Ek Samundar mere andar - 10 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 10

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इक समंदर मेरे अंदर - 10

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(10)

वे उपनगर पर उपनगर बदलते जा रहे थे और लोग छूटते जा रहे थे पीछे। यदि कभी कहीं मिल जायें और पहचान लें तो लोग ग़नीमत समझते थे और गर्व भी करते थे। अंततः वे मालाड के सेनिटोरियम में बने कमरे में शिफ्ट कर ही गये थे।

यहां भी एक कमरा और नहाने की चौकड़ी थी। बाहर बगीचे के नाम पर शंकर के फूल का ऊंचा सा पेड़ और उस पर लगे फूल। ये फूल जब खिल जाते थे, तो सहस्‍त्रनाग के रूप में फन के रूप में छोटे छोटे पराग कणों का झुंड होता था और उसके बीच में शिवलिंग के रूप में एक कोमल सा डंठल होता था।

सोमवार को शिवजी की पूजा के समय ये फूल चढ़ाये जाते थे। सुना था कि इस पेड़ पर सांप रहते थे। यह सुनना उस दिन सच में बदल गया, जब उसने सच में उस पेड़ पर दो सांपों को लहराते देखा था।

सेनिटोरियम में आगे पीछे बड़े बड़े हॉल थे। यहां खेतान परिवार संयुक्त रूप से रहता था। वे चार भाई, तीन भाइयों की पत्नियां, उनके बच्‍चे...सब मिलकर रहते थे। उस घर मे हमेशा रौनक और चहल-पहल बनी रहती थी।

सेनिटोरियम के कैंपस में ही आयुर्वेदिक दवाओं का दवाखाना था और बाहर थोड़ी दूर जाकर डॉक्‍टर सावला का क्लिनिक था और बाद में पोलीक्‍लीनिक अस्पताल में बदल गया था। कुछ कदम चलने पर पुलिस चौकी थी।

साथ ही मारवाड़ी साड़ियों की दुकान थी, जहां मारवाड़ी महिलाओं द्वारा पहनी जाने वाली परंपरागत साड़ियों का कलेक्‍शन था। मूंगा, कोटा, कोटा डोरिया, चुनरी, पीली साड़ी और राखी के समय वहां लुंबे भी मिलते थे। लुंबे राखी के अवसर पर ननद-भाभी एक दूसरे की चूड़ियों में बांधती थीं।

सुमन से कामना का परिचय उषा खेतान ने करवाया था। उन्‍होंने कामना के आगे प्रस्‍ताव रखा था – ‘कामना, तुम चाहो तो हमारी महिला ग्राहकों की साड़ियों का फॉल लगाने का काम शुरू कर दो.....

तुम्‍हारा जेब खर्च निकलेगा और हमारा काम हो जायेगा। तुम पास में ही रहती हो। मेरा आदमी तुम्‍हारे घर साड़ियां दे आया करेगा और ले भी आया करेगा। हां, लेकिन काम समय से करना होगा’।

कामना को भला क्‍या एतराज़ हो सकता था? उसने इस काम के लिये हामी भर ली थी। तुरपाई और कच्चे टंकों में उसके हाथ की बहुत सफाई थी। शुरू में उन्‍होंने दो साड़ियां भेजी थीं। बाद में कामना के पास उस काम के लिये साड़ियों का अंबार लग गया था।

एक बार तो बारह साड़ियां एक साथ भेज दी गई थीं। उनका एक कमरा मानो साड़ियों के शो रूम में परिवर्तित हो गया था। सुमन के यहां नवरात्रि और दीपावली को साड़ियों की सेल लगती थी। उस समय उषा और कामना मुख्‍य रूप से काम संभालती थीं।

उनके यहां खाना बनाने के लिये महाराज था। वह बहुत स्वादिष्ट खाना बनाता था। एक दिन सुमन जी ने बताया था – ‘पता है कामना, मैंने साड़ियों के बिजनेस की शुरूआत सिर्फ़ पांच साड़ियों से की थी। यह काम घर से शुरू किया था। मैंने कोई कम संघर्ष नहीं किया है।‘

खेतान के बड़े हॉल में सावन में रस्‍सी का झूला पड़ता था और सभी झूलते थे। वे पींगें सामने के ऊंचे रोशन दानों तक ले जाते थे। सब एक दूसरे के हाथों में मेंहदी लगाते थे। एक ही रसोईघर में सबका खाना बनता था।

बाद में छोटे कमरों के बन जाने के बाद भी रसोई एक ही जगह बनती थी, जहां शाम को सब एकत्र होते थे। सुबह सब पत्नियां अपने अपने पति और बच्‍चों के टिफिन के लिये पराठे सेंक देती थीं। पराठे सेंकने में सबकी जान पर बन आती थी।

वे तेज़ आंच पर पराठे सेंकतीं थीं और पराठे जल जाते थे। उनके बच्‍चे स्‍कूल से आकर अपनी अम्‍मां पर चिल्लाते थे कि उन्‍हें अपने दोस्‍तों के सामने टिफिन खोलने पर शर्मिंदा होना पड़ता था।

कामना के ख़ानदान में सावन के किसी भी त्योहार को नहीं मनाया जाता था। कुलदेवी की आंट थी। जो कामना को बताया गया था, वह यह था कि उनके खानदान की कुलदेवी के पति लड़ाई में मारे गये थे और वे उस समय गर्भवती थीं। इसलिये सती नहीं हुई थीं

...लेकिन जब बेटा हुआ और घर में हवन हो रहा था, उस समय बच्‍चे को जो झगा (कुरता) पहनाया था, वह हवन की लौ को पकड़ गया था और कुरते के साथ साथ बच्‍चा भी जल गया था और इतना जल गया था कि उस बच्‍चे की मौत हो गई थी।

जब बच्‍चा और पति ही नहीं रहे, तो वे जीकर क्‍या करतीं? वे बटेश्‍वर जाकर सती हो गई थीं। जिस जगह सती हुई थीं, उस जगह को थान कहते हैं। आगरे के पास चंद्रपुर में दो महिलाएं सती हुई थीं।

उनके पति भी लड़ाई में मारे गये थे। आगरा के पास यमुना नदी के पास समोहा घाट है, वहीं वे दोनों पत्नियां सती हो गई थीं। वह सावन का महीना था।

कामना और गायत्री ने तो यह सब नहीं देखा पर उस गांव पर जो पुस्‍तक लिखी गयी है, उसमें यह वर्णित है। उनके परिवार को कुलदेवी पर बहुत आस्था थी। गायत्री अब बच्‍चों से फ्री हो गई है, तो पिताजी के गांव जाकर सब देखकर आई थी। उसी से यह सब पता चला था।

उन कुलदेवियों के थान पर सभी बहुत श्रद्धा पूर्वक दर्शनों के लिये जाते हैं। सावन के महीने को वे लोग शोक माह के रूप में मानते हैं। इस महीने में अम्‍मां न तो नया कपड़ा खरीदती थीं, न बचचों के लिये सिलवाती थीं....

न रस्‍ट रंग की साड़ी खरीदती थीं, न उस रंग की चूड़ी पहनती थीं। न सावन का कोई त्योहार मनाती थीं। कामना का मन होता था झूला झूलने का, और उसने एक दिन यह तमन्ना पूरी की थी...लेकिन यह क्‍या हुआ

...उसके पैर का घुटना रोशनदान के शीशे से टकराया था और इतनी ज़ोर का जानलेवा दर्द हुआ था कि सप्ताह भर तक बिस्‍तर से नहीं उठ सकी थी। कामना को छोड़कर सब झूला झूलते थे....कामना न झूला झूलती थी...न मेंहदी लगवाती थी और न नये कपड़े पहनती थी....आंट जो थी।

वे सब पचरंगी, सतरंगी चुनरी की साड़ियां पहनती थीं। बहुओं के घर से मिठाइयों से टोकरे आते थे और यहां से वे लोग अपनी बेटियों की ससुराल मिठाई के टोकरे भेजते थे। इन सबमें कामना और गायत्री का हिस्‍सा ज़रूर होता था और पता नहीं किस किस भगवान और गुरु के नाम के प्रसाद लगते थे।

झुंझनू के पेड़े, राजस्‍थान की तरह तरह की मिठाई। कामना हमेशा हंसकर कहती – ‘उषा, तेरे घर तो प्रसाद ही इतने टाइप का आता है कि उसे खाकर ही पेट भरा जा सकता है। क्‍यों तुम लोग भगवान को इतना सताते हो?’

इस पर वह हंस पड़ती थी और कहती थी – ‘चल चच्‍ची, खाने से मतलब रख और ये ले कलकत्‍ता टुकड़ा सुपारी का डिब्‍बा।‘ कामना को ज्‍य़ादा सुपारी खाने की आदत वहीं से पड़ी थी, जो आज तक बरक़रार है।

कामना अपने मायके के ही सारे रस्‍मोरिवाज करती थी, जो उसे संस्कारों में मिले थे... शादी के बाद जाति और सरनेम बदले लेकिन सावन के महीने में वह आज भी वह सब नहीं कर पाती, जिनको मायके में नहीं किया जाता था।

अम्‍मां की यह मान्यता थी कि कुलदेवी अपनों का खयाल रखती हैं...अचानक घर में पूरे घर में सुगंधित फूलों की सुगंध तैर जाती थी। उस सुगंध के जाने के बाद अम्‍मां कहती थीं – ‘आज देवी मईया घर में आकर गई हैं...तुमै पतौ नाय चलौ कित्ती खुसबू फैल गई थी घर में।‘

जब घर में अम्‍मां से या पिताजी से कोई भूल हो जाती थी या त्योहारों और जन्मदिन पर देवी के नाम का अछूता भूल जाते थे, तो म्‍मां पर देवी आती थीं और पिताजी पर नाराज़ होती थीं – ‘तुम लोग सब कछु भूलत जाय रये हौ..अपने घर के देवी देवता भी याद नईं रहते?’

तब पिताजी माफ़ी मांगते हुए आइंदा ऐसी ग़लती न होने देने का वचन देते हुए अम्‍मां को अपने हाथ से शर्बत बनाकर देते थे और कुछ देर बाद अम्‍मां शान्त हो जाती थीं और नॉर्मल हो जाती थीं।

पिताजी के घर में त्योहारों और जन्मदिन पर बिना नागा देवी के नाम का अछूता निकलता था, भले आटे का हलवा ही क्‍यों न हो और वह अछूता बेटियों को खिलाने के बाद ही घर के लोग खाते थे।

अपनी शादी के बाद कामना ने भी अपने घर में उन फूलों की खुशबू को कई बार महसूस किया था और समझ गई थी कि आज देवी मां उसकी खोज खबर लेने आई थीं। जब हम ईश्‍वर पर विश्‍वास करते हैं, तो वह खयाल भी रखते हैं और ज़रूरत पड़ने पर मदद भी करते हैं।

कामना ज्‍यादा पूजा नहीं कर पाती थी, पर जब समय मिलता था, गायत्री मंत्र का जाप करती थी और घर में अगरबत्ती जलाती थी, अपनी मर्जी और सहूलियत से...भगवान भी उसकी मज़बूरी समझते थे।

उन्‍होंने कभी उसका काम नहीं रोका था और न रोका है....जब जो चाहा है मिला है उसे ज़िंदगी में...भले ही संघर्ष से मिला था, पर मिला था। खेतान परिवार में वह यह सब देखती थी तो उसे अपनी वे सब बातें याद आने लगती थीं।

खेतान खानदान ने अपने अपने परिवार का जिम्मा ले लिया था। सबसे बड़े बेटे की बहू अमीर घर से थी। जब उनका रोटी सेंकने का नंबर आता था तो वे पाटे पर बैठते ही मुंह से गों-गों की आवाज़ करते हुए गिर पड़ती थी।

परिवार के लोग उन्‍हें पकड़कर किचन से उठाकर पलंग तक पहुंचा देते थे। उनके मुंह पर ठंडे पानी के छींटे मारे जाते थे और कहा जाता था – ‘बींणणी की तबीयत ठीक कोइनी।‘ इस तरह वे रोटी सेंकने की जिम्मेदारी से मुक्‍ति पा लेती थीं।

खेतान परिवार से जो घनिष्ठता बढ़ी थी, वह आज तक बरक़रार है। कामना जब कभी उस ओर जाती है और समय मिलता है तो उस ओर का चक्‍कर लगा लेती है। सुंदर, उसकी कजिन ऊषा, चंद्रकला, गायत्री सब मिल-जुलकर रात को 12 बजे मालाड स्‍टेशन जाते थे, जहां खाने की चीज़ों के ठेले लगा करते थे।

वे लोग वहां शेयरिंग बेसिस पर पाव भाजी, पानी पूरी और कुल्‍फी खाया करते थे। यूं तो पूरा शहर ही जागता है, पर मालाड का यह इलाका कुछ ज्‍यादा ही जागता था। शिफ्ट से आने वाले लोगों को, लेट ईवनिंग कक्षाओं से छूटने वाले छात्र/छात्राओं को भूख तो लगती थी न

....सो घर तक पहुंचने तक का पेट्रोल पेट में डालकर जाते थे। उस परिवार के सबसे छोटे बेटे का नाम सुंदर था। उसकी और कामना की बहुत पटती थी। वह हंसमुख था और ऐसी बात कहता था कि सामने वाला हंसे बिना रह ही नहीं सकता था।

एक दिन बोला – ‘म्‍हारी भाभी रोटी सेंकते समय ही क्‍यों गिरती है? सुंदर को कामना के हाथ की बनी सब्जी और धीमी आंच में सिके परांठे बहुत पसंद थे। वह उसे अपने घर में ही बुला लेती थी और रात का खाना खिला देती थी। साथ ही दुनिया जहान की बातें करते थे वे दोनों।

कामना ने कहा – ‘मुझे क्‍या पता...अपनी भाभी से ही पूछो। तुम जानो, वो जाने।‘ बाद में पता चला था कि वे रसोई में जाना ही नहीं चाहती थीं। इसलिये बहाने करती थीं। उफ़.... क्‍या तो बहाना था...फिर वे अलग हो गई थीं। उनके मायके वालों ने उन्‍हें कर्ज़ दे दिया था और उन लोगों ने वन बेडरूम हॉल खरीद लिया था।

वह बार बार अतीत की ओर लौटना चाहती है। उस दिन वह सुनीता के चाचा से मिलने के लिये गोरेगांव की उस कॉलोनी में गई थी। पूरी कॉलोनी में चार-चार माले की चार बिल्डिंगें थीं। उसे चौथे माले की पीले रंग के टिंट ग्लास का घर याद था, पर उस रंग के ग्लास नहीं थे।

उसने उन चारों बिल्‍डिंगों की चार चार मंज़िलें उतर-चढ़कर उनको खोजा था पर नहीं मिले वे लोग। उनके फ्लैट के आगे किन्हीं मेनन के नाम की तख्ती थी। और शायद शेयरिंग बेसिस पर रह रहे थे वे बैचलर....वहां फर्नांडिस के नाम की भी तख्ती थी।

लेकिन एक बार वह वीनू के घर पहुंच ही गयी थी। वीनू की मम्‍मी ने बताया था – ‘हुण की दसां कामना, सब चले गये दुनिया ते दूर, हरीश मर गया, ओदे झाई, डैडी मर गये। सुनीता दे भाई बबली दी वोटी मर गई। सुनीता दी झाई और पिताजी गये। ओदी छोटी बहन मुन्‍ना मर गई। पथरी हो गई सी।

.....हे चंगी गल है कि तू आ गई अज। मैं तां भौत खुश हां। वीनू नूं कवांगी .कामना आई सी। बहुत खुश होएगा। हल्‍ले ते दुबईच रैंदा पिया है, कांदिवलीच घर है आपणा।‘

वह हंस कर बोली थी – ‘आंटी जी, ते मेरा घर मालाडइच है।‘ ......त्‍वाड्डी नीलम दहिसर रांदी है होर तुसी दस्‍या कि सुनीता दी वड्डी बहन रीता बोरीवलीच रेंदी है। ते असी कदीते मिलांगे।‘ उनके घर में तोता था। किचन में गई तो तोता बोला.....

आओ। कामना ने कहा – ‘आई जी और फिर वह मिट्ठू, मिट्ठू, हैलो बोलता रहा।‘ वह उससे आधा घंटा बात करती रही थी।

और वह सुनीता....उसके पति उसे जलंधर ले गये और वहां नदी के किनारे कुटिया बनाकर रहते हैं। वे लोग आर्य समाजी हैं और आजकल वहां वास कर रहे हैं। अब तो वहां घर बना लिया है और बच्‍चे पुणे में हैं।‘ वीनू की मां बता रही थीं।

उसे याद ही नहीं रहा कि वह अपने बचपन में लौट गई थी। अचानक घड़ी देखी तो शाम के छ: बज गये थे। उसने कहा - ‘आंटीजी, अब मैं निकलती हूं। ट्रैफिक में फंस जाऊंगी। वे बोलीं - तोता किस करदा पया है।‘वह फिर से तोते के पास गई थी।

उसने गाल आगे कर दिया था और तोते ने अपनी चोंच उसके गाल से सटा दी थी। साथ ही आंटीजी की पोती आर्या ने तोते का पिंजरा खोल दिया था। तोता पिंजरे की देहरी पर आकर बैठ गया और अपनी गर्दन आगे करके और इशारे से उसे गाल आगे करने के लिये इशारा कर रहा था।

कामना के गाल आगे करने पर उसने अपनी चोंच सटा दी थी और उसकी आंखों में एक हंसी और शरारत देखी जा सकती थी। उसने उस सीन को सेल्‍फी के रूप में कैद कर लिया था। उसने सोचा कि काश! आज कोई निबंध लिखने के लिये कहे तो लिखती – ‘काश! मैं तोता होती और नील गगन में उड़ती।‘

उसने कभी ‘चांदनी रात में नौका विहार’ पर निबंध लिखा था, सुमित्रानंदन पंत और मैथिली शरण गुप्‍त के खंडकाव्‍य पंचवटी का उदाहरण देकर...चारु चंद्र की चंचल किरणें...खेल रही थीं जल-थल में...स्वच्छ चांदनी बिछी हुई थी...अवनि और अंबर तल में लिखे थे और उस निबंध में उसे दस में से साढ़े नौ नंबर मिले थे।

भाषा में पूरे नंबर नहीं दिये जा सकते थे। आधा नंबर काटना ज़रूरी था। वह लिखे हुए शब्‍दों पर नंबर कमाने का ज़माना था...सही टिक मारने का ज़माना नहीं था। उस समय भाषा का चलन था और विवरणात्मक उत्तर लिखने होते थे। उन दिनों एमए में 62 प्रतिशत नंबर मिलना बहुत बड़ी बात माना जाता था।

उसे ये नंबर नौकरी करते हुए और पढ़ाई करते हुए मिले थे और पिताजी व अम्‍मां बहुत गर्वित हुए थे। वे गाया करते थे - सुख में कभी न गर्वित होवे और न होवे दुख में दीन। पिताजी ने कभी किसी के सामने हाथ नहीं पसारा था।

बिल्डर वादे का पक्‍का निकला था और उसने ठीक एक साल के बाद फ्लैट की चाभी हाथ में दे दी थी। पिताजी जी ने सुकून की सांस ली थी। कारण साफ था कि सेनिटोरियम के कमरे का किराया हर महीने के एक्‍स्‍टेंशन के साथ बढ़ता जा रहा था।

अम्‍मां और पिताजी एक बार फिर सामान पैक करने लगे थे...लेकिन तसल्‍ली थी कि अब शायद और शिफ्टिंग नहीं करनी पड़ेगी। उम्मीदों पर तो दुनिया जीती है और मुंबई तो उम्मीदों और संभावनाओं का शहर है।