आ रहे है लेकिन

मैं भी तो उसी रूढ़िवादी विचारधारा के पथ पर चल रहा हूँ।

अब वही जीत की ख़ुशी कब मेरे आँख में पानी की बूंदो के रूप में आ गयी पता ही नहीं चला।

नहीं ... नहीं ... मैं इतना बुरा नहीं हो सकता।

यही सब सोचते हुए मैं दूकान की तरफ चल पड़ा।

भैया वो लालवाली गुड़िया कितने की है ? - मैं इशारे से दुकानदार को दिखाते हुए।


हमेशा से देखा गया है कि छोटी - छोटी लड़किया अपने एक हाथ में गुड़िया लिए ना जाने उससे क्या - क्या बाते करती रहती है ? बेचारी लोग की बस यही तो होती है जिनसे अपने मन का दुःख दर्द ब्यान करती है।उससे उनलोग को इतना लगाव हो जाता है कि वो उसे अपने परिवार का एक सदस्य मानती है।जहां भी जाती है अपने साथ जरूर उसको लेकर जाएंगी और तो और बाक़ायदा सजा - सवाँरकर शादी भी करती है।

उसके आँखों का काजल ; गुंथे हुए लम्बे बाल ; हाथ में चमकती हुई चूड़ी ; लाल रंग का फैंसी ड्रेस; चेहरे पर हमेशा ख़ुशी ! किसकी मन न मोह ले।


वो चालीस की है - इतना बोलते ही वो दूसरे ग्राहक को सामान दिखाने में व्यस्त हो गया।

मैं अपने जेब से पैसा गिनने लगा ; बस फ़र्क इतना था कि इस समय मन थोड़ा उदास सा लग रहा था ; जबकि पहले बहुत आनंद सा अनुभव हो रहा था यही करने में !

और अपने मन ही मन अपनी बहन के वो वाक्य रह - रह के मुझे भाई होने के फ़र्ज़ की याद दिला रहे थे
भैया थोड़ा कम कर दो - मैंने एक विनती भरी आवाज़ में दूकान वाले से आग्रह किया।

मेरे को ऊपर से नीचे पूरी तरह से देख लेने के बाद पता नहीं उसे क्या सुझा - पैंतीस से एक रुपया कम नहीं होगा। अगर लेना है तो बताओ नहीं तो बगल में हटो।


मैं दुकान के बगल में सर नीचे करके अपने को कोस रहा था कि क्यों मैंने चार रूपये की जलेबी खायी ? नहीं तो आज ये गुड़िया मेरे पास होती। इसी के साथ मेरी लिस्ट में सबसे ऊपर लाल गुड़िया ने अपनी मुहर लगा दी।

कुछ सोच ही रहा था कि बगल से अजीत ने आकर बोला - मुझे मेले में अकेले छोड़कर तुम कहाँ चले गए थे ? अकेले - अकेले खुब समोसे , फुलकी , जलेबी खाये होंगे ?

क्या समोसे , फुलकी , जलेबी ! - मैंने एकदम उदास भरी आवाज़ में जवाब दिया।

क्या हुआ चन्दन ! तुम बहुत उदास से लग रहे हो।

ऐसी कोई बात नहीं है।

अरे बताओगे भी ! कि अभी कान पकडूँ।

इस तरह मेरा कान पकड़ने लगा।

यार ! आज पहली बार मुझे भाई होने पर शर्मिन्दगी सा महसूस हो रहा है। मेरी बहन मुझे रावण से तुलना कर रही है।

तब मैंने उसे सारी घटना सुनाकर अपना मन थोड़ा हल्का किया।

अरे भाई बस इतनी सी बात ! जैसे तेरी बहन वैसे ही वो मेरी भी बहन है। दोस्त अगर दोस्त के काम नहीं आये तो दोस्ती कैसी ! ये ले रूपये चल चलते है लाल वाली गुड़िया लेने - इतना बोलते ही मेरे हाथों में रूपये थमाते हुए हम दोनों दूकान की तरफ बढ़ लिए।


आज मुझे एक सच्चे दोस्त का इतना बड़ा उदाहरण देखने को मिला जिसने मेरे लिए दोस्ती की परिभाषा को ही बदल दिया।


दिखावा इसमें न ज़रा है जज्बातों से भरा है

पल में समझ जाए हाल दिल का

रिश्ता दोस्ती का कितना खरा है।


घर पहुंचकर लाल वाली गुड़िया मैंने जैसे ही उसके हाथों में दी , उसके बाद उसकी ख़ुशी ने मेरे आखों से आँसू निकाल दिए। इस तरह लाल वाली गुड़िया भाई - बहन के बीच स्नेह की डोर को मज़बूती से बाँध चुकी थी।