Aakha teez ka byaah - 8 in Hindi Moral Stories by Ankita Bhargava books and stories PDF | आखा तीज का ब्याह - 8

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आखा तीज का ब्याह - 8

आखा तीज का ब्याह

(8)

इस बार जब वासंती गाँव गयी तो श्वेता भी उसके साथ ही थी| श्वेता के पापा के किसी रिश्तेदार का निधन हो गया था और वे उसकी मम्मा को लेकर वहां चले गए थे और भाई भी ट्रेनिंग के सिलसिले में जर्मनी गया हुआ था तो वह अकेली अपने घर जाकर क्या करती इसलिए वासंती के साथ यहाँ चली आई| वासंती के घर पर श्वेता का स्वागत हुआ पर वह अपने परिधान के कारण कुछ असहज महसूस कर रही थी| पर उसकी समस्या यह थी कि वह जींस-टॉप और स्कर्ट्स के आलावा कुछ नहीं लाई थी, अपनी इस समस्या का निराकरण उसे वासंती के पास होता दिखाई दिया|

“वासंती तुम मुझे अपना कोई सलवार सूट दे सकती हो| मैं सूट नहीं लाई और यहाँ ये कपड़े पहनने में थोड़ा अजीब लग रहा है|”

“तुम संभाल पाओगी सलवार सूट? अब तो मुझे ही कितना अजीब लगता है और तुमने तो कभी पहने ही नहीं|” वासंती ने आश्चर्य से श्वेता से पूछा|

“दो तो सही देखती हूँ|”

“ठीक है, आओ खुद देखलो, और जो पसंद आये वो लेलो|” वासंती ने जैसे ही श्वेता को कपड़े दिखाने के लिए अपनी अलमारी खोली तो सामने वह गहरे लाल रंग का सलवार कमीज़ देख कर दोनों की हंसी छूट गयी|

“के बात हो गी? कियां दोनूं सहेलियां हांसण लग री हो| म्हाने ही बता दयो म्हे ही हांस ल्यां थारे सागे|” वासंती की भाभी ने उनसे पूछा|

“कीं कोनी भाभी, म्हे तो बस कॉलेज गी बातां करे ही|” वासंती ने उन्हें टाल दिया|

“चालो ना बताणों चाहो, तो कोई बात नी, बाई मैं तो थाने चाय वास्ते पूछण आई ही|”

“भाभी आप भी हमारे पास बैठो ना| चाय तो बाद में भी पी लेंगे” श्वेता ने हाथ पकड़ कर रेणु भाभी को भी वहीँ बैठा लिया| फिर तो उन तीनों के बीच बातों की जो महफ़िल जमी वो वासंती के मोबाईल की घंटी से टूटी| वह बात करने बाहर बगीचे में चली गयी| वासंती जल्दी ही वापस आ गयी, काफ़ी गुस्से में थी उसने अपना फोन भी पटक कर तोड़ दिया|

“क्या हुआ? किसका गुस्सा इस बेचारे पर निकला!” श्वेता ने उसका फोन जोड़ते हुए पूछा|

“पता नहीं ये तिलक खुद को समझता क्या है?” वासंती गुस्से में बोली|

“क्या हुआ बताओ?”

“पूछ रहा था मैंने फेसबुक पर अकाउंट क्यों बनाया है? और मेरे साथ लड़के क्यों हैं तस्वीरों में, वह होता कौन है मुझसे सवाल जवाब करने वाला?”

"तिलक जी थारा बींद है बाई| बे जो कहवे थे मान ल्यो| आपगी बींदणी री फोटू दूसरे आदमी सागे देख र बाने गुस्सो तो आवे ही गो | आ कोई अत्ति बड्डी बात तो कोनी के थे ईंया जी जलाओ, जद नणदोई जी मना करे है तो थे फेसबुक पर फोटू ना घालो|”

“थाने के ठा भाभी| थे रसोई ऊं तो कदी बारे कोनी निकलो, मन्ने ना समझाओ|”

वासंती का मूड बिगड़ते ने रेणु भाभी को भी उदास कर दिया और उन्होंने वहां से चले जाना ही उचित समझा|

“अभी वह मेरा पति बना नहीं है तब ये हाल है, अगर बन जायेगा तो पता नहीं क्या करेगा| तब तो शायद मेरी सांसों पर भी पहरा लगा देगा यह आदमी|” वह देर तक भुनभुनाती रही| श्वेता को रेणु भाभी के लिए बुरा लगा| अपने नज़रिए से उन्होंने कुछ गलत तो नहीं कहा था, फेसबुक मज़े के लिए है इसे अपने आत्मसम्मान से जोड़ना ठीक नहीं| इतनी छोटी छोटी बातों को लेकर मन मुटाव करने की बजाय बीच का रास्ता निकलना ज्यादा उचित है| पर उसने जिस तरह से अपनी भाभी को सुनाया श्वेता की उससे कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई|

अगले दिन वासंती की सास और तिलक राज घर आये| तिलक को देख कर श्वेता को थोड़ा अजीब लगा, कुछ अलग सा ही हुलिया था उसका| धोती कुर्ते के साथ जैकेट, पैरों में जूतियाँ और बड़ी बड़ी मूछें| श्वेता को वासंती की समस्या अब समझ आई| प्रतीक हर तरह से तिलक राज से कहीं ज्यादा काबिल था और वासंती उसे पसंद भी करने लगी थी| अपने जीवनसाथी के रूप में भी वह प्रतीक को ही देखना चाहती थी| पर बचपन में हुए विवाह ने उसके सपनों का गला घोंट दिया था| यह बात वह किसी से कह नहीं पा रही थी, बस अन्दर ही अन्दर घुटे जा रही थी| उसकी यही घुटन जब तब तिलक पर निकल जाती| पर यह वासंती के लिए ठीक नहीं थी| वासंती के घरवाले प्रतीक के साथ उसके रिश्ते को कभी स्वीकार नहीं करेंगे| अगर वह जिद में आकर कोई गलत कदम उठा लेगी तो अपना ही नुकसान कर लेगी| फिर इस सबमें तिलक का तो कोई दोष नहीं तो वासंती उसे किस बात की सज़ा दे रही है| श्वेता को लगा कुछ ऐसा करना चहिये जिससे वासंती के मन में तिलक के लिए जगह बन सके ताकि उसे अपने परिवार के फैसले को स्वीकारने में थोड़ी आसानी हो|

तिलक अपनी माँ को छोड़ कर जाने लगा तो वासंती की माँ ने उसे रोकना चाहा| “ना काकीजी काम है| हवेली जागे थोड़ी साफ़ सफाई करनी है| बापूजी चावे है ईं साल बिदेसी मेहमान आण सूं पहलां ही पूरी तैयारी राखणी है|” तिलक ने वासंती और श्वेता की ओर बिना देखे कहा|

“बिदेसी मेहमान?”श्वेता को कुछ समझ नहीं आया|

“टूरिस्ट, इस एरिया में एतिहासिक इमारतें बहुत हैं, राजे रजवाड़ों के समय के महलों के साथ साथ और भी कई दर्शनीय स्थल हैं| इन्हें देखने देशी विदेशी पर्यटक बहुत आते हैं| यहाँ आसपास कोई अच्छा होटल नहीं होने से उन्हें रात में ठहरने की समस्या होती है, क्योंकि यह सुनहरी रेत रात में सबसे ज्यादा खूबसूरत लगती है और देर रात शहर वापस जाना खतरे से ख़ाली नहीं होता, इसलिए काकाजी अपनी हवेली में उनके ठहरने का इंतज़ाम कर देते हैं की उन्हें कोई परेशानी ना हो| अब पर्यटकों के आने के दिन पास आ रहे हैं तो उसीकी तैयारी हो रही है|”

“ओह! हम भी चलें|” श्वेता ने पूछा|

“थे बठे के करस्यो? थे अत्ति पढ़ी लिखी मोडर्न छोरियां उजाड़ में तंग हो जाओगी|” तिलक के स्वर में व्यंग था| शायद वासंती के साथ कल के झगड़े की धुंध अब भी बाकी थी|

“चल ना! हम यहाँ भी क्या करेंगे, थोड़ा घूमना भी हो जायेगा और तिलकजी का उनके काम में हाथ भी बंटा देंगे|”

श्वेता के बहुत कहने पर वासंती के माता-पिता ने भी उन्हें जाने की इजाज़त दे दी| अब वासंती के पास कोई बहाना भी नहीं था, उसे भी हाँ कहना पड़ा| लड़कियाँ मोटर साईकिल पर नहीं जा सकती थीं इसलिए वासंती के पिता ने ध्यान से चलाने की हिदायत के साथ जीप की चाबी तिलक को पकड़ा दी| पूरे रास्ते दोनों लड़कियाँ खूब बातें करती गयी पर तिलक एक शब्द भी नहीं बोला| श्वेता समझ रही थी कि इस बार बात थोड़ी बढ़ गयी है| शायद वासंती के व्यवहार ने इस बार तिलक को ठेस पहुंचाई है| उसने अपनी बातों में तिलक को भी शामिल करने की कोशिश की पर वह अपने होठों पर एक फीकी सी मुस्कान चिपकाये ख़ामोशी से गाड़ी चलता रहा|

हवेली में भी वासंती ने तिलक राज से दूरी ही बना कर रखी| एलर्जी का बहाना बना कर साफ़ सफ़ाई में भी कोई खास हाथ नहीं बंटाया, तब तिलक ने एक साफ़ से कौने में कुर्सी लगा कर उसे बैठने को कहा| वह तिलक को चिढ़ाने के लिए लेपटॉप पर फेसबुक खोल कर बैठ गई| पर आज तिलक ने उसकी ओर ज्यादा ध्यान नहीं दिया उसे बहुत काम था, वह काम में व्यस्त हो गया|

हवेली बहुत खूबसूरत थी| थोड़ी पुरानी थी, पर फिर भी बहुत अच्छी हालत में थी| उसकी बनावट कुछ कुछ पुराने ज़माने के महलों की तरह थी| श्वेता तिलक का हाथ भी बंटा रही थी और उसे सजाने के लिए सुझाव भी दे रही थी| “तिलकजी आप इस बार हवेली की सजावट पारम्परिक राजस्थानी ढंग से क्यों नहीं करते?”

“राजस्थानी ढंग किसे पसंद आएगा जी, यहाँ तो अंग्रेज ज्यादा आते हैं उन्हें तो विदेशी ढंग से सजा कमरा ही पसंद आएगा|” तिलक का स्वर कुछ चिड़ा सा था|

“नहीं! विदेशी ढंग के घर में तो वे वहां भी रहते हैं| यहाँ तो वो लोग कुछ बदलाव की इच्छा से आते हैं और अगर उन्हें आप राजस्थानी परिवेश का रहन सहन और भोजन देंगे तो उन्हें ज्यादा अच्छा लगेगा|” श्वेता ने अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश की|

“हाँ जी! ये तो आप ठीक कह रही हैं, वो लोग हमसे खाने में राजस्थानी थाली की मांग करते हैं|”

“वो ही तो! आप देखिएगा उन्हें राजस्थानी सजावट भी पसंद आएगी| यहाँ की कल्चर है ही इतनी कलरफुल कि पहली नज़र में सबके मन को भा जाती है|”

“पर इसमें तो बहुत वक्त और पैसा लगेगा और अभी मेरे पास इतना पैसा भी नहीं है और ना ही अब इतना वक्त ही बचा है पर्यटक तो कुछ ही दिनों में आने शुरू हो जायेंगे|” तिलक को अब श्वेता की बात कुछ कुछ समझ आ रही थी| वासंती ने ध्यान दिया तिलक श्वेता के साथ हिंदी में बात कर रहा था इतना ही नहीं वह काफ़ी अच्छी हिंदी बोल भी रहा था|

“नहीं मुझे नहीं लगता बहुत ज्यादा खर्चा करने की जरुरत पड़ेगी| हवेली में आधुनिक सुविधाएँ तो पहले से ही मौजूद हैं बात बस उसकी साज सज्जा की है तो हमें हवेली को पारंपरिक राजस्थानी तरीके से सजाने के लिए न ज्यादा वक्त चाहिए और न ही पैसा, आप चिंता न करें सब आसानी से हो जायेगा| देखिये मैं आपको बताती हूँ|” श्वेता लैपटॉप पर तिलक को तस्वीरें दिखा कर समझाने का प्रयास करने लगी कि असल में वह क्या कहना चाहती है|

तिलक को उसको योजना अच्छी लगी वह बोला, “आपकी योजना अच्छी है पर मुझे ज्यादा समझ नहीं है इन सब चीजों की और अब इंटीरियर डेकोरेटर से सम्पर्क करने का समय नहीं, आप मदद करेंगी?”

“ठीक है|”

“कुछ सामान तो इस साल नया खरीदना ही है तो आप जो कहोगी वो खरीद लेंगे| मैं कल शहर जा रहा हूँ आप मुझे बता देना मैं ले आऊँगा| चलो अब घर चलें, थोड़ी देर में शाम घिर जाएगी तो सब चिंता करेंगे|” तीनों घर आ गए|

अगले दिन से काम शुरू हो गया| हवेली में रंगाई पुताई और फर्नीचर आदि सेट हो जाने के बाद अब बारी थी सजावट का यह काम श्वेता खुद अपनी देखरेख में करवा रही थी| इसमें वह इस बात का ध्यान रखने की पूरी कोशिश कर रही रही कि बजट सीमित ही रहे और कोई भी चीज़ ओवर बजट ना जाये| इस दौरान उसने एक कोशिश और की वासंती और तिलक राज के बीच की दूरियां कम करने की, उसमें तो वह कामयाब न हो सकी पर वह और तिलक अच्छे दोस्त जरुर बन गये|

लगभग एक हफ्ते की मेहनत के बाद हवेली अपने मेहमानों का स्वागत करने के लिए पूरी तरह से तैयार थी| अब बारी थी उसका नाम रखने की| “तिलकजी होटल तो तैयार हो गया पर ये तो बताइए आप इसका नाम क्या रखेंगे?” श्वेता ने तिलक से पूछा|

“होटल नहीं है जी, ये हवेली है और नाम क्या रखना है? हवेली ही कहते इसे और यही आगे भी कह लेंगे|” तिलक ने कहा|

“नहीं! नहीं! अब ये हवेली नहीं है होटल है, और होटल का नाम उसकी पहचान होता है| कुछ अलग सा नाम सोचो|”

“होटल पैराडाइज़|” वासंती ने सुझाव दिया|

“बहुत अच्छा है, पर हमारे होटल के लिए ठीक नहीं है क्योंकि होटल की थीम राजस्थानी है तो नाम में भी इसकी झलक आनी चाहिए|”

“तो आप ही बता दोना जी हमारा तो दिमाग ही काम नहीं कर रहा|”

“रजवाड़ा कैसा रहेगा?”

“बहुत अच्छा|” तिलक खुश होते हुए बोला| यह नाम पसंद तो वासंती को भी बहुत आया पर उसे श्वेता के सुझाव पर तिलक का यूं खुश होना पसंद नहीं आया|

रजवाड़ा पहली बार अपने मेहमानों का स्वागत कर रहा था| मेहमान क्या थे वासंती और श्वेता के कॉलेज के प्रोफेसर दयाल थे। एक एन. जी. ओ. ने वासंती के गाँव में स्वास्थ्य परिक्षण कैंप लगाया था और प्रोफेसर दयाल अपनी टीम के साथ इसी कैंप में हिस्सा लेने आ रहे थे| टीम भी वही थी प्रतीक और उसके साथी| वासंती के होश उड़ गए थे| वह यह सोच सोच कर परेशान थी कि अब वह प्रतीक को तिलक के बारे में क्या बताएगी? उसके सवालों का क्या जवाब देगी? वह क्या सोचेगा उसके बारे में?

पर इस सबकी नौबत भी नहीं आई| वासंती को कुछ नहीं बताना पड़ा| उसके लिए यह काम उसके बापूजी ने ही कर दिया| वो लोग सबसे पहले गाँव के सरपंच होने के नाते वासंती के पिता से मिलने घर ही चले आये और उस समय तिलक भी वहां मौजूद था क्योंकि बापूजी ने उसे और वासंती के भाई गोपाल को कैंप की व्यवस्था की जिम्मेदारी सौंप रखी थी| बापूजी ने बड़े ही गर्व के साथ वासंती और तिलक का परिचय अपने बेटी दामाद के रूप में करवाया| रजत, नवीन और तिलक को देख मुस्कुरा रहे थे| इस मुस्कान के झीने से पर्दे के पीछे छिपे व्यंग को वासंती अच्छे से समझ रही थी पर अब उसके पास कहने सुनने को कुछ भी बाकी नहीं बचा था| प्रतीक स्तब्ध सा कभी वासंती तो कभी तिलक को देख रहा था| उसे विश्वास ही नहीं हो रहा था वासंती इतना बड़ा झूट बोल सकती है| उसके हाव भाव देख कर वासंती जान गयी थी कि आज उसने अपना सबसे अच्छा दोस्त खो दिया है|

वासंती बस एक बार प्रतीक से बात करना चाहती थी और यह मौका उसे अनजाने ही प्रोफेसर दयाल ने दे भी दिया, उन्होंने वासंती और श्वेता को भी अपने साथ कैम्प में शामिल कर लिया। वहां वासंती ने प्रतीक से बात करने की हर मुमकिन कोशिश भी की पर कोई फ़ायदा नहीं हुआ प्रतीक ने कैम्प के दौरान वासंती से पूरी तरह से दूरी बनाए रखी। आखिर वासंती ने हार मान ली क्योंकि वह गाँव में कोई तमाशा नहीं करना चाहती थी| कैम्प चार दिन का था, इतने दिनों से मरीजों की स्वास्थ्य समस्याओं को हल करके थके हारे डॉक्टर्स की टीम के मनोरंजन के लिए आखरी शाम गाँव की चोपाल में एक रंगारंग कार्यक्रम का आयोजन किया गया, वह शाम बहुत भारी थी प्रतीक और वासंती के लिए क्योंकि दोनों ही जानते थे अब उनका रिश्ता पहले की तरह शायद कभी नहीं हो पाएगा|

गाँव में होने वाले ऐसे कार्यक्रम अक्सर तिलक के गीत के बिना पूरे नहीं होते थे आज भी उसे गाने के लिए कहा गया तो वह अपना रावण हत्था उठा लाया और एक सुरीला लोक गीत सुनाने लगा| अगर कोई और दिन होता तो वासंती भी इस गीत का मज़ा लेती पर आज नहीं ले पाई, आज उसका दिल रोने को हो रहा था, श्वेता के आलावा घर में और कोई भी उसके दिल का हाल नहीं समझ पा रहा था, माँ और भाभी तो यही समझ रही थी कि कल होस्टल वापस जाना है इसलिए वह उदास है| श्वेता उसकी उदासी का कारण समझ रही थी पर वह कुछ भी नहीं कर पाई बस सामान पैक करने का बहाना करके वह वासंती को कमरे में ले आई, जहाँ वासंती फूट फूट कर रो पड़ी और श्वेता ने भी उसे जी भर रोने दिया कि उसके मन का सारा गुबार निकल जाए| वासंती के कानों में तो अब भी उस गज़ल के बोल गूँज रहे थे जो कुछ देर पहले प्रतीक ने चोपाल में सुनाई थी-

कभी ख़ामोश बैठोगे, कभी कुछ गुनगुनाओगे

मैं उतना याद आऊंगा, मुझे जितना भुलाओगे

कोई जब पूछ बैठेगा ख़ामोशी का सबब तुमसे

बहुत समझाना चाहोगे मगर समझा ना पाओगे

मैं उतना याद आऊंगा, मुझे जितना भुलाओगे

कभी ख़ामोश बैठोगे, कभी कुछ गुनगुनाओगे

वासंती को समझ नहीं आ रहा था वह क्या करे, अपना दुःख किसे जा कर सुनाए, उसके दिल की बात सुनने, समझने वाला तो यहाँ कोई भी नहीं था| प्रतीक ने तो अपनी बात गज़ल के मध्यम से कह दी थी, हाँ कह तो वासंती ने भी दी थी उसी महफिल में! पर उसकी इन पंक्तियों का आशय समझ शायद ही किसी को आया हो-

ज़रूरी तो नहीं तेरा साथ

फिर भी भला सा लगता है

फ़लक के उस चांद की तरह

जो मुझसे दूर, बहुत दूर सही

पर शामिल है, मेरी ज़िंदगी में

किसी अहम हिस्से की तरह

हां! गैरज़रूरी है

तेरा होना, मेरे आसपास

क्योंकि, तू तो

बस एक अहसास भर है

उन ख़ुशनुमा बातों की तरह

जो कह देते हैं

हम तो बस यूं ही

पर महकती रहती हैं वे

बरसों बरस

दिल के चमन में

यादों की डाली पर खिले

फूलों की तरह

ख़ामोश हैं आज जज़्बात

ढ़ूंढ़ते से वो अल्फ़ाज़ जो

बता सकें तुझे कि है

तेरा होना ज़रूरी है मेरे लिए

कुछ इस तरह कि जैसे ज़रूरी है

टहलना सांसो का ज़िंदगी के लिए