खनार
(खण्डहर)
रमा कान्त उर्फ रमदा के बिल्कुल सड़क से सटे घर के आंगन में कार को पार्क कर उनकी छोटी सी परचून की दुकान में उनसे मुलाकात करने के लिये आगे बढ़ गया, बचपन में एक ही स्कूल में पढ़ते थे हम, दो साल सीनियर थे मुझसे, पढ़ने में अच्छे थे पर पुरोहिताई करने वाले पिता असमय ही चल बसे, किसी तरह दो साल मां की मेहनत, थोड़ा सा मलकोट का सहारा था जो इंटर कर ही लिया, इंटर के बाद अल्मोड़ा चले गये, किसी दुकान में काम करने लगे,
उन पर ईश्वर कृपा इतनी ही रही कि 'दिल्ली मुम्बई' जाने की प्रेरणा नही मिली, घर के सयाने थे हर समय मां छोटे भाई बहनों की चिन्ता सताती थी, पगार भी इतनी भर की अपना ही खर्च खींच तान के निकल पाता, पर एक बड़ी उपलब्धि ये हुयी कि दुकान में काम करते दुकानदारी सीख ली, दो साल बाद आत्मविश्वास आते ही गांव लौट आये और गांव में किराने की छोटी सी दुकान शुरु की, सफर ठीक-ठाक ही रहा, आज सड़क किनारे दो तल्ले का घर बना लिया है, नीचे तीन दुकान बना ली, जिन्दगी सहज हो गई,
मुझे देखते ही खुश हो आये, "अरे! ललित तू आ गया", कहते हुये मेरी ओर बढ़े और गले से लगा लिया..ठीक किया तूने..आते रहना चाहिये..पुरखों की थाती हुई यहाँ ..अपनी जड़े यहीं ठहरी..ये अपना विजुवा है जो आ जाये पलट के..तीन तीन साल हो जाते हैं पलट के नही आता..मैं शर्म से भर उठा मैं खुद सालों बाद यहां आया था,
ऐसी भी क्या नौकरी हुई, कहते रमदा की आवाज भर्रा गई, चेहरे में गहरी उदासी आस पास के वातावरण को भिगोने लगी थी, कुछ देर बाद रमदा अपने को संयत करते हुये बोले, "मैंने ही दो महिने पहले फोन किया था तुझे, इस बरसात छत बैठ गई तेरे घर की..कैसा खनार, उजाड़ सा हो गया है,
"हां ददा ऐसा ही हो गया..समय पर आ नही पाया" खिसयाया सा मैं बोला,
"चाय पी के चलते हैं, तू हाथ मुंड धो ले फिर देख आते हैं", तब तक बोज्यू एक गिलास में पानी और दो गिलासों में चाय और प्लेट में बिस्किट रख कर दुकान में ही ले आई, मैं हैरान था कि बिना कहे, मिले बोज्यू चाय ले आई थी, सिर्फ मेरी आवाज भर सुन कर, और हंसते हुये बोली "ललित लला कैसे हो...बहुत दिनों बाद आये हो..", मैं प्रणाम करके उत्तर देकर अपनी बात करता, इससे पहले ही वह यह कहते हुये चली गई कि "तुम चहा पीकर घर देख आओ, तब तक मैं खाना बनाती हूं"।
विजुवा उर्फ विजय रमदा को छोटा भाई मेरा क्लास मेट था, हम साथ ही इस गांव से निकले थे पढ़ने, रमदा ने पिता की भूमिका निभाई थी, और विजय ने कभी भी निराश नही किया, भारत की सेना के बड़े पद पर उसे देख कर गौरवान्वित तो मैं भी होता हूं, फिर रमदा कैसे भूल सकते हैं... उनका तो वो सगा भाई था,
मुझे याद है जब देहरादून सैनिक अकादमी की पासिंग परेड से लौटे थे, तो हर किसी को विजय की उपलब्धि बताते हुये उनकी आंखें डबडबा आती थी,
"चल ललित.. चाय खतम हो गई है तो चल..घर देख आते हैं, देवथान में हाथ भी जोड़ आयेगा",
हाँ दा चलो कहता मैं गिलास नीचे रख कर हड़बड़ा कर उठा,
घर के बगल की पगडंडी से नीचे उतर पुल पार कर गांव की की चढ़ाई चढ़ने लगे, बारह साल बाद अपने गांव की पगडंडी से चढ़ते हुये उन्हें पहचानने की कोशिश कर रहा था, उसे पक्का कर दिया गया था, इस साल बरसात में कई जगह पानी के बहाव से टूट गई लग रही थी,
मुझे को यकीन नही हो रहा था कि इतना वक्त बीत गया है, दो पीढ़ियां का अवसान हो गया, इसी पहाड़ी से नीचे उतर कर मैंने कई साल पहले इस गांव को छोड़ दिया था,
उस दिन पीछे मुड़ कर देखने की हिम्मत नही बची थी..अपने पल्ले से आँखों को पोछती मां और हिम्मत करके खड़े पिता अब मान ही चुके थे कि "निकल गया बेटा अब रोटी की लड़ाई के लिये..बस अब इस घर के लिये मेहमान भर ही रहेगा, कभी कभार आता जाता रहेगा", रमा दी और छुटकी विम्मी तीन दिन से उदास थी, आज निकलने लगा तो हिलक हिलक के रोने लगी, अमा ने दोनों को बाहर नही आने दिया, जोर से ड़ाठते हुये बोली "भीतेर जावो तुम, तस्सै डाड़ नी मारो, अपशकुन हुंछ,
आमा बूबू ने डबडबाई आँखों से उसे देखा, अमा अपनी रुलाई रोके हुये थी, दोनों के पांव छुये तो बूबू कुछ बुदबुदाते उसके सर पर हाथ रखा ..और अमा ने कुछ तुड़े मुड़े से नोट मेरी कमीज की जेब में रख दिये और गले लगा कर कुछ देर पीठ सहलाती रही, उसका अपना मन भी रुआँसा हो उठा, कोई तो कहे मत जा... बूबू ही उसे रोक लें, पर नही रोका था किसी ने उसे उस दिन, ज़िन्दगी बनाने की संकुचित अवधारणाओं की भेंट मैं चढ़ गया उस दिन ।
उस घर से निकल आने का सपना उसके अकेले का नही था, पूरे परिवार का सांझा सपना था, बाबू ने मेरे इन्टर में पहुंचते ही कहना शुरु कर दिया था, इस साल मेहनत कर ले अगले साल नैनीताल भेज दूंगा आगे पढ़ने को, हम ऐसे ही रह गये..मेरी जितनी सामर्थ्य होगी पढ़ाऊंगा.., बस हमारे सपने मत तोड़ना, कुछ नही रखा है इस खेती पाती में, तू जा अपनी जिन्दगी बना,
"ओ ललित देख तुम्हारी बाखरी आ गयी है" रमदा हाथ से इशारा करते हुये बोले, इस बाखरी में तेरा ही अकेला घर है जो नही बचा...बाकि के दरवाजे साल में एक आध बार खुलते ही हैं, पूजा के बहाने ही सही आते तो हैं, कुछ टूट फूट होती है तो ठीक करा जाते हैं, पर तू तो ऐसा गया कि भूल ही गया ...
कका को गये बारह साल हो गये हैं.. उन्हीं की बरसी करने आया था तू, यह कह कर वो चुप्पी लगा गये, वातावरण की नीरवता में ये खनार जो कभी चहकता था लगा सिसक रहा है..उसकी सिसकिया मेरे मन से होते हुये मेरे कानों तक आ रही थी,
मेरी नजर नीले उड़े पेंट वाले दरवाजा में जा टिकी, बिल्कुल सही सलामत था और उसमें लगा ताला भी, पर छत पूरी बैठ गई है, तभी रमदा संवेदनशील कंपन भरी आवाज में हास्य डालने की कोशिश करते हुये बोले "घर में ताला खोल के जाता है या सीधे छत से कूद कर", मैं मुस्कुरा के रह गया,
पर मन में एक धौल सी पड़ी, कैसा भरा पूरा घर था ये अमा, बूबू, ईजा, बाबू, रमादी, छुटकी विम्मी सबके साथ सालों साल चहचहाता था ये घर, इसका गोठ कभी गाय के बिना नही रहा, आज खनार पड़ा है, पुरानी यादें उदासी में डुबोना चाहती थी, पर अपने को संभालते बोला, ददा ये तो बिल्कुल ही बैठ गया ..क्या हो सकता है इसका अब ?
रमदा ध्यान से घर देखते हुये कुछ सोच कर बोले "ठीक करा..इसको ठीक कराने में खर्चा तो है, लकड़ी तो किसी काम की नही बची है...छत के पाथर भी टूट चुके है, मंहगाई भी कम नही है,
कितना तक खर्चा आ जायेगा ? पुरखों की थाती को इस हाल में देख मेरा दिल भर आया था,
घर चल कर ही बैठ कर बात करते हैं, रामी मिस्त्री को बुला लेता हूं, वही बतायेगा हिसाब किताब... वैसे तो घर के हाल देखते हुये लग रहा है अगर पाल और छत ठीक करा लेता है तो भी ढाई तीन लाख तो लग ही जायेगा,
"चल फिर पहले देवथान में जाकर हाथ जोड़ आते हैं, पण्डित जी तो अब होगें नही, मन्दिर खुला ही रहता हैं" यह कहते हुये रमदा आगे खेत की ओर निकल गये, , खेत नही था ये बाड़ा था जिसमें हर सीजन के हिसाब से ईजा अमा मिल कर सब्जी उगाते थे, आलू, पालक, राई, मैथी, टमाटर, कद्दू, लौकी, तौरई, ककड़ी, कुछ आडू, खुमानी, प्लम, नाशपाती के पेड़ थे, जिनमें कुछ इक्के-दुक्के दुक्के फल बचे थे,
बन्दर और कई अड़ोसी पड़ोसी से बाड़ी की रखवाली करनी पड़ती थी, खास कर ककड़ी की, ककड़ी चोरी चोरी नही होती थी, बल्कि कला की तरह समझते थे हम, कच्ची हरी सी मुलायम ककड़ी की याद आते ही उसकी खुशबू अंदर महसूस करने लगा था, अपने बाड़े में ककड़ी होते हुये भी कई बार तल्ला गांव के जनार्दन कका के बाड़े से ककड़ी चुराई थी, अक्टूबर के आस पास ककड़ी लगती और रामलीला का समय होता, विजय और मैं रामलीला जाने का प्रोग्राम बनाते, दिन में सर्वे कर लेते किस किस की बेलें ककड़ी से लदी हैं, ये याद आते ही एक मुस्कान चेहरे में बिखर आई, जिसे में अंदर तक महसूस कर रहा था,
इसी बाड़े के अन्तिम छोर से एक पगडण्डी ढ़लान की ओर जाती थी, दाहिने हाथ की ओर ऊपर कुछ मकान थे, सभी के दरवाजे खुले थे, पर बाहर सन्नाटा पसरा था, सब अपने काम में व्यस्त होगें, खुले दरवाजों को देख कर अज्ञात खुशी महसूस हुई,
तभी आवाज सुनाई दी "ओ रामी ..आज यां कस्सै"...विजय ऐरो के ? एक नये बने मकान के छज्जे से आवाज आई,
"काकी पैलाग" विजुवा ने ऐरो..ललित छ .. छान कुड़ी को..." कहते हुये रमदा ने वही से हाथ जोड़े,
अरे ललित..चेला कस छ तें....ईज ठीक छ तेरी, बैठ पें चहा पी बेर जाये..
वही से हाथ जोड़ते हुये मैंने कहा "होय ठीक छू .. ईज ले ठीक छन, आपुं ठीक छ काकी?..चहा ऐल ने, फिर ऊंल...मैंने प्रश्न वाचक नजरों से रमदा को देखा,
नही पहचाना ! सुनील की ईजा है, तुम्हारे ही साथ पढ़ता था,
ओह .. लगा तो, पर घर कुछ बदला सा लगा,
बढ़िया घर बना लिया है सुनील ने, सुनील और उसकी घरवाली यही आस पास प्राईमरी स्कूल में नौकरी करते हैं, घर से ही आते जाते हैं,
सुनील हमारे बचपन का साथी, पिताजी बचपन में गुजर गये थे, साथ पढ़े खेले, पर अब बहुत कम मुलाकात हो पाता थी उससे, दुबला पतला, पढ़ने में सामान्य था, इन्टर के बाद अल्मोड़ा मामा के पास चला गया था, फिर कभी मुलाकात नही हुई,
नीचे गाड़ पार कर पेड़ों के झुरमुटों के बीच ईष्ट देवता के मन्दिर में पहुंच गये थे, पहले कई बार आया था यहां, कोई पूजा, शादी ब्याह का पहला निमन्त्रण, अन्न, फल, साग सबका पहला भाग चढ़ाने ईजा के साथ आता, दिया जला ईजा मान विनती करती, मैं हाथ जोड़े खड़ा रहता, जया के साथ बच्चों को लेकर भी आया था, पर आज अकेले अन्दर बाहर अजीब सी निसब्धता, उदासी महसूस कर रहा था,
जूते उतार हाथ धो मन्दिर के अन्दर गया, कुछ फूल चढ़े, जो मुरझाये से थे, कुछ आडू खुमानी चढ़ाये थे, शायद पहली फसल आई होगी, आंख बन्द कर हाथ जोड़ कर बैठ गया, याद नही आया कि याचना भी कर सकता हूं, खनार पड़ा घर ही आंखों में तैरता रहा, कुछ पैसे दान पात्र में डाले, लौटते हुये इतना ही कह पाया "हे ईश्वर जल्दी जल्दी बुलाया करो, रमदा भी अपनी प्रार्थना कर चुके थे, बोले "चले फिर अब, "
रमदा तेज तेज कदमों से चढ़ाई उतराई कर रहे थे, मैं अपने को थका निढाल महसूस कर रहा था, गांव के घर की इस हालात को देख कर मन खराब महसूस कर रहा था, काश कुछ पहले आया होता, घर को ठीक ठाक करा देता तो इतनी बुरी हालत में घर नही होता, मन कह रहा था कि इसे ठीक करा के ही जाया जाय,
अचानक मन नोएडा में बहुत मेहनत से बनाये अपने घर की ओर चला गया, कई साल पहले तब तो बाबू भी थे कुछ अपनी छोटी सी बचत और लोन लेकर छोटा सा प्लाट खरीदा था, अभी तीन साल पहले उसमें डुप्लेक्स हाउस बनाया था, क्या हमारे सपनों का घर ऐसे ही कभी नीरव, एकाकी रह जायेगा? मन उदासी में डूबने लगा था, कितने प्रश्न उमड़ घुमड़ आये, इस नकारात्मक को झटक देना चाहता था, बच्चे हैं उन का भी तो कुछ भावात्मक लगाव बना रहेगा, जैसे मैं सोच रहा हूँ इस घर के लिये,
उसे बेटी शैलजा का ध्यान आया, यहां से जाकर उसकी सेमेस्टर फीस भरनी है, बेटे अनुभ ने कई जगह के एंट्रेंस एक्जाम दिये हैं, निकल जायेगा तो उसके एडमिशन के लिये पैसे चाहिये, तीन साल पहले ली कार की किश्त, मकान की किश्त, मां साथ हैं उनकी भी हारी बीमारी लगी रहती है, हालाकि मां और पत्नी जया कभी कुछ मांगती नही, जया बहुत संभल कर घर चलाती है, पर कभी कभी हिसाब करते करते उसकी खीज उदासी में बदल जाती, ऐसे समय में मैं अपनी आंखे चुराता और अनजान बना रहता,
पहले एक स्कूल में पढ़ाती थी जया, पर घर की जिम्मेदारी, बच्चे, महानगर की भागमभाग के चलते परेशान होकर नौकरी छोड़नी पड़ी थी, कभी कभी ग्लानि होती,
ईजा ने कुछ साल पहले कहा भी था "कि गावं के मकान की धुरी समय पर बदली जाती तो घर बच जायेगा", रुपये पैसे, किश्त, जिम्मेदारियां, लगातार बढ़ते हुये खर्चे सब कुछ दिमाग में गड्म गड होने लगा, आंखों में अनायास ही अंधेरा सा महसूस हुआ, लगा इस ढ़लान से गिर पडूंगा, वही पर बैठ गया,
रमदा ने पलट कर पीछे देखा, "अरे क्या हुआ ..थक गया क्या..ठीक है ना तू,
"हां ठीक हूं ददा", जबरन हंसते हुये मैंने कहा, आप चलो मैं आ रहा हूं, दो मिनट बैठ कर अपने को संयत करता हुआ मैं उठा और चल पड़ा,
रमदा के घर पहुंचते पहुंचते मैं सारा हिसाब लगा चुका था, कहीं भी एक पैसा निकल आने गुंजाइश नही दिख रही थी, बेबसी सी महसूस हो रही थी,
घर के आंगन में पहुँचते ही ददा ने पीछे मुड़कर देखा मैं अपने को घसीटता हुआ उनसे कुछ ही पीछे था, वो हंस कर बोले "थक गया रे भुला तू, पहाड़ के बानी का नही रहा ...भूख भी लगी होगी?
नही दा भूख नही है, सुबह हल्द्वानी में रमादी ने नाश्ता करा दिया था, वो तो खाना भी रख रही थी, मैंने ही मना किया, "कि रमदा के होते हुये क्यों ले जाऊं", हां थकान तो है, सुबह जल्दी उठ गया था, फिर इतनी लम्बे पहाड़ी रास्तों की ड्राइव..ये कहता हुआ मैं कार की पिछली सीट में रखी मिठाई और फल का पैकेट निकाल कर ददा के पीछे सीढ़ी चढ़ने लगा,
अच्छा घर बनाया था ददा ने, पहाड़ के गांव के हिसाब से लगभग सभी सुविधायें थी घर में, कमरे में पहुंचा तो पहाड़ी खाने की खुशबू कमरे में भरी थी, रसेदार पहाड़ी बड़ी और ककड़ी के रायता की खुशबू से भूख महसूस होने लगी,
तब तक बोज्यू आ गई बोली "देख्या छा", नक लग्यो हो", मैंने कोई उत्तर नही दिया, दयनीय सी मुस्कान चेहरे मैं फैल आई, खाना लगाती हूं, तुम बैठो, मैंने सहमति में सर हिलाया, और मिठाई बोज्यू को पकड़ा दी, 'अरे ये जरूरी हुआ क्या' कहते हुये पैकेट लेकर अंदर चली गई,
ललित.. बुलाऊँ फिर रामी को! रमदा की आवाज सुन मैं चौंका,
नही..नही.. दा, जाड़ो में आऊँगा ईजा को लेकर, तब ही होगा ये काम, कभी समय मिले तो आप मिस्त्री से पूछ लेना, कैसे क्या होगा, पैसे वैसे का क्या हिसाब रहेगा, बिना सर उठाये मैं बोलता रहा, मैं नही चाहता था वो मेरी आँखों में कुछ भी पढ़ पाये,
हां ठीक है, अपने हिसाब से ही करना हुआ काम, ऐसा ही कर, जब सुविधा हो तब करना, तेरे भी खर्चे बहुत हुये, पता ही ठहरा, जैसी कमाई वैसे भी खर्चे भी होने वाले हुये बड़े शहरों में...ईजा को लेकर आना तभी काम करना सही हुआ ...उन्हें गांव का सब अंताज भी हुआ...ददा बोले जा रहे थे..
बोज्यू दो थालियों में खाना दे गई, रसेदार बड़ी, भात, पहाड़ी रायता, आलू मैथी, रोटी, खाने से उठती सुगन्ध अब महसूस नही कर पा रहा था.. मेरी भूख अचानक गायब हो गई थी, पर खाना तो खाना था, ददा स्वाद लेकर खा रहे थे ..मैं स्वाद तलाश रहा था, मेरी बेबसी स्वाद तक पहुंचने नही दे रही थी, पर मैं खा रहा था, आज नही'.. 'कभी तो'.. की उम्मीदों के साथ।
डा.कुसुम जोशी
गाजियाबाद, (उ.प्र)