Apne-Apne Indradhanush - 5 in Hindi Moral Stories by Neerja Hemendra books and stories PDF | अपने-अपने इन्द्रधनुष - 5

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अपने-अपने इन्द्रधनुष - 5

अपने-अपने इन्द्रधनुष

(5)

’’ एक नीम का वृक्ष था। उस पर एक कौआ रहता था। एक दिन उसे प्यास लगी.......’’ काॅलेज की कैंटीन के सामने से गुज़रते हुए मैंने देखा कि कैंटीन की दीवार से सट कर बैठा महुआ का बेटा झूम-झूम कर प्यासा कौआ की कहानी पढ़ रहा था। मैं बरबस उसकी तरफ देखने लगी। मुझे अपना बचपन याद आ गया। तब मैं बहुत छोटी थी। स्मृतियाँ धुँधला गई हैं, किन्तु कुछ-कुछ याद आ रहा है। कदाचित् मैं पहली या दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। हिन्दी की पुस्तक में प्यासा कौआ की कहानी बचपन की मेरी प्रिय कहानी हुआ करती थी। कला विषय का मेरा प्रिय चित्रांकन भी प्यासा कौआ का चित्र हुआ करता था। मैं भी बचपन में इसी प्रकार मनोयोग से प्यासा कौआ व लालची लोमड़ी की कहानियाँ पढ़ा करती थी, तथा कला की काॅपी में कई-कई बार उसका चित्रांकन किया करती थी।

मैं मुस्करा पड़ी यह सोच कर कि बचपन सबका एक जैसा होता है, चाहे वो शहरी क्षेत्र का बचपन होता हो या ग्रामीण। बचपन धनी या निर्धन में भी अन्तर नही करता। सामने महुआ आती दिखाई दी। वह स्टाफ रूम में चाय पहुँचाने के पश्चात् लौट रही थी। उसने मुझे देख कर मुस्कराते हुए अभिवादन किया। वह प्रसन्न दिख रही थी सदैव की भाँति। कुछ देर मेरे पास रूक कर मेरा पूछा व और अपने काम पर चली गई। मेरी भी कक्षाओ का समय हो चला था, अतः मैं भी आगे बढ़ गई।

चलते-चलते मैं सोचती जा रही थी कि महुआ अपने जीवन में कैसे अनेक उत्तरदायित्वों का वहन कर रही है, घर, बाहर व परिवार की। फिर भी प्रसन्न रहती है। जीवन से किसी उलाहना या शिकायत के बिना।

काॅलेज बन्द होने के समय महुआ मुझे काॅलेज के गेट पर खड़ी मिली। इस समय वह थकी हुई लग रही थी। उसके चेहरे से वो चिरपरिचित मुस्कान अदृश्य थी जो मुझे प्रेरणा देती है। उसका नन्हा-सा बेटा उसकी उंगली थामें खड़ा था। महुआ ने बताया कि वह मेरी ही प्रतीक्षा कर रही थी। मैं रूक गयी।

महुआ ने बताया कि, ’’ दीदी, आजकल घर में कुछ ठीक नही चल रहा है। इसका बापू , बेटे की तरफ संकेत करते हुए, बहुत बीमार चल रहा है। डेढ़ माह से मजूरी पर नही गया। ’’ कहते हुए महुआ के चेहरे पर पीड़ा पसर गयी।

कुछ क्षण रूक कर पुनः बोली, ’’ पहले तो मेरे यहाँ काम पर आने के लिए मना करता था। घर की आर्थिक रूप से जर्जर परिस्थितियों को देख कर मैं उसकी बातों को अनसुना कर काम पर आने लगी। इस काम के पीछे बहुत मार खाई है मैंने। काम के लिय यहाँ आने पर वह मुझे पीटता था। मार की उस पीड़ा की टीस अभी तक मेरे शरीर पर है। अब मेरे बचायें सारे पैसे उसकी दवाइयों पर खर्च हो गए। अभी भी उसकी तबीयत में सुधार नही हो रहा है। ’’

’’आज इसको भी ज्वर हो रहा है, इसीलिए विद्यालय नही गया। सुबह गाँव के वैद्य जी से दवा लायी थी। इस समय ज्वर कुछ कम है। ’’ बेटे की ओर देखते हुए महुआ ने कहा।

मुझे महुआ से सहानुभूति, किन्तु उसके इन परिस्थितियों से जूझने व उन पर विजय प्राप्त कर लेने की अदम्य इच्छा व साहस पर गर्व हो रहा था। मैं उसकी बातें गर्वानुभूति के साथ सुन रही थी। ’’ दीदी मुझे दो सौ रूपये की आवश्यकता है। यदि आप दे सकें तो....’’ सिर झुका कर अत्यन्त संकोच के साथ वह बोल सकी।

’’ मुझे पैसे इसकी दवा के लिए चाहिए। खाने को तो हम रूखी-सूखी भी खा लेंगे। ’’ अपने बेटे की ओर देखते हुए उसने कहा।

’’ हाँ...हाँ क्यों नही ’’ कह कर मैं पर्स खोलने लगी।

’’ अगले महीने पगार मिलते ही वापस कर दूँगी। इस समय घर में एक फूटी कौड़ी नही है । इसका बाप डेढ़ महीने से घर पर है। मैं ही किसी प्रकार जी-जांगर खट कर घर चला रही हूँ। ’’

इस बीच पर्स से पैसे निकाल कर मैं उसके हाथों में रख चुकी थी। पैसे को मुट्ठियों में बन्द करते हुए मेरी ओर कृतज्ञता से देख वह बोल पड़ी ’’ दीदी, बहुत काम चल जायेगा मेरा इन पैसों से। ’’

’’ ठीक है पैसे वापस करने की शीघ्रता नही है। पहले इसकी दवा ले लाओ। ’’ मैंने कहा। अपने नेत्रों मे कृतज्ञता का भाव लिए महुआ चली जा रही थी।

मैं सोच रही थी कि नारी अबला कहाँ से है? वह तो शक्तिपुन्ज है। पुरूषों से कहीं अधिक शक्तिशाली, उस पर मातृत्व की उसकी विशेषता उसे दिव्य स्वरूप प्रदान करता है। मैं मुस्करा पड़ी। मेरे पग शीघ्रता से घर की ओर बढ़ चले।

चन्द्रकान्ता भी कैसी बातें करती है। सुन कर कभी-कभी हँसने का मन होता है। हास्य और सत्य के मिश्रण में पगी उसकी बातें मुझे अच्छी लगती हैं। बड़ी से बड़ी बात भी वह सहजता से हँस कर कह देती है। गम्भीर मुद्दों पर चर्चा कर उन बातों को हवा में उड़ा देती है।

आज भी चन्द्रकान्ता मुझसे ऐसी ही बातों का उललेख कर बैठी। फुर्सत के इस समय स्टाफ रूम में आ कर मेरे पास कुर्सी खींच कर बैठते हुए बड़े ही अपनत्व से मेरा हाथ पकड़ लिया। मैंने भी मुस्कराते हुए उसका कुशलक्षेम पूछा। उससे अपनापन के बन्धन की अनुभूति मुझे भी होती है।

’’ कैसी हो ?’’ मैं मुखातिब थी उससे।

’’ बिलकुल ठीक। और तुम सुनाओ। ’’ उसने कहा।

मैं मुस्करा पड़ी । कुछ देर तक हम दोनों के बीच सन्नाटा पसरा रहा। मैं नीचे भूमि पर देख रही थी, विचारशून्य-सी। मन बिलकुल खाली था। चद्रकान्ता भी जमीन की तरफ दृष्टि गड़ाये कुछ सोच रही थी।

’’ जानती हो नीलाक्षी! कभी-कभी मैं सोचती हूँ कि क्या हर स्त्री का जीवन ऐसा ही होता हैं? ’’ सहसा चन्द्रकान्ता के स्वर मेरे कानों में पड़े।

’’ स्त्री को उसका सम्मानजनक स्थान क्यों नही मिल पाया है अभी तक? ग्रामीण, अनपढ स्त्रियों की दशा तो दयनीय है ही, पढ़ी-लिखी स्त्रियों की दशा भी कम सोचनीय नही है। ’’

चन्द्रकान्ता की बातें सुनकर मेरे मन के शून्य में लहरें प्रवाहित होने लगीं। मैं बड़े ही ध्यान से चन्द्रकान्ता की बातें सुनने लगी। कुछ देर रूक कर चन्द्रकान्ता ने अपनी बातों का प्रवाह आगे बढ़ाते हुए कहना प्रारम्भ किया-

’’ अपने काॅलेज की महुआ को देखो, कितना परिश्रम करती है। गुणी है। घर के उत्तरदायित्व को पूर्ण करते हुए गाँव से इतनी दूर आकर यहाँ भी कार्य करती है। शिक्षित नही है पर जीवन का अर्थ समझती है। छोट-सेे दायरे में रहते हुए भी दुनिया का पर्याप्त अनुभव रखती है। अपनी कमाई के पूरे पैसे घर की आश्यकताओं को पूरा करने में खुशी से व्यय कर देती है। पति व घर के प्रति पूर्ण समर्पित........पतिव्रता। ’’

मेरी तरफ देखते हुए चन्द्रकान्ता फीकी हँसी हँस देती है, ’’ फिर भी पति द्वारा गालियाँ… प्रताड़ना.… अविश्वास.....और यदाकदा पिटाई भी। ’’

’’ स्वंय पर यह विश्वास कि अपने समर्पण से अपनी अच्छाईयों से पति का हृदय परिवर्तित कर देगी....उसके विश्वास को जीत लेगी। ’’ अपनी बात पूरी कर चन्द्रकान्ता खामोशी से मेरी तरफ देखने लगी।

’’ ऐसा क्यों होता है? स्त्री को क्यों स्वंय को प्रमाणित करना पड़ता है। आज से नही सदियों से यही होता आया है। कुछ भी तो नही बदला है, न स्त्री का दशा, न पुरूषों की मनोदशा। ’’ बातों का मर्म समझते हुए मैंने चन्द्रकान्ता के विचारों का समर्थन किया।

’’ यह तो अनपढ़, ग्रामीण स्त्री की बात है। शिक्षित व नगरीय परिवेश में बढ़ने-पलने वाली स्त्रियाँ भी कहाँ अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं....अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए भी संघर्ष कहाँ कर पाती हैं वें ? ’’ कुछ देर चुप रहने के पश्चात् चन्द्रकान्ता ने कहना प्रारम्भ किया।

’’ दूर क्या जाना? मेरी ही बात लो। मेरे पिता उच्च अधिकारी थे। घर में हम सभी भाई- बहन पूर्ण शिक्षित हैं। सभी अच्छी नौकरियों में हैं। मैं जानती हूँ कि मेरी दोनों भाभियाँ व मेरी बहनें भी गृह कलह व घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं, महुआ की भाँति। कभी-कभी उससे अधिक। ’’ सिर झुकाये मैं चन्द्रकान्ता की बातें सुन रही थी। बातों की गम्भीरता को समझ रही थी। उसकी बातों में निहित सौ फीसदी सच्चाई से मैं भी वाकिफ़ थी। फिर भी वातावरण को सामान्य करने के लिए मैंने पूछा।

’’ क्या हुआ चन्द्रकान्ता ? क्या बात है, आज तुम निराशा भरी बातंे क्यों कर रही हो ? घर में सब ठीक तो है ? मुस्कराते हुए मैंने चन्द्रकान्ता से कहा। ’’

चन्द्रकान्ता की बातों में मुझे अपनी कथा-व्यथा छुपी लग रही थी। अन्यथा उसकी बातों में नया क्या था? कुछ भी नही। आजकल स्त्रियों के शोषण पर बहस- विमर्श कर आधुनिकता का दिखावा करने का चलन बन चुका है। पूरी दुनिया इस आधी आबादी की शिक्षा, सुरक्षा, चिकित्सा और विकास को बहस का मुद्दा तो बना रही है किन्तु स्त्रियों की दशा में किसी विशेष प्रकार का परिवर्तन होता दिखाई नही दे रहा है। बल्कि स्त्री विमर्श एक फैशन ही बन चुका है।

हम यह बात तो बड़ी सरलता से कह देते हैं कि, ’’ जब तक पुरूषों के अहंवादी सोच में परिवर्तन नही होगा तब तक स्त्रियों की दशा में परिवर्तन नही होगा। स्त्रियाँ संघर्ष करती रहेंगी। ’’ किन्तु मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि स्त्रियों के विकास के मार्ग में स्त्रियाँ भी कम बाधक नही हैं। घरेलू स्तर पर सास, ननद, बहू इत्यादि के रिश्ते तथा कार्यालयों में महिला अधिकारी व महिला मातहत के रूप में स्त्रियाँ एक-दूसरे के लिए अवरोध उत्पन्न करती हैं। कुल मिलाकर चन्द्रकान्ता की बातों में मुझे कुछ भी नया नही लगा। किन्तु उसकी बातों से मैं पूर्णतः सहमत थी।

’’ जब भी मेरा पति अवकाश के दिनों में घर आता है, मेरी उलझनें व परेशानियाँ बढ़ जाती हैं। लेखकों, कवियों ने अपनी कविताओं में परदेशी नायक के वियोग में तड़पती नायिका की पीड़ाओं का वर्णन नाहक ही किया है। ’’ चन्द्रकान्ता की बातें सुनकर मैं बरबस मुस्करा पड़ी। एक गभ्भीर मुद्दे से तनावपूर्ण हो चुके माहौल को हल्का बना देने की चन्द्रकान्ता की इसी कला की तो मैं प्रशसंक हूँ।

’’ वो कैसे नायक होते होंगे? आजकल ऐसे नायकों का अभाव है, या उस समय भी यर्थाथ में ऐसे नायक नही होते होंगे। कवियों की कल्पनाओं ने गढ़ा होगा उनका रूप। ’’ चन्द्रकान्ता की बातंे सुन कर मैं मुस्करा पड़ी। किन्तु उसकी पीड़ा को समझ रही थी।

’’ उस समय के नायक भी नायिकाओं के लिए प्रेम व समर्पण से पूर्ण भावनायें रखते थे। ’’ चन्द्रकान्ता ने मुस्करा कर मेरी बातों का समर्थन किया। किन्तु उसकी मुस्कुराहट में कहीं न कहीं अविश्वास भी छुपा प्रतीत हो रहा था।

’’ डोंट वरी चन्द्रकान्ता। सब ठीक हो जाएगा। तुम समझदार व साहसी हो। तुम से निराशा भरी बातों की अपेक्षा मैं नही करती। आओ अपनी-अपनी क्लासेज में चलें। समय होने वाला है। ’’ मैंने सान्त्वना देते हुए उसे उठाया व उसके साथ ही आगे बढ़ चली।

शाम को भी हम काॅलेज से साथ ही निकले। चन्द्रकान्ता ने आॅटो छोड़ कर कुछ दूर पैदल चलने का मन बनाया। मैं और चन्द्रकान्ता पैदल ही आगे बढ़ते जा रहे थे। खुली हवा में पैदल चलना मुझे भी अच्छा लग रहा था। जीवन की आपाधापी में मैं भूल चुकी थी कि कभी फरवरी मेरा पसंदीदा माह हुआ करता था।

यह फरवरी माह ही तो चल रहा है। झारखण्ड के इस छोटे-से शहर के आस-पास बसे आदिवासी बाहुल्य गाँव व हरियाली से ढँका शान्त परिवेश, सब कुछ कितना मनोरम लगता है। मेरा काॅलेज भी शहर की भीड़-भाड़, वाहनों के कोलाहल से दूर है। इस माह हवाओं में भी शरारत, चंचलता व शोखी का रंग घुल जाता है। इसका कारण तो यही है कि ये हवायें वसंत ऋतु के स्वागत के लिए तत्पर हो उठती हैं। वसंत ऋतु सम्पूर्ण सृष्टि को अपने मनोहारी सौन्दर्य से आच्छादित कर देता है। वृक्षों से पुराने पत्तों के गिरने के साथ ही नयी कोंपले निकलनी प्रारम्भ हो जाती हंै। आम्र-मंजरियों व पुष्पों की सुगन्ध हवाओं में घुल जाती है। आज भी उसे हरियाली के मध्य इस सर्पिली सड़क पर चलना अच्छा लग रहा था। घने वृक्षों के पत्तों में छुप कर प्रणय करते रंग-बिरंगे पक्षियों के कलरव की ध्वनि अत्यन्त कर्णप्रिय लग रही थी। मुख्य सड़क के खेतों व वृक्षों के झुरमुटों के पीछे बसे गाँवों की झोपड़ियों से उठता धुआँ इस बात का संकेत दे रहा था कि कृषक खेतों से घरों को लौटने लगे हैं तथा घरों में स्त्रियों ने भोजन बनाने का उपक्रम प्रारम्भ कर दिया है। सहसा दूर से आती एक लोकगीत की ध्वनि को सुनकर मैं और चन्द्रकान्ता चलते-चलते कुछ क्षण रूक कर सुनने लगे,

’’ हे रामा न पकरो कलइयाँ

अबै मेरी बाली उमरिया .........

यह एक प्रणय गीत प्रतीत हो रहा था। जिसे कोई आदिवासी स्त्री घर के कार्य करते-करते गा रही थी। गीत के भाव व सुर हृदय को छू रहे थे।

’’ जो सुनि परिहैं इ ससुरा हमार

लाघै न दैहे देहरिया.....

अबै मेरी बाली उमरिया

हे रामा न पकरो कलइयाँ

फागुन मास में बहने वाली वासंती हवाओं की मादकता व सौन्दर्यानुभूति के मध्य प्रेम रस में भीगा यह प्रणय गीत अल्हड़ नायिका के निश्छल प्रेम को व्यक्त करने में पूर्णतः सक्षम था। गीत की स्वर लहरियाँ सुनने वाले को प्रेम के संसार में मानो झूला झुला रही हों।

मैंने चन्द्रकान्ता से कहा, ’’ इस गीत में कितनी मिठास है। ’’

चन्द्रकान्ता गीत सुनने में मग्न थी। उसने समर्थन में सिर हिलाया।

’’ जो सुनि परिहै ई देवरा हमारे

जाये न दैहें रसोइया

अबै मेरी बाली उमरिया

हे रामा न पकरो कलइया.....

मैं चन्द्रकान्ता के साथ आगे बढ़ती जा रही थी। गीत की स्वर लहरियाँ पीछे छूटती जा रही थीं। चन्द कदम दूर आॅटो स्टैण्ड था जहाँ से मुझे व चन्द्रकान्ता को आॅटो लेकर घर जाना था। हम उधर ही जा रहे थे कि सहसा एक बाईक आ कर हमारे समीप रूक गई। मैं व चन्द्रकान्ता दोनों चैंक कर ठहर गये। बाईक सवार हेलमेट पहने था, अतः पहचानना मुश्किल था। हम एक दूसरे को अचकचाई दृष्टि से देख ही रहे थे कि उस व्यक्ति ने अपना हेलमेट उतार दिया।

’’ उफ्फ, तो तुम हो। तुमने तो हम दोनों को अच्छा-खासा डरा दिया। ’’ हेलमेट उतारते विक्रान्त को देखकर चन्द्रकान्ता बोल पड़ी। विक्रान्त ठहाका मार कर हँस पड़ा।

’’ आज हमारा मन इवनिगं वाक करने का हो रहा था। ’’ बातों में हास्य का समावेश करते हुए चन्द्रकान्ता ने कहा।

’’ अच्छा? आप लोग इतना अच्छा कुछ कर रही थीं तो मुझे भी साथ ले लेतीं। ’’ विक्रान्त ने भी हँसी के लहजे में उत्तर दिया।

मैं चुप थी। बातें विक्रान्त व चन्द्रकान्ता के मध्य हो रही थीं। उस दिन पार्टी वाली घटना से मेरे मन में विक्रान्त के प्रति अब भी नाराजगी थी। यद्यपि उस घटना पर विक्रान्त खेद प्रकट कर चुका है। अब जब भी मिलता है मेरे प्रति सहज होने का प्रयत्न भी करता है, किन्तु मेरे मन में उसके प्रति भरी कड़वाहट अब भी बरकरार है। चन्द्रकान्ता से बातें करते हुए विक्रान्त मुझे ही देख रहा था। उसे इस प्रकार अपनी ओर देखते हुए देख मैं असहज हो रही थी।

चन्द्रकान्ता इस स्थिति को समझ रही थी। अतः उसने वातावरण सामान्य करने का प्रयत्न करते हुए विक्रान्त से पूछा, ’’ घर जा रहे हो? ’’

’’ हाँ....हाँ क्या किसी को चलना है। ’’ विक्रान्त ने कहा।

’’ नही, हम दो हैं। तुम्हारे साथ मात्र एक ही व्यक्ति जा सकता है। ’’ चन्द्रकान्ता ने मुस्कराते हुए कहा।

मुझे विक्रान्त के साथ जाना ही नही था। बाइक से तो प्रश्न ही पैदा नही होता।

’’ मुझे दूसरी दिशा की तरफ जाना है। नीलाक्षी का घर तुम्हारी तरफ पड़ता है। अतः उसे ही ले जाना सही रहेगा। ’’ चन्द्रकान्ता ने तत्परता से उत्तर दिया।

’’ यही ठीक रहेगा। ’’ विक्रान्त ने उसकी बातों का समर्थन करते हुए कहा।

’’ जी नही, धन्यवाद। मैं चली जाऊँगी। ’’ मैंने भी उसी तत्परता से चन्द्रकान्ता की बातों का प्रतिकार किया। मैं वहाँ से चल पड़ी। मेरे साथ चन्द्रकान्ता भी चल पड़ी।

’’ क्या हुआ? तुम ठीक तो हो? ’’ मेरे साथ चलते-चलते उसने मुझसे पूछा।

’’ हाँ, पर मैं आज तक किसी परपुरूष के साथ बाईक पर नही बैठी हूँ। मुझे यह बात ठीक नही लगती। ’’ मैंने अपनी बात पूरी की।

मेरी बात सुनकर चन्द्रकान्ता जोर से हँस पड़ी।

’’ तुम कहाँ हो नीलाक्षी? किस दुनिया में? यह तो अब सामान्य-सी बात हो चली है। कार्यालयों, स्कूल-काॅलेजों में पढ़ने वाले, काम करने वाले स्त्री-पुरूष, लड़के-लड़कियाँ आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे की मदद करते हैं। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता चुप हो गई। वह जानती थी कि मुझे जो उचित नही लगेगा वो मैं नही करूंगी।

मैं और चन्द्रकान्ता एक दूसरे से विदा लेते हुए अपने-अपने गन्तव्य की तरफ जाने वाले आॅटो में बैठ गए। विक्रान्त भी हमारे साथ आॅटो स्टैण्ड तक आ गया था। वह देर तक मेरे आॅटो के इर्द-गिर्द मुझे दिखता रहा। कभी दो कदम आगे तो कभी साथ-साथ। मुझे विक्रान्त का बाईक की गति धीमी कर मेरे आॅटो के इर्द-गिर्द चलना अच्छा नही लग रहा था।

घर आ कर फ्रेश होने के पश्चात् मैंने चाय बनाई। अपनी, माँ व बाबूजी की चाय ले कर ड्राइंग रूम में आ गई। वे आपस में किसी बात पर चार्चा करने में व्यस्त थे। बाबूजी के चेहरे पर मुझे प्रसन्नता के भाव दिख रहे थे।

चाय पीते हुए उन्होंने मुझसे पूछा, ’’ बेटा, आगे क्या करना है? कुछ सोचा है? वकील माथुर आये थे। अब तो डाईवोर्स के लिए वो तैयार है। शीघ्र ही तुम्हें उससे मुक्ति मिल जायेगी। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? आगे की सोचना भी आवश्यक है। ’’

’’ पापा आप कहना क्या चाहते हैं? अभी मैं खुल कर साँस भी नही ले पाई हूँ। मेरे पास अपना लक्ष्य है। आप तो जानते हैं कि मैं अर्थशास्त्र में रूचि रखती हूँ। उसमें कई शोध लिख चुकी हूँै। मैं उसमें बहुत कुछ करना चाहती हूँ। अभी एक झमेले से मुक्त नही हो पाई हूँ। उसका दुष्परिणाम अभी तक भुगत रही हूँ। ’’ मैंने एक साँस में पापा को समझाते हुए कहा।

’’ क्या मैं आप पर बोझ बन रही हूँ? ’’ पापा की बातों का अर्थ समझते हुए तथा ये भलीभाँति जानते हुए भी कि पापा मुझे बोझ नही समझते, कुछ रूक कर मैंने अपनी बात पूरी की।

मेरे पास पापा के प्रश्नों का कोई ऐसा उत्तर नही था, जिसे देकर मैं उन्हें संतुष्ट कर सकूँ। उम्र के इस पड़ाव पर मैं उनको चिन्ताओं से मुक्त कर सकूँ। उनकी चिन्ता का एक मुख्य कारण मैं ही तो थी। इसलिए पापा की बातों का अर्थहीन, बेतुका उत्तर दे कर मैं निश्चिन्त हो जाना चाहती थी। किन्तु यह कहाँ सम्भव था? पापा ने आज मुझसे अपने प्रश्नों का उत्तर पाने का पक्का निश्चय कर लिया था।

’’ तुम बोझ नही हो बेटा। ये तुमने कैसे समझ लिया कि तुम हमारे लिए बोझ हो? तुम्हारे सामने पूरा जीवन पड़ा है। जीवन रूपी गाड़ी को संतुलित व सुचारू रूप से चलाने के लिए दो पहियों की आवश्यकता पड़ती है। बेटा तुम समझदार हो। निर्णय हमने तुम्हारे ऊपर छोड़ दिया है। ’’ पापा ने अपनी बात पूरी की। उनके चेहरे से वो खुशी के भाव गायब हो चुके थे जो कुछ समय पूर्व थे।

’’ सब खोखली बातें हैं। स्त्री के लिए जीवन को चलाने के लिए पुरूष का आलम्बन आवश्यक नही। आपने ही तो उसे मेरे लिए ढूँढा था। क्या हुआ? कौन कहता है कि जीवन एक गाड़ी है। जिसमें दो पहियों का होना आवश्यक है। सबका जीवन अपना जीवन होता है, जिसे व्यक्ति स्वंय जीता है। अपने-अपने हिस्से का सुख-और दुःख स्वंय भोगता है। मुझे अपने जीवन में किसी अन्य की आवश्यकता नही है। ’’ पापा की बातों का प्रतिकार करते हुए मैंने अपने विचारों से पापा को अवगत कराना भी आवश्यक समझा।

’’ बेटा समझने का प्रयत्न करो। मैं और तुम्हारी माँ सदैव तुम्हारे साथ तो नही रहेंगे। तुम्हारा भाई अपनी ही घर-गृहस्थी में व्यस्त है। उसे हमारा ही हाल पूछने का समय नही है, आवश्यकता पड़ने पर वह तुम्हारे लिए कितना समय निकाल पाएगा? पुरानी बातों को पीछे छोड़ते हुए नये सिरे से अपना जीवन प्रारम्भ करो। तुम्हारी माँ की भी यही इच्छा है। ’’ पापा माँ तरफ देखते हुए अपनी बात पूरी कर चुके थे।

पापा की बातों का कोई उत्तर नही दिया मैंने। लम्बी बातचीत कर के मैं उन्हें किसी विवाद में उलझाना नही चाहती थी। अपनी बातों से उन्हें किसी प्रकार का तनाव देना नही चाहती थी। मैं चुप हो गई। पापा टी0वी देखने में तल्लीन हो गए। टी0वी0 पर उनका पसंदीदा समाचारों का कोई चैनल लगा था। माँ और पापा दोनों बड़े ही मनोयोग से समाचार देख रहे थे। माँ-पापा दोनों ही समाचारों के किसी बिन्दु पर अपने-अपने विचारों का आदान-प्रदान करने लगे। कुछ देर में सब कुछ सामान्य हो गया।

आज सोने से पूर्व कुछ देर तक कम्प्यूटर पर कार्य किया मैंने। कई दिनों से समय नही मिल पा रहा था। एक अधूरा लेख पूरा किया । मैं जानती हूँ, दूसरे दिन वही दिनचर्या प्रारम्भ हो जाएगी। घर से काॅलेज व काॅलेज से घर।