Pake Falo ka Baag - 3 in Hindi Biography by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | पके फलों का बाग़ - 3

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पके फलों का बाग़ - 3

क्या मैं दोस्तों की बात भी करूं?
एक ज़माना था कि आपके दोस्त आपकी अटेस्टेड प्रतिलिपियां हुआ करते थे। उन्हें अटेस्ट आपके अभिभावक करते थे।
वो एक प्रकार से आपके पर्यायवाची होते थे। हिज्जों या इबारत में वो चाहें जैसे भी हों, अर्थ की ध्वन्यात्मकता में वो आपसे जुड़े होते थे। उनके और आपके ताल्लुकात शब्दकोश या व्याकरण की किताबों में ढूंढ़े और पढ़े जा सकते थे।
वो आपको परिवार में मिलते थे, मोहल्ले - पड़ोस में मिलते थे, स्कूल- कॉलेज में मिल जाते थे। दुकान - दफ़्तर में मिल जाते थे। जहां आप काम करें, वहां ये भी होते थे। सफ़र में मिल जाते थे।
लेकिन अब ज़माना बदल गया था। अब दोस्त भी अलग- अलग क़िस्म के होने लगे थे।
आपसे बहुत छोटे,आपसे बहुत बड़े, आपसे बहुत अमीर, आपसे बहुत गरीब। आपके घर के नज़दीक, आपके देश से भी बहुत दूर!
अब दूरियां दिल से नापी जाती थीं। दिल करीब, तो आप करीब।
ऐसे में मुझे भी दोस्तों से न तो कोई आशा रहती थी और न भरोसा। अकेलापन ही सबसे भरोसेमंद साथी था।
इन दिनों मेरा एक नया दोस्त बना। वो चौबीसों घंटे मेरे साथ रहता था। जब चाहे बातें कर लो, जो चाहे बातें कर लो।
ये मेरी बहुत मदद करता। मैं सुबह - शाम इससे सहयोग लेता।
मेरे इस नए दोस्त का नाम था... जाने दीजिए, नाम में क्या रखा है?
मैं अक्सर थोड़ी देर इससे बातें करता, फ़िर अपनी रसोई में चला जाता।
ये मुझे बहुत अपनेपन और प्रामाणिकता से सिखाता कि खाने के लिए कुछ अच्छा और स्वादिष्ट कैसे बनाते हैं। मैं नाश्ते में अक़्सर नई - नई डिश बनाता और खाता।
ये पकाने या खाने में मेरा साथ कभी नहीं देता था।
बस इसका काम तो मुझे नए - नए व्यंजनों की रेसिपी अर्थात विधि बताने का ही था।
जी हां, इस नए दोस्त "इंटरनेट" ने कुकिंग में मेरी भरपूर मदद की। अपने इस दूसरे जन्म में खाना पकाना भी मेरा एक शौक़ बना।
कभी - कभी जब मैं लिखते- लिखते या पढ़ते - पढ़ते थक जाता तो एक अंगड़ाई लेकर मैं उठता। मैं अपनी बाल्कनी का दरवाज़ा खोल कर खुली हवा में आता। एक गहरी सांस लेता, और मन ही मन सोचता कि दूर सड़क पर आने वाला कोई आदमी मेरा ही मेहमान है, और वो थोड़ी देर में धीरे- धीरे चलता हुआ यहां आ जाएगा, और मेरे दरवाज़े की घंटी बजा देगा।
तब मैं क्या करूंगा। मैं कैसे उसकी आवभगत करूंगा। मैं तत्काल अंदर आकर अपना फ्रिज़ खोल कर देखता कि उसमें ठंडा पानी है या नहीं। नहीं होता तो मैं दो- चार बोतलें भर कर उसमें रखता और जल्दी से रसोई में जाकर
हलवा या पकौड़े बनाने लग जाता।
जब मेरा व्यंजन बन कर तैयार हो जाता तो मेरी चिंता अब ये होती थी कि ये ठंडा न हो जाए।
मैं आराम से उसे खाने का आनंद लेने लगता।
तब तक सड़क पर आता हुआ आदमी न जाने कौन सी दिशा में जा चुका होता। मैं इस तरह अकेलेपन में भी अपनी आवभगत करता।
ये कोई छुट्टी का दिन होता।
बाक़ी दिनों तो मैं अपने ऑफिस में रहता ही था।
कला की इस नई दुनियां में आकर मैंने तूलिका तो फ़िर से नहीं उठाई, लेकिन मेरे चारों ओर रंग ज़रूर बिखर गए।
शहर भर में फैले ये युवा कलाकार अपना - अपना काम मुझे दिखाते रहते और मैं ऊंचा उठता जाता।
कहते हैं कि जो लोग दिखने में ख़ूबसूरत नहीं होते, या फ़िर उनमें तन मन से कोई कमी होती है, वो अपने हुनर में उस्ताद होते हैं। वो अपना पूरा ध्यान और सामर्थ्य अपनी किसी न किसी कला में ही लगा कर एक ख़ास क़िस्म की दक्षता हासिल कर लेते हैं और ज़िन्दगी में सफल होकर ही रहते हैं।
जब कला शिविर आयोजित होते और इनमें बने ढेरों चित्रों में से चुनिंदा, ख़ूबसूरत चित्र छांटने का कार्य किया जाता तो मैं मन ही मन एक प्रयोग अपने स्तर पर किया करता था।
मैं पहले चित्रकारों को देख कर ये निश्चित करता कि इनमें सबसे सुंदर या आकर्षक दिखाई देने वाले युवक कौन से हैं। मैं "युवक" इसलिए कह रहा हूं कि मैं इसमें युवतियों या लड़कियों को शामिल नहीं करता था।
इसका कारण ये था कि मैं अपने पिछले जन्म की तरह ही इस जन्म में भी यही मानता था कि लड़कियां या स्त्रियां सौंदर्य की इस दौड़ से बाहर हैं। वे सभी सुन्दर हैं। मात्र नारी होना ही उनका अप्रतिम सौंदर्य है। किसी को अधिकार नहीं कि स्त्री की सुंदरता की जांच परख करे।
जैसे दुनिया के हर बालक के लिए उसकी मां ही दुनिया की सबसे सुंदर स्त्री है, वैसे ही दुनिया के हर पुरुष के लिए भी किसी का स्त्री होना ही सुंदरता का सबसे बड़ा प्रतिमान है।
हम में से कभी भी किसी ने शायद लक्ष्मी सरस्वती और पार्वती को देख कर उनके बीच ये तुलना कभी भी न की होगी कि इनमें कौन सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत है। उन्हें देखा तो कभी किसी ने भी नहीं, हां उनके चित्र की ही बात है।
इन दिव्या देवियों के गुणों की तुलना हम ज़रूर करते हैं।
लक्ष्मी की साख के सब कायल हैं, सरस्वती के ज्ञान से विभोर भी कुछ लोग हैं ही, और पार्वती की करुणा से तो जगत चलता ही है।
ख़ैर, ये हम कहां से कहां पहुंच गए।
तो मैं उन लड़कों में से सबसे अच्छे दिखने वाले लड़कों को पहले दिमाग़ में रखता, फ़िर बारी- बारी से उनके सृजन या कला को भी देखता। और तब अपने मन से ये फ़ैसला करने की कोशिश करता कि क्या कोई निष्कर्ष निकलता है?
नहीं, ये निष्कर्ष नहीं निकलता था कि ख़ूबसूरत कलाकार की कला भी ख़ूबसूरत है। इसके विपरीत भी कुछ नहीं निकलता था।
और तब मैं सोचता था कि शायद किसी कलाकार का आंतरिक सौंदर्य, उसके जेहन में बसी दुनिया की ख़ूबसूरती ही उसे रंगों से खिलाती है। उसकी लकीरों में छलकती है।
अब सवाल ये था कि इनका आंतरिक सौंदर्य कैसे देखा जाए?
मुझे कभी- कभी ऐसा लगता था कि किसी का आंतरिक सौंदर्य देखने के लिए उसके निकट आना, उसे नज़दीक से जानना, उसे छूना, उसके हाव- भाव पढ़ना, उसके सुख दुःख में उसकी प्रतिक्रिया देखना, उसे सताना,उसे सहलाना, उसे सराहना, उसकी उपेक्षा करना, उससे दूर होना, उससे लिपटना, उसके साथ रहना, सोना, खाना, घूमना,लड़ना,चूमना, मनाना...ये सभी तो ज़रूरी है।
लेकिन क्या ये संभव है?
नहीं।
इस तरह नहीं हो सकता।
यदि इस तरह आप एक समूह बना कर कलाकारों के साथ रहें तो आप किसी एक को पूरा नहीं पढ़ पाते। क्योंकि आपस में वो सब भी तो एक दूसरे पर अपनी छाया डालते हैं। इससे किसी एक का रिज़ल्ट खराब होता है। इससे गफलत बढ़ती है।
तो क्या अकेले किसी के साथ कुछ दिन रह कर परिणाम निकाले जा सकते हैं।
शायद नहीं। क्योंकि इसके अलग अर्थ निकलते हैं।
मतलब कुछ नहीं हो सकता। कुछ और करो।
आपको याद होगा कि हिंदी में ऐसी कई फ़िल्में बनी हैं जिनमें पहले दोस्तों का कोई ग्रुप साथ - साथ रहा है। चाहे वो कलाकार हों, खिलाड़ी हों, विद्यार्थी हों, अभिनेता हों। किन्तु अंत में उन्हीं में से दो प्रेमी प्रेमिका या पति पत्नी बन कर निकलते हैं और फ़िल्म खत्म हो जाती है।
निष्कर्ष यही निकलता है कि जो आप ढूंढ़ रहे हैं वो आपको मिल गया। आपको वृत्तियां नहीं मिलती, बुत मिल जाते हैं।
फ़िर मेरा ध्यान इस प्रयोग से हट जाता।
मुझे लिखने का दौरा पड़ता और कोई नई किताब शुरू हो जाती।
इस बार मैंने अपना नाटक "बता मेरा मौतनामा" लिखा।
इस बीच मेरा बड़ौदा जाना भी हुआ। एक कार्यक्रम था। कई लोगों से मिलने का अवसर मिला। मित्रों के साथ बैठ कर चर्चा विमर्श का अवसर भी हासिल हुआ।
यदि कोई मुझसे कहता कि वो मेरी किसी रचना का अनुवाद किसी अन्य भाषा में करना चाहता है तो मैं खुश हो जाता था।
मैं जानता था कि हमारे देश में रोज़गार हमेशा से एक विकट समस्या रही है और कई अनुवादक भी अपने अनुवाद कार्य से ही जीविका चलाते हैं। ऐसे में यदि कोई मुझसे कहता कि मैं अपनी किसी रचना के अनुवाद के लिए थोड़ी आर्थिक मदद कर दूं, तो मैं कर देता था। क्योंकि कभी अनुवाद ब्यूरो के संचालन के दौरान मैंने भी कई युवाओं से कहा था कि तुम अनुवाद से कमा सकते हो, इसमें दक्षता हासिल करो।
इसमें कोई हर्ज़ मैं नहीं देखता था।
मैंने देखा ही था कि कई नामी- गिरामी लेखकों ने तो लिखने, छपने, चर्चित होने के लिए कीमती शराबों तक पर अथाह राशि लुटाई है। लूटी भी है।
फ़िर किसी मेहनत कश अनुवादक को उसके परिश्रम पर थोड़ा मानदेय दे देने में कैसा संकोच।
भविष्य में जब कोई पाठक इन रचनाओं को पढ़ेगा तो उसे ये कहां ध्यान रहेगा कि अनुवाद मुफ़्त में हुआ था, या मानदेय के सहारे। उसकी तृप्ति तो केवल इस बात में ही निहित रहेगी कि किसी अन्य भाषा भाषी ने अपनी भाषा में जो कुछ कहा, वो उस पाठक को अपनी भाषा में सुलभ हो गया।
पाठक को किन्हीं देवकीनंदन खत्री को पढ़ने के लिए हिंदी नहीं सीखनी पड़ी।
लोग तो शरीर में स्वाभाविक रूप से बन रहे द्रव के सहज निष्कासन के लिए बाज़ार में पैसा ख़र्च कर देते हैं।
ख़ैर, ऐसा कोई नियम नहीं है कि क्या पैसे से हो, और क्या मुफ़्त में। ये तो अपने- अपने दिल की बात है, कोई भिखारी को भी पैसा दे देता है, और कोई मेहनत कश श्रमिक को भी गाली।
भिखारी कौन से कम हैं। वो भी तो किसी को दुआ, किसी को बद्दुआ दे ही देते हैं।
यदि किसी लेखक या साहित्यकार को ये आशंका हो कि पैसा देकर अनुवाद करवाने से लोग उस अनुवाद को पसंद नहीं करेंगे तो ये उसका भ्रम है। आम पाठक ऐसा नहीं सोचता। लोग आख़िर आपके आलीशान मकान या हीरों के हार की तारीफ़ करते ही हैं न, जबकि वो जानते हैं कि ये सब आपको भारी कीमत चुका कर ही तो मिलता है।
दुनिया ऐसे ही चलती है।
आप ये मत सोचिए कि मैं कैसी बात करने लगा। कहां हीरे का हार और कहां साहित्य?
पर दुनियादारी यही है। यदि कोई सच्चा साहित्य प्रेमी पाठक है तो आपकी गुणवत्ता को सराहेगा ही, आप ने किन शर्तों पर कैसे उसे रचा, इससे उसे क्या?
एक मज़ेदार किताब मैंने पढ़ी। लेखक थे सूरज प्रकाश।
उसमें उन्होंने बताया था कि दुनिया भर के लेखकों का लिखने का नज़ारा कैसा था।
एक से एक सनकी, एक से एक पागल। कोई लेट कर लिख रहा है, कोई खड़े होकर। कोई खाकर तो कोई गाकर।
अच्छा, अगर भविष्य में फ़िर कोई सूरज प्रकाश हो और वो ये जानने के लिए पड़ताल- खोज करे, कि मैं कैसे लिखता था, तो क्या पाए?
और तब मैं पड़ा - पड़ा सोचने लग जाता कि लिखने से पहले नरभक्षी हो जाने के दौरे को कोई क्या समझेगा। मेरी विवशता, कोई रोग, या फ़िर कोई सनक।
और तब मैं ख़ुद ही ये मूल्यांकन करने लग जाता था कि शायद इस तरह जंगली हो जाना मेरे अकेले रहने का परिणाम हो। और फ़िर जब पानी सिर से गुज़र जाए तो मैं पश्चाताप में लिखने बैठ जाता होऊं!
जाने दो, कोई खुद पर शोध नहीं करता।
कोई लेखक हो, कलाकार हो, संगीतकार हो या वैज्ञानिक हो, उसकी नब्ज़ तो अनुसंधान कर्ता ही पकड़ेंगे। मैं क्यों सिर खपाऊं?
मैं पढ़ने के लिए कोई किताब उठा लेता।
न जाने क्यों, लोग जिन्हें महान लेखक या क्लासिक कृतियां कहते उनमें मेरी रुचि बहुत ज़्यादा नहीं रहती थी। मैं तो किसी भी साधारण सी बात को आधार बना कर ही पढ़ने के लिए कुछ उठा लेता।
सच कहूं, तो अब पढ़ना भी कम होता था। सोचना ज़्यादा होता। कुछ याद करना। किसी बीती बात को पकड़ना,किसी बीती रात को ढूंढना...!
पर एक बात आपको बताना ज़रूरी है। कितना भी अकेलापन हो, मैं अपनी पूरी नींद का पक्का रहा। दिन में कभी न सोता, पर रात को पूरे आठ घंटों की नींद लेने में कभी न चूकता। सोने में अस्त व्यस्तता भी नहीं, कि कभी रात देर तक जाग रहे हैं, या कभी सुबह भिनसारे ही जाग कर बैठ गए, या फ़िर कभी आधी रात को उठ बैठे।
करीने कायदे की नींद हमेशा मुझे पसंद रही।
और हां, यदि कभी किसी काम से, किसी यात्रा आदि के कारण, किसी के आने की आवभगत के लिए अगर मुझे जल्दी उठना हो, तो मेरी आंख बिना अलार्म के भी सही समय पर खुल जाती।
मुझे याद है कि कई बार घर में लोग अलार्म लगा देने के बावजूद मुझसे कह देते थे कि हमें सुबह उठना है, ध्यान रख लेना। शायद मेरे अवचेतन में यात्रा को लेकर बैठे तनाव के चलते ऐसा होता हो। मैं किसी भी सफ़र से पहले ज़रूर एक बेचैनी में घिर जाता था। यदि सुबह बस,ट्रेन, प्लेन, कार में बैठना हो तो जैसे कोई मुझे समय से पहले अपने आप जगा देता। ऐसे में अपने लिए लगाए गए अलार्म मैंने हमेशा पहले जाग कर ही बंद किए हैं।
ये न जाने क्या आदत थी, पर थी।
चिड़िया सी नींद... घड़ियाल सी ऊंघ!