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दोपहर बीत चुकी थी! ये उनके एक नींद लेकर जागने का समय था जो अब आती ही कहाँ है! उम्र का तकाजा ही है, कमबख्त ये भी गच्चा दे देती है! किस्से सुनने के लिए उन्हें घेरकर बैठे बच्चों को वे सुनाया करते हैं यमराज की चार चिट्ठियों का किस्सा! कि कैसे पहली चिट्ठी आती है तो घुटने जवाब देते हैं, फिर दूसरी चिट्ठी पर आँखों की नजर कमजोर पड़ने लगती हैं और फिर आती है तीसरी चिट्ठी जब नींद उड़ जाती है और अंत में यम के दूत चौथी चिट्ठी के साथ स्वयं आ जाते हैं! पड़ोस का शरारती चुन्नू तो पूछ ही बैठा, “दादाजी, आपकी कितनी चिट्ठियां आ चुकीं?” “नटखट कहीं का!” वे यादकर मुस्कुराये! घुटनों, आँखों के साथ यह नींद भी बैरन बेप्रीत हो गई है! पर रस्मे-अदायगी तो निभानी है! आज मन कुछ अनमना है! नाकाम ही सही तो भी सोने की कोशिश जरूर की उन्होंने!

अब सोना तो क्या, और कुछ नहीं, थोडा समय बीत जाता है और इसी बहाने देह को थोड़ा आराम मिल जाता है! यूँ अब क्या, सब आराम ही आराम है! कोई ख़ास काम नहीं उन्हें यूँ ही ओढ़े हुए कामों के सिवा! जैसे शाम को बच्चों के साथ पार्क घूमने जाने का काम! आजकल बच्चों की सत्रीय परीक्षा चल रही है तो उन्हें अकेले ही जाना होगा! चश्मे को हाथों से ठीक करते हुए वे उठे! उन्होंने अपना एक हाथ झुकी हुई कमर पर रखकर, दूसरा हाथ निहोरने के लिए माथे पर टिकाया और आसमान की ओर निहारने लगे! झुर्रियों से भरे चेहरे पर लगभग तीन चौथाई शताब्दी के अनुभव की इबारत ऐसे उबरने लगी जैसे किसी कोरे कागज़ पर हर्फ़ उभरते हैं! उम्र की तपिश से कुम्हलाए चेहरे की अनगिनत सलवटों में हलचल हुई और मिचमिचाती आँखों ने धोखा नहीं दिया यह बताते हुए कि आसमान आज पूरा बादलों से भरा था! उन्होंने बाहर जाने का इरादा त्याग दिया! घने बादल...ये बादल केवल गरज के डराने वाले नहीं बरसने वाले थे!

उनके मन में कहीं भड्डरी के बोल गूंजने लगे....

“मटका में पानी गर्म चिडि़या न्हावे धूर।
चिउंटी अन्डा लै चलै तौ बरषा भरपूर।“

‘पतासे के मान बूंद पड़ेंगी! कपड़े तार लो, मेह आया जाणों, भोडियों (बहुओं)!” वर्षों का अभ्यास था उनका जो कभी गलत होता ही नहीं था! वे आकाश में बादल देखकर बारिश का मिजाज़ और जमीन पर छाया देखकर समय का अनुमान लगा लेते थे! उनकी आवाज़ चेतावनी की तरह गली में गूंजी और अडोस-पड़ोस की बहू-बेटियां सूखते कपड़े उतारने भागीं! छतों पर सूखते मसाले, बड़ी-पापड़ और अचार की बरनियाँ आनन-फानन में बटोरी जाने लगीं! भई ‘दादाजी’ की भविष्यवाणी है, गलत कैसे हो सकती थी! पंद्रह मिनट बीतते-बीतते सचमुच बताशे के आकार की बड़ी-बड़ी बूंदे तड़ातड़ पड़ने लगीं!

कुछ देर कमरे के आगे बरामदे में टहलने के बाद, उन्होंने घड़े से लेकर पानी पिया पर बेचैनी कम नहीं हुई तो वे अंगोछे से माथा पोंछने लगे! उनका ध्यान बार-बार ताक पर जाता था! वहीं लकड़ी के खोके में रखी थी ‘वह”! आज बारिश के कारण नहीं जा पाए! कोई बात नहीं, पर कल गुलाटी के पास अपने अलार्म घड़ी लेकर जरूर जायेंगे! गुलाटी घड़ीसाज, उनका पुराना दोस्त, उनके करीब के बचे लोगों में से अकेला व्यक्ति जो उन्हें ‘दादाजी’ नहीं ‘शर्माजी’ के नाम से पुकारता था! वरना तो वे ‘जगत दादाजी’ हो चले हैं पूरे मोहल्ले के! उन्हें दादाजी कहने वाले बच्चे उम्र के इस आठवें दशक के लगते-लगते खुद नन्हे-मुन्नों के माँ-बाप बन गये थे! यानि उनके किस्से-कहानियों के मुरीदों की एक नई पीढ़ी तैयार हो रही थी!

उन्हें रिटायर हुए एक युग बीत गया पर गुलाटी उनकी तरह यमराज की चौथी चिट्ठी की प्रतीक्षा में समय बेकार नहीं करना चाहता था तो अब भी बाज़ार के एक कोने में एक चबूतरे पर अपनी छोटी-सी दुकान जमाये हुए आँखों में मोटे लेंस की ढिबरी लगाये हुए रेजगारियाँ खर्च किया करता है! एक छोटे-से खोखे में जमा रहता था उसका नन्हे कल-पुर्जों से सज़ा अद्भुत संसार! गुलाटी के पास जाने का ख्याल उन्हें तसल्ली के अहसास से सराबोर कर गया लेकिन केवल कुछ पलों के लिए!

मन में ख्यालों के बवंडर उठ रहे थे! गुलाटी उनके अतीत और वर्तमान के बीच की एक जर्जर कड़ी है! ऐसी कई कड़ियाँ समय की गर्त में धूमिल हो चुकी हैं! अभी दो बरस पहले उनके लिए मोतीलाल मोची का बनाया चमरौधा इस दुनिया का अप्रासंगिक शब्द हो गया और फिर तिरछी जेब वाली, उरेब की कटाई-सिलाई वाली खास बनियान जिसे वे डी सी एम् की दुकान से खादी का कपड़ा लेकर दयाराम दर्जी से सिलवाया करते थे वो भी बीते ज़माने की बात हुई! और अब घड़ी के रुक जाने में वे जिस मनहूस इबारत को पढ़ रहे थे वह जल्द ही गुलाटी के पास जाने के ख्याल से मिली तसल्ली पर हावी होने लगी! उन्हें लगा तसल्ली महज एक शब्द है! तसल्ली जैसे अब तसल्ली नहीं, पंख लगा फाख्ता है कि हाथ आएगा ही नहीं!

उन्होंने यूँ ही सुबह का पढ़ा हुआ अख़बार उठाया और फिर से पढने की कोशिश की पर मन न लगा! उनका उदास और बेचैन मन एक पक्षी की तरह पूरे कमरे का चक्कर लगाकर फिर ताक पर जा बैठा! अनायास ही वे याद करते हैं सन सैंतालिस की मारकाट! जाने क्यों आजकल वे बार-बार बिसरी गलियों में लौटते हैं! कैसा विचित्र सा विचलन है! स्मृतियों की यह आवाजाही मन की नदी में उठी छोटी-बड़ी लहरों के समान है! जब यह लहरें कुछ पल को शांत होंती हैं तो वह खुद को उन्नीस-सौ सैंतालिस में खड़ा पाते हैं! टुकड़ों-टुकड़ों में वह विभीषिका उनकी स्मृतियों में कौंधती है! भयंकर आपाधापी और आवाजें! कैसी छलिया होती हैं न ये छुटपन की स्मृतियाँ! न पूरा याद आती हैं और कुछ भी भूलने देती हैं! गाँव के वे दिन अक्सर याद आते हैं!

आजकल बचपन की उन कटु और भयावह स्मृतियों की आवाजाही उन्हें विस्मित करती है! उसके छह-सात बरस बाद वे जड़ों से उखड़कर दिल्ली आ बसे थे! उस तरुणावस्था में दिल्ली में कुछ दूर के रिश्तेदारों के सहारे कदम रखा तो बड़ा डरा हुआ था मन! सुमित्रा साथ ही थी उनके! हाँ तब वह केवल सुमित्रा ही थी, वे याद करते हैं! नरेंद्र, शारदा और महेश की माँ तो बाद में बनी! कमबख्त कैसी बेप्रीत निकली, तीनों बच्चों को सौंपकर उन्हें अकेला कर चली गई! गृहस्थी की गाड़ी एक पहिये पर चलते-चलते कई बार डगमगाई! फिर बच्चों को बड़ा करते-करते भरी पूरी दुनिया में वे कई बार अकेले पड़े! अब सब जिम्मदारियां पूरी हो चुकी हैं! दुनिया का रोजगार मजे से चल रहा है! सब अपने में मस्त हैं, व्यस्त हैं! नरेंद्र कई बरस पहले ही विदेश में बस गया है, शारदा का अपना सुखी घर-संसार है और महेश रुपया कमाने की इस दौड़ में उनका उत्तराधिकारी बना घड़ी की सुइयों के इर्द-गिर्द दौड़ रहा है! अब तो उनके परिवार की नई पीढ़ी यानि नाती-पोते भी उनकी किस्सा-कहानी की दुनिया पीछे छोड़ करियर की आपाधापी में कहीं दूर निकल चुके हैं! इस भागदौड़ भरी दुनिया में उनका एकांत आज भी सुरक्षित है! अब उनके कमरे में अलार्म घडी, ट्रांसिस्टर और टॉर्च ही उनके एकांत के सबसे विश्वसनीय साथी हैं!

वे फिर से स्मृतियों में लौटते हैं! याद करते हैं, दिल्ली आने के बाद कुछ दिन यहाँ वहां भटके जरूर पर डी सी एम (दिल्ली क्लाथ मिल) की नौकरी ने उनके पांव जमा दिए! ये समय की पाबन्दी उसी कपड़ा मिल की नौकरी की देन है और तब आई थी घर में ये अलार्म घड़ी जो धीरे-धीरे एक निर्जीव वस्तु से घर की सबसे महत्वपूर्ण सदस्य में कैसे तब्दील हो गई वे जान ही नहीं पाए! कभी दिन की ड्यूटी होती तो कभी रात की! सुबह चार बजे का अलार्म लगाकर सोते तो ही उन मेहनतकश दिनों की गाढ़ी नींद टूट पाती! वे शुक्रगुज़ार थे इस अलार्म घड़ी के कि सुमित्रा के चले जाने के बाद भी उनके कर्तव्यों की राह में उनकी गाढ़ी नींद कभी आड़े नहीं आने पाई! ये घड़ी उनकी सच्ची हमसफर बन गई! इसी के बल पर उन्होंने सुमित्रा के छूटे इस घर संसार के सुखद भविष्य के लिए खुद को काम में झोंक दिया!

मिल की नौकरी ने उन्हें समय का पाबंद बना दिया था और उनके समय की पाबन्दी ने घड़ी से इतना जोड़ दिया था कि वे इसे लेकर कितनी तो कल्पनाएँ कर बैठते! कभी उन्हें लगता यह सूरज के लिए सुबह की दस्तक थी और चाँद के लिए राहत का पैगाम थी! उन्हें लगता उसकी ट्रिन-ट्रिन की आवाज़ से केवल वे ही नहीं जागते, समस्त कायनात जाग जाती है! उसकी एक आवाज़ से रश्मिरथी के सातों अश्व अंगड़ाई लेकर जाग उठते और इस समस्त जगत का पत्ता-पत्ता रोशन करने निकल पड़ते! वे मुस्कुरा उठते, जब अलार्म बंद करते हुए देखते कि घड़ी की आवाज़ सुन भोर के तारे मद्धम पड़ गये हैं और उन्हें प्रतीत होता मानो चाँद के हाले पर बैठी लोककथाओं वाली चरखा कातती बुढ़िया उनके अलार्म की आवाज़ सुनकर, जम्हाई लेकर, अपना बिस्तर ज़माने लगती है!

आज सब कुछ बदल रहा है पर वे याद करते हैं इस मोहल्ले की वे पुरानी सुबहें! अभी ज्यादा बरस नहीं हुए उन बातों को जब उनके अलार्म के साथ-साथ बाहर गली में जस्सो का मुर्गा नसैनी पर चढ़कर ऐलानिया आवाज़ में बांग देने लगता और पक्षियों की चहचहाहट से कुछ धुंधले, कुछ नीले आकाश का कोना-कोना गूंज उठता! उनके अलार्म की आवाज़ से वे ही नहीं कुछ और भी रिश्ते जुड़े हुए थे! जैसे ठीक चार बजे गली के कोने पर लगा म्यूनिसिपालिटी का नल भी जाग उठता था जहाँ बाल्टियों की कतार लगने लगती थी! कार्तिक स्नान को आतुर गृहणियों को पौ फटने का इशारा भी उसी से मिलता! और फिर गली में रखी जाने लगती अंगीठियाँ जो सुलगकर दिन भर की रसोई को तैयार हो जाती! इस घड़ी की जगाहट से दिन की पहली चाय का गहरा नाता था! और सुबह की नियमित सैर भी तो इसी के एक सिरे से बंधी थी! इसी की डोर से बंधे थे स्कूल जाने को मुस्तैद नन्ही वर्दी और जूते! उठो कि सुबह हो गई! उठो कि बज गया है दादाजी का अलार्म!

पर आज एक अचम्भा हुआ! सुबह वह नहीं बजी! समय पर जागने की अभ्यस्त आँखों ने कहा कि सुबह हो गई है पर मन था कि मानने को तैयार ही नहीं था! ऐसे कैसे? आखिर अलार्म के बिना सुबह कैसे हो सकती थी! पर चिड़ियों की चहचहाहट ने उन्हें चौंकाया और मानने पर मजबूर कर दिया कि सुबह उनके अलार्म की आवाज़ के बिना भी हो सकती है! वे हैरान परेशान कभी घड़ी को देखते, कभी उसका कान मरोड़ते! कभी कान से लगाते तो कभी सूरज की नाफरमानी पर चकित होते! घड़ी की बादशाहत खत्म हुई! सचमुच यह सुबह हमेशा जैसी नहीं थी! अलार्म की जगाहट के बिना यह एक खामोश, उदास और बेरंग सुबह थी!

दिन तो घड़ी की चिंता में बीत चला था! दिन की बारिश से रात उतनी गरम भी नहीं पर रात भर ‘राम-राम रमैती’ और ‘रामसा पीर’ का जाप कर भी उन्हें नींद नहीं आई! एक पल लेटते तो दूसरे पल बैठ जाते! कभी कमरे में चहलकदमी करने लगते! कभी पानी पीते तो कभी पेशाब जाते! कभी तारे देखने लगते और कभी सिरहाने रखी कलाई घड़ी टटोलते कि कितनी रात अभी बाकी है! अलार्म के भरोसे के बिना द्रौपदी के चीर सी लम्बी यह रात जैसे-तैसे कटी पर अगले दिन उन्होंने शाम की प्रतीक्षा नहीं की! सुबह के नाश्ते को मन न हुआ तो बहू की दी हुई चाय पीकर छड़ी उठाई और निकल पड़े, वे और उनकी खामोश साथी गुलाटी घड़ीसाज की गुमटी की ओर! कुछ देर की कवायद के बाद वे गुलाटी की बूढी, उदास आँखों की वीरानी के साए में बैठे घड़ी को सहला रहे थे! उनकी मोतियाबिंद से कमज़ोर बूढी आँखों में यह बात सदमें की तरह जज्ब हो गई कि इन्सान और मशीन दोनों उम्र बीत जाने पर अकेले पड़ जाने को अभिशप्त हो जाते हैं! अकेले पड़ जाने और पुराने हो जाने का यह अहसास दोनों ही को कितना अकेला कर देता है! कितना डराता है और अजीब है न यह ख्याल कि ये दुनिया उनके बगैर भी यूँ ही चलती रहेगी!

उन्हें लगा आज सचमुच वे बेहद अकेले हो गए हैं! थके कदमों से लौटते हुए उनके कानों में गुलाटी घड़ीसाज़ के शब्द गूंज रहे थे, “अब ये कभी नहीं चलेगी-बोलेगी शर्माजी! हमारी तरह पुरानी हो चुकी है, बहुत पुरानी! इसकी खराबी ठीक नहीं की जा सकती क्योंकि इसके पुर्जे अब आउटडेटेड हो चुके हैं!”


---अंजू शर्मा