Baat bus itni si thi - 10 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 10

Featured Books
Categories
Share

बात बस इतनी सी थी - 10

बात बस इतनी सी थी

10

अंत में न चाहते हुए भी मैंने मंजरी की कॉल रिसीव कर ली । कॉल रिसीव होते ही वह मेरी और मेरे परिवार की कुशलक्षेम जानने की औपचारिकता पूरी किये बिना ही बोली -

"चंदन, तुम्हें रंजना ने कॉल की थी ?"

"हाँ, की थी !" मैंने बहुत ही बेरुखी और लापरवाही से उत्तर दिया ।

"क्या कहा था उसने तुमसे ?" मंजरी ने दूसरा प्रश्न किया ।

"वही सब, जो आपने उससे कहलवाया था !" मैंने उसी लापरवाही से उत्तर दिया ।

"चंदन, मैं सच कहती हूँ, मैंने रंजना से कुछ नहीं कहलवाया था ! मैं उससे कहलवाती, तो मैं तुमसे क्यों पूछती कि उसने क्या बातें की थी ?" कहकर मंजरी जोर से हँस पड़ी ।

मैंने मंजरी की बात का कोई जवाब नहीं दिया । आज मुझे मंजरी के हँसने पर न तो गुस्सा ही आया था और न ही आज उसकी हँसी को मैंने मेरा मजाक उड़ाने की तरह से महसूस किया था । दरअसल हमें दुख तभी होता है या किसी पर गुस्सा भी तभी आता है, जब हमारे मन की इच्छा पूरी नहीं होती है या जब कोई हमारी आशाओं-अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता है । अब, जब मंजरी को लेकर न मेरी कोई इच्छा थी और न उससे मेरी कोई आशा-अपेक्षा ही रह गयी थी, तो मुझे अब न उसकी किसी बात से दुख हो रहा था न ही उस पर गुस्सा आ रहा था ।

मंजरी से मिलने के बाद आज शायद पहली बार किसी हद तक मैं खुद को मंजरी से मुक्त महसूस कर रहा था । किसी तरह का कोई भी बंधन मुझे आज उससे बांधकर नहीं रख पा रहा था, चाहे वह प्यार का बंधन हो या शादी का । लगभग आधा मिनट बाद भी मेरी ओर से किसी तरह का कोई जवाब नहीं पाकर मंजरी ने फिर उसी अंदाज में हँसते हुए कहा -

"चंदन ! सच-सच बताओ, रंजना ने तुम्हें कुछ ऐसा-वैसा तो नहीं कहा ना ? अरे यार, वह रंजना है ही ऐसी ! उसका पेशा वकालत है न, इसलिए वह बहुत बोलती है और मेरी बहुत ही चिंता भी करती है ! जब उसने तुमसे बात करने के लिए मुझसे तुम्हारा मोबाइल नंबर लिया था, तभी मुझे यह चिंता सता रही थी कि वह तुम्हें कुछ उल्टा-सीधा न बोल दे ! इसीलिए मुझे तुमसे उसके बारे में यह पूछना पड़ रहा है !"

मैं इस बार भी चुप रहा था, क्योंकि मंजरी की किसी बात का कोई जवाब मेरे पास नहीं था । कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद मंजरी ने फिर वही पुराना राग अलापना शुरू कर दिया था -

"तुम मुझसे मिलने के लिए क्यों नहीं आए ? मिलने के लिए आना तो दूर रहा, तीन महीने हो चुके हैं, तुमने मुझे एक कॉल भी नहीं की !"

"मैंने नहीं की, तो तुम कर लेती !"

"जब भी हमारी बातें होती हैं, हमेशा मैं ही कॉल करती हूँ ! तुमने आज तक एक बार भी कॉल नहीं की है !" मंजरी ने उलाहना देते हुए कहा था ।

"क्या फर्क पड़ता है ? मैं कॉल करूँ या तुम करो ! बातें तो हो ही जाती है न ?" मैंने उत्तर दिया ।

"हाँ जी ! बातें तो हो ही जाती हैं !" आज पहला मौका था, जब मंजरी ने मेरे प्यार का नाजायज लाभ उठाकर मेरा मजाक नहीं बनाया था ।

इसके बाद वह इधर-उधर की, दुनिया-भर की बातें करती रही । ऐसी बातें, जिनमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं हो सकती थी । फिर भी, मैं आज भी अपने किसी व्यवहार से मंजरी का दिल नहीं दुखाना चाहता था, इसलिए मोबाइल का कनेक्शन बंद नहीं किया और उसकी हर बात में "हाँ-हाँ" करता रहा । उसकी बातें सुनते-सुनते और "हाँ-हूँ-हाँ-हूँ" करते-करते मुझे नींद आ गई थी । मंजरी ने उधर से ही कब कितनी देर बाद संपर्क काटा, मुझे नींद में कुछ पता नहीं चला ।

मंजरी ने अब सप्ताह में कम-से-कम एक बार फोन पर बातें करना और व्हाट्सएप मैसेज भेजना दोबारा शुरू कर दिया था ।

दो महीने बाद दीपावली का त्यौहार आने वाला था, मंजरी ने मुझसे कहा कि वह दीपावली का त्योहार मेरे साथ मनाना चाहती है । साथ ही उसने मेरे सामने यह शर्त भी रखी कि वह मेरे साथ दीपावली तभी मनाएगी, जब मैं खुद उसको उसके मायके से लिवाकर लाऊँगा ! मंजरी की इस शर्त को मानने के लिए मैं तैयार नहीं था । मैंने उससे स्पष्ट शब्दों में कह दिया -

"यह परंपरा बीते उस युग में तो ठीक थी, जब औरतें अबला होती थी ! तब भी यह परम्परा उन्हीं स्त्रियों के लिए होती थी, जो अकेली यात्रा नहीं कर सकती थी । तुम्हें तो अबला नहीं कहा जा सकता ! और तुम अकेली यात्रा भी कर सकती हो ! तुम तो अकेले ही कितनी बार विदेश-यात्रा भी कर चुकी हो ! फिर अपने ही देश में एक शहर से दूसरे शहर तक जाने में क्या प्रॉब्लम हो सकती है ?"

"चंदन ! हमारी शादी परंपरागत तरीके से हुई है, फिर तुम मुझे मायके से लिवाकर ले जाने की परंपरा क्यों नहीं निभा सकते ?"

मंजरी ने मुझ पर भावात्मक दबाव बनाकर कहा । आज से पहले मैं मंजरी के भावात्मक दबाव में आकर हमेशा अपने निर्णय बदलता रहा था, लेकिन आज मेरा मूड़ बदला हुआ था । मैंने सीमित और सधे हुए शब्दों में उसको समझाया -

"मंजरी मैडम ! हमारी शादी में परंपरागत तरीके से क्या हुआ था ? जरा मैं भी तो सुनूँ !"

"क्या नहीं हुआ था ? सब कुछ परंपरागत ढंग से ही तो हुआ था !"

मंजरी ने बड़ी ही मासूमियत से उत्तर दिया था । इतनी मासूमियत से कि उसका जवाब सुनकर मुझे भी हँसी आ गयी । हँसते हुए ही मैंने उसके भ्रम को दूर करने की कोशिश करते हुए कहा -

"पहले तो तुम यह समझ लो कि हमारी अरेंज मैरिज नहीं है ! हम दोनों ने लव मैरिज की थी, जिसमें रिश्ता बनाने और निभाने की जिम्मेदारी केवल और केवल प्रेमी जोड़े की होती है । हमारे रिश्ते से जुड़ी हर जिम्मेदारी परिवार से और परंपराओं से पहले भी, उनके साथ भी और उनके बाद भी सिर्फ और सिर्फ हम पति-पत्नी की है ! परिवार की भूमिका इसमें सिर्फ आशीर्वाद देने-भर की रहती है ! सारे निर्णय प्रेमी जोड़े के, यानि पति-पत्नी बनने के बाद भी हमारे ही होते हैं !"

"चल यार, ठीक है ! मान ली मैंने तुम्हारी बात ! पर दीपावली पर मैं तभी वहाँ आऊँगी, जब तुम मुझे लेने के लिए आओगे !"

मंजरी ने अपना निर्णय सुनाते हुए कहा । मैंने भी उसी तरह एक वाक्य में उसको अपना निर्णय बता दिया -

"मैं नहीं आ पाऊँगा ! तुम्हें मेरे साथ दीपावली मनाने के लिए यहांँ आना है, तो खुद ही आना होगा !"

"मैं नहीं आऊँ, तो ... ?"

"तुम्हारी इच्छा है, आओ या न आओ !"

मैंने गेंद को उसी के पाले में डालते हुए कहा । मेरा जवाब सुनते ही मंजरी ने गुस्से में फोन काट दिया । शायद मंजरी को आशा थी कि उसके क्रोध को शांत करने और मनाने के लिए मैं उसको वापस कॉल करूँगा । लेकिन मैं ऐसा करने के मूड में नहीं था । मेरे वापस कॉल नहीं करने पर लगभग दस मिनट इंतजार करने के बाद मंजरी ने मुझे दोबारा कॉल की और कहा -

"तुम चाहते हो कि मैं खुद चलकर तुम्हारे पास आऊँ, तो ठीक है ! मैं दीपावली से एक सप्ताह पहले तुम्हारे पास पहुँच जाऊँगी !"

मैं मंजरी का निर्णय चुपचाप सुनता रहा । लौटकर उसको कोई उत्तर नहीं दिया । मेरे चुप रहने के बावजूद मंजरी उसके बाद भी काफी देर तक इधर-उधर की बातें करती रही, जिन्हें मैं सुनकर भीअनसुना करता रहा । वह जिन-जिन विषयों पर बातें कर रही थी, वे सभी विषय मेरी रुचि के बाहर के थे । मेरी ओर से 'हाँ-ना' का कोई जवाब नहीं मिलने पर बीच-बीच में कई बार मुझे डाँटने के अंदाज में मंजरी कहती रही थी -

"सुन रहे हो न ? या सो गए हो ?"

"सुन रहा हूँ !"

मैं केवल इन तीन शब्दों में उसके प्रश्न का उत्तर देकर दुबारा चुप हो जाता था । उसकी बातें सुनकर मैं सोच रहा था -

"मुझे कितनी बारीकी और गहराई से उसकी पसंद-नापसंद का ध्यान रहता है ! दूसरी ओर यह है, जिसको मेरी पसंद-नापसंद, रुचि-अरुचि की बिल्कुल परवाह नहीं है ! मस्तिष्क में यह विचार आते ही मंजरी के प्रति मेरे मन में ऐसी विरक्ति जगी कि अगली बार जब उसने मुझसे पूछा, "सुन रहे हो न ? या सो गए ?" मैंने कोई उत्तर नहीं दिया । मंजरी ने कई बार अपना प्रश्न दोहराया, लेकिन मैं जागते हुए भी बार-बार यह सोचकर चुप रह गया कि मेरी ओर से कोई उत्तर न पाकर वह खुद ही मान लेगी कि मुझे नींद आ गई है ।

धीरे-धीरे अब मंजरी का बोलने-बात करने का तरीका पहले से बदल रहा था । उसके व्यवहार में कुछ विनम्रता आ गयी थी, पर मुझे यह सबकुछ बनावटी-सा लगता था । ऐसा लगता था, जैसे अन्दर की किसी कुरूप वस्तु को ढँकने के लिए कोई मखमली परदा डाला जा रहा है । लेकिन उस मखमली चादर में से वह ढँकी हुई वस्तु जगह-जगह से झाँककर अभी भी अपनी उपस्थिति की गवाही दे रही है ।

अपनी पुरानी बातों-व्यवहारों पर नया मखमली परदा डालते हुए मंजरी अब सप्ताह में कम-से-कम एक बार कॉल करके मेरी कुशल-क्षेम पूछ लेती थी । दीपावली से दस दिन पहले मंजरी ने कॉल करके मुझे सूचना दी -

"चंदन ! मेरी फ्लाइट कल शाम चार बजे पटना एयरपोर्ट पर पहुँच रही है ! तुम एयरपोर्ट पर मुझे रिसीव करने के लिए आ सकोगे ? या मुझे कैब करके आना पड़ेगा ?"

"फ्लाइट नंबर व्हाट्सएप कर दो ! मैं टाइम पर एयरपोर्ट पहुँचकर तुम्हें रिसीव कर लूँगा !" मैंने अपना फर्ज पूरा करने का भरोसा देने की कोशिश करते हुए कहा ।

"टाइम पर नहीं, तुम्हें टाइम से पहले पहुँचना होगा ! अगर मुझे एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही तुम नहीं मिले, तो मुझे टैक्सी लेकर आना पड़ेगा ! वहाँ खड़ी होकर मैं इन्तजार नहीं कर सकती !" मंजरी ने गुस्से में भरी चेतावनी देते हुए कहा और तुरंत कॉल काट दी ।

क्रमश..