नश्तर खामोशियों के
शैलेंद्र शर्मा
3.
"डॉ साहब!" चपरासी सामने खड़ा था.
"हाँ" मैंने नजरें उठाईं.
"साहब, हम बिसरा गए, डॉ.साहब कहे थे कि आपसे कह दें कि तनख्वाह आ गयी है, उसे ले लें आप."
दीवार घड़ी की ओर देखा, सवा तीन हो रहा था. मेज पर से पर्स उठाकर उठ खड़ी हुई. गैलरी से देखा, सूरज को छोटे से बादल के टुकड़े ने ढँक लिया था. धूप हल्की हो उठी थी. कैंपस में लगे नीम के पेड़ से ढेर सारे फूल झड़ आये थे. एक अजीब-सी गतिहीनता, एक उदास सा ठहराव चारो ओर फैला था.
लगा, क्योंकि खुद ठहर गयी हूँ इसलिए हर ओर ठहराव लग रहा है. कितना सुखद लगता था जब यह सारा वीरान सा शहर भागता हुआ लगता था. तब बात यह थी कि वक्त इतना कम क्यों है!
कॉलेज में हर घंटे में अना से मिलने की चाह, प्रतीक्षा और खोज, रची-बसी थी. एक अजीब सा नशा तन और मन मे घुला रहता. एक मीठा सा सुरूर...जैसे पूरे शरीर मे कनेर की पंखुड़ियाँ भर गई हों. हर वक्त कुछ गुनगुनाते रहने का,L खिलखिलाते रहने का मन करता. हर वक्त एक जोड़ी सांवली आंखे और लंबी पतली अंगुलियां दिल के कूल-किनारों को सहलाती रहती...एक हल्की-सी बिजली की तरंग कदमों में भरी रहती.
जिन दिनों वह हाउस जॉब में था, तब लेक्चरर वगैरह के साथ हाजिरी लेने आ जाता तो मेरा पूरा-का-पूरा सर्जरी का पीरियड स्वप्निल ही बीतता. एक तरफ झल्लाहट भी होती थी कि जिससे दिन में दस बार मिलती हूँ उससे ग्यारहवीं बार भी मिलने की इच्छा इतनी उद्दाम क्यों रहती है?
लगभग रोज ही शाम को घर पर मुलाकात होती उससे. पापा सब समझते थे, और मेरे और अना के संबंध को उन्होंने एक परिपक्व स्वीकृति और आदर दे रखा था.
कभी-कभी कोई बात पूछनी होती, और वह किताब खोलकर समझा रहा होता, तो में उसके बताने के अंदाज में इतना खो जाती, कि बात को अनसुनी करके, उसकी आवाज के उतार-चढ़ाव, उसकी भौंहों के बार-बार ऊपर उठने, जोर देते वक्त उसकी आँखों के थोड़ी छोटी हो जाने, और होंठोंऔर तालू को छूती उसकी जीभ की गति डूब जाती. कुछ क्षणों बाद जब उसकी अक्ल में आता कि सामने टकटकी लगाकर देखती इस बेवकूफ लड़की के जहन में सर्जरी के आपरेशन का स्टेप नही, कुछ और घूम रहा है तो वह बहुत सहज और हल्का हो आता. आवाज नाजुक हो उठती,"ए विनी...कहाँ हो? क्या देख रही हो इस वक्त?"
और जैसे मुझे नींद से जगा कर,मेरे बहुत करीब आ जाता. गर्दन पर और बालों में उसकी पतली अंगुलियों का स्पर्श बहुत भला लगता.उसके सांवले होंठों से अपने लंबे नाखूनों, अंगुलियों के पोरों, माथे और कानों के पास एक सिहरन लेना बहुत सुखद, बहुत मांगल्य पूर्ण लगता,जैसे उसे कुछ दे कर मैं खुद को ही दे रही हूँ.
किसी छोटे क्लास टेस्ट या तिमाही परीक्षा में अंक कम आने पर खूब डाँट पड़ती. दो-एक दिन अना बहुत व्यथित, बहुत नाराज रहता, "जरा सी मेहनत करने में तुम्हारी नानी मरती है! सारा दिन गप्पें लड़वा लो तुमसे! मेहनत करने का माद्दा नहीं था, तो इस प्रोफेशन में आईं क्यों थीं? मैं क्या क्या सोचता हूँ तुम्हारे लिए, और तुम हो कि..."
"सुनो बहुत डाँट लिया, और मत डाँटो अना, अगली दफा वैसा ही होगा."
"विनी, मैं सोचता हूँ," उसका स्वर धीमा हो जाता, "कि जो मुझे नहीं मिल सका, बदकिस्मती से, वह तुम्हें तो मिल जाये. तुम्हें मिल जाएगा तो मुझे उतना ही अच्छा लगेगा...जितना अपने लिए लगता."
अना अक्सर कहा करता था, "विनी, तेरा मन नहीं होता क्या, कि किसी बहुत अच्छी जगह काम करने को मिले, जहाँ रिसर्च की सारी सुविधाएं हों, जहां तुम कुछ हट के कर सको सबसे, जहाँ कुछ ऐसा अचीवमेंट हो, जिसे तुम अपना कह सको...नहीं तो बुखार-खांसी की दवा लिख कर तो सैंकड़ों लोग मरीज़ को उल्लू बना कर लखपति बन जाते हैं." और उसकी आँखों में कंदीलें जल उठतीं...मैं मंत्रमुग्ध-सी निहारती रह जाती. उसके व्यक्तित्व का सूरज, मुझे चांद की ऊंचाइयों तक उठाना चाह रहा था.
द्वितीय प्रोफेशनल परीक्षा के प्रैक्टिकल्स शुरू होने वाले थे. दूसरे दिन सुबह आठ बजे से परीक्षा थी, और रात के साढ़े ग्यारह बजे चाहते थे. अभी दो महत्वपूर्ण मोटे-मोटे अध्याय बचे हुए थे, और मेरी आँखें नींद से बोझिल हुई जा रही थीं. शायद घबराहट में कुछ ज़्यादा ही खा लिया था, और दस बजे पापा ने लाड़ में जबरदस्ती एक ग्लास दूध पिला दिया था. सोच रही थी सुबह उठ कर कोर्स पूरा कर लूँगी, मगर अपनी कुम्भकर्णी निद्रा से डर भी लग रहा था. बार-बार मन कह रहा था,छोड़ो भी, चलो सोते हैं. किताब बंद करने ही जा रही थी, कि खिड़की पर वही चिरपरिचित आवाज़ हुई.लोहे की सलाखों पर चाबी से ठक-ठक... नज़रें घुमाईं, मेरा चांद, मेरा आनंद, मेरा अना खड़ा था.
उसने खिड़की से ही होंठों पर अंगुली रख कर "शी.." का इशारा किया, तुम पढ़ो विनी, मैं चल रहा हूँ, कल आऊंगा."
"अरे? हद है अना! एक मिनट रुको तो सही!" मैं फुसफुसाई, और पर्दा हटा कर पापा के कमरे में झांका. पापा की आंखें बन्द थीं, और किताब छाती पर औंधी पड़ी थी. लैंप जल रहा था. उसे बन्द करके मैं धीरे से दरवाज़ा खोल कर बाहर निकल आई.
बाहर चांदनी अपने पूरे नशे के साथ फैली थी,और जैसे उसकी हल्के नीले रंग की कमीज से ही छन-छन कर बाहर आ रही थी. उसकी कटोरे जैसी आखों से बेतरह प्यार का नूर बरस रहा था, जो चांदनी से भी ज़्यादा शीतल, और नीला-नीला था.
"अंदर आओ न, पापा सो गए हैं."
"नहीं मैं... दरअस्ल मिश्रा की पार्टी से लौट रहा था. जानता हूँ, तेरे पास नहीं आना चाहिए था आज, तेरा वक़्त बहुत कीमती है, तुझे खामख्वाह डिस्टर्ब करूंगा. लेकिन मन नहीं माना. तुझे...सुबह से देखा नहीं था न!"
हर्ष और आत्माभिमान के अतिरेक से मेरा गला भर आया. विभोर-सी चुप खड़ी रही. उसने धीरे से मेरे हाउसकोट की ढीली बाँहों में हथेलियाँ डाल कर मेरी कुहनियाँ थाम लीं, "और...? कैसी तैयारी हो गयी? कोर्स तो खत्म हो ही चुका होगा."
"नही, अना, अभी इमुनोलॉजी पूरी बची हुई है. मगर नींद बहुत आ रही है." मैंने डरते-डरते कहा.
"चुप! नींद-वीन्द कुछ नही. परसों पूरा खाली दिन है, सोना आराम से...मगर आज खत्म किये बगैर मत सोना, समझी?"
और जब कुछ देर बाद वह चला गया, तो नींद काफूर हो चुकी थी. एक जुनून-सा सवार हो गया था...मुझे उसके लिए पढ़ना है, जो मुझे देखे बगैर एक दिन भी नही रह सकता है.
आनंद ने एक बार पलकें चूम कर कहा था, "यार, थोड़ा रोओ ना, आज तुम्हारे आँसुओं का स्वाद चखेंगे!"
"रुलाना चाहते हो? लोग तो चाहने वालों की आंखों में आंसू देख नही सकते, और एक तुम हो कि..."
"नही विनी! तुम्हारे आंसुओं को लिटरली पी कर तुम्हे यह एहसास दिलाना चाहता हूं कि हर जगह तुम्हारे आंसुओं के साथ किसी की अंगुलियां हैं, पोछने के लिए. किसी के होंठ मौजूद हैं, जो सोख ले सारा दर्द..."
और आनंद, जो तुम अब रोता छोड़ गए हो तो आंसू पोछने के लिए कौन है? मैं खुद ही न! तूने कई दफा कहा था न अना, कि मैं करूं या तू करे, एक ही बात है न! तो मैं खुद ही पोंछ लूँ? नहीं अना, मुझ मैं अब शक्ति शेष नही है.