Godhuli - 4 - last part in Hindi Moral Stories by Priyamvad books and stories PDF | गोधूलि - 4 - अंतिम भाग

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गोधूलि - 4 - अंतिम भाग

गोधूलि

(4)

पिता ने इशारा किया। आका बाबा ने उनके हाथ से गिलास ले कर बोतल से थोड़ी कोन्याक डाली, कुछ बूँद गर्म पानी, फिर गिलास पिता को दे दिया। कुछ क्षण गिलास को नाक के आगे लहराते हुए पिता उससे उठने वाली गंध के रेशों को सूंघते रहे, फिर एक घूंट लिया, फिर बोले ‘‘जैसे कि, तुम इसे उन परियों की कहानियाँ सुनाओगी जिनके देश मे कछुए हरे और हिरण नीले होते हैं। घर कुकुरमुत्तों के होते हैं। झाड़ियाँ सितारों की बनी होती हैं। फूलों के पुल होते हैं जिन पर कोई खरगोश किसी राजकुमारी की गाड़ी खीचता हैं। तुम इसे विश्वास दिलाओगी कि दुनिया इतनी ही खूबसूरत है। इसमें रहने वाले सब लोग बहुत अच्छे हैं। इसे सैकड़ों साल पुराने कुछ महान लोगों के महान वचन याद कराओगी। जब कि सच्चाई इसके उलट है। मनुष्य स्वभाव से जानवर है। जो उसके साथ क्रूर होता है, निर्दयी होता है, वह उसी का सम्मान करता है। उसी से प्रेम करता है। जो उसे बदलना चाहता है, उसकी वह हत्या कर देता है, वह भी हजारों लोंगो के सामने। इसीलिए दुनिया कभी अच्छी नही बनी क्योंकि मनुष्य अच्छा नहीं है। उन बातों को जीवन का सबसे बड़ा सच बताया गया, जो इंसान के अन्दर कभी होती ही नहीं। जो उसका स्वभाव ही नहीं है। आत्मा ऐसी एक निहायत बेहूदी और धूर्त चीज गढ़ कर हर इंसान के अन्दर कभी डाल दी गयी और कहा गया कि यही तुम हो। इसे जानो, समझो। इसकी रोशनी में अंधेरे रास्ते पर चलना सीखो। यही तुम्हें सारे दुखों से पार कराएगी। यही है जो अजर है, अमर है। इसकी आवाज सुनना। नतीजे मे हर आदमी अपनी इस आत्मा को सबसे महान और पवित्र दिखाने में, झूठा, मक्कार और धूर्त हो गया। सच तो यह है कि बिल्कुल छोटा बच्चा अपना खिलौना पाने के लिए दूसरे बच्चे से लड़ता है। दौड़ में पूरी ताकत से दूसरे को हरा कर जीतना चाहता है। वह यह सब इसलिए करता है कि उस उमर तक वही उसकी सच्चाई होती है। निर्मल ...चमकदार। इसी सच्चाई के साथ वह जन्मा है। आत्मा जैसी चीज के बारे मे जानता नहीं, इसलिए अपनी सच्चाई छुपाता नहीं। पर जैसे—जैसे वह बड़ा होता है, जन्म के सत्य को भूल कर आत्मा के झूठ के आतंक मे जीना शुरू कर देता है। वैसा बनना चाहता है जैसे मूर्ख ज्ञानियों ने बताया, और जैसा वह कभी बन नहीं सकता। त्याग, प्रेम, करूणा से भरे उस जीवन को जीने की कोशिश करता है, जो जीवन कहीं है ही नहीं। कभी रहा ही नहीं। तुम्हारे सारे महान लोगों को चाहिए था कि मनुष्य को बताते कि पाप करो। जब पाप करोगे तभी उसे जानोगे। जब उसे जानोगे, तभी उससे मुक्ति पाओगे। जिसे जानते ही नहीं, सिर्फ सुना है, उससे मुक्ति मिलेगी कैसे? दुनिया में बुराई है, यह सिद्ध करने के लिए खुद बुराई करके दिखाते। पर उन्होंने इसका उलट दिया। सबने किया। तुमने तो पढ़ा ही है, मुझे कभी समझ मे नहीं आया कि क्यों शेक्सपीयर महत्वाकांक्षा को बुराइयों मे गिनता है। जबकि दुनिया मे इसके अलावा कुछ होता ही नहीं। दुनिया का इतिहास सिर्फ महात्वाकांक्षाओं का इतिहास है। महत्वाकांक्षाओं में धँसे लोग ही महान बनाए गए हैं। और अपनी बात को वह एक बार नहीं, बार बार कहता हैं। मैकबेथ में, हैमलेट में, किंग हेनरी में‘‘ पिता ने कोन्याक का एक घूँट लिया था। कुछ देर नाक के आगे गिलास लहराकर उसकी सुवास को सूँघा था। माँ को देखा था। माँ अब तक, चुपचाप उन्हें देख रही थी। वह फिर बोले थे ‘सारे सत्य हजारों साल पुराने हो चुके हैं। सड़ चुके हैं। सिर्फ झूठ है जो हर बार नया होता हैं। नित्य जन्मता है। जो व्यक्ति किसी से घृणा नहीं करता, वह किसी से प्रेम भी नहीं कर सकता। किसी के दुख में मेरी आत्मा उसके किसी काम नहीं आएगी। उसे कुछ नहीं दे पाएगी। पर मेरी ताकत, दौलत, उसके जरूर काम आएगें। उसका दुख दूर कर पाएगें। आत्मा दुनिया की सबसे फालतू चीज है, क्योंकि किसी की आत्मा से, किसी दूसरे को कोई मतलब नहीं होता। न वह इसे देखता है, न जानता है, न महसूस करता है। तुम इसे ऐसी ही आत्मा के कुछ सच बताओगी, जबकि सच सिर्फ शैतान है, उसकी ताकत है। मैंने उसे देखा है। हँसते हुए, तालियाँ बजाते। दुनिया मे सिर्फ वही होता है जो वह चाहता है। जब वह खाँसता है तब आकाश मे इन्द्रधनुष बनतें हैं। जब वह अपने कपड़े का कोना सरकाता है, तब अंधी दीमकें एक दूसरे की हत्याएं कर देती हैं। उसकी परछाई का रंग काला नहीं सुर्ख है। उसकी भाैंहों मे छुपी तितली को कभी कोई छेनी नहीं पकड़ पायी। उस दोपहर मैंने यह सब देखा था। सिर्फ वही हुआ जो वह चाहता था‘‘। पिता अचानक चुप हो गए। आका बाबा उठ कर उनके पास आए थे। उनके कंधों पर हाथ रख कर हल्के से दबाया था। पिता चुपचाप गिलास को नाक के आगे लहराते हुए घूँट ले रहे थे। कुछ देर बाद धीरे से हँसे थे ‘मैं सारे पाप करना चाहता हूूँ, पर दुख है कि पाप ज्यादा हैं और मेरी उमर कम। इन्द्रियाँ भी सिर्फ पाँच ही हैं। उन्हीं इन्द्रियों से सब भोगना भी है और तुम्हारे पवित्र देवताओं से लड़ना भी है।''पिता हल्के नशे में आ चुके थे। उन्होंने मुझे देखा था। अपने पास बुलाने के लिए हाथ उठाया था। पर माँ ने मुझे रोक लिया था। पिता ने एक क्षण उन्हें देखा फिर अपना बढ़ा हुआ हाथ नीचे गिरा दिया था। कुछ देर सन्नाटा रहा।

‘‘नही'' फिर माँ बोली थी‘‘ तुम्हारी बातें सिरे से गलत हैं... बल्कि खतरनाक हैं। जीवन में कुछ भी करने के लिए एक नैतिक आधर जरूरी है। अब इस शब्द को बहस में मत खींचना'' माँ की आवाज में लकड़ियों से आती वही चट चट थी, वैसे ही छिटकती चिगारियाँ थीं। आँखों की लपट भी वैसी ही थी। चेहरे की नसों में दौड़ते खून की लाली भी वैसी ही थी जो लॉन में जलती आग की थी।

‘क्यों'? पिता हँसे थे।

‘‘इसलिए कि जो इसे अपने अंदर होना महसूस करते हैं, वे इस पर बहस नहीं करते। इसकी मदि्‌धम काँपती रोशनी में चुपचाप सर झुकाए जीते चले जाते हैं। हर काम का एक नैतिक पक्ष जरूरी है। हमारा सब कुछ उसी से तय होता है। यही हमारे विवेक को गढ़ता है और यही विवेक हमें। यही विवेक हमारे ज्ञान और अनुभव का पिता है। इसी के अनुरूप हम अपनी चेतना, अपना ज्ञान और ज्ञान प्राप्त करते हैं। हमारी लड़ाइयों में, लालसाओं में यही विवेक हमारा हाथ पकड़ कर हमें चलाता है। अंधकार में या अज्ञान में, जब हम इससे हाथ छुड़ाने की गलती कर लेते हैं, तब हमेशा एक गहरा भंवर हमें घेर लेता है। तुम यह नहीं बता रहे कि तुम्हारे रास्ते पर चलते हुए जीवन कहाँ, कैसे खत्म होता है? कोई नाम बता सकते हो जो तुम्हारे ‘पाप' करते हुए जीवन में सुख से जी पाया हो? ‘‘माँ ने एक गहरी सांस ली थी। कुछ देर चुप रही फिर आका बाबा को देखा था, फिर आग की लपटों को घूरते हुए बोली थी '' तुम अपना जीवन जैसे चाहे जिओ, पर इसका जीवन कैसा होगा, यह सिर्फ और सिर्फ मैं तय करूँगी‘‘ माँ ने मुझे छाती से चिपका लिया था। मैं उसकी तेज, गर्म साँस महसूस कर रहा था।

पिता चुपचाप आग को घूरते रहे थे। देर तक चुप्पी बनी रही थी। कुछ देर बाद चर्च का घंटा बजा था। घड़ी की सुइयाँ मिल गयीं थी। मैं इंतजार कर रहा था कि हमेशा की तरह पिता उठेगें। माँ को चूमेंगे, जन्मदिन का तोहफा देंगे और दोनों कुछ देर आग के चारों ओर नृत्य करेंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ था। कुछ देर तक आग को घूरने के बाद पिता धीरे से बोले थे ‘‘खाना लगवा दो अक्का......हम सब सोएगें।

मुझे ले कर माँ अपने पिता के शहर आ गयी थी। नाना ने उसे ऊपर का बड़ा कमरा दे दिया था। माँ सिलाई करने वाली दो लड़कियों को बुलाती थी। उनके साथ कुछ बहुत खास पोशाकें तैयार करती थी। ये पोशाकें शहर की सबसे बड़ी दुकानों पर बिकती थीं। कुछ लोग इन्हें घर से ही लेे जाते थे। माँ कभी किसी दुकान पर नहीं गयी, न किसी के घर। लोग आते। नीचे नाना की बैठक मे रूकते। माँ वहीं, नीचे आ कर उनसे मिलती। वह किसी भी तस्वीर में पहनी हुयी पोशाक तैयार कर सकती थी। कुछ लोग, खास तौर से विदेशी, सैकड़ाें साल पुराने चित्र लाते थे। माँ हूबहू पोशाक तैयार कर देती। उसे धागों, कपड़ों, रंग की हर तरह की जानकारी थी। उसने यही पढ़ाई भी की थी। महीनें में सिर्फ दो पोशाकें तैयार करके ही वह हमारी जरूरतों को पूरा करने वाला धन कमा लेती।

आका बाबा बीच बीच में आते रहते। शुरू में उनके हाथों में कुछ होता था। माँ सब लौटा देती थी। बाद में वह खाली हाथ आने लगे। कभी रात में रूक भी जाते। जब वह माँ से बात करते, मुझे वहाँ से हटा दिया जाता। मुझे कभी पता नही चला कि किस बात पर माँ ने घर छोड़ा था। मुझे पिता का नाम लेने तक की इजाज़त नहीं थी।

मैं उसी तरह बड़ा हुआ जैसा माँ चाहती थी। वही पढ़ा जो वह चाहती थी। वैसा ही बना जैसा उसने चाहा था। नैतिकता , मूल्याें, आदर्शों से भरा पूरा एक ऐसा व्यक्ति जिसके हर निर्णय के पीछे धारदार विवेक से जन्मी पवित्र नैतिकता होती थी। उसने मेरे ऊपर इसे कभी थोपा नहीं था। धीरे— धीरे मेरे अंदर संवारा था। कभी तकोर्ं से, कभी कहानियों से, कभी अपने जीवन से सिद्ध करके। उसने अपनी जीवन दृष्टि को, दूसरी जीवन दृष्टियों के साथ तुलना करके मुझे दिया था। ‘अच्छी किताबें कई बार पढ़ो, न कि कई किताबों को ‘ , ‘आत्मा की परिपक्वता के लिए जरूरी है कि वह जिज्ञासाओं में न भटके‘, ‘मनुष्य जब साथ होते हैं तब अधिक बुरे होते हैं, न कि जब वे अकेले होते हैं‘ , ‘सत्य वह है जिसमें अंतरात्मा को शांति मिलती है', ‘वह मूर्ख है जो चालाक है‘, ‘उस व्यक्ति से दूर रहो जिस पर भेड़ और भेड़िया दोनों विश्वास करते हैं,' जैसे सूत्र वाक्य वह चलते फिरते बोलती थी। वह नैतिकता और पवित्रता का फर्क समझती थी। नैतिकता मनुष्य होने का आवश्यक तत्व है। सार्थकता है। नैतिक जीवन सुख और शांति की आश्वस्ति है। पवित्रता का संबंध ईश्वर से है। ईश्वर भय से पवित्रता को जन्म देता है। जबकि नैतिकता तर्क, विवेक गढ़ती है जो बुद्धि और चेतना का आधार है। मुझे विश्वास था कि वह पूजा, ईश्वर, करूणा, प्रार्थना से बाहर, प्रेम, निर्णय क्षमता, ज्ञान पर भरोसा करती थी। दृढ़ता और संयम को जीवन का आधार मानती थी। यह सब ज्ञान उसने जीवन जीते हुए ही ग्रहण किया था। संभव है उसके अतीत में कुछ पाप रहें हों जो नैतिक हों, कुछ हिंसा रही हो जो ज्ञान से जन्मी हो, कुछ लालसाएं रही हों जो आनंद का कारण बनीे हो। उसने मुझे अपने अतीत के बारे में कभी कुछ नही बताया। मैने कभी कुछ पूछा भी नहीं। उसने कभी अपना दुख किसी से नहीं कहा। किसी से कभी याचना नहीं की। जब भी किसी से बात करती, आँखों में देख कर बात करती। उसमें एक मूक दृढ़ता और तेजस्वी आत्मविश्वास होता और यह सब किसी पवित्रता बोध से नहीं, नैतिकता पर निष्ठा से जन्मा होता था। मेरे साथ वह माँ की तरह नहीं, एक स्त्री की तरह रही, जो अपनी भृकुटि पर ब्रह्‌मांड टिका सकती थीं। उसने स्वयं इन बातों पर विश्वास किया था। इन्हें स्वयं चुना था। वह मुझे ‘दुख' दिखाती थी जिससे ‘सुखी' होने की लालसा मुझ पर हावी न हो। जीवन के रूप दिखाती थी जिससे मैं उसकी विराटता समझ सकूँ। वह मुझे रास्ते बदल—बदल कर स्कूल ले जाती थी। कभी दरगाहें, कभी अस्पताल, कभी गंदी बस्ती, कब्रिस्तान, नदी घाट, अनाथालय, पुराने बजार, मेला, मिल से छूटते मजदूर, खंडहर के रास्ते गुजारती। स्कूल छूटने पर अक्सर बाहर खड़ी मिलती। मैं घूमूँ नहीं, समय बेकार न करूँ, गलत लड़कों के साथ भटकूँ नहीं। बहुत बार मुझे लगता, मुझे आगे करके वह किसी अदृश्य शत्रु से लड़ रही है। मेरे द्वारा किसी को चुनौती दे रही है। ललकार रही है। मेरे रूप में अपनी विजय की घोषणा कर रही है। उसने अपना पूरा जीवन, भविष्य सब मेरे ऊपर दांव पर लगा दिया था। किसी के सामने वह मुझे उदाहरण रूप में प्रस्तुत करना चाहती थी। मुझे श्रेष्ठ मनुष्य बना कर किसी की अधमताओं, पाप, अनैतिकताओं की भर्त्सना कर रही थी। पिता की परछाईं से भी दूर, नाम से भी दूर, मेरे ऊपर स्वयं की आकाक्षांएं, अतृप्ति प्रतिबिम्बित कर रही थी। वह सतर्क थी कि पिता का बूँद भर अंश भी मेरे अंदर नहीं आना चाहिए।

उसके आखिरी दिनों में मैं दूसरे शहर में पढ़ रहा था। आका बाबा उसके पास आ कर रहे थे। उन्होंने माँ की बहुत सेवा की थी। माँ ने उनसे वचन लिया था कि मुझ पर पिता की छाया भी नहीं पड़ने देंगे। आका बाबा ने बचन दिया था, उसी तरह, जिस तरह बहुत साल पहले मेरे पिता की रक्षा के लिए वचन दिया था।

माँ की बीमारी मुझे नहीं बतायी गयी थी। बीमारी ज्यादा खिंची भी नहीं। बिल्कुल आखरी दिनों में मैं आया। जब माँ की अर्थी तैयार हुयी, आका बाबा ने उस पर सफेद रंग का कपड़ा डाला। मुझे नहीं पता यह माँ की इच्छा थी या उन्होेंने स्वयं ऐसा किया था। मुझे अच्छा नहीं लगा। माँ को अर्थी पर रखने से पहले आका बाबा ने कहा मैं उनके पैर छू लूँ। मैंने ऐसा नहीं किया। उन्होंने मेरी पीठ पर हाथ रख कर हल्का सा धकेला भी। पर मैंने पैर नहीं छुए। झुक कर माँ को उठाया और अर्थी पर रख दिया। कंधे पर श्मशान ले गया। जब मैंने चिता को अग्नि दी, उसके धुँए, चिंगारी, लपट के पार मैंने देखा था, नीम के मोटे तने के पीछे छुपे, पिता खड़े थे।

बाद में भी, कई बार मुझे लगता रहा जैसे कोई मेरा पीछा कर रहा है। कोई कोनों मेें फुसफुसाता है... कभी खिड़की से आती हवाआें में... चारों ओर कुंडली मार कर बैठी चाँदनी में... गहरे एंकात में... एक ही बात ...आई एम दाय फादर्स स्पिरिट... मैं तुम्हारे पिता की आत्मा हूँ...। अक्सर पिता मुझसे कहते थे, मरने के बाद भूत बन कर तुम्हारा पीछा करूँगा... उसी तरह जैसे हैमलेट का पिता करता है। मैं खिलखिलाता था। एक दिन उन्होंने पूछा था कि हैमलेट नाटक में शेक्सपीयर किस चरित्र की भूमिका करता था? मैं नहीं बता पाया था। तब उन्होंने बताया था ........हैमलेट के पिता की आत्मा की। वह मरने के बाद बेटे से बातें करती है। उन्हाेंने बताया था कि शेक्सपीयर यह भूमिका इसलिए करता था क्योंकि इस बहाने वह अपने मरे हुए बेटे ‘हैमनेट' से बातें करता था। इसी बहाने वह अपनी पत्नी के अन्य पुरूषों के संबधों के बारे में सबको बताता था। पुत्र को माँ के विरूद्ध उकसाने का संतोष पाता था। शायद पिता इसीलिए मृत्यु के बाद मुझसे बातें करते थे। हैमलेट की तरह माँ से बदला लेने को उकसाते थे। माँ से, माँ की स्मृतियों से, उसके जीवन मूल्यों से... उसके गढ़े हुए मनुष्य से। आई एम दाय फादर्स स्पिरिट....। उसने कहा था मैं बदल गया हूँ। मैं जानता हूँ मैं पिता की तरह दिखने लगा हूँ.. शायद अब अंदर से भी उनकी तरह हो रहा हूँ। शैतान... पाप... अनैतिकता की दुनिया के सत्य को जीने लगा हूँ।

छटपटा कर मैं उठ गया। खिड़की के बाहर सर लटका कर कुछ गहरी साँसें लीं फिर सीधा हो गया। थकी आँखों से देखा। देखता रहा। देखता रहा। देखता रहा। कई जन्मों, कई युगों तक देखता रहा। अंधेरे से पहले की शाम थी। आखरी पीलापन था। हवा में उड़ते कुछ पीले पत्ते थे। खत्म होती पीली धूप थी। पीले फूल थे। आकाश का एक हिस्सा पीला था। यह गोधूलि बेला थी। दिन और रात का संधिस्थल। यह कुछ ही देर रहने वाली थी। यह न पूर्ण प्रकाश था, न गहन अंधकार। न सम्पूर्ण जागृति थी, न आंशिक चेतना। इसी गोधूलि में, इसी क्षण, कहीं कोई स्त्री ऊँटनी के दूध से केश धो रही होगी, कहीं बिना ईसा का सलीब खंडहर की दीवार पर हवा में झूल रहा होगा, कहीं एक अकेला व्यक्ति लम्बी, खाली, चित्र गैलरी के छोर पर परछाईयों से बनी स्लेटी अंधेरों की सलाखों में अकेला बैठा, उदासी से दीवार पर चिपके सुनहरे फ्रेमों में जड़ी, मरी हुयी महानताएं देख रहा होगा, इसी क्षण किसी पुराने चर्च के टूटे पड़े आत्मस्वीकृति के डिब्बे मे चिपके विलापों का इतिहास थरथराया होगा, कहीं किसी आलाप में स्मृतियों के कलश टूटे होगें, कहीं काले बदन और पीली चोंच वाली चिड़िया स्टेशन पर सरकती टे्रन के साथ कुछ दूर दौड़ी हाेंगी, कहीं थकी देहों ने, उस दिन की रोटी देने के लिए ईश्वर को धन्यवाद दिया होगा, कहीं कोई मुग्धा अभिसार की तैयारी में सफेद चादर पर टंके हरे फूलों की सलवटें ठीक कर रही होगी। मैं सांस लेता हूँ। यही गोधूलि सत्य है। गोधूलि में ही भावना और स्मृति के द्वन्द्व हैं। विवेक और लालसा के संशय हैं। इसी गोधूलि में ही व्यक्त और अव्यक्त के संघर्ष की सदियों पुरानी यातना है। बिखरे हुए हल्के रूपहले गुच्छे इसी गोधूली की धुँधलायी स्लेटी रंग की सलवटों में धीरे—धीरे लुप्त हो रहे हैं। एक और पुराना, जीर्ण शीर्ण दिन, जीवन, युग अपनी छाया त्याग रहा है। एक नूतन आलोकित रात, उसकी पवित्र नग्नताएं और नक्षत्रों का जादू जन्म ले रहा है। सिर्फ और सिर्फ इसी गोधूलि में जीवन का अर्थ व मर्म स्पष्ट दिखता है। इसी बेला में जीवन स्वयं को निर्वासित कर देता है। इसी गोधूलि में जीवन की व्याख्या है।

जीवन न सिर्फ प्रकाश है न सिर्फ छाया। न सिर्फ पाप है न सिर्फ पुन्य। न सिर्फर्र्र्र् माया है न सिर्फ काया। न सिर्फ सुख है न सिर्फ दुख। न सिर्फ जन्म है न सिर्फ मरण। जीवन के सत्य और सार्थकताएं संधि रेखाओं पर ही होते हैं। जो आज विस्मृत है कल स्मृति में होगा। भय मुक्ति में बदलेगा, मुक्ति किसी कठोर बंधन में। मरते हुए घोड़ों के बाद भी असंख्य जीवित घोड़ें हैं। आज भी वे सूर्य का रथ खींच रहे हैं। आज भी विश्व उसके केशों की किरणों से प्रकाशित हो रहा है। नयी कविताएं रची जा रही हैं। पिता की तरह दिखना या होना, माँ से अलग होना नहीं है। पाप और पुण्य, विवेक और लालसा, ईश्वर और शैतान की संधि रेखा ही जीवन है।

मैं खिड़की से हट कर अंदर आया। फिर और अंदर के छोटे वाले कमरे मेंं आया। पहले एक फिर दूसरी अलमारी खोली। पहले एक फिर दूसरा कलश उठाया। पहले एक फिर दूसरा कलश मेज पर रखा। पहले एक फिर दूसरे कलश के मुँह का कपड़ा हटाया, फिर दोनाें की राख को मिला दिया।

प्रियंवद

15/269,सिविल लाइन्स

कानपुर—208001,