My 277 Hindi Quotes in Hindi Magazine by Rudra S. Sharma books and stories PDF | My 277 Hindi Quotes

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My 277 Hindi Quotes

निम्नलिखित लेख आदि सभी वह उचित एवं अनुचित का ज्ञान है जो मुझे चिंतन से प्राप्त हुआ है। मेरा चिंतन ही इसका मूल है। मेरे अनुसार जीवन में श्रेष्ठ बनने हेतु कैसे विचार होने चाहिए एवं क्या महत्वपूर्ण है यह मैंने बताया है।

(१)
मैं कौन हूँ ?
यह मेरा जानना ,मेरे लिए पर्याप्त है।
विश्व को बताने की ,
मुझे नहीं कदापि आवश्यकता लेशमात्र है।
विश्व की मेरे परिचय से अनभिज्ञता ,
विश्व का दुर्भाग्य है।
अतः हे विश्व !
यदि अपने भाग्य के सुर्य को सदा,
उदित रखना है चाहता,
तो तम रूपी प्रतीत होने वाली,
मेरी प्रकाश रूपी वास्तविकता,
जानने की नि:संदेह तुझे है आवयश्कता।
(२)
धर्म अथार्त कर्तव्य मतलब क्या करना चाहिए, होना चाहिए एवं क्या होता है। धर्म मे कही गई प्रत्येक बातें उसके वास्तविक रचनाकार द्वारा तार्किक एवं सर्वथा, सर्वदा उचित है परंतु हम धर्म के वास्तविक स्वरूप के दर्शन से वंचित है। हमे जिस धर्म के स्वरूप के दर्शन है या फिर हम जिस धर्म के स्वरूप के दर्शन धार्मिक ग्रंथों की सहायता से कर सकते है या हमने जिस धर्म के स्वरूप के दर्शन धार्मिक ग्रंथों की सहायता से किए थे वह धर्म का स्वरूप दृष्टिकोणो से प्रभावित है। धर्म के वास्तविक रचनाकार ने हमे धर्म के वास्तविक स्वरूप के दर्शन दिए है परंतु हम तक उनके द्वारा दिए गए धर्म के वास्तविक स्वरूप के दर्शन हम तक पहुँचाने वालो के दृष्टिकोणो से प्रभावित हो गये जो केवल वास्तविक दृष्टिकोण नहीं थे यही कारण है कि धर्म को दर्शन माना जाता है परंतु मेरे अनुसार धर्म दर्शन नहीं अपितु वास्तविकता अथार्त विज्ञान है। धर्म ग्रंथो द्वारा हमे जो भी धर्म के स्वरूप के दर्शन प्राप्त है उन सभी मे से बुद्ध धर्म की सर्वाधिक बातें सर्वथा उचित अनुसार है क्योंकि यह धर्म अत्यधिक पुराना नहीं है अतः हमें यदि धर्म के वास्तविक स्वरूप के दर्शन करने है तो हमे धर्म को वास्तिविकता की कसौटी पर कसना होगा एवं धर्म के स्वरूप के उसकी वास्तविकता के अनुसार दर्शन करना होगा जो कि हमे प्राप्त होने वाले धार्मिक ग्रंथों से कदापि संभव नहीं है। इस कर्म को अंजाम देने हेतु हमे चिंतन की सहायता लेना होगा।मेरे चिंतन के अनुसार धर्म की वास्तविकता की कसौटी उसे अंजाम देने से होने वाला परमार्थ है।
(३)
यदि आप बदलते दृष्टिकोणो से अत्यधिक परेशान है तो विपश्यना (विपस्सना) ध्यान इसका एक उचित समाधान है परंतु इसके प्रथम भाग (कायानुपस्सना) को अंजाम देने से नहीं पूर्णतः लाभ है। इसके पूर्ण लाभ हेतु इसकी पूर्णतः अनिवार्य है।
(४)
उद्देश्य स्वार्थ सिद्धि हो या परमार्थ सिद्धि मार्ग परम अर्थ वाला ही होना चाहिए क्योंकि परमार्थ का शाब्दिक अर्थ ही है अनंत या उत्कृष्ट अर्थ। परमार्थ अथार्त दूसरो का अर्थ या स्वयं का अर्थ नहीं है अपितु परमार्थ अथार्त दूसरे और स्वयं दोनो का अर्थ है।
(५)
अनंत में ऐसा कोई अर्थ नहीं जिससे केवल दूसरो का अर्थ सिद्ध हो और जिससे केवल स्वयं का अर्थ सिद्ध हो। एक अर्थ परमार्थ जिससे दूसरों का और स्वयं का अथार्त सभी का अर्थ सिद्ध होता है और दूसरा अर्थ स्वार्थ जिससे किसी का भी अर्थ सिद्ध नहीं होता। ऐसा भ्रम अवश्य होता है कि इससे सभी का अर्थ सिद्ध हो या नहीं हो परंतु स्वयं का अर्थ अवश्य सिद्ध होगा परंतु यह भ्रम क्षणभंगुर होता है और अंत मे स्वार्थी मार्ग चयन करने वाले का कोई अर्थ सिद्ध नहीं होता।
(६)
मस्तिष्क की वीचारना का संकुचित होना या विस्तृत होना भाषी के मस्तिष्क को भाषा द्वारा मिलने वाले वातावरण पर निर्भर करता है।
(७)
ज्ञान का प्रत्येक भाग इतना महत्व रखता है कि इसके एक भाग मात्र की प्राप्ति से ज्ञान सम्पूर्ण लगता हैं परंतु इस सत्य का सदा भान रखे कि ज्ञान अनंत है।
(८)
परमार्थ दो शब्दों से निर्मित है परम अर्थ। परम का अर्थ है प्रधान, अत्यधिक, अनंत या उत्कृष्ट एवं अर्थ अथार्त मतलब। जिससे अनंत के अर्थ की पूर्ति हो वही परमार्थ है।
अनंत अथार्त आत्मा, व्यक्ति, परिवार, समाज, गाँव या कस्बा, जिला, प्रदेश, देश ,विश्व, ब्रह्मांड, आकाश गंगा यहाँ तक कि समूचे अनंत का भी अर्थ पूर्ण हो वही परमार्थ है।
स्वार्थ दो शब्दों से से मिल कर बना है स्व अर्थ। स्व अथार्त स्वयं और अर्थ से तात्पर्य है मतलब। जिससे केवल स्वयं के अर्थ की ही पूर्ति हो वह स्वार्थ है।
स्वयं अथार्त अनंत का सबसे छोटा कण।
(९)
परमार्थी व्यक्ति दूसरो के हित हेतु स्वयं का अहित स्वीकार करता है परंतु स्वार्थी स्वयं के हित के लिए समूचे अनंत का अहित करने को सदा सज्ज रहता है।
उदाहरण के लिए मन अथार्त स्वार्थ एवं शरीर अथार्त परमार्थ।मन को सोम पान से अत्यधिक आनंद की अनुभूति होती है अतः क्योंकि वह स्वार्थी है वह समूचे शरीर की एवं उस शरीर के सभी अंगों की चिंता करे बिना, इसमे सम्पूर्ण तन का अहित है ज्ञात होने के पश्चात भी सोम पान करना चाहेगा एवं स्वयं के स्वार्थ हेतु अपने सम्पूर्ण शरीर का नाश स्वयं कर लेगा और सम्पूर्ण तन का यदि नाश हो जायेगा तो उसका भी नष्ट होना निश्चित है इससे यह सिद्ध होता है कि स्वार्थ से किसी का भी अर्थ कदापि सिद्ध नहीं होता।
यदि मन परमार्थी होता और उसे सोम पान उसके सम्पूर्ण शरीर के लिए हानिकारक है इसका ज्ञान है तो वह सोम पान के आनंद से स्वयं को वंचित रखता और सम्पूर्ण तन के लिए स्वयं के स्वार्थ को पूर्ण नहीं करता जिससे उसका तन स्वस्थ रहता और यदि तन का सर्वनाश नहीं होता तो वह भी स्वस्थ रहता। तन का संतुलन कदापि नहीं असंतुलित होता।इससे यह सिद्ध होता है कि परमार्थ से सभी के साथ हमारा भी अर्थ सिद्ध होता है।
(१०)
देश बड़ा या धर्म यदि यह प्रश्न है तो मेरा उत्तर है, था और यही रहेगा और रहना भी चाहिए मेरा और उत्तर सभी का कि धर्म अथार्त कर्तव्य ही सभी से बड़ा है क्योंकि देश स्वार्थी हो सकता है परंतु सर्वथा, सर्वदा उचित कर्तव्य कदापि स्वार्थी नहीं हो सकता।वह सदा परमार्थी ही रहेगा।
परमार्थी ही बड़ा होता है क्योंकि वह अनंत रहता है वरन इसके स्वार्थ कदापि नहीं होता क्योंकि वह सभी से छोटा है।
यदि हमारे देश के स्वार्थ के कारण सम्पूर्ण विश्व का अहित हो या परम अर्थ की पूर्ति नहीं हो अथार्त यदि देश स्वार्थी हो तो सर्वथा उचित धर्म या कर्तव्य है जिसे हमें सदा प्राथमिकता देनी चाहिए कि हम उसका साथ कदापि नहीं दे। यदि विडम्बना ऐसी है तो देश भक्ति कदापि महत्वपूर्ण नहीं है परमार्थ के समक्ष यह महत्वहीन है क्योंकि देश भक्ति परमार्थ तो है परंतु इसमे सीमितता निहित है वरन इसके परमार्थ अनंत है।
(११)
जीवन है सत्य की देन।
सत्य की राह पर चल।
अगर न चल सका ;
तो चुल्लू भर पानी में डूब मर।
(१२)
न कोई मित्र है ,न कोई यार।
न भाई, न बहन।
न माता न पिता।
मुझे किसी से नहीं है लगाव।
केवल सत्य से आसक्ति का भाव।
मेरे अनुसार सच्चा कर्म है परमार्थ।
तो अगर चाहते हो आपके लिए मेरा लगाव,
तो करो स्वार्थ भाव का त्याग।
(१३)
"पागल"
अगर आपको इस शब्द से कोई संबोधित करता है तो इसका अर्थ है या तो उस व्यक्ति से आप ज्यादा समझदार है या उससे कम समझदार ।मेरे अनुसार पागल लोग उसे कहते है जिसकी सोच लोगो से उच्च होती है या फिर नीच होती है और जो लोग आपको पागल कहते है उनकी सोच सामान्य होती है ।अगर आपको कोई पागल करे तो स्वयं को नीच ना समझे। आप उससे ज्यादा भी समझदार हो सकते है।
(१४)
भूत में जो हुआ है ?
बिना उचित -अनुचित की कसोटी पर कसे;
कदापि महत्व न दे उसे।
उसके महत्व को परखे।।
अगर उचित हो तो ;
उससे सीख ले।
वरना निःसंदेह उसे ;
इतियास के पन्नो में दफना दे।
(१५)
अहंकार करो तो ईमानदारी का करो क्योंकि जिसका अहंकार व्यक्ति को होता है उसे नहीं खोने हेतु वह संभव से संभव प्रयास करता है।
(१६)
क्या होता है क्या नहीं; क्या हुआ क्या नहीं?
यह जानना महत्वपूर्ण नहीं कदापि ।
क्या होना चाहिए और क्यो ?
यह महत्वपूर्ण है ; सर्वथा उचित है यही।
(१७)
कोई जीत जाता है तो उसे हार पहनाया जाता है।
जो हारता है उसे हार नहीं पहनाया जाता।
जीतने पर हार मिलता है।
हारने पर हार से वंचित रहना पड़ता है।

विचित संयोग है ना ?
(१८)
कोई अगर शुद्ध भाषा का प्रयोग करे;
तो उसे व्यक्ति समझता है पागल।
तो व्यक्ति स्वयं मिलावटी वस्तु की जगह ;
शुद्ध वस्तु की क्यो करता है मांग?
व्यक्ति जो कर्म करता उसे वह सही है लगता।
वह यही है समझता।
इस कारण से वह कर्म को;
सत्य असत्य की कसौटी पर ही नहीं कसता।
(१९)
संसार की सर्वाधिक शक्ति धारी।
सम्पूर्ण संसार की शक्ति रखने वाली।।
परिवर्तन लाने में शक्षम है जो;
निःसंदेश वह है कलम हमारी।
(२०)
पद के छोटे या बड़े होने से व्यक्ति की पहचान नहीं होती। वह अपना कर्म ईमानदारी से करता है या नहीं इस से होती है। अगर वह किसी बड़े पद पर है और अपना कर्म ईमानदारी से नहीं कर रहा हो तो उससे बड़ा कोई नीच नहीं। उस व्यक्ति को स्वाभिमान से जीना चाहिए। अगर वह किसी छोटे पद पर हो और अपना कार्य ईमानदारी से करता है तो उससे उच्च कोई नहीं। उस व्यक्ति को कभी भी स्वयं को उच्च समझ कर स्वयं पर अभिमान कदापि नहीं करना चाहिए।
(२१)
काल का आहार बनने से;
इंसान बचना चाहता है।
इसी प्रयत्न में वह;
आहार बनने योग्य बन जाता है।
कंस, रावण आदी उदाहरण दे गए।
काल से बचने के प्रयत्न कर;
काल के आहार बन गए।
सभी ने प्रयत्न निरंतर करे।
(२२)
सामाजिक या व्यक्तिगत;
जिस भी प्रकार की हो समस्या।
कारण केवल एक है उसका।
स्वार्थ एवं परमार्थ दोनो भावो की पूर्ति न होना।
(२३)
मैंने कुछ घरो में देखा है . . . .
माँ परिवार में अपने बच्चो को अच्छा माहौल देना चाहती है।
वह लड़ाई न बड़े इस उद्देश्य से;
स्वयं सास ,पति द्वारा दिये कष्ट सहती जाती है।
वह परमार्थ कर सहन शीलता की मूरत बन जाती है।
उनके बच्चे स्वयं के पैरो पर खड़े;
जब हो जाते है।
तब उनके द्वारा किये संघर्ष को ;
वह समझ पाते है।
तब उनकी माँ के लिए;
उनके अंतः करण में ;
सम्मान बड़ जाता है।
उनकी अहमियत का पता तब उनको चल पाता है।
(२४)
व्यक्ति को हमेशा वह कार्य ही करना चाहिए जिनको मन एवं मस्तिष्क दोनो अंजाम देना चाहते हो।
(२५)
धर्म कोई भी हो आधार केवल परमार्थ है। अंतर केवल उसकी शुद्धि का है। अगर परमार्थ अनंत एवं गहन तो वह शुद्ध अन्यथा अशुद्ध।
(२६)
कोई प्रेम से खाना खिलाए,
तो हम पत्थर भी चबा जाए।
अगर कोई हमको अकड़ दिखाए,
तो हम खाना तो दूर की बात,
उसको सकल न दिखाए।
(२७)
कोई नहीं है अपना।
हर कोई पराया है।
हम जैसो ने तो,
तन्हाई में अपना पन पाया है।
(३०)
शराब का स्वाद अच्छा नहीं होता फिर भी अगर व्यक्ति उसका सेवन अत्यधिक करे तो उसे वह अच्छी लगती है।
ठीक उसकी ही तरह,
दर्द का स्वाद कदापि अच्छा नहीं होता फिर भी अगर व्यक्ति उसका नशा करने लगे तो दर्द में भी उसे मज़ा आने लगता है।
शराब नशे से व्यक्ति के शरीर को हानि है परंतु दर्द के नशे से शरीर फौलादी बन जाता है।
(३१)
थोड़ी बहुत मार खाने से ,मर थोड़ी ना जाएंगे।
मर भी गए तो ,पूर्णता मिट नहीं पाएंगे।।
परमार्थ उद्देश्य होगा ,तो लौट कर आएंगे।
असत्य के अ को ,हम अवश्य मिटायेंगे।।
(३२)
परमार्थ परमो धर्म:।
परमार्थ हमारा प्रधान धर्म है क्योंकि इस धर्म को अपनाने से सभी धर्मों का उद्देश्य पूर्ण होता है।
(३३)
बिना किसी से जाने,
बिना कही खोजे,
केवल आत्म मंथन का सहारा लो।
परमार्थ के संबंध में जानो।
अगर ऐसा करा,
तो नि:संदेह कहता हूँ।
मेरी तरह इसे ईश्वर मान लोगे।
बता देता हूँ।
(३४)
कसौटी रिश्तो की.....

उन रिश्तो में औपचारिकता न रखे,
जिन्हें दोनो तरफ़ से है निभाने वाले।
क्योंकि वही तो रिश्ते है सच्चे।
सच्चे है उनको निभाने भी वाले।।
उन रिश्तो में औपचारिकता रखे,
जिन्हें दोनो तरफ से नहीं है निभाने वाले।
क्योंकि वह रिश्ते सच्चे नहीं है।
सच्चे नहीं है उनमे दोनो निभाने वाले।।
दोनो में से जो उसे निभाना चाहता है,
वही निभाने वाला केवल सच्चा है।
जो उसे नहीं निभाता है,
उसके कारण ही वह रिश्ता झूठा है।।
(३४)
राष्ट्र हमारा हिन्दुस्ता,
हिंदुस्तानी हमारी माटी है।
अगर हिंदुस्तान दीया,
हिंदी तेल,
तो हम उस तेल में सनि बाती है।।
(३५)
अत्यधिक पीड़ा होती है,देख कर आज है।
कोई नहीं समझता,छोटी सी बात यह।।
वेदों पुराणों को सभी,रद्दी का सामान समझते है।
और पाश्चात् संस्कृति को,अपनाने के लिए तरस्ते है।।
(३६)
पॉरनॉग्रफी में कार्य करने वाले लोग भी उन सभी लोगो मे से होते है जिनको भगवान द्वारा अभिनय,लेखन,आदि की कला प्रदान की जाती है।ईश्वर द्वारा रचनात्मकता का गुण दिया जाता है।परंतु उन लोगो से अच्छे वह लोग होते है जिन्हें फिल्मो में सफलता नहीं मिल पाती है।फिर भी वह संघर्ष जारी रखते है एवं अपनी कला का अनुचित उपयोग नहीं करते है।
(३७)
अगर सकारात्मक या नकारात्मकत परिवर्तन करना है तो सर्वप्रथम सामान्य होना आवश्यक है।
(३८)
अन्तः के भावों एवं मस्तिष्क के विचारों का हमारे दृष्टिकोण पर गहन प्रभाव होता है।इनके अनुसार यह परिवर्तित होता रहता है।
(३९)
कोई हमारी खुशियों में या दुःख में,
आना चाहे न चाहे,
कोई दुःख में सहानुभूति एवं सुख में शुभकामनाएँ,
देने आये न आये ?
हमे तो औपचारिकता भी दिल से निभाना चाहिए।
खुशी हो या दुःख कर्तव्य समझ कर जाना चाहिए।
(४०)
किसी से न पूछो, क्या करना है?
फिर मन मस्तिष्क क्यो न कहे जाए?
वही करो तुम सदा,
जो सत्य की कसौटी पर कस,
सत्यापित हो पाए।
(४१)
जिस प्रकार स्वार्थ का अस्तित्व परमार्थ के कारण है ठीक उसी प्रकार असत्य का अस्तित्व भी सत्य के कारण है।
(४२)
इस ब्रह्मांड में सभी उचित है एवं सभी अनुचित भी।
(४३)
हर नई जानकारी के साथ आपका नजरिया बदल सकता है।ज्यादातर आत्म मंथन से प्राप्त जानकारी हमारे नजरिये को प्रभावित करती है।
(४४)
सम्पूर्ण संसार से विरक्त।
सत्य से अत्यधिक आसक्त।।
रुद्र संजय शर्मा यानी मैं।
मैं कम,मेरी कलम ज्यादा बोलती हैं।।
(४५)
आज़ाद वतन की हर सरफरोश ने कामना की।
साथ लडे, साथ मरे,
हर जन्म साथ रहने की उनकी चाहत थी।
देश के लिए कोई धर्म नहीं था,
जिसके लोगो ने कुर्बानी न दी।
हिंदुस्तानी जमी ,
न हिन्दू की,न सिख की,न मुसलमान की थी।
वह आवाम-ए-हिंदुस्तान की थी।
फिर क्यों पराए लोगों के बहकावे में,
अपनो ने उसके टुकड़े करने की चाहत की?
मेरा उन सभी से है प्रश्न यही?
(४६)
विचारो की कसौटी विचारक की प्रसिद्धि नहीं अपितु उसकी सफलता या उसके विचारों की गहनता है।
(४७)
परमार्थ और प्रेम में कोई अंतर नहीं।
(५०)
आपको जो चाहिए,
मुझे दो ,
मिल जायेगा।
(५१)
जब आशा की नई किरण,
गहन तम में दिखती है।
अत्यंत असमंझस में भी;
इक्की दुक्की ही सही,
सुकून भारी सांस निकलती है।
(५२)
चिंतन से आप इस विश्व का क्या,ब्राह्मण का क्या अपितु अनंत का ज्ञान अनावरित कर सकते हो।
(५३)
पुस्तको से या किसी अन्य साधन से प्राप्त ज्ञान क्षण भंगुर होता है परंतु चिंतन से प्राप्त ज्ञान हमेशा रहता है।
(५४)
जब कोई हमारा विरोध करता है ,हमे कहता है कि आप गलत हो तो वह हमारे मन मस्तिष्क को सर्वथा अनुचित ही लगता है।किसी का ऐसा करने पर यह मनुष्य के मन मस्तिष्क कि स्वाभाविक प्रतिक्रिया होती है ऎसे वक्त पर हमें हमारे मन और मस्तिष्क की सहायता लेनी चाहिए क्योंकि वह व्यक्ति मन,मस्तिष्क के दृष्टिकोण को चुनोती देता है।ऐसे वक्त हमे उस व्यक्ति की बात को सर्वथा उचित साधन से सत्यापित कर लेनी चाहिए।वह स्रोत कोई ऐसी जगह हो सकती है जहाँ खोजने पर हमेशा उचित ज्ञान प्राप्त हो।
(५५)
कई बार सत्य से अवगत होने के पश्चात भी भ्रम में रहना सर्वथा उचित होता है।
(५६)
दुसरो से अपेक्षा करने में कुछ अनुचित नहीं है परंतु अपेक्षा उतनी ही होनी चाहिए जितनी आप पूर्ण कर सके।
(५७)
अगर हम वहीं करे जिसमे हमारा मन मस्तिष्क सहमत हो तो सदा स्वयं से खुश रहेंगे और अगर हम दुसरो को कोई दुःख न देने का पूर्णतः प्रयास करे और अत्यंत प्रयत्न के पश्चात भी कोई हमारे कारण दुःखी हो तो उनसे प्रभावित नहीं होंगे तो दूसरों से भी खुश रहेंगे।
(५८)
स्वार्थी व्यक्ति के लिए आप कितना ही कर दो वह अपनी फितरत कदापि नहीं बदलेगा अथार्त वह परमार्थी कदापि नहीं बनेगा।अगर देखा जाए तो इसमे उसकी कोई गलती नहीं उसका मन इतना दुर्बल होता है कि परमार्थ उसे करने ही नहीं देता और मस्तिष्क इतना बुद्धिहीन होता है कि परमार्थ के महत्व को समझता ही नहीं ।
(५९)
परिस्थितियों के कारण इंसान का दृष्टिकोण परिवर्तित होता है ।आज तक हम नहीं जान सके कि ऐसा क्यों होता है परंतु यह होता अवश्य है यह हम कभी न कभी नि:संदेश अनुभव कर चुके है।मेरे अनुसार हो सकता है कि यह नक्षत्र आदि के कारण होता हो।
(६०)
वैलेंटाइन पर प्यार करने वाले,
अपने जज्बातों को शब्दों में ही बयां करते है।
और भारत माँ के बेटों ने ,
आज अपने जज्बात कर्म से बयां कर दिए थे।।
वैलेंटाइन पर प्यार करने वाले,
अपने प्रेम का केवल इज़हार ,
उपहार देकर ही करते है।
और पुलवामा में आज प्रेम के लिए,
कुछ वीरो ने अपने प्राण ही न्योछावर कर दिए ।।
जिन लोगो ने संत वैलेंटाइन की कहानी पढ़ी,
अवश्य पता होगा उन्हें।
वैलेंटाइन ने जान दी थी प्रेम के लिए।
तो नि:संदेश वैलेंटाइन और पुलवामा के,
वीरो में लेश मात्र भी अंतर नहीं है।
तो मेरा हर वैलेंटाइन डे मनाने वाले से अनुरोध है।
इस दिन पुलवामा के शहीदों को भी याद करे।
(६१)
ज्ञान किसी भी विषय का हो ,उसके स्रोत कितने ही हो परंतु ज्ञात करने का मुख्य स्रोत चिंतन ही है।
(६२)
या तो गहन तम और तन्हाई ,
या फिर प्रकाश की होती भरपाई।
या तो बहुत कुछ या फिर कुछ नहीं।
रचनात्मक व्यक्ति की ज़िंदगी यही।।
संतुलन का कोई आस्वासन नहीं।
फिर भी पूर्णतः होती है संतुष्टि।।
(६३)
न आँखों को चुभती रोशनी,
न कानो में आता स्वर।
तम की कालिमा का ;
अप्रतिम है अनुभव।
(६४)
बदलते नज़रिये बदलते ही जा रहे है,
इस ज़िंदगी से हम तंग आ गए हैं।
प्रश्न था ज़हन में ,
इस पृथ्वी को मृत्यु लोक क्यो कहते?
अब हम बखूभी समझ पा रहे हैं।
(६५)
एक मनुष्य के सभी संबंध जिससे है वह ईश्वर ही है।इन नातो को अनुभव करने के लिए परिशुद्ध प्रेम भाव का अन्तः में होना अत्यंत आवश्यक है। यह जो अनुभव होता है वह अप्रतिम होता है।
(६६)
ईश्वर स्वार्थी है परंतु परमार्थ के लिए।
(६७)
गुमनामी मौन है ,
ख्याति नामक प्रचंड वायु के पहले की।
(६८)
जब हम कुछ करने जाते है हमे लगता है कि यह निरर्थक है क्योंकि हम उसे लोगो के दृष्टिकोण की कसौटी पर रख कर देखते है वरन इसके हमे उसे सत्य की कसौटी पर रखना चाहिए क्योंकि लोगो का दृष्टिकोण गलत हो सकता है परंतु सत्य कदापि नहीं।
(६९)
परिवर्तन अनंत है।
(७०)
परिस्थिति कैसी भी हो,मन-मस्तिष्क जिन कर्मो को नहीं करना चाहते हो उन कर्मो को कदापि नहीं करना चाहिए।यह करना सर्वथा अनुचित होगा।
(७१)
व्यक्ति जिन कर्मो से महान बनता है,
उसका हर एक कर्म स्पष्ट दिखता है।
केवल इसलिए हनुमान जी को देख कर,
" जय श्री राम " अन्तः से निकलता है।।
(७२)
विज्ञान तार्किक है इसलिए जिसका प्रमाण नहीं मिलता उसे स्वीकार नहीं करता।बहुत से महान ऋषियों ने विज्ञान के संबंध में जानकारी दी थी परंतु उन्हें सिद्ध नहीं किया था ।जो जानकारी खोज सकता है वह नि:संदेश सिद्ध भी कर सकता हैं परंतु सभी ने अपने जीवन का मूल्यवान समय नवीन खोजने में लगाना उचित समझा।खोज को सिद्ध करना उनके लिये कोई कठिन बात नहीं होगी क्योंकि वह जानते थे इसलिए उन्होंने कहा।आज जिन लोगो ने उनकी खोजो को सिद्ध करा उनको उन खोज का सिद्धकर्ता तो कहते है साथ मे खोजकर्ता भी कहते है।खोजकर्ता कहना अनुचित नहीं? पूर्णतः अनुचित है।वैज्ञानिक तार्किक होकर भी यह बात को समझने में असमर्थ है।मेरी विनती है कि सर्वथा उचित कर्म करे सार्वभौमिक रूप से जो खोजकर्ता है उसे ही खोज का श्रेय दे और सिद्धकर्ता को सिद्ध करने का श्रेय प्रदान करे।अगर बात तर्क की है तो यही सर्वथा उचित है।
(७३)
"सोते समय किया गया चिंतन जो हमारे मस्तिष्क को करते समय ज्ञात नहीं होता वही स्वप्न होता है।"
(७४)
आत्म विश्वास पहली और असफलताएं बाकी सफलता के शिखर पर पहुंचने की सीढियां है।
जिनकी सहायता से हम सफलता के शिखर पर पहुच सकते है।
जितनी ज्यादा बीच की सीढ़ियां होंगी सफलता रूपी शिखर उतना ही विशेष होगा।
(७५)
संतुलन या तो समानता से बनता है या फिर पूर्णता से।
(७६)
आप जो भी कर्म करे तो सामर्थ से हमेशा थोड़ा ज्यादा करे।जितना सामर्थ से ज्यादा आपका कर्म होगा उतना ज्यादा लोग आपके द्वारा किये गए कर्म को महत्व देंगे।
(७७)
बीमारी हमे क्या दर्द देगी,
जो दर्द रोज़ाना हम लेते है।
यू ही नहीं हम खुद को,
पैन एडिक्ट कहते है।
(७८)
ऐसे डायनामाइट बनो की,
कही भी फटने को तैयार रहो।
क्या है यह मर मर कर जीना?
जीकर एक बार मारो।।
मरने के बाद भी जीवित रहो।
मान लो जीना दिन भर का ही,
कल का आस्वासन नहीं याद रखो।
जो करना है आज करो।
कल का कल देखेंगे कह दो।।
(७९)
कभी भी किसी को भी कुछ सिखाना है तो ठीक उसी तरह सिखाए जिस तरह आप सीखे है।वही तरीका उसे पूर्णतः सिखा सकता है जितना आप जानते है।
(८०)
हमे सभी के द्रष्टिकोणों का मान रखना चाहिए।
(८१)
अगर आपको लगता है कि किसी का दृष्टिकोण उचित नहीं है तो उसे आत्म मंथन करने का सुझाव दे। आप उसे स्वयं समझाने का प्रयत्न करेंगे तो यह अनुचित होगा। स्वयं के दृष्टिकोण के अनुसार व्यक्ति सर्वथा उचित ही होता है।दृष्टिकोण को सर्वाधिक चिंतन प्रभावित करता है।
(८२)
अपने भावों एवं विचारो को किसी भी विषय पर तुकबंदी में सुव्यवस्थित एवं सुसंगठित रूप में व्यक्त करना ही कव्य रचना हैं।
(८३)
ऐसे विचारो को व्यक्त करना जो तर्क के आधार पर स्पष्ट करे कि क्या उचित है एवं क्या अनुचित विभिन्न परिस्तिथियों में एवं विषयो में।क्या होता है एवं क्या होना चाहिए विभिन्न परिस्तिथियों में एवं विषयो में ही दर्शन है।
(८४)
जब हम सांसारिक मोह माया के भ्रम को समझ लेते है तब हमें यह नश्वर है यह ज्ञात हो जाता है।इनके सत्य का ज्ञान होने के पश्चात हमे इनसे पूर्णतः मुक्त नहीं होना चाहिए बस इन्हें अपने नियंत्रण में रखना चाहिए।
यह हमें हमारे जीवन काल को व्यतीत करने में सहायक होती है।जब सर्वथा उचित लगे इससे कुछ समय के लिए मुक्त हो जाना चाहिए तत्पश्चात पुनः इसके प्रभाव को स्वीकार कर लेना चाहिए।
(८५)
जो व्यक्ति तर्क नहीं समझते वह हमेशा गलत ही होंगे क्योंकि वह अगर तार्किक नहीं होंगे तो उन्हें उचित अनुचित का कदापि भान नहीं होगा जब तक वह तर्क नहीं समझेंगे।
(८६)
व्यस्तता रचनात्मकता को प्रभावित करती है।
(८७)
शख्शियत किसी पद की मोहताज़ नहीं होती।
जिसका महान व्यक्तित्व उसे पद की आस नहीं होती,
दस के बीच उसका पद बखूबी दिखता है।
क्योकि पद व्यक्तित्व का मोहताज़ होता है।।
(८८)
पद से उस पर जो कार्यरत होता है केवल उसी की श्रेष्ठता ज्ञात नहीं होती अपितु कार्यरत व्यक्ति से पद की श्रेष्ठता भी ज्ञात होती है।
(८९)
कला वह मुक्तारत्न है जिसे विभिन्न सरल एवं कठिन परिस्थितियों से गुज़रकर निज रूपी रत्नाकर से खोजना पड़ता है।कला वह कमल रूपी गुण है जिसे निज में समाहित पंक रूपी अवगुणों के मध्य से निकालना पड़ता है।कला वह वज्ररत्न है जिसे मेहनत रूपी औज़ार से तराशना पड़ता है।खोजने,निकालने एवं मेहनत रूपी औज़ार से तराशने के पश्चात ही कला रूपी मुक्तारत्न,कमल एवं वज्ररत्न कलाकार को मिलता है जो अमुल्य,अप्रतिम होता है।इसलिए कलाकार एवं उसकी कला का सम्मान करें।
(९०)
सत्य को तमीज़ नहीं बात करने की,
पर उसकी बातें ज़िन्दगी सवार जाती है।
असत्य मीठा बोलता है,
पर उससे जीवन मे कड़वाहट आती है।।
(९१)
लगभग सभी के दृष्टिकोण भिन्न होते है परंतु सर्वथा उचित दृष्टिकोण वही होतो है जिससे किसी का भी अहित न हो अथार्त सभी का हित हो।
(९२)
जीवन का पर्याय है मृत्यु।
(९३)
जो लोग चिंतन से ज्ञान प्राप्त करते हैं।
उनके विचार लोगो से नहीं,
अपितु लोगो के विचार उनसे मिलते है।
क्योकि चिंतन ज्ञान का मुख्य स्रोत है।
(९४)
अगर ईश्वर असफल होने के पश्चात भी,
हमे पुनः अवसर देते है।
इसका अर्थ यही है,
वह पुनः प्रयास करने को कहते है।
इसका अर्थ यही है कि उन्हें हम पर विश्वास है।
अगर ईश्वर को हम पर विश्वास है,
तो हमे किस से आश्वासन की आस है?
कर्म करना सर्वथा उचित है हमारे लिए।
नि:संदेह सफलता तो मिलनी ही है।
आखिर ईश्वर ने किया आश्वस्त हमे।
(९५)
चेतन अवस्था की तुलना में हमारे मस्तिष्क को उस समय चिंतन करने में आसानी होती है जब उसे ज्ञात नहीं रहता कि वह चिंतन कर रहा है अथार्त विश्राम के समय।
(९६)
साम,दाम,दंड,भेद का उपयोग कर सत्य के अर्थ को सिद्ध करना अथार्त परमार्थ को सिद्ध करना ही राजनीति है।आज के अधिकतर राजनेता साम,दाम,दंड,भेद का उपयोग कर स्वयं का अर्थ सिद्ध करते है।
(९७)
संबंध दूर का हो या निकट का सभी के साथ समानता होना अत्यंत आवश्यक है।
अगर आपका कोई संबंधी ऐसा विचार रखता है तो वह नि:संदेह संबंधों की गहनता को समझता है।
(९८)
स्वतंत्र अभिव्यक्ति को व्यक्त करना तभी उचित है जब वह सार्थक हो।
(९९)
पुरुषो को उच्च कहना या नारियों को उच्च कहना अनुचित होगा। यह दोनों पूर्णतः समान है।
(१००)
इस ब्रह्मांड मे सब सार्थक है एवं सब निरर्थक भी है।
(१०१)
आपके मस्तिष्क में बुरे विचार न आए,
ऐसी कामना ईश्वर से कदापि न करे।
प्रार्थना यह होनी चाहिए कि,
हे ईश्वर!!!
हमे उन विचारों कि अनुचित्ता का भान रहे।
बस इतनी हमारे मस्तिष्क को समझ दे।।
(१०२)
असहायों को केवल,
अपनी रहमत का मोहताज़ न बनाओ।
उनसे कहो कि,
आप भी हमारे स्तर तक आओ।।
स्वयं जैसा सक्षम,
बनाने के लिए उन्हें राह दिखाओ।
समाज सेवक का ही नहीं,
अपितु समाज सुधारक का भी कर्तव्य निभाओ।।
(१०३)
जिस प्रकार परमार्थ स्वयं के अर्थ की पूर्ति के लिए स्वार्थ का सहारा आवश्यकता पड़ने पर लेता है ठीक उसी प्रकार सत्य के लिए असत्य का सहारा लेने में कोई आपत्ति नहीं है।
(१०४)
भाषा दृष्टिकोण,विचारधारा एवं वातावरण को प्रभावित करती है।
(१०५)
जिस प्रकार आपको कर आपकी स्थिति देख कर प्रदान किया जाता है ठीक उसी प्रकार भाग्य भी तभी प्राप्त होता है जब आपके द्वारा ईश्वर को कर्मो का आश्वासन हो।
(१०६)
मस्तिष्क और मन के चिंतन का तरीका भले ही भिन्न हो परंतु दोनों का उद्देश्य हमेशा समान होता है।
(१०७)
ईश्वर सभी के जीवन मे समान संघर्ष देते है।
(११०)
आपके मस्तिष्क की नकारात्मकता आपके जीवन की सकारात्मकता के लिए घातक है।
(१११)
वर्तमान में घट रही हर एक घटना उस गणित के समीकरण का चरण है जिसका उद्देश्य परमार्थ को सिद्ध करना है।
(११२)
यह जीवन हम असमंझस में व्यतीत कर रहे है या ऐसी ऊर्जा के बूते जिसके होने का हमे कोई आस्वासन ही नहीं है।
(११३)
व्यक्ति को उसकी पूर्ण वास्तविकता का अनुभव आत्ममंथन ही करवाता है।जो अधिकतर एकांत में किया जाता है।
(११४)
आपत्ति मृत्यु से कदापि नहीं है परंतु इसके पश्चात अस्तित्व खत्म नहीं होना चाहिए।
(११५)
मन मस्तिष्क की स्वाधीनता ही सर्वथा उचित है।
(११६)
हर धर्म के अनुसार,मेरे अनुसार,
जिसमे सभी का हित हो सत्य वही है।
हर ज्ञानी के अनुसार सत्य की परिभाषा यही है।
हर धर्म मे कही बातो को,हर महापुरुषों के विचारो को,
मेरे द्वारा परिभाषित इस सत्य की कसौटी पर रखे।
तत्पश्चात ही उनका पालन करे।
जैसे आप है ठीक वैसे ही सभी है याद रखे।
सभी को स्वयं की तरह ही समझे।
धर्म के नाम पर आपको कोई,
कदापि न गुमराह कर पायेगा।
धर्म के अनुसार क्या उचित है एवं अनुचित ,
आपके मन मस्तिष्क सब समझ जायेगा।
(११७)
परमात्मा ने मृत्यु के पश्चात के ज्ञान के अंश मात्र को भी अनावरित नहीं होने दिया उसमे असमंझस बनाए रखा क्योंकि वह मनुष्य के मन-मस्तिष्क की तार्किकता से भली भांति परिचित था।
(११८)
ईश्वर अनुचित हो सकते है किंतु नियति नहीं।
(११९)
संसार के प्रति अपने सभी कर्तव्यों का निर्वहन करे परंतु उसका लेश मात्र भी प्रभाव स्वयं पर न पड़ने दे
क्योंकि यह आपकी वास्तविकता के लिए घातक है।
(१२०)
यह गुमनामी बहुत चुभ रही है ।
परंतु इससे अंदाज़ा लगा सकता हूँ मैं ।
कीर्ति कितना आनंद देगी मुझे ?
(१२१)
आपके द्वारा भूत एवं वर्तमान में किये गए कर्म, आपकी विचारधारा,आपका द्रष्टिकोण आपके जीवन का उद्देश्य यह सभी आपकी भविष्य में आने वाली विडंबनाओं के निर्माण कर्ता होते है।
(१२२)
किसी को उत्तर देना है तो कर्मो से दीजिये।
मौन मुख पर धारण कर लीजिये।
लेकर कर्मो की सहायता,
मौन सब कुछ कह देगा।
मुख शब्दो से क्या कहेगा?
मूक भाषा मे मौन कुछ ऐसा उत्तर देगा।
(१२३)
आप जिसकी भी स्वयं से तुलना करेंगे, स्वयं की तरह उसे भी समझेंगे उसके साथ अनुचित कदापि न कर सकेंगे इसलिए सभी को स्वयं की तरह ही समझे।
(१२४)
वह शख्शियत ही क्या?
जो औधे की मोहताज़ हो।
औधा सब कुछ,
शख्स नाम मात्र हो।
(१२५)
तुम्हारे जीवन मे कोई समस्या आएगी,
तो स्वयं की समस्या समझूँगा।
तुम्हारे लिए मैं अपना हूँ या पराया,
तुम तो मेरे अपने ही हो।
तुम्हारी समस्या को व्यक्तिगत रूप से ही लूँगा।।
मेरे जीवन जीने में समस्या भी न बनना।
स्वयं का अहित भी कभी,
स्वीकार नहीं करूँगा।।
तत्काल मूल अहित का स्वयं के नष्ट कर दूँगा।
अतः मेरा और अनंत का कभी अनुचित मत करना।
आप भी जीना और मुझे भी जीने देना।।
(१२६)
परमार्थ सदा स्वयं के सर्वस्व से,
स्वार्थ की अर्थ पूर्ति में कार्यरत रहता है।
स्वार्थ से स्वयं को समझने को कहता है।
अपने कर्मो से स्वयं को,
सर्वदा सिद्ध करते रहता है।
स्वार्थ को तुच्छ सा कारण मिलने की,
सर्वदा प्रतीक्षा रहती है।
परमार्थ को उसे स्वयं का स्वार्थ सिद्ध करने का,
सदा उसकी बुद्धि कहती है।
मस्तिष्क की मान कर वह सदा अज्ञानी रहता है।
स्वयं के अज्ञान के कारण,
परमार्थ को कदापि महत्व नहीं देता है।
स्वयं के महत्वपूर्ण शुभ चिंतक को,
तुच्छ समझ लेता है।
(१२७)
इस अनंत मे दो पथ है पहला सत्य का पथ और दूसरा असत्य का पथ। असत्य स्वयं के मार्ग पर चलने वालों को सत्य मार्ग पर चलने वालों का अहित करने हेतु भेजता है जो दिखने में तो सत्य के पथिक ही लगते है परंतु असत्य के पथ पर चलते है तो यदि आप सत्य के पथिक बन सत्य के पथ पर चलना चाहते है तो सर्वप्रथान इतने योग्य बने की आप सच्चे सत्य पथिक और सत्य के पथिक बन असत्य का साथ देने वाले लोगो में अंतर समझ सके क्योंकि आपको यदि सत्य के पथ पर चलना है तो आपके साथी पथिको की सहायता करनी एवं लेनी होगी ही और यदि आपने असत्य के पथिको की सहायता करी या ली जो सत्य के पथ पर चलने का नाटक कर रहे है अथार्त वास्तव में असत्य के पथिक है तो को आपको विश्वास घात प्राप्त होना जो आपके गंतव्य तक आपको कदापि नहीं पहुँचने देगा और आप अपने गंतव्य तक कदापि नहीं पहुँच सकेंगे।
(१२८)
आपको यदि स्वयं का गंतव्य ज्ञात है। उस तक पहुँचने के मार्ग का भी भान है और उसका परिणाम आपको संतुष्टि करता प्रदान है। आपके लिए उस मार्ग के चयन से महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है एवं कदापि नहीं हो सकता महत्वपूर्ण यदि उस मार्ग से तो आपको अपने धर्म का पूर्णतः ज्ञान है। आपने उचित धर्म स्वयं के लिए चयन किया है।
(१२९)
यदि प्रश्न यह है कि गुरु और शिक्षक में अंतर क्या है तो सर्वप्रथम यह जानना होगा कि ज्ञान और शिक्षा में क्या अंतर है? बिना किसी अन्य के मार्गदर्शन से स्वतः चिंतन के माध्यम से सभी विषयों में से किसी भी विषय में उचित एवं अनुचित आदि के संबंध में स्वतः अनौपचारिक ढंग से जो ज्ञात करते है उसे ज्ञान कहते है एवं ऐसे कोई व्यक्ति या अन्य साधन से जिसने चिंतन से ज्ञान प्राप्त किया हो उसके द्वारा ज्ञात किये गये ज्ञान को औपचारिकता से जब हम उससे प्राप्त करते है तो हम उसे शिक्षा कहते है अतः जो व्यक्ति चिंतन के माध्यम से स्वतः बिना किसी अन्य के मार्गदर्शन से सभी विषयों में से किसी भी विषय में उचित, अनुचित आदि ज्ञात करे उसे गुरु कहते है एवं जो गुरु ज्ञान औपचारिकता से प्रदान करे या ऐसा कोई व्यक्ति जिसने ज्ञान औपचारिकता से किसी गुरु से प्राप्त किया है और वह उसे अन्य को प्रदान करता है तो उसे शिक्षक कहते है। स्वयं से श्रेष्ठ कोई भी गुरु नहीं होता। यदि व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ गुरु बना ले तो उसे शिक्षक की भी कोई आवश्यकता नहीं। हिन्दू धर्म मे यह कहते है कि गुरु बिन ज्ञान नहीं इसका अर्थ यह तो नहीं कि आप किसी अन्य को ही गुरु बनाइये तभी ज्ञान प्राप्त होगा। आप स्वयं अपने गुरु बन सकते है। इसका बहुत से लोग यह अर्थ निकाल लेते है कि हमें यदि ज्ञान प्राप्त करना है तो किसी अन्य को गुरु बनाना आवश्यक है।
(१३०)
जीवन के उस मर्म को यदि ज्ञात नहीं किया,
कारण जिसके जीवन अस्तित्व में है हमारा।
यदि कारण ज्ञात करने का,
हमने प्रयास भी नहीं किया।
मृत्यु रूपी तम में यदि;
बिना पूर्णतः उसके सत्य को जाने,
प्रवेश कर लिया।
तो कोई लाभ नहीं हमारे मस्तिष्क के होने का।
(१३१)
अनंत के सर्वस्व का आधार एवं प्राप्त करने का सर्वथा सर्वदा उचित साधन मात्र है परमार्थ।
(१३२)
वास्तविकता ही दृष्टिकोण की सर्वदा सर्वथा उचित कसौटी है। जो दृष्टिकोण वास्तविकता अथार्त जो जैसा है उसे ठीक वैसा ही दिखाये भला उससे उचित दृष्टिकोण और क्या हो सकता है?
(१३३)
एक ऐसा व्यक्ति जो स्वयं के स्वार्थ के लिये सम्पूर्ण विश्व का बुरा करने का पाप कर सकता है क्योंकि उसमे स्वार्थ की अत्यधिक अशुद्धि है उससे भी अधिक एक नशा कर्ता पापी है क्योंकि उससे भी ज्यादा स्वार्थ नामक अशुद्धि उस व्यक्ति मे होती है जो स्वयं के अन्तः के स्वार्थ के लिये या शरीर के अन्य किसी भाग के स्वार्थ के लिये ऐसा नशा करता है जिसके कारण उसके समस्त शरीर का नाश करने को सज्ज रहता है क्योंकि स्वयं के उस नशे के लिये वह व्यक्ति स्वयं के तन के एक भाग के लिये समस्त शरीर एवं अन्य सभी का अहित कर सकता है।
(१३४)
किसी अत्यधिक विश्वास या प्रेम करने वाले के साथ जो एक श्रेष्ठ विश्वास पात्र है विश्वास घात करना एक मूर्खता है जो कितना ही ज्ञानी या शिक्षित व्यक्ति हो कर सकता है उन तथ्यों की तत्कालीन या सर्वदा की अज्ञानता के कारण जो विश्वास घात नहीं करने की अत्यंत महत्वपूर्णता को स्पष्ट करते है। इस कर्म को कोई भी अज्ञानी हो या ज्ञानी, शिक्षित हो या अशिक्षित सत्य पथ या नेकी के पथ से विमुख हुआ व्यक्ति अंजाम दे सकता है चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या अन्य का हो कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी के ऐसा करने पर उसके पूरे कुल, जाति या धर्म आदि को भी बिना सत्यापित करे उसकी ही तरह समझना मूर्खता है।
(१३५)
यदि कोई व्यक्ति समूचे अनंत के या उसके किसी भी तंत्र के संतुलन के लिये सर्वाधिक हानिकारक है तो वह है विश्वासघाती व्यक्ति। उसके विश्वास घात से जितने भी तंत्रो का अहित हुआ है तत्काल हमें इसे ज्ञात करना चाहिए एवं सभी ऐसे तंत्रो से ऐसे व्यक्ति को निष्कासित करना ही सभी के लिये सर्वथा उचित है। ऐसे व्यक्तियों का सभी तंत्रो से अलग एक तंत्र बनाना चाहिए जो अन्य तंत्रो को चाह कर भी प्रभावित नहीं कर सके निर्माण समय इस बात की सुनिश्चितता को भी ध्यान में रखना चाहिए।
(१३६)
स्वार्थ सबसे छोटी इकाई है तो परमार्थ अनंत है।
(१३७)
हर अवगुण में भी किसी गुण का समावेश हो सकता है।आवश्यकता है तो केवल उसे खोजने की।
(१३८)
आप अगर स्मार्टफोन एडिक्ट है तो अपने इस अवगुण का लाभ उठा सकते है इसके भीतर समाहित गुण की सहायता से।अपनी इस लत की सहायता से कुछ एडवांस सीख करके।जो आपको दूसरों से अलग बनाने में सक्षम हैं।टाइम पास के लिए इसका उपयोग करना व्यर्थ है।
(१३९)
स्वार्थ से अच्छा परमार्थ का महत्व,
कोई नहीं समझा सकता है।
स्वार्थ का यही कर्म उसके अस्तित्व को,
संसार क्या अपितु समुचे ब्रह्मांड में बनाए रखता है।
(१४०)
इस संसार मे,ब्रह्मांड में जो भी हो रहा है सर्वथा उचित हो रहा है।
(१४१)
ईश्वर के कर्मो के उद्देश्यों को ज्ञात करने का सर्वथा उचित मार्ग है चिंतन।
(१४२)
इतिहास दोहराता है , लौट कर आता है।
जो जैसा करता है , वैसा फल पाता है।
(१४३)
इस संसार मे नकारात्मक ऊर्जा के स्रोत सकारात्मक ऊर्जा के स्रोतों की तुलना में कई ज्यादा है।
संसार में सकारात्मक ऊर्जा के स्रोतों को खोजने का प्रयास न करे वह स्रोत आप मे ही है।
हम स्वयं सकारात्मक ऊर्जा का वह स्रोत है जिसके सामने संसार के सभी नकारात्मक ऊर्जा के स्रोत तुच्छ है।
स्वयं में सकारात्मक ऊर्जा को जाग्रत करे एवं संसार की नकारात्मक ऊर्जा से स्वयं को कदापि प्रभावित न होने दे।
(१४४)
असत्य सत्य के संयोग के बिना कुछ भी नहीं।सत्य असत्य का स्वयं के लाभ के लिए प्रयोग करता है जिससे वह सत्य से भी शक्तिशाली बनता है।अगर सत्य असत्य का स्वयं के लाभ के लिए प्रयोग करना छोड़ दे अथार्त उसके गुणों को स्विकार कदापि न करे तो वह उसे निःसंदेह नष्ट कर सकता है।
(१४५)
स्वार्थ की सार्थकता केवल परमार्थ के साथ ही है।परमार्थ के बिना यह तुच्छ है।
(१४६)
आकर्षण के आधार पर जीवन साथी का चयन करना कदापि अनुचित नहीं परंतु वह आकर्षण शारीरिक नहीं अपितु चारित्रिक होना चाहिए।
(१४७)
अर्थ के जन्म का उद्देश्य है आवश्यकताओ की पूर्ति करना। जिस प्रकार मनुष्य तब तक मृत्यु को प्राप्त नहीं होता जब तक वह अपने जन्म के उद्देश्य की पूर्ति के योग्य रहता है। ठीक उसी प्रकार अर्थ भी तब तक नष्ट नहीं होता जब तक वह अपने जीवन के उद्देश्य की पूर्ति के योग्य रहता है।
(१४८)
परमार्थ की पूर्ति ही हर जीव के जीवन का उद्देश्य है।इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह स्वार्थी है या परमार्थी।
(१४९)
अर्थ तो महज़ एक साधन है आवश्यकताओ की पूर्ति करने का जो मनुष्यो द्वारा प्राप्त करी जा सकती है और प्रकृति ईश्वर का हमे उपहार है जिसकी सहायता से बिना अर्थ रूपी साधन के हम अपनी सभी आवश्यकताओ की पूर्ति कर सकते है।
यदि हम हमारी सभी आवश्यकताओ को खत्म कर दे जिनकी पूर्ति धन के माध्यम से होगी है और प्रकृति की सहायता से ही आवश्यकताओ की पूर्ति करे तो नि:संदेह धन के बिना हमारा जीवन व्यतीत कर सकते है।
(१५०)
यदि किसी से सभी की हानि हो परंतु उसमे उसकी कोई भी गलती एवं वश नहीं हो तो उससे सभी को स्वयं की रक्षा करनी चाहिए। पूर्ण प्रयास करना चाहिए नष्ट करने का कारण, न कि उसे।
यदि कोई सभी के लिए हानिकारक है एवं इसमे उसी का पूर्णतः दोष एवं वश है तो उससे सभी को स्वयं की रक्षा तो करनी ही चाहिए एवं याद रखे उसे नेस्तनाबूद करने में कुछ अनुचित नहीं है। मेरे अनुसार यही सर्वथा उचित है क्योकि सभी की हानि का कारण वह स्वयं है।
(१५१)
व्यक्ति का अंतर मन, मस्तिष्क या उसकी अंतर आत्मा
जब स्वयं उसे परिवर्तित होने को कहते है तभी वह उसके पग परिवर्तन के मार्ग की ओर बढ़ने देते है।
कोई अन्य व्यक्ति उसे कितनी ही परिवर्तित करना चाहे,
उस व्यक्ति को उसके कथन पूर्णतः व्यर्थ लगते है।
इसमे उसकी लेश मात्र भी गलती नहीं है क्योकि उसकी यह प्रतिक्रिया स्वभाविक है इसलिए व्यक्ति को कोई अन्य द्वारा नहीं अपितु उसके अंतर मन,मस्तिष्क एवं अंतर आत्मा के द्वारा ही परिवर्तित होने दे अथार्त इनके द्वारा ही उसे उचित-अनुचित मार्ग की समझ करवाने दे उसे परिवर्तित करने का कदापि प्रयास न करे।यह कर्म उसके मन,मस्तिष्क एवं आत्मा पर ही छोड़ दे।यह सभी इस कर्म को करने में आपसे ज्यादा सक्षम है।
(१५२)
दूसरों के द्वारा दिया गया उचित-अनुचित का ज्ञान उचित-अनुचित को समझने का मार्ग नहीं ,
अपितु चिंतन के द्वारा प्राप्त उचित-अनुचित के ज्ञान की पुष्टि करने का साधन मात्र है ।
इस ज्ञान को प्राप्त करने का सर्वथा उचित स्रोत स्वयं द्वारा किया चिंतन ही है क्योंकि यह इसकी महत्वता को भी समझाता है ।
उचित-अनुचित का ज्ञान दूसरे महापुरुषों द्वारा उनकी लेखनी से भी प्राप्त हो जाता है ।
परंतु चिंतन की तरह उसके महत्व को समझा नहीं पाता है ।।
(१५३)
व्यक्ति के विचारों से उसकी विडंबनाओं का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
(१५४)
मर्यादा की अत्यधिकता भी अनुचित है क्योंकि इससे कई बार परमार्थ का उद्देश्य सिद्ध नहीं होता।
(१५५)
केवल शारीरिक आकर्षण के कारण किया गया प्रेम विवाह जिस प्रकार पूर्णतः अनुचित है ठीक उसी प्रकार आर्थिक आकर्षण के कारण परिजनों द्वारा तय किया गया विवाह भी पूर्णतः अनुचित है।शारीरिक एवं आर्थिक आकर्षण के आधार पर व्यक्ति एवं परिजन विवाह तय करते है फिर इसके सफल न होने पर व्यक्ति परिजनों द्वारा तय विवाह को एवं परिजन व्यक्ति द्वारा किए प्रेम विवाह को अनुचित कहते है परंतु यदि चारित्रिक आधार पर यह तय हो तो दोनों ही अनुचित नहीं है।
(१५६)
इस ब्रह्मांड में जितना शक्तिशाली असत्य होगा ,उसकी शक्ति सत्य की शक्ति के अंश मात्र होगी । इसका भान असत्य क्या अपितु स्वयं सत्य को भी नहीं होगा ।कुछ समय के लिए असत्य क्या अपितु सत्य को भी नियति द्वारा भ्रम में रखा जायेगा ।असत्य स्वयं को सत्य से शक्तिशाली समझेगा एवं सत्य स्वयं को असत्य से दुर्बल ।उचित समय पर नियति द्वारा सत्य को उसकी अनंत शक्ति का भान हो जायेगा फिर सत्य असत्य को नष्ट कर उसके भ्रम को मिटाएगा ।सत्य के सामने असत्य की समस्त शक्ति तुच्छ है क्या अपितु थी भी एवं सदा रहेंगी इस बात का समस्त ब्राह्मण क्या अपितु विश्व को भी ज्ञात हो जायेगा ।
(१५७)
हर एक कण से लेकर इस सम्पूर्ण धरा ,ब्रह्मांड अपितु अनंत तक में कोई किसी से बड़ा नहीं, न कोई किसी से छोटा है ।
सभी पूर्णतः समान है अतः सभी को स्वयं के समान समझने मे कुछ भी अनुचित नहीं है।सभी को स्वयं की तरह ही समझे।
(१५८)
हम जीवित है इसका अर्थ है कि हमने जन्म लिया है और यदि हमने जन्म लिया है तो हमने माता के पेट से निकलने के लिए संघर्ष भी किया है तब जा कर के हमें जीवन मिला है ।
जब बिना संघर्ष के हमे ईश्वर जीवन देने को तैयार नहीं थे तो बिना इसके उस जीवन मे कुछ कैसे मिलेगा ?
इसलिए संघर्ष सदा कीजिये कदापि इससे पलायन करने की मूर्खता को अंजाम न दीजिये।
आप जीवित है इसका अर्थ है कि आप संघर्ष करने में पूर्णतः सक्षम है फिर पलायन करने की आवश्यकता ही क्या है ?
(१५९)
जब तक शराफत से,
तब तक शराफत से।
वरना हम !
बहुत बड़ी आफत है।
(१६०)
काम इच्छा एक द्रष्टिकोण है जो अनुचित समय विडंबना एवं अनुचित स्थान पर अनिष्ट का कारण बन सकती है ।
आपको और आपके सभी कुछ को पूर्णतः नष्ट कर सकती है ।
द्रष्टिकोण को वातावरण अत्यंत प्रभावित करता है अतः जब भी यह इच्छा उत्पन्न हो एवं समय विडंबना आदि इस दृष्टिकोण के लिए उचित नहीं हो तब चिंतन पर कुछ समय के लिए अल्पविराम लगा दीजिये और अपने वातावरण को परिवर्तित करने का प्रयास कीजिए।
यदि ऐसा कर लिया तो अत्यंत सरलता से अनिष्ट रोका जा सकता है।
(१६१)
जिस प्रकार ऐश्वर्य, धन–दौलत आदी मनुष्य को सांसारिक सुख प्रदान करते है ठीक उसी प्रकार आत्मा को मनुष्य द्वारा किये गए परम अर्थ सिद्ध करने वाले कर्म सुख एवं शांति प्रदान करते है ।
यदि मनुष्य अनुचित कर्म कर धन-दौलत प्राप्त करता है तो उसे सांसारिक सुख तो प्राप्त हो जाता है परंतु यह सुख क्षण भंगुर होते है और मृत्यु के पश्चात उसकी आत्मा कदापि सुखी नहीं रहती है उसे अनंत कष्टो को सहन करना पड़ता है ।
अतः मनुष्य को सांसारिक सुख को प्राप्त करने के लिए जो क्षण भंगुर है अपनी आत्मा की सुख शांति नष्ट करने वाला कर्म अज्ञानता के कारण नहीं करना चाहिए क्योकि सांसारिक सुख क्षणभंगुर है परंतु आत्मिक शांति एवं सुख अनंत है ।
(१६२)
सुंदरता एवं कुरूपता द्रष्टिकोण पर निर्भर करती है ।
मेरे अनुसार सर्वथा उचित द्रष्टिकोण वही है जिसमे किसी का भी अहित नहीं ।
जिसमे किसी का भी अहित नहीं वह केवल परमार्थ है अतः परमार्थी से सुंदर इस ब्रह्मांड क्या अपितु अनंत में कोई भी नहीं ।
अनंत में उस परमात्मा से बड़ा परम अर्थ सिद्ध करने वाला कोई नहीं अतः परमात्मा अनंत में सबसे सुंदर है ।
(१६३)
स्वयं पर विश्वास की अनंतता एवं उस विश्वास की अखंडनीयता यदि अनंत के लिय हो जाए तो हम किसी भी कर्म को नि:संदेह सिद्ध कर सकते है।
(१६४)
भावुक होकर अन्तः से किया गया कर्म मस्तिष्क से अर्जित तार्किक ज्ञान की कसौटी पर रखने पर सदा मूर्खतापूर्ण सिद्ध होता है ।इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि यह अर्थहीन है अपितु इसे जिस कसौटी पर रखा है वह अनुचित है ।अन्तः से भावो की अनंतता में किए गये कर्म की सर्वथा उचित कसौटी मस्तिष्क का ज्ञान नहीं अपितु परीक्षण कर्ता के भाव है ।यदि भावुक होकर अन्तः से किये गए कर्म को इसकी सर्वथा उचित कसौटी पर रखेंगे तत्पश्चात ही इसकी अनंत महत्वपूर्णता को समझ सकेंगे।
(१६५)
हमारे मस्तिष्क में अनंत ज्ञान होता है परंतु हम एक समय मे केवल उसके कुछ ही भाग के होने की पुष्टि कर पाते है कहने का अर्थ उसका आभास कर पाते है या समझ पाते हैं ।उस ज्ञान के कुछ ही भाग से हमारा पूर्ण द्रष्टिकोण निर्मित हो जाता है।वह समय जिसमे हम उस ज्ञान की पुष्टि करते है नियति द्वारा उस ज्ञान का आभास करवाने वाली विडंबना होती है।जिसमे नियति द्वारा वह ज्ञान प्रदान करने वाली या उसका आभास करवाने वाली विषयवस्तु होती है।विडंबना के परिवर्तित होने पर उसकी विषयवस्तु भी परिवर्तित हो जाती है एवं इससे हमें हमारे मस्तिष्क के अनंत ज्ञान के दूसरे भाग का होने का आभास होने लगता है एवं हमारा भिन्न द्रष्टिकोण हो जाता है इस तरह विभिन्न विडंबनाओ के कारण हमारा दृष्टिकोण परिवर्तन होता रहता है।
(१६६)
जब हम हमारे मस्तिष्क में उपस्थित सम्पूर्ण ज्ञान के होने का आभास कर सकेंगे तभी हमारा दृष्टिकोण सार्वभौमिक अथार्त सर्वथा उचित कर सकेंगे।
(१६७)
कोई व्यक्ति यदि किसी विषय से संबंधित ज्ञान रखता है परंतु इसके पश्चात भी वह उस ज्ञान से प्रभावित नहीं ऐसा लगे है तो उसे अनुचित कदापि न समझे आपको यह देखकर आश्चर्यचकित होने की कोई आवश्यकता नहीं है।ज्ञान इतना प्रभावशाली होता है कि उसका ग्रहणकर्ता उसके प्रभाव से कदापि नहीं बच सकता यह तो आपके उस विषय से संबंधित अधूरे ज्ञान का परिणाम है जिसके कारण आपका मस्तिष्क उस व्यक्ति पर ज्ञान का प्रभाव नहीं पड़ा यह समझता है । रावण ने श्री राम को तुच्छ समझा उसके अनंत ज्ञान का ही यह प्रभाव था।
(१६८)
उचित-अनुचित द्रष्टिकोण के मोहताज है ।
(१६९)
ऐसा कोई कर्म नहीं जिसमे आनंद नहीं और ऐसा भी कोई कर्म नहीं जिसमे दुःख नहीं । कर्म के अनुभव की कोई सार्वभौमिक परिभाषा नहीं क्योकिं यह द्रष्टिकोण पर निर्भर है।
(१७०)
चिंतन नामक विषय की समस्त विषयवस्तु धर्म ग्रंथों में समाहित है।जिस प्रकार चिंतन एक अनंत सागर है ठीक उसी प्रकार धर्म ग्रंथ भी नि:संदेह अनंत सागर से कम नहीं।सभी आविष्कार एवं सभी महापुरुषों के द्वारा कही गई हर एक ज्ञान की बात अथार्त उनके सुविचार इन अनंत सागर के मोती है।वह केवल उनके खोजकर्ता है उनके रचनाकार तो वही है जो चिंतन की विषयवस्तु के रचनाकार है जो इन धर्म ग्रंथो के रचनाकार है अथार्त ईश्वर ।
(१७१)
व्यक्ति की जीवन अवधि उसके सतकर्मों एवं कुकर्मो पर कदापि निर्धारित नहीं रहती अपितु उसके जीवन के उद्देश्य पर निर्धारित होती है। जिसका जितना बड़ा उद्देश्य उसकी उतनी अधिक जीवन अवधि।वह उद्देश्य जिस पर जीवन की अवधि निर्धारित होती है वह उद्देश्य व्यक्ति द्वारा निर्धारित नहीं अपितु ईश्वर द्वारा निर्धारित होता है।
(१७२)
चिंतन से प्राप्त होने वाला समस्त ज्ञान धर्म ग्रंथो से तो प्राप्त हो सकता है परंतु उसकी सर्वाधिक महत्वता केवल चिंतन ही समझा सकता है।
(१७३)
प्रेम परिशुद्ध परम अर्थ है।
वह प्रेम नहीं अपितु मोह है ,
जिसमे केवल कर्ता का स्वार्थ है।
अतः मोह को त्याग दे।
परिशुद्ध प्रेम करे।
जिस प्रकार स्वार्थ संसार नष्ट कर सकता है।
ठीक उसी प्रकार मोहकर्ता के कारण,
जिससे व्यक्ति से मोह हो,
वह समूल मिट सकता है।
(१७४)
शांति वीरो के लिए प्रथम विकल्प है एवं दुर्बलों के लिए अंतिम विकल्प ।
(१७५)
व्यक्ति को आत्मा से परमात्मा की तरह ,मस्तिष्क एवं मन से ब्राह्मण की तरह ,बाहुओं से क्षत्रिय की तरह ,उदर से वैश्य की तरह और पगो से शुद्र की तरह होना चाहिए ।
वह जन्म से किसी भी वर्ण का हो परंतु कर्म से सभी वर्णो के गुणो वाला होना चाहिए ।
(१७६)
यदि धर्म से बड़ा अनंत में कोई है तो नि:संदेह वह केवल मर्यादा है ।यदि किसी धर्म के कारण उससे बड़ी मर्यादा का पालन न हो तो उस धर्म से बड़ा अनंत में कोई भी अधर्म नहीं ।
(१७७)
विडंबना के अनुसार सर्वथा उचित द्रष्टिकोण के आधार पर जो सर्वथा उचित कर्म है , नि:संदेह वही धर्म है।
(१७८)
सत्य पथ पर सत्य का पथिक तभी तक बड़ सकेगा । जब तक त्याग रूपी जलन से स्वयं जल सकेगा ।।
इस जलन की पीडा का अंत नहीं करेगा ।
वरन इसके उस पीड़ा की आदत कर लेगा।।
गन्तव्य स्थान अथार्त सफलता प्राप्त करने पर भी ,
कदापि नहीं रुकेगा अपितु त्याग करता रहेगा।
नि:संदेह अपनी राह के गंतव्य स्थान की सदा शोभा बड़ाएगा ।
(१७९)
यदि कोई आपकी प्रशंसा या निंदा करे तो उनको अनसुना कर दे क्योकिं यह आपको आपके कर्म पथ से विचलित कर सकते है । हतोत्साह या अभिमान आपके कर्म पथ की बाधा बन सकते है इसलिए सर्वदा सामान्य रह कर अपने कर्म पथ पर रहे एवं सर्वथा उचित कर्म को अंजाम दे ।
(१८०)
हर युग के साथ धर्म का रूप भी परिवर्तित होता रहता है यदि ऐसा नहीं होता तो श्री राम और श्री कृष्ण में कोई अंतर नहीं होता कलियुग में भी निःसंदेह इसका रूप दूसरे युगों से भिन्न है परंतु उद्देश्य सर्वदा एक ही और वह है परमार्थ इसके रूप का साक्षात्कार ईश्वर ने नहीं करवाया है क्योकि उनके साक्षात्कार करवाने का उचित समय अभी नहीं आया है इसलिए ही मैं परमार्थ को ही परम धर्म कहता हूँ ।
(१८१)
असत्य की तुच्छता का अंदाज़ा हम इसी तथ्य से लगा सकते है कि असत्य को स्वयं का अस्तित्व सिद्ध करने के लिए स्वयं को सत्य सिद्ध करना पड़ता है।
(१८२)
समय समय अवश्य लेता है ।
कभी-कभी असत्य का साथ भी देता है।।
सत्य को ही असत्य सिद्ध कर देता है।
परंतु अंत मे हमेशा सत्य कहता है।।
(१८३)
परमार्थ की कोई सीमा नहीं होती यह अनंत होता है यदि इसे सीमित कर दिया जाए तो यह परमार्थ नहीं अपितु स्वार्थ में परिवर्तित हो जाता है ।
(१८४)
मनुष्य और यन्त्र-मानव का वह संबंध नहीं जो ईश्वर और मनुष्य का है वरन इसके मनुष्य और यन्त्र-मानव का ठीक वैसा ही संबंध है जैसा ईश्वर और नियति का संबंध है ।
(१८५)
आवश्यकता पड़ने पर तकनीक का उपयोग कर लेना अनुचित नहीं वरन इसके तकनीक का उपयोग करने हेतु आवश्यकता को जन्म देना अनुचित है ।
(१८६)
अनंत में ऐसा कोई नहीं जिसने अपने सभी धर्मो का पालन किया हो क्योकि सर्वदा कर्ता के पास समय एक होता है और पालन करने को उस समय पर धर्म अनेक और कर्ता एक समय पर अपने सभी धर्मों का पालन कदापि नहीं कर सकता यद्यपि वह स्वयं ईश्वर ही क्यो नहीं हो ।
(१८७)
यदि कर्ता एक समय पर जो भी उसके अनेक कर्तव्य (धर्म) होते है उन सभी का पालन करने में सक्षम हो जाए तो सर्वदा उसके साथ कदापि अनुचित नहीं हो परंतु ईश्वर भी ऐसा करने में सक्षम नहीं है और न ही कभी पहले थे अन्यथा उनके साथ भी कभी कदापि अनुचित नहीं होता ।
(१८८)
जिस असत्य को पूर्णतः उसके सत्य का ज्ञान हो उससे सच्चा कोई नहीं है ।
(१८९)
मानव मस्तिष्क का स्वभाव है कि वह उचित अनुचित में अंतर समझने के पश्चात भी चिंतित होता रहता है एवं फिर उसका असमंझस व्यक्ति को कर्म करने से बाधित कर देता है इसलिए एक बार उचित अनुचित में अंतर जानने के पश्चात केवल उस कर्म को नि:संदेह अंजाम दे ।अपने चिंतन को कर्म पूर्ण करने तक विराम दे ।
(१९०)
स्वार्थ की शक्ति पर परमार्थ की पूर्ति और परमार्थ की शक्ति पर स्वार्थ की पूर्ति निर्भर करती है ।
(१९१)
मर्यादा एक सीमा रेखा है जो सत्य एवं असत्य के मध्य खिची हुई है ।सत्य या असत्य जो इसका स्वयं के अर्थ की पूर्ति हेतु सर्वप्रथम उलंघन करता है अथार्त अमर्यादित कर्म को अंजाम देता है तो वह दूसरे पक्ष के लिए अहितकारी सिद्ध होता है वह दूसरे पक्ष की सीमा के अंदर प्रवेश हो जाता है और फिर दूसरा पक्ष परम अर्थ की पूर्ति के लिए उसी प्रकार का कर्म या वही कर्म करने का अधिकार रखता है जिसके अंजाम देने के कारण प्रथम पक्ष ने मर्यादा की सीमा का उलंघन किया था ।उसके लिए वह कर्म को अंजान देना कदापि अनुचित नहीं होता ।
(१९२)
विश्वास रूपी अर्थ के समक्ष ब्रह्मांड की प्रत्येक सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु तुच्छ है ।
(१९३)
यदि कोई संसार का अहित कर रहा है एवं इसे अपना धर्म कहता है इसका अर्थ है कि वह स्वयं के धर्म से अनभिज्ञ है अन्यथा अनंत में ऐसा कोई भी धर्म नहीं जो संसार का अहित चाहे क्योंकि धर्म का उद्देश्य ही संसार के हित को सुनिश्चित करना है ।
(१९४)
किसी भी स्थान पर केवल तभी प्रत्येक व्यक्ति सुखी एवं संतुष्ट रह सकेगा जब उस स्थान के प्रत्येक व्यक्ति का दृष्टिकोण समान होगा परंतु हम जिस स्थान पर रहते है वहाँ सभी के दृष्टिकोण भिन्न है बहुत कम लोग होते है जिनके द्रष्टिकोण समान होते है इससे सिद्ध होता है कि हमारा निर्माण कर्ता ही यह नहीं चाहते कि हम इस स्थान पर अथार्त संसार मे सुखी एवं संतुष्ट रहे ।
(१९५)
एक बार आपने किसी कर्म को अंजाम दे दिया भले ही वह कर्म कितना ही कठिन हो या सरल फिर आप स्वयं पर पूर्णतः विश्वास रखे कि आप उस कर्म को पहले की तरह पुनः अंजाम दे सकते है ।एक बार किसी भी कठिन कर्म को अंजाम देने के पश्चात भी स्वयं पर संदेह करना मानव मस्तिष्क का स्वभाव है परंतु एक बार ही सही अपनी योग्यता को सिद्ध करना उसके लिए पर्याप्त है अतः बुद्धिमानी यह कहती है कि ऐसी स्थिति में अपने मस्तिष्क के दोष को अपने कर्म पथ की बाधा कदापि न बनने दे अपितु उसके गुण की पहचान कर पुर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने कर्म को अंजाम दे ।
(१९६)
विभिन्न विडंबनाओं में मस्तिष्क क्या करता है ,क्यो करता है ,क्या उसे जो वह करता है करना चाहिए ,यदि नहीं तो क्यो ऐसे सभी प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करना अथार्त मस्तिष्क के स्वभाव का अध्ययन करना ही मनोविज्ञान है।
(१९७)
परिवर्तन लाने का प्रयत्न यदि करना है तो स्वयं में ही कीजिये दूसरों में परिवर्तन लाने का विचार अन्तः से त्याग दीजिये क्योंकि परिवर्तन स्वेच्छा से ही संभव है और परिवर्तन लाने की इच्छा आपकी हुई है अन्य की नहीं अतः दूसरों में सुधार लाना आपके लिए संभव नहीं केवल स्वयं को परिवर्तित करना ही आपके लिए संभव है ।
दूसरों में परिवर्तन लाने से अथार्त दूसरों में सुधार चाहने से दूसरे परिवर्तित नहीं होते चाहे कितना ही प्रयत्न कर लीजिये ।
हा यदि आपने स्वयं में सकारात्मक परिवर्तन कर लिए तो दूसरों की स्वयं में सुधार न लाने की इच्छा परिवर्तित हो सकती है और यदि दूसरों में सकारात्मक परिवर्तन की इच्छा उत्पन्न हो गई तो ठीक आपकी ही तरह वह भी स्वयं में परिवर्तन लाने का प्रयास कर सकते है ।
यदि उनका प्रयास सफल हुआ तो आपकी ही तरह वह भी स्वयं में सुधार कर सकते है जिससे आपकी उन लोगो को सुधारने की इच्छा भी पूर्ण हो सकती है एवं आपसे प्रेरित होकर उनमे जो निज सुधार की इच्छा उत्पन्न हुई थी वह भी पूर्ण हो सकती है ।
(१९८)
हमे प्रसन्नता के समय अत्यधिक प्रसन्न नहीं होना चाहिए एवं दुःख के समय अत्यधिक दुःखी नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारे मस्तिष्क के लिए यह दोनो सर्वदा अनुचित है अतः हमें सदा सामान्य रहना चाहिए ।
(१९९)
कर्म की सिद्धि का आश्वासन हो या नहीं हो परंतु आत्मविश्वास का होना अत्यंत आवश्यक है ।यदि यह पर्याप्त नहीं तो कर्म का सिद्ध होने पूर्णतः असंभव है ।
(२००)
जिस सफलता के लिए सफलता का मार्ग पथिक तय करता है उस सफलता का उसके संघर्ष के समक्ष तुच्छ होना इसका अर्थ है अनंत की सभी से बड़ी सफलता उसे प्राप्त होना ।
(२०१)
यह मानव स्वभाव है जिसके कारण वह दूसरों के गुणों की सराहना की तुलना में उसकी अवहेलना अधिक करता है जिसके परिणाम स्वरूप उसे संसार से सर्वदा केवल हतोत्साह ही मिलता हैं अतः संसार से जानने के स्थान पर उसे स्वयं को स्वयं से जानने की आवश्यकता है क्योंकि व्यक्ति को स्वयं से अधिक कोई अन्य कदापि नहीं जान सकता है ।वह कौन है उसकी वास्तविकता की जानकारी आत्म मंथन से अधिक किसी अन्य कर्म से कदापि नहीं प्राप्त कर सकता है ।
(२०२)
जिस सफलता के लिए सफलता का मार्ग पथिक तय करता है उस सफलता का उसके संघर्ष के समक्ष तुच्छ होना इसका अर्थ है अनंत की सभी से बड़ी सफलता उसे प्राप्त होना ।
(२०३)
उचित-अनुचित में अंतर करने योग्य बन पाना ।
अपने कर्म को सिद्ध करने हेतु किसी भी हद तक जाना ।
कर्मठता के धर्म के समक्ष हर धर्म को तुच्छ बताना ।
सफलता के पथ के पग-पग पर सकारात्मक परिणाम की सौ प्रतिशत आशा कर जोखिम उठाना ।
पूर्ण श्रद्धा के संग संघर्ष कर बार-बार असफल होकर भी असंभव रूपी सफलता को संभव बनाना इतना करने के पश्चात सफलता का सौभाग्य होगा पथिक की झोली में आना ।
यदि इतने के पश्चात भी वह सफलता जिसके लिए पथिक संघर्ष कर रहा था उसे यदि प्राप्त नहीं हो तो इसका अर्थ यही है कि वह सफलता ही उस पथिक के संघर्ष के योग्य नहीं थी ।
(२०४)
कुल मिलाकर जीवो की चौरासी लाख योनिया होती है इन सभी योनियों में एक मनुष्य योनि को छोड़ सभी केवल भोगने वाली होती है जिनमें जीवो को अपने पुण्य एवं पापो का फल भोगना होता है ।अपने पुण्यो का फल जीव देवता आदी की योनि में भोगता है एवं कुकर्मो के फल जीव-जन्तु आदि की योनि में भोगता है। जीव को कर्म करने का अधिकार केवल एक मनुष्य योनि में ही प्राप्त होता है जिसमे किये गए कर्मो का फल बाकी योनियों में वह भोगता है ।
अतः अपने जीवन के उद्देश्य को जाने किसी ने आपके साथ कितना ही अनुचित क्यो न किया हो ।संसार ने आपके साथ कितना ही अन्याय किया हो प्रतिशोध के भाव को अपने मन-मस्तिष्क में उत्पन्न कदापि न होने दे। प्रतिशोध लेने हेतु पाप कर्म को अंजाम न दे । यह सभी आपको आपके जीवन के परम उद्देश्य से भ्रमित करने वाली बाधाएँ है ।अपने परम उद्देश्य को जाने एवं पूर्ण करे ।
(२०५)
मेरे लेख किसी एक के दृष्टिकोण के अनुसार नहीं ।
सार्वभौमिक द्रष्टिकोण के अनुसार सर्वथा सर्वदा उचित है जो ,
लिखता हूँ वही ।
चापलूसी करना पसंद नहीं किसी की भी ।
यदि सत्य पढ़ने की शक्ति है तो स्वागत है आपका ।
उचित स्थान है यही ।
(२०६)
वेदों-उपनिषदों एवं भागवत पुराण के अनुसार हमे देवताओं की भक्ति कदापि नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह हमारे कर्म को प्रभावित कदापि नहीं कर सकते अतः इससे यह स्पष्ट है कि हमे जो सुख एवं दुःख की प्राप्ति हुई है वह स्वयं के कर्मो का ही फल है ।इसमें देवताओं ने कुछ नहीं किया ।नारद भक्ति सूत्र १० के अनुसार भी हमारी भक्ति में अनन्यता होनी चाहिए अथार्त हमे भगवान को छोड़ कर किसी अन्य का आश्रय नहीं लेना चाहिए ।
तो वेदों ,उपनिषदों एवं नारद भक्ति सूत्र यह स्पष्ट करते है कि आपको जो सुख एवं दुःख की प्राप्ति होती है वह देवताओं द्वारा कदापि नहीं हो सकती तो यदि आप अपने जीवन मे सुख की चाहत से देवताओं (त्रिदेवों को छोड़ कर) की भक्ति करते है तो मत कीजिये ।मेरे अनुसार व्यक्ति को किसी की भी भक्ति केवल अपने जीवन मे सुख प्राप्ति हेतु कदापि नहीं करनी चाहिए ।जीव अपने कर्मो से पुज्य बनता है और देवता की योनि तो पुण्य कर्मों को भोगने की योनि है अतः देवताओ ने बहुत से पूण्य किये है। तो उनके सत्य कर्मो के कारण मेरे अनुसार उनकी भक्ति करने में कोई आपत्ति नहीं है ।धर्म मनुष्य को उनकी भक्ति सुख की चाह के लिए नहीं करने को कहता है क्योंकि मनुष्य के कर्मो को वह प्रभावित करने में असमर्थ हैं।
(२०७)
सत्य की जीत हो असत्य की हार ।
सदा सत्य का असत्य पर हो घातक वार ।।
अनंत में सत्य-असत्य का हो संतुलन सदा महान ।
असत्य का सदा संकट में रहे ना नाम-ओ-निशान ।।
परमार्थ की भावना हो सभी मे विद्यमान ।
सभी दिशाओं में हो केवल परमार्थ ।।
(२०८)
आप कितने ही सत्य कर्म कर लीजिए , ईश्वर की भक्ति कर लीजिए ,कुकर्मो को अंजाम दीजिए ,जो करते बने बिल्कुल कीजिए परंतु दुःखो की प्राप्ति आपको दूसरों द्वारा होगी ही ।आपकी जीवन यात्रा में पग-पग पर कष्ट आपकी प्रतीक्षा सदैव करता रहेगा क्योंकि आपको मनुष्य जीवन की प्राप्ति हुई है और मनुष्य योनि की प्राप्ति जीव को तभी होती है जब उसने अच्छे कर्म और बुरे कर्म समान किये हो ।उसके अच्छे कर्म के फल स्वरूप ईश्वर उसे पुनः कर्म करने का मौका देता है अथार्त मनुष्य जीवन प्रदान करता है और बुरे कर्मो के फल स्वरूप उस जीवन मे दुसरो द्वारा एवं हर पग पर कष्ट प्रदान करता है ।
(२०९)
दूसरों द्वारा एवं नियति द्वारा हर पग-पग पर जो दुःख हमे हमारे बुरे कर्म फल स्वरूप प्राप्त होते है उनसे हमे मुक्ति कदापि नहीं प्राप्त हो सकती है ।हमारे पास एक ही विकल्प है और वह यह है कि स्वयं को उन दुःखो को सहन करने योग्य बना ले और दूसरे लोग एवं नियति से सुख की कामना किये बिना सदा सत्य कर्मो को अंजाम दे। सत्य कर्म से हमे उन कष्टो से तो मुक्ति नहीं मिलेगी परंतु इस संसार से मुक्ति का साधन यही एक मात्र है और एक बार यदि हम ने स्वयं को इन कष्टो को सहन करने योग्य बना लिया तो हमे इनसे पीड़ा नहीं होगी ।
(२१०)
व्यक्ति को दूसरों से जितना भी मिले सदा संतुष्ट रहना चाहिए एवं स्वयं से सदा असंतुष्ट ।
(२११)
जितनी जिस कर्म की पूर्ति करेंगे ठीक उतनी उससे विपरीत कर्म की पूर्ति ईश्वर आप से अवश्य करवाएँगे ।
(२१२)
आप विनम्रता से सहन एक बार कीजिए ।
दौ बार कीजिए तीसरी बार भी कीजिए ।
अपनी सहन शक्ति का परिचय देने हेतु इतना पर्याप्त है ।
चौथी बार सहन करने पश्चात ,
अनुचित करने वाले के लिए आप ,
दुर्बलता का पर्याय है ।
अतः चौथी बार सहन करने की भूल कदापि न करे ।
अपनी सहन शक्ति को विध्वंसक बना ले ।
तत्पश्चात अनुचित्ता की सीमा लांघने वाले को ,
वो जिस धरा कर खड़ा है उसी धरती में गाड़ दे ।
सत्य कहता हूँ आपने यदि जितना सहन किया ,
यदि उसका आधा भी सहन करवा दिया ।
फिर आपकी सात पीढ़ी के संग अनुचित करने का साहस नहीं करेगा वह ।
(२१३)
आत्म विश्वास की अत्यधिकता के लिए सर्वश्रेष्ठ साधन है ध्यान का अभ्यास क्योंकि इसके अभ्यास से व्यक्ति दुसरो से अथार्त अपने आस-पास के लोगो से विशेष एवं उत्तम हो जाता है ।स्वयं को सभी से श्रेष्ट समझना अथार्त अहंकारी होना परंतु ध्यानी व्यक्ति अहंकार से परे हो जाता है क्योंकि उसकी महानता का कारण ही क्रोध ,दुःख ,भय ,अहंकार आदि दोषों के बंधन से मुक्ति प्राप्त करना है वह जानता है कि यदि इन दोषों में से एक "अहंकार" के बंधन में यदि पुनः बंधा तो मेरी महानता फिर किस बात की ?
(२१४)
स्वतः मस्तिष्क में आने वाले विचार चिंतन की सहायता से लाने वाले विचारों की तुलना में अधिक रचनात्मक होते है ।
(२१५)
संतुलन को स्वयं की पूर्ति के लिए असंतुलित भी होना पड़ता है ।
असंतुलन के बिना वह अपूर्ण है ।
(२१६)
परमार्थ की शुद्धता की कसौटी उसकी विराटता है वरन स्वार्थी की शुद्धता की कसौटी उसकी सूक्ष्मता ।
(२१७)
यदि उचित एवं अनुचित को उनकी वास्तविकता के अनुसार जानना है तो उन्हें अपनी विडंबनाओं द्वारा निर्मित द्रष्टिकोण के बिना देखना होगा ।अपने परिस्थितियों से निर्मित दृष्टिकोणों से यदि उचित-अनुचित को देखोगे तो उचित-अनुचित उनके अनुसार होगा अपनी वास्तविकता अनुसार नहीं ।
(२१८)
एक दार्शनिक वैज्ञानिक हो सकता है परंतु एक वैज्ञानिक दार्शनिक नहीं ।
(२१९)
दार्शनिक और वैज्ञानिक में अंतर यह है कि, जो किसी विषय मे किसी भी द्रष्टिकोण के अनुसार क्या उचित-अनुचित है यह देखता है वह दार्शनिक है और जो किसी विषय मे सर्वथा सर्वदा उचित द्रष्टिकोण के अनुसार उचित-अनुचित देखता है अथार्त वास्तविक द्रष्टिकोण से उचित-अनुचित की वास्तविकता को वह वैज्ञानिक है।
(२२०)
जिस प्रकार परमार्थ स्वार्थ की अहमियत ,सत्य असत्य की अहमियत और त्रिदेव राक्षसों की अहमियत समझते है और उनके अस्तित्व को पूर्णतः कदापि नष्ट नहीं करते है उनके साथ कभी अन्याय नहीं करते है ठीक उसी प्रकार सत्य गुणों वाले मनुष्यों को भी सदा स्वार्थी असत्य का साथ देने वाले और राक्षस प्रवत्ति वाले मनुष्यों के साथ भी कभी अन्याय नहीं करना चाहिए ।
(२२१)
जिस प्रकार त्रिदेव का असुरों और देवताओं के लिए कितना ही करने पर वह सदा असंतुष्ट ही रहते है ठीक उसी प्रकार परमार्थ का स्वार्थ के लिए कितना ही करने पर वह सदैव असंतुष्ट ही रहेगा । यह उनकी प्रकृति है ।इसके कारण परमार्थ को अपने कर्मो को बाधित कदापि नहीं करना चाहिए ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार त्रिदेव देवो और असुरों के ऐसे व्यवहार के कारण स्वयं के कर्मो को बाधित नहीं होने देते ।वह सदैव दोनो को समानता से देते रहते हैं ।
(२२२)
मृत्यु अंत नहीं वरन एक अल्प विराम मात्र है ।
(२२३)
दुनिया की दौड़ में दौड़ कर के प्रथम आना ही स्वयं को दुनिया में दुनिया से विशेष बताने का विकल्प नहीं वरन इसके अपनी दौड़ मैं दुनिया को दौड़ाना और इतना तेजी से दौड़ना कि उसमे दुनिया का आपसे कभी आगे नहीं आ पाना भी दुनिया में दुनिया से स्वयं को विशेष बताने का विकल्प है ।
(२२४)
जब संसार व्यक्ति को या किसी अन्य वस्तु को अपने नकारात्मक दृष्टिकोण से देखता है तो वह व्यक्ति की वास्तविकता को नहीं समझ सकता और व्यक्ति को अनुचित सिद्ध करने हेतु सदा कार्यरत रहता है ऐसा इसलिए क्योंकि व्यक्ति के तीन स्वभाव हो सकते है उन स्वभावो में से एक है मजाकिया स्वभाव और दूसरा है गंभीर स्वभाव और तीसरा है उदासीन स्वभाव ।यदि व्यक्ति का स्वभाव गंभीर है तो संसार उसे घुन्ना कहता है और अपने स्वभाव को सदा परिवर्तित करवाने में कार्यरत रहता है ।यदि व्यक्ति मजाकिया है तो संसार उसे मंदबुद्धि कहता है और उसे उसका स्वभाव परिवर्तित करवाने में कार्यरत रहता है ।यदि व्यक्ति अपने स्वभाव को उदासीन कर ले तो संसार उसे भी यह तर्क देकर अनुचित कहता है कि व्यक्ति को सदा समय अनुसार हसमुख और गंभीर रहना चाहिए ।अब व्यक्ति के समक्ष प्रश्न यह आता है कि वह स्वयं से संसार को कैसे संतुष्ट करे उसने सभी प्रयास करके देख लिए ।व्यक्ति ऐसे दृष्टिकोणों वाले संसार को संतुष्ट करने का कितना ही प्रयास कर ले सब व्यर्थ है उसे इस परम सत्य को समझ लेना चाहिए कि ऐसे दृष्टिकोण वाला संसार असंतुष्टि का पर्याय अथार्त असंतुष्टि का दूसरा नाम है ।यदि अनुचित कुछ है तो वह व्यक्ति का स्वभाव नहीं जिसे नकारात्मक दृष्टिकोण वाला संसार अनुचित कहता है वरन इसके अनुचित तो संसार का दृष्टिकोण है जिसे उसे परिवर्तित करना चाहिए ।
(२२५)
नकारात्मक दृष्टिकोण इसलिए अनुचित है क्योंकि इसकी तुलना में सकारात्मक दृष्टिकोण जो दिखाता है उसकी वास्तविक होने की संभावना कई ज्यादा होती है परंतु सकारात्मक दृष्टिकोण सदा वास्तविकता नहीं दिखाता अतः जो जैसा है उसे वैसा है बिना अपने विडंबनाओं से निर्मित द्रष्टिकोण की सहायता से देखना ही सर्वदा सर्वथा उचित है ।
(२२६)
हमारा अचेतन मस्तिष्क चेतन मस्तिष्क की तुलना में अधिक रचनात्मक होता है ।
(२२७)
यह था सुशांत सिंह राजपूत जी का आत्म हत्या करने का कारण यदि उनके द्वारा आत्म हत्या की गई।

सत्य असत्य ,उचित एवं अनुचित ,अच्छा बुरा सभी दृष्टिकोण के मोहताज होते है जब एक गहन चिंतक चिंतन की यात्रा पर निकलता है तो एक समय वह ऐसे दृष्टिकोण के अस्तित्व का साक्षात्कार करता है जिसके अनुसार जीवन मे प्राप्त उसकी उपलब्धियां , उसकी अच्छाई ,बुराई ,मेहनत जो उसने उसके तन के लिए करी ,मन-मस्तिष्क के लिए करी दूसरों के लिए करी स्वयं के लिए करी सभी की व्यर्थता का उसे ज्ञान हो जाता है ।जिस दृष्टिकोण के अनुसार सभी व्यर्थ है उसका दृष्टिकोण वह हो जाता है। जब उसका वैसा दृष्टिकोण हो जाता है तो उसके दृष्टिकोण अनुसार उसकी सभी उपलब्धियां ,उसका जीवन सभी उसके अनुसार व्यर्थ हो जाते है ।
हमारे सभी द्रष्टिकोण हमारी परिस्थितियों से प्रभावित होते है। हमारे आस पास के वातावरण से प्रभावित होते है और यदि जिस द्रष्टिकोण के अनुसार सभी कुछ व्यर्थ है वह उचित समय पर परिवर्तित नहीं हुआ तो नि:संदेह व्यक्ति के जीवन मे कोई कमि हो या नहीं हो ,वह कितना ही उपलब्धि वाला क्यों न हो , उसका भविष्य कितना ही उज्वल क्यो न हो ,उसके कितने ही सपने क्यो न हो वह सभी को व्यर्थ समझता है और स्वयं के जीवन को नष्ठ कर लेता है ।
आप स्वयं विचार कीजिए कि यदि सुशांत सिंह किसी से नाखुश होते या किसी व्यक्ति के कारण नाखुश होते तो अंतिम पत्र या किसी अन्य माध्यम से अपनी आत्ममृत्यु का कारण अवश्य बताते ।
सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु का यही कारण है वह एक चिंतक थे ।उनका स्वयं की आत्म हत्या करने का कारण उनके मस्तिष्क की कमज़ोरी नहीं थी अपितु चिंतन के एक पड़ाव पर ज्ञात होने वाला एक द्रष्टिकोण का साक्षात्कार जिसके अनुसार व्यक्ति का सभी कुछ और उसका जीवन अर्थहीन है और आप कितना ही प्रत्यन कर लीजिए सत्य खोजने का सत्य यही है ।मैं एक चिंतन हूँ एवं अत्यधिक चिंतन करता हूँ मानव मस्तिष्क को समझता हूँ और एक समय मैंने भी ऐसे ही द्रष्टिकोण का साक्षात्कार किया था जिसके अनुसार इस जीवन में सभी कुछ व्यर्थ है और स्वयं आत्म हत्या करने के लिए सज्ज था परंतु किसी तरह मैंने अपने दृष्टिकोण को परिवर्तित किया और मुझे जीवन की वास्तविकता का ज्ञान हुआ ।
(२२८)
यदि आपको लगता है कि आपके जीवन में संतुलन नहीं इसका अर्थ यह नहीं की आपका जीवन असंतुलित है वरन इसके आपके जीवन मे जो संतुलन है वह आपके द्वारा नहीं है ।
(२२९)
सत्य का अर्थ है उचित अर्थात जो करना चाहिए ,होना चाहिए एवं जो हुआ है ।ऐसा जो करना चाहिए ,होना चाहिए एवं जो हुआ है वह कर्म है जिसमे कण कण से लेकर अनंत का भला अथार्त अच्छा निहित हो ।इससे यह सिद्ध होता है कि जिसमे कण कण से लेकर अनंत का भला निहित हो वही सत्य है ।उसी सत्य कर्म को करना प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म (कर्तव्य) है ।अब प्रश्न यह है कि ऐसा क्या है जिससे कण कण से लेकर अनंत का पूर्णतः हित संभव हो सकता है ?तो उत्तर है केवल परमार्थ। ऐसा कर्म जिसकी सहायता से परमार्थ कर्म को पूर्णतः अंजाम देने योग्य हम बन सकते है तो वह केवल और केवल योग है। योग की सहायता से हम हमारी आत्मा ,मस्तिष्क ,मन सम्पूर्ण तन के कण कण का एवं संसार ,ब्रह्मांड ,अनंत का भला कर सकते है। सभी के लिए श्रेष्ठ कर सकते हैं।
यदि परमार्थ कर्म परम सत्य है तो उस कर्म को सिद्ध करने का सर्वश्रेष्ठ सर्वदा सर्वथा उचित सहायक है योग ।
(२३०)
अपने संघर्ष की सहायता से हर व्यक्ति की सफलता प्राप्ति नि:संदेह निश्चित है परंतु ऐसे सफल सभी में से सर्वाधिक सफलता वाला सफल व्यक्ति वही है जिसके मस्तिष्क में स्वयं के कठिन संघर्ष के लिए तुच्छता का भाव हो।
(२३१)
जब जब दृष्टिकोण को सर्वाधिक उचित अनुसार जानना चाहोगे सदा उत्तर किसी न किसी अन्य दृष्टिकोण के अनुसार पाओगे।
(२३२)
जिस प्रकार स्वार्थ के कारण बच्चो को अपने माता पिता को वृद्धावस्था में नहीं त्यागना चाहिए ठीक उसी प्रकार माता-पिता को वृद्धावस्था में ,अपने बच्चो की सफलता को निज मोह के कारण बाधित कर अपने धर्म से दूर कदापि नहीं भागना चाहिए ।वृद्धावस्था में स्वार्थी बन अपने माता-पिता को त्यागना बच्चो के लिए जितना बड़ा पाप है माता-पिता का अपने बच्चो के धर्म मे मोह के कारण बाधा बनना ठीक उतने ही बड़े पाप के समान है ।पिता श्री दशरथ ने इस पाप से बचने हेतु अपने प्राणो को त्याग दिया ।पुत्र श्री राम की प्रिय पितृ विरह वेदना का कारण बन उन्हें कष्ठ देने का पाप करना अपने पुत्र के धर्म को बाधित करने के पाप को करने से उचित समझा ।
(२३३)
हम किसी व्यक्ति के बिना रह नहीं सकते अथार्त हमे उस व्यक्ति से मोह है परंतु मोह का हमे कष्ट देना यही केवल एक उद्देश्य है ।श्री राम और पिता श्री दशरथ दोनो पिता-पुत्र पिता और पुत्र संबंध के आदर्श है ।
यदि दशरथ जी को अपने पुत्र से मोह नहीं होता तो वह उनके विरह की पीड़ा में स्वयं के प्राण नहीं त्यागते और श्री राम को पिता विरह वेदना की पीड़ा से पीड़ित नहीं होना पड़ता। दोनो पिता-पुत्र का १४ वर्ष पश्चात सुखद मिलान होता और आजीवन दोनो साथ रहते ।
(२३४)
एक आदर्श व्यक्ति वही है जो अपनी आत्मा ,मस्तिष्क ,मन ,तन ,परिवार ,देश ,विश्व ,ब्रह्मांड एवं अनंत के लिए सर्वश्रेष्ठ करने में सक्षम हो और सभी के लिए सर्वश्रेष्ठ करने में सदा कार्यरत हो।
(२३५)
व्यक्ति ने एक बार नशे का स्वाद चख लिया उसने नशे का सेवन कर लिया अर्थात उसने भूल नहीं अपितु अपराध को अंजाम दिया ।उसे प्रथम बार ऐसा करने पर हम उसके कर्म का उसे दोषी कह सकते है क्योंकि उसने उसकी सोचने समझने की शक्ति होने के पश्चात भी ऐसे कर्म को अंजाम दिया है । एक बार नशे का पान करने के पश्चात नशा उसकी चेतना को हर लेता है व्यक्ति उसके आधीन रहता है ।फिर वह कितनी ही बार उसका सेवन करे हम उसे दोषी नहीं कह सकते ।उसे उसके कर्म का दोष कदापि नहीं दे सकते उससे मुक्त होना उस पर ही निर्भर रहता हैं और उसे दुसरो का रोकना व्यर्थ है ।
(२३६)
अनंत में सभी से नीच वही है ।
जो विश्वास योग्य नहीं है ;
वरन इसके सभी से महान है वही ,
जिसमे विश्वास पात्रता का गुण निहित है ।
(२३७)
विडम्बनाओं से बड़ा अनंत में कोई गुरु नहीं।
सभी ने सीखा जिससे ,
सभी को सिखाया जिसने ,
ऐसी एक मात्र है वही ।
किसी के गुरु स्वीकारने या नहीं स्वीकारने से ,
जिसे लेश मात्र अंतर पड़ता नहीं ।
अतः अनंत में जिसके शिष्य है सभी।
ऐसे गुरु की प्राप्ति होना सभी को ,
सभी के लिए बात है सौभाग्य की ।
ऐसे गुरु को पाकर धन्य हूँ मैं भी ।
(२३८)
व्यक्ति को सदा विडम्बनाओं के अनुकूल सुंदर सर्वथा उचित ही बोलना चाहिए अन्यथा नहीं बोलने में भी कुछ अनुचित नहीं है।
(२३९)
जितना प्रकाश का सानिध्य होना आवश्यक है उतना ही तम की कालिमा में खोना भी आवश्यक है।
(२४०)
अधीनता केवल उनकी ही स्वीकार करनी चाहिए जिनको आपकी अधीनता स्वीकार हो ।
(२४१)
जिस प्रकार पति पत्नी के लिए मैं शब्द अर्थ हीन है। दोनो के संबंध में मान का कोई स्थान नहीं है। ठीक उसी प्रकार परिवारों के मध्य भी उनके मान शब्द का कोई नहीं है स्थान यदि विवाह मिलन है दो व्यक्तियों का ,दो व्यक्तियों के परिवारों का तो उच्चता और नीचता का नहीं है कोई काम केवल समानता अथार्त प्रेम का होना चाहिए वास।
(२४२)
कण कण से लेकर के धरती ,ब्रह्मांड , अनंत तक की नीव है विश्वास और यदि कोई व्यक्ति विश्वास पात्र नहीं या है विश्वासघाती किसी भी विश्वास पात्र के लिए तो उससे मूर्ख और नीच अनंत में कोई भी नहीं ।कण कण से लेकर के समूचे अनंत के लिए खतरा है वही अतः यदि अनंत का सभी से नीच व्यक्ति आपको नहीं बनना तो विश्वास घात विश्वास पात्र के साथ कदापि न करना ।
(२४३)
मैं वह नहीं ,
जो आसमा छूने के लिए ,
ऊँची सीढ़ीयां बनाये ।
जो आसमा छूना चाहें ।
उसे छूने के लिए अपना कद ,
आसमा जितना बनाये ।
वह हूँ मैं ।
(२४४)
यदि सदा संतुलन की चाह रखते हो तो असंतुलित भी होना आवश्यक है अन्यथा संतुलन और असंतुलन का ही संतुलन नहीं रहेगा।
(२४५)
परमार्थ में परम का शाब्दिक अर्थ है सभी ।इसमें सभी से तात्पर्य समूचा देश ,विश्व ,ब्रह्मांड नहीं अपितु अनंत है अतः जिसमे अनंत का हित निहित हो वही परमार्थ है ।यदि अनंत में से किसी का भी अहित हो तो वह कर्म परमार्थ नहीं अपितु स्वार्थ है ।
(२४६)
रन्तुष्टिदा की कुंद कुंदनू ,
अनुसनुधु अवेध दूँ ।
कनसदिधा तुंग करासकेतू ,
नव प्रवाह सकेल सकू ।
(२४७)
तकनीक का उपयोग सदा अंतः से बिना किसी परवाह के ही करना चाहिए ।
(२४८)
अनंत में जो भी अनुचित हुआ था ,हुआ है और होता रहेगा वह किसी के भी द्वारा अंजाम दिया गया था ,दिया गया है या दिया जायेगा ।जिसके द्वारा अंजाम दिया गया वह उस अनुचित का निमित्त मात्र ही होगा सदा अथार्त उसका वास्तविक कारण कदापि नहीं होगा ।उसका वास्तविक कारण केवल एक ही है ,एक ही था और वही सदा रहेगा और वह कारण है स्वार्थ ।
(२४९)
जो व्यक्ति स्वयं के लिए कुछ अधिक ही सोचता है वह कभी स्वार्थी नहीं हो सकता।
(२५०)
प्रेम का धागा मुझसे जुड़ा ,
कभी नहीं मैं उसे टूटने दूँगा ।
यह आश्वासन है मेरा सर्वदा ।
मेरी चाह है यह ,
अनंत के कण-कण से ,
जो रहे जुड़ा सदा-सदा ।
जिस जिस से है वह जुड़ा ,
वह तोड़ेगा उसे यदा-यदा ।
धागा इतना कमज़ोर हो जाएगा ,
गांठ से भी नहीं बंद पाएगा ।
अतः जिन-जिन से वह है जुड़ा ,
वह उसे कदापि नहीं तोड़ना ।
(२५१)
मैं जो बोलू अकस्मात ,
उसे गंभीरता से कदापि न लीजिए ।
मैं जो लिख दूँ ,
उससे अधिक गंभीरता से लेने योग्य कुछ भी नहीं है ।
(२५२)
स्वार्थ हमारे साथ किसी न किसी को निमित्त बना कर अनुचित करने में सदा कार्यरत रहता है जिससे कि हम उसके प्रभाव में आ जाए ।हमारे साथ अनुचित होने के कारण हम उसके प्रभाव में आ भी जाते है और उसके द्वारा बनाए गए निमित्त से प्रतिशोध लेने में समूचे विश्व का भी अहित करने से नहीं कतराते अतः हमें उससे प्रभावित होने से बचना चाहिए एवं जब भी हमारे साथ अनुचित हो उससे प्रभावित होने के स्थान पर परमार्थ के प्रभाव का अनुभव करना चाहिए जो सदा हम पर रहता ही है सम्पूर्ण जीवन भर ,मृत्यु के पहले भी और मृत्यु के पश्चात भी।
(२५३)
व्यक्ति को उसका शरीर अपने माता-पिता से प्राप्त होता है और यह सत्य है जिसमे उसका मस्तिष्क ,अन्तः भी शामिल है अतः यदि उसका परिवार उससे उसका विवाह नहीं करवाना चाहता जिससे वह करना चाहता है तो उसे उस व्यक्ति से स्वयं की मर्ज़ी से विवाह रचाने का और शारीरिक संबंध बनाने का कोई अधिकार कदापि नहीं है परंतु व्यक्ति की आत्मा परमात्मा का अंश है और परमात्मा आत्मा को अपना साथी चयन करने का पूरा अधिकार देते है। यह सम्पूर्ण शरीर की स्वामिनी आत्मा है वही उसे चलाती है अतः आत्मा को अपना साथी किसे चयन करना है इसका पूर्ण अधिकार है इसलिए व्यक्ति सशरीर जिससे विवाह करना चाहता है इसका निर्णय उसके ही अधिकार छेत्र में होता है अथार्त माता-पिता या उसके अन्य शुभ चिंतक उसके साथी का चयन कर सकते है परंतु उनके द्वारा चयनित व्यक्ति से उसे विवाह करने से बाधित नहीं कर सकते। उनके द्वारा चयनित व्यक्ति से उसे विवाह करना है या नहीं इसका अधिकार केवल उसे ही है क्योंकि निर्णय लेने का अधिकार उसे स्वयं परमात्मा ने दिया है।
(२५४)
परमात्मा का अंश है हर एक आत्मा ।हर आत्मा का उद्देश्य है परमात्मा ।फिर परमात्मा ने क्यो यह किया ,स्वयं से आत्माओ को अलग कर दिया ।इस मृत्यु लोक का निर्माण किया ।जीवन चक्र को निर्मित किया ।जब परमात्मा ही हर आत्म का उद्देश्य था ।तो परमात्मा का स्वयं के अंशो को अलग करना ,मृत्यु लोक एवं अन्य लोको को निर्मित करना ,अस्तित्व में देवताओं ,दैत्यों ,ब्रह्मांड का आना ,क्या यह सभी अर्थहीन था ?अर्थपूर्ण भी ,अर्थहीन भी था यह सभी ।सर्वप्रथम अनंत थी बस एक ही छवि ।वह छवि थी परमात्मा की ही ,आत्माएँ तो बस स्वयं को तुच्छ कण ही समझती थी ।जिनसे निर्मित थी परमात्मा की अनंत आकृति ।परमात्मा ने अपना कर्म परमार्थ किया ।अपने कण-कण को अपने समान महान बताया। आत्माओ को स्वयं की महानता का नहीं आभास था ।वह तुच्छ है सदा तुच्छ ही रहेंगी पूर्ण विश्वास था। परमात्मा ने स्वयं से सभी को अलग कर दिया ।कर्म करने हेतु उनके ,लोको को निर्मित किया ।महान तो सभी है परमात्मा को ज्ञात था ।अपनी महानता तो जानने का मौका दिया ।परमात्मा के कर्म का बस यही अर्थ था ।अनंत में सभी समान है यह बताना उद्देश्य था ।वह अंश हो तुच्छ सा या बड़ा या अस्तित्व पूर्णतः ।
(२५५)
हम इतने बड़े स्वाधीनता तेरे प्रेमी है कि ,
हमारी रूह को अधीनता तन की भी नहीं सुहाती है ।
हमारी आत्मा परमात्मा के अतिरिक्त ,
किसी की भी अधीनता नहीं चाहती है ।।
(२५६)
परमात्मा ,स्वयं की शक्ति और स्वयं आत्मा केवल यही तीनो के अर्थ आत्मा के स्व है अन्य सभी के परम है ।
(२५७)
कला की अभिव्यक्ति की कदापि भी कलाकार को ,
परवाह नहीं करनी चाहिए ।
जैसे भूक लगने पर स्वतः ,
अहसास हो जाता है ।
जैसे प्यासे होने का ,
आभास स्वतः हो जाता है ।
ठीक उसी प्रकार उचित समय आने पर ,
कला की अभिव्यक्ति स्वतः हो जाएगी कलाकार से ।
(२५८)
ज्ञान को ठीक उसी समय ग्रहण करना चाहिए जब किसी कर्म को पूर्ण करने में उसकी आवश्यकता बाधा बन रही हो ।सर्वप्रथम हम जिस विषय से सम्बंधित कर्म करना चाहते है उस विषय का ज्ञान लेना व्यर्थ है क्योंकि ज्ञान क्षणभंगुर है ।जब हम उस कर्म को करना प्रारंभ करेंगे जिसे पूर्ण करने के लिए हमने उसके विषय से संबंधित ज्ञान प्राप्त किया हमे पुनः अध्ययन करना होगा ।
(२५९)
दिनचर्या मे कार्य क्रम की नियमितता रचनात्मकता को प्रभावित करती है।
(२६०)
यदि आपको और आपके साथी को एक दूसरे के साथ समय व्यतीत करने से, एक दूसरे की बाते सुनने से, एक दूसरे से बातें करने से, एक दूसरे के स्पर्श से सुख का अनुभव होता है तो आपके मस्तिष्क में उत्पन्न रसायनों की उत्पत्ति इसका कारण है और यह सिद्ध करता है कि यह आपके और आपके साथी के तन का प्रेम है। यदि आपको और आपके साथी को एक दूसरे के सुख से सुख की प्राप्ति एवं दुःख से दुःख की प्राप्ति होती है अन्तः का दृष्टिकोण समान है। दया, शांति, प्रेम, क्रोध, मोह, करुणा, भय आदि भावो की उत्पत्ति के कारण की समानता आप मे होती है इससे यह सिद्ध होता है कि आपके और आपके साथी के मध्य अन्तः का प्रेम है। यदि आपके और आपके साथी के मस्तिष्क के विचारों में समानता है। दृष्टिकोण, मस्तिष्क को जिन विषयों में रुचि है वह भी समान है इसका अर्थ है कि दोनो के मध्य मस्तिष्क का प्रेम है। यदि आपके और आपके साथी का आध्यात्मिक ज्ञान समान है, परमात्मा से स्वयं के संबंध का दोनो को मान है,दोनो की आत्मा का उद्देश्य समान है, तो इससे सिद्ध होता है कि दोनों के मध्य आत्मा का प्रेम है। आपको और आपके साथी को इस बात का ज्ञान है कि दोनो एक दूसरे का स्वार्थ है और सभी कुछ उनका समान है तो यही उनके प्रेम की परिशुद्धता एवं अनंतता का प्रमाण है।
(२६१)
यदि आपका तन कर्मठ नहीं, मन का अपने भावों पर नियंत्रण नहीं, मन-मस्तिष्क अपने दृष्टिकोण से वास्तविकता को देखने मे असमर्थ है, आत्मा को स्वयं एवं परमात्मा के संबंध का मान नहीं और मन, मस्तिष्क, आत्म, तन सभी स्वयं के दोषों से स्वयं की मुक्ति हेतु कार्यरत भी नहीं और कार्यरत कभी हो भी नहीं सकते तो इन सभी का अंत करने में या होने में कुछ भी अनुचित नहीं है।
(२६२)
इस शरीर मे विद्यमान मन, मस्तिष्क, आत्मा यहाँ तक कि इसके हर एक कण-कण में एक भी दोष नहीं है यदि शरीर, मन, मस्तिष्क और इस शरीर का हर एक कण कण आत्मा के वशीभूत है तो इसका हर एक कर्म गुण वान है अथार्त सर्वथा सर्वदा उचित है।
(२६३)
हमारे मस्तिष्क में अनंत ज्ञान होता है। हम एक समय मे केवल उसके एक भाग की उपस्थिति का ही अनुभव कर सकते है। यह अनुभव हमें चिंतन या किसी अन्य ज्ञात करने का साधन जैसे कि पुस्तक आदि हो सकता है। जो ज्ञान का भाग हमे चिंतन या किसी अन्य साधन से प्राप्त होता है वही हमारा दृष्टिकोण निर्मित करता है।
हम एक समय मे हमारे मस्तिष्क में उपस्थित अनंत ज्ञान का अनुभव कदापि नहीं कर सकते है परंतु ज्ञान रूपी हर एक कण-कण जो कि अनंत होता है उसकी अनंतता का अनुभव उसे अनंतता अथार्त परमार्थ की कसौटी पर कस कर अवश्य कर सकते हैं अतः हमें ज्ञान रूपी कण-कण की अनंतता का अनुभव करना चाहिए क्योंकि ज्ञान जो हम किसी भी साधन से प्राप्त कर रहे है वह उचित है या अनुचित इसका यह करते से हमें ज्ञात हो सकता है। केवल अनुचित तर्कों से ही यह सिद्ध नहीं होता कि ज्ञान अनुचित है इसके अतिरिक्त तर्कों की अपूर्णता वाला ज्ञान भी अनुचित होता है।
(२६४)
व्यक्ति कितना ही महान क्यो न हो।
किसी की भी तरह बनने की चाह मत रखो।।
स्वयं को कैसा होना चाहिए जानो और विचार करो।
सर्वदा स्वयं को सर्वश्रेष्ठ बनाने में कार्यरत रहो।।
(२६५)
जो व्यक्ति भूत में जीता है वह नकारात्मकता का शिकार होता है। जो व्यक्ति भविष्य के संबंध में सदा सोचता है उसका दृष्टिकोण सकारात्मकता को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति वर्तमान में जीता है उसे ही सदा वास्तविकता का ज्ञान होता है।
(२६६)
जिस व्यक्ति के मन मे विजय कि चाह सदैव रहती है और उसी चाह के कारण वह जब तक जीवन रहता है तब तक विजय के लिए अपनी पूर्ण शक्ति लगा देता है वह जीवन जो कि एक स्पर्धा है और वह उस स्पर्धा का प्रतिभागी है उसमें सदैव विजय को प्राप्त करता है। ऐसे व्यक्ति की जो हार होती है वह उसके जीवन की स्पर्धा के निर्णायक पड़ाव अथार्त अंतिम पड़ाव की नहीं वरन इसके स्पर्धा के अन्य पड़ावों की हार होती है और जीवन एक ऐसी स्पर्धा है जिसमे केवल अंतिम पड़ाव अथार्त निर्णायक पड़ाव की ही विजय पूर्ण स्पर्धा की विजय निर्धारित करती है।मध्य के पड़ावों में प्रतिभागियों को विजय मिले या पराजय कोई अंतर नहीं पड़ता।
(२६७)
सफलता अनंत में किसी को भी पूर्णतः नहीं मिलती है।जो जितना योग्य होता है उसे उतनी ही इसकी प्राप्ति होती है, होती थी और सदा होती रहेगी अतः सदा स्वयं की योग्यता में वृद्धि करे और सफलता को बढ़ाने में कार्यरत रहे। यदि आपको लगता है कि आपकी सफलता पूर्णतः है तो यह आपका केवल भ्रम ही है ।
(२६८)
ऐसे व्यक्ति बनो कि कोई तुम्हारा अच्छा करे या बुरा सदा सभी का तुम अच्छा ही करो। ऐसा व्यक्ति जो सदा सभी का अच्छा ही करेगा और बुरा वह किसी के लिए भी कभी चाह ही नहीं सकता ऐसे हो आप ऐसा विश्वास आपके लिए सभी का सदा हो। इतने सक्षम बनो की कोई आपका कितना ही बुरा करे या करना चाहे तो आपका बाल भी बांका नहीं कर पाए। आपको हानि कोई पहुँचा ही नहीं सकता ऐसा आपके लिए सभी के मन-मस्तिष्क में विश्वास निर्मित कर दो। आप हो तो ही सभी का भला है और आपसे किसी को भी नहीं खतरा है ऐसे विश्वास का सभी के लिए उपयोगी बन विश्वास का निर्माण करो। कोई भी आपका बुरा करने कि सोच भी नहीं सकेगा और यदि सोचेगा भी तो कुछ भी आपकी हानि हेतु अंजाम नहीं दे सकेगा। यदि अंजाम दे भी दिया कुछ आपको हानि पहुँचाने हेतु तो उसका कर्म कदापि सिद्ध नहीं हो सकेगा। इतनी योग्यता के बिना परमार्थ का पथिक बनना आपके लिए सर्वथा अनुचित हो सकता है।
(२६९)
चाहे तुझ में हो कितने ही दोष,
चाहे कितनी ही कठिनाइयों से,
गुज़ार रहा हो तुम्हारा दिन रोज़
पर,
आत्म हत्या करने कि मत सोच।
उसने तुझे जिंदगी दी उपहार में,
यदि तूने उस जिंदगी की तौहीन कर दी एक बार मे।
यदि तुम स्वयं निज की हत्या के कारण बने।
तो हो जाएगी तुम्हारी मृत्यु अकाल रे।
अरे! तेरे प्रियजन तेरी शैया के पास बैठे रोयेंगे।
कितनी ही रात वह नहीं सोयेंगे।
बस तेरी ही यादों में दिन-रात खोयेंगे।
तूने ऐसा किया तो तू बुज़दिल कहलायेगा।
अपनी उपहार रूपी जिंदिगी में कुछ न कर पायेगा।
खुद तो मरेगा ही,
साथ तुझे चाहने वालों को भी रुलाएगा।
तू ऐसा कदापि न करना मेरे यारा!
हिम्मत जुटाना;
कुछ भी करना,
पर आत्महत्या का ख्याल,
आत्म हत्या का ख्याल अपने ज़हन में मत लाना।
(२७०)
विश्वास नामक सुंदर शब्द से,
विश्वास ही उठ गया है।
जो ब्रह्मांड, विश्व अपितु अनंत की नीव है,
उसी पर ही विश्वास नहीं रहा हमे।
यदि ऐसा ही चलता रहा तो,
देर नहीं इस नीव के डगमगाने में।
ऐसा होना,
कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
क्योंकि अभी भी,
कुछ हद तक ही सही परंतु विश्वास करने योग्य है।
इसकी योग्यता का पूर्णतः नष्ट होना,
कण-कण से लेकर के समूचे अनंत के लिए,
सर्वथा सर्वदा अनुचित है।
(२७१)
प्रेम एक मस्तिष्क से उत्पन्न होने वाला विचार और मन से उत्पन्न होने वाला ऐसा भाव है जो पूर्णरूपेण निःस्वार्थता से अंजाम देने वाला कर्म है जिसकी उत्पत्ति का कारण है समानता और उत्पत्ति का उद्देश्य है संतुलन। कर्ता के मन-मस्तिष्क में इसका जन्म स्वयं के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, देश के लिए, विश्व के लिए यहाँ तक कि समूचे अनंत के लिए भी हो सकता है। इस भाव एवं विचार की अनंतता ही इसकी गहनता एवं परिशुद्धता का प्रमाण है।
(२७२)
जब तक किसी को भी देने की हैसियत नहीं हो,
तब तक किसी से मत लीजिए।
जब लेने की हैसियत हो तो अवश्य लीजिए,
किन्तु यथा शीघ्र उसे लौटा दीजिए।
(२७३)
चाहे आँधियाँ चले भयावय।
कितने ही नीच दहाड़े।
आये अनंत की सभी कुशक्तियाँ डराने।
तू कदापि न डरना बंधु मेरे।
यदि तू सच्चा है तो,
तू है सत्य के सहारे।
चाहे असत्य तुझे दुर्बल बना दे।
तेरा सभी कुछ खत्म होने का तुझे आस्वासन है।
सत्य के सहारे का तू प्रमाण दे।
सत्य है तू !
सत्य की भांति;
सत्य रूपी ऊर्जा से,
असत्य को समूल तू उखाड़ दे।
धरती माँ की रक्षा तेरा कर्तव्य है।
माँ की रक्षा का दायित्व तू संभाल ले।
माँ की रक्षा करने का तू ठान ले।
माँ के समक्ष धोक दे और ध्वज प्रणाम करते,
वन्दे मातरम् तू दहाड़ दे।
(२७४)
आपका बड़ा होने का अर्थ यह है,
सर्वथा उचित-अनुचित आपको पता है।
आपका ज्ञान ही आपको इस कारण,
छोटो से प्रश्न करने का अधिकार देता है।
आपके प्रश्नों का उत्तर देना,
आपके अनुसार यदि आपका अपमान करना है?
इसका अर्थ यही है कि,
आपके अनुसार तर्क देना ही अनुचितता है।
इससे यह स्पष्ट होता है कि,
सर्वथा उचित-अनुचित ही आपको नहीं पता है।
जिस ज्ञान ने आपको प्रश्न करने का अधिकार दिया,
वही ज्ञान ही अभी अधूरा है।
अतः छोटो का आप से तर्क-वितर्क करना,
कदापि नहीं उनकी अनुचित्ता है।
उनके तर्को की वरन,
आपको ही आवश्यकता है।
यदि आपके अनुसार आपको,
सर्वथा उचित-अनुचित का ज्ञान पूरा है?
तो सिद्ध करने मे आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
(२७५)
यदि धर्म क्या है? यह समझना है या इसकी परिभाषा आसान शब्दों में ज्ञात करना है तो यह जान लीजिये कि कर्तव्य अथार्त जो करना चाहिए धर्म उसका ही दूसरा नाम है।
(२७६)
सत्य मेरी विशेषता है।
असत्य मेरी विवशता।
सत्य हूँ मैं।
असत्य भी मैं।
सत्य-असत्य से परे हूँ मैं।
निर्वाण मेरी वास्तविकता।
(२७७)
गुरु और शिक्षक में एक सबसे बड़ा अंतर यह भी है कि गुरु शिष्य को चिंतन करने को कहते है एवं उसे उसी ज्ञान के भंडार से ज्ञान प्राप्त करवाते है जहाँ से उन्होंने स्वयं प्राप्त किया है तथा जो भी शिष्य के मस्तिष्क में जिज्ञासाएँ उत्पन्न होती है उनका समाधान स्वयं करते है या उसे ऐसी विडंबनाओं की सहायता देते है जिससे वह स्वतः ही समझ सके वरण इसके शिक्षक जो कि गुरु भी हो सकता है यदि उसने भी ज्ञान सीधे वहीं से प्राप्त किया हो जहाँ से सभी गुरु करते है परंतु स्वयं के ज्ञान प्रदान करने के ढंग के कारण शिक्षक कहलाते है।शिक्षक औपचारिक रूप से शिक्षा प्रदान करता है यदि वह गुरु है तो स्वयं के ज्ञान को सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित कर हमें शिक्षा प्रदान करते है।सुसंगठित एवं सुव्यवस्थित औपचारिक रूप से प्रदान ज्ञान ही शिक्षा है।

- Rudra Sanjay Sharma
(Geek, Writer, Philosopher, Thinker, Meditator, Researcher & linguistic.)