बीता हुआ कल
गोपाल माथुर
रात शाम की दहलीज पर आते आते ठिठक गई थी. शाम ने उसे रोक रखा था. पर केवल रात ही नहीं, बहुत कुछ ठिठका हुआ था. लग रहा था कि ठिठके हुए इस समय से अलग भी कोई अन्य समय था, जो भीतर आने के लिए दस्तक दे रहा था, लेकिन दरवाजा खोलने वाला कोई नहीं था. मुझे पता था कि देर सबेर मुझे हीे दरवाजा खोलना ही पड़ेगा.
यहाँ आने से पहले मेरा मन उत्साह से भरा हुआ था. दस बरस बाद मैं एक बार फिर अपने पुराने दोस्तों से मिलूँगा, जो काॅलेज की एल्युमनी पार्टी में इकट्ठे हो रहे थे, काॅलेज के कोने कोने में घूमूँगा, लाइब्रेरी, ओपन एयर थियेटर, ह्यूमेनिटीज हाॅल, बुक वल्र्ड..... उन सब जगहों पर जाऊँगा, जहाँ कभी मैंने अपने बसंत के दिन गुजारे थे. अपनी चिर परिचित जगहों पर घूमते हुए बीते हुए दिन एक बार फिर जीवित हो उठेंगे. वे अपनी पहचान के साथ मुझसे हाथ मिलाएँगे और बीता हुआ कल एक बार फिर जीवित हो उठेगा.
शाम का पहला तारा उग आया था. अकेला तारा, जो मेरेे मन में हमेशा उदासी भर दिया करता था. दूर तक बादल का एक टुकड़ा भी नहीं था. पक्षियों की एक लम्बी अर्धचन्द्राकार कतार चुपचाप उड़ी जा रही थी. उसे देखने वाला कोई नहीं था, एक मुझे छोड़ कर, जो अपने गेस्ट हाउस के कमरे की खिड़की पर खड़ा आकाश को बस यूँ ही निहार रहा था. शाम होते ही मन पता नहीं कैसा होने लगता है. कमरे में बैठे रह पाना दूभर हो जाता है.... मैं भी कमरे में रुक नहीं सका था.
मैं काॅलेज गेस्ट हाउस के बाहर आकर फुटपाथ पर यूँ ही खड़ा रहा. सड़क पर अच्छा खासा ट्रेफिक था पर मुझे अपना एक भी परिचित दिखाई नहीं दिया. एक समय था जब यही सड़क परिचितों से भरी रहा रहती थी. कुछ कदम चलते ही कोई न कोई हाथ मिलाने वाला मिल जाया करता था. वे हाथ कहाँ चले गए ? आज वे क्या कर रहे होंगे ? क्या मैं भी उनकी स्मृति में होऊँगा ?
इन दस सालों में शहर पूरी तरह से बदल चुका था. बड़ी बड़ी इमारतें, शाॅपिंग माॅल्स, जगमगाती दुकानें, भागता दौड़ता ट्रेफिक..... वह शहर कहीं खो गया था, जिससे मिलने की आस लिए मैं यहाँ आया था. हालांकि मैं जानता था कि दस वर्षों के लम्बे अन्तराल में कौन नहीं बदल जाता ! क्या मैं स्वयं वह रह पाया था, जो कभी हुआ करता था ! इस अहसास के बावजूद भी मुझेे एक एकांत किस्म की उदासी ने आ घेरा था.
सहसा मुझेे याद आया कि उन दिनों काॅलेज के सामने चाय नाश्ते की कुछ थड़ियाँ हुआ करती थीं, जहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ अक्सर चाय पीने जाया करता था. मुझेे गोलू की भी स्मृति हो आई, जो उन्हीं में से एक दुकान पर काम किया करता था. उसकी छोटी और गोल मटोल काया के कारण सभी उसे गोलू नाम से बुलाया करते थे. क्या वह आज भी वैसा ही गोल मटोल होगा ? जैसे वह मेरी स्मृति में है, क्या मैं भी उसकी स्मृति में होऊँगा ? क्या वह मुझे पहचान लेगा ? गोलू से मिलने की कल्पना मात्र से मेरा खोया हुआ उत्साह सहसा लौट आया था.
सड़क पार करके मैं काॅलेज के ठीक सामने आ गया. जहाँ कभी छोटी छोटी थड़ियाँ हुआ करती थीं, अब वहाँ पक्की दुकानें बन चुकी थीं. किताबों, कम्प्यूटर, फोटोस्टेट आदि की दुकानें.... कुछ चाय की दुकानें अब भी थीं, पर उनमें से गोलू वाली कौन सी होगी, इस बात का पता लगाना कठिन काम था. प्रत्येक दुकान में झांक झांक कर देखने की बेहूदगी मुझसे की नहीं जा रही थी. मैंने एक दुकान पर चाय पीने का निर्णय लिया.
”एक चाय ?“ मैंने एक दुकान में बैठते हुए कहा.
”स्पेशल बना दूँ ?“
”हाँ, बना दो.“
मैं दुकान में काम करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को ध्यान से देखने लगा. शायद कोई पुराना परिचित चेहरा दिखाई दे जाए. पर वहाँ कोई भी जाना पहचाना व्यक्ति मुझे दिखाई नहीं दिया. परिचय की पोटली को एक ओर सरका कर अपरिचय ने वहाँ अपना घर बना लिया था.
”सुनो.“ जो लड़का चाय देने आया था, मैंने उससे पूछा, ”दस साल पहले यहाँ गोलू नाम का एक लड़का काम किया करता था. जानते हो उसे ?“
उसने गर्दन हिलाई और चला गया. चाय खालिस दूध में बनी हुई थी. मुझेे विशेष पसंद नहीं आई. मैं प्रायः कम दूध और कम चीनी वाली चाय पसंद किया करता था. बेहतर होता यदि मैं ओर्डिनरी चाय का ओर्डर देता. पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था. किसी तरह मैंने चाय खत्म की और काउन्टर पर आ खड़ा हुआ.
”साहब, कहीं आप उस गोलू के लिए तो नहीं पूछ रहे, जो गब्बन की दुकान पर काम किया करता था.“ काउन्टर के पीछे खड़े आदमी ने मुझसे पैसे लेते हुए पूछा.
गब्बन नाम सुनते ही मुझेे बीते हुए कल का यह नाम याद आ गया, जो अब भी मेरी डाउन मेमोरी लेन में कहीं दर्ज था, ”हाँ, उसी के बारे में पूछ रहा था.“
”आपको नहीं मालूम ? उसने तो दस साल पहले ही आत्महत्या कर ली थी.“ दुकान वाला पैसे लौटाते हुए बोला.
”क्या बात कर रहे हो ! कैसे ? क्यों ?“ यह सुनते ही मैं सन्न रह गया था.
”यही होना था साहब. उसे इसी काॅलेज की एक लड़की से प्यार हो गया था, जो अपने दोस्तों के साथ यहाँ चाय पीने आया करती थी.“
”फिर ?“
”फिर क्या साहब, एक दिन उसने लड़की से यह बात कह दी.उस लड़की ने आव देखा न ताव, एक जोरदार थप्पड़ उसके गालों पर रसीद कर दिया. दोस्तों ने मारा, सो अलग...... दूसरे ही दिन वह घर पर लटका हुआ पाया गया.“
मैं भौंचक्का सा सुनता रह गया.
”दोनों में कोई मेल ही नहीं था साहब. कहाँ वह काॅलेज में पढ़ने वाली बड़े घर की लड़की और कहाँ वह अनपढ़ गँवार ! यही अन्जाम होना था.“
मेरे लिए वहाँ और रुक पाना संभव नहीं हो पा रहा था. बीता हुआ कल इस भयावह रूप में मेरेे सामने आ खड़ा होगा, यह मैंने नहीं सोचा था. गोलू का ठिगना, गोल मटोल शरीर मुझेे बार बार याद आ रहा था. असमर्थ होने के बाद भी वह हमेशा साफ सुथरा रहना पसंद किया करता था, दूसरी थड़ियों पर काम करने वाले लड़कों से अलग. सभी उसे पसंद किया करते थे. पर उसकी कहानी का यह अन्त होगा, इस बात पर सहसा मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था. प्रेम करना एक बात है और प्रेम पाना दूसरी. आवश्यक तो नहीं कि आप जिससे प्रेम करो, उसे पा भी लो ! यदि प्रेम नहीं मिल पाए, तो क्या मृत्यु ही एकमात्र विकल्प बचता है !
क्या सोच कर मैं इस शहर में लौटा था, कि पुराने दिनों की स्मृतियों को फिर से जीवित करूँगा, जो लोग मेरे विगत का हिस्सा बन गए हैं, उनसे एक बार फिर मिलूँगा.... वह सब क्या हुआ ! अतीत का एक टुकड़ा इस रूप में भी मेरे सामने आ खड़ा होगा, यह मैंने पहले नहीं सोचा था..... कैसे लोग खो जाते हैं ! जो एक बार बिछुड़ जाए, उसका दुबारा मिल पाना महज संयोग से ही संभव हो पाता है.... और मृत्यु उस संयोग की भी हत्या कर देती है.
पर तब नहीं जानता था कि अभी प्रेम का एक दूसरा चेहरा देखना बाकी है.
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रात को पार्टी में मैं सबसे अंत में पहुँचा. डीजे वाला अपने पूरे उत्साह के साथ जोर जोर से गानेे बजा रहा था और कुछ लोग डांस फ्लोर पर नृत्य कर रहे थे. मैं उन्हें जानता था. हम सबने साथ साथ एमबीए किया था. फ्लोर से कुछ दूर कोने में ड्रिंक्स टेबल पर भी मेरे कुछ पुराने सहपाठी बैठे हुए थे. उन्होंने मुझेे अपने पास बिठा लिया. शराबें शराबों में मिलीं, चीयर्स की आवाजें गूँजीं और शोर उठा. डांस करते हुए लोगों ने मुझेे भी फ्लोर पर खींच लिया. मुझेे डांस करना आता नहीं. मैं यूँ ही हाथ पांव चला रहा था. जल्दी ही मैं उसी टेबल पर लौट आया, जहाँ अब कोई नहीं था.
काफी देर तक मैं चुपचाप अकेले ड्रिंक ले रहा.
”आरोह ?“ किसी ने मेरेे कंधे पर पीछे से हाथ रखा.
मैं घूमा और चैंक गया, ”अरे त्रिपाठी, तुम ! तुम कब आए ? दिन में सेमिनार में हम तुम्हें एक्सपेक्ट कर रहे थे“
मैं उठ खड़ा हुआ.
”अभी कुछ देर पहले ही.... चेक इन अभी किया ही है. आॅफिस में कल मिनिस्टर की विजिट है, इसलिए बीमारी का बहाना बना कर आना पड़ा है.“ त्रिपाठी ने मुझेे गले गला लिया था.
”अच्छा हुआ तुम आ गए. मैं बहुत अकेला महसूस कर रहा था.“ मैंने त्रिपाठी को अपने पास बिठा लिया और ड्रिंक का गिलास उसकी ओर बढ़ा दिया.
गोलू की त्रासदी से जो उदासी मुझ पर तारी हो गई थी, वह त्रिपाठी के आ जाने से सहसा धूमिल होने लगी थी. मेरा खोया हुआ उत्साह लौट आया था. एक वही था, जिससे मैं अपने मन की अनेक बातें शेयर कर सकता था. मैं ही नहीं, वह भी अपने सारे भेद मुझे सौंप कर निश्चििंत हो जाया करता था. सहसा मुझेे वे दिन याद हो आए, जब हम दोनों हर शाम अपने काॅलेज के केम्पस में घन्टों बातें करते हुए सड़कों पर भटका करते थे. एक बार हम जब बात करना शरू करते थे, तो उन बातों का दूसरा सिरा कहीं नजर नहीं आता था. सड़क किनारे लगे लेम्प पोस्ट्स, अशोक के आकाश छूते पेड़, लाइब्रेरी का लम्बा बारामदा.... सब चुपचाप हमारी अन्तहीन बातें सुना करते थे. ये सब ही नहीं, हम दोनों कितने अच्छे दोस्त थे, यह बात किसी से भी छिपी नहीं थी.
किसी ने हमें साथ साथ देख लिया था और देखते ही देखते सारे पुराने दोस्त हमारेे पास आ गए थे. सब एक दूसरे से मिल रहे थे, गले लग रहे थे, हँस रहे थे. कोई क्या कह रहा था, इस बात की किसी को कोई परवाह नहीं थी. डीजे अपनी सारी ताकत लगा कर म्यूजिक बजाए चला जा रहा था. डासिंग फ्लोर पर अब भी कुछ लोग थिरक रहे थे...... कि तभी वहाँ किसी ने शैम्पेन की बोतल का ढक्कन खोला और एक फव्वारा फूट निकला. जोर से चीयर्स की आवाज का एक शोर उठा और सब एक बार फिर थिरकने लगे. सुर कहीं जा रहे थे और पाँव कहीं और. पर किसी को इतनी फुरसत नहीं थी जो इन बातों पर ध्यान दे.
पहली बार मुझे लगा कि मैंने यहाँ आकर कोई गलती नहीं की थी. शाम को जो उदासी घर कर गई थी, वह सहसा दूर हो गई थी. थोड़ी देर बाद मैं त्रिपाठी का हाथ पकड़ कर ड्रिंक्स काउन्टर पर ले आया. हम दोनों ने अपने अपने गिलास टकराए, चीयर्स की आवाज हुई और फिर हम पीने लगे. त्रिपाठी ने अपनी पत्नी और बच्चों के बारे में बताया और आॅफिस की व्यस्तताओं के बारे में भी. साथ साथ वह यह भी जताता जा रहा था कि वह सरकार में कितनी महत्वपूर्ण पोस्ट संभाले हुए था. हालांकि मुझेे यह सब सुनते हुए खीज ही हुई थी.
”अब तो तुमने वह सब पा लिया, जिसके सपने तुम देखा करते थे. अच्छी नौकरी है, बीवी बच्चे हैं..... खुश हो ?“ मैंने पूछा.
एकाएक वह कुछ नहीं बोला. फिर सोचते हुए कहने लगा, ”खुश होना भी बड़ी अजीब चीज होती है. कभी भी पूरी पूरी नहीं मिलती.“ पल भर के लिए वह ठिठका, ”कभी कभी बहुत अकेलापन महसूस होता है.... उसकी बहुत याद आती है.“
त्रिपाठी का संकेत मैं समझ गया था. उसका इशारा अनन्या की ओर था. उसके जीवन में वह नहीं थी, शायद इसलिए सबसे अधिक थी.मैं चाह कर भी उसे नहीं बता सका कि अनन्या भी आई हुई है और उसने दिन में सेमिनार भी अटेन्ड की थी. मैं उसके दुःख को और नहीं बढ़ाना चाहता था.
”और तुम ?“ सहसा त्रिपाठी ने मुझसे पूछा.
”कुछ खास नहीं.... बस, गुजर रही है जिन्दगी.“ पहली बार मुझेे त्रिपाठी को अपने विषय में कुछ बताने में असहजता महसूस हुई. शायद बीच में पसरे दस सालों ने मुझे भी बदल दिया था.
तभी सहसा सारा हुडदंग रुक गया. सिर्फ डीजे की आवाज आ रही थी. सब लोग दरवाजे की ओर देखने लगे थे. हमनेे देखा कि नीलिमा और अनन्या प्रवेश कर रही थीं. वे दोनों भी हम लोगों के साथ एमबीए में पढ़ा करती थीं. दिन में मैंने उन्हें सेमिनार में देखा था. सेमिनार खत्म हो जाने के बाद वे दोनों नीलिमा के किसी परिचित के घर चली गईं थीं. अनन्या को भी नीलिमा ने अपने साथ ही रुका लिया था, ताकि उसे अकेलापन महसूस न हो. किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे दोनों रात की ड्रिंक्स पार्टी में आएँगी.
अगले ही पल सब उन दोनों की ओर खिंचे चले गए. सारे दोस्तों ने उन्हें घेर रखा था. थमा हुआ शोर एक बार फिर बह निकला था. किसी ने नीलिमा और अनन्या को भी बीयर की बोतलें थमा दी थीं. वे मुस्कराते हुए एक टेबल पर बैठ गई थीं, जहाँ कई लोग उन्हें घेरे हुए उनसे बातें कर रहे थे. सारे दोस्त मानों कुछ ही पलों में उन दोनों के पिछले दस साल जान लेना चाहते थे. दिन में सेमिनार के समय की औपचारिकता अब शेष नहीं बची थी.
सहसा मेरी निगाह त्रिपाठी की ओर गई. उसका चेहरा पीला पड़ गया था. उसे शायद उम्मीद नहीं रही होगी कि वह अनन्या से इस प्रकार मिलेगा. अतीत की गहरी काली छाया ने उसे अपने घेरे में ले लिया था. वह अपना चेहरा दूसरी ओर घुमाए हुए था, ताकि वे दोनों उसे नहीं देख सकें.
”त्रिपाठी.....“ मैं सिर्फ इतना ही कह सका.
त्रिपाठी ने एकाएक कुछ नहीं कहा. मेरी ओर देखा भी नहीं. वह अपना गिलास दोनों हथेलियों के बीच पकड़े हुआ था, ”मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि ये दोनों भी यहाँ आएंगी. मैंने पाण्डे से पूछा भी था. वह मना कर रहा था. पहले पता होता तो आता ही नहीं......“
दिन में सेमिनार रूम में मैंने नीलिमा और अनन्या को देखा था और उन्हें विश भी किया था. नीलिमा कुछ मोटी हो गई थी और बीते हुए दस वर्षों की छाया उसके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई देने लगी थी, जबकि अनन्या वैसी ही थी, पतली दुबली और आकर्षक. कोई उसे इतने वर्षों बाद अचानक देख कर भी आसानी से पहचान सकता था. समय मानों उसके लिए रुक सा गया था. वह जिस तरह मुझेे बार बार देख रही थी, उससे मुझे लग रहा था कि वह कुछ कहना चाहती थी. मैं उससे बात करना चाहता था, पूछना चाहता था, उसके साथ बीते हुए दिनों में जाना चाहता था, पर मेरे कुछ पूछने से पहले ही वे दोनों कब वहाँ से चली गई, मुझे पता ही नहीं चल पाया था. उनके घर चले जाने के बाद भी मैं देर तक अनन्या की उदास निगाहें भूल नहीं सका था. उसकी निगाहें छूट कर भी छूटी नहीं थीं, पीछा करती रही थीं, किसी जासूस की तरह नहीं, उस व्यक्ति की तरह, जिसे आप पिछले स्टेशन पर छोड़ आए थे, पर वह व्यक्ति वहाँ उतरा नहीं था, आपके पीछे पीछे चला आया था.
क्या वह त्रिपाठी के विषय में कुछ पूछना चाह रही थी ? त्रिपाठी सेमिनार में नहीं पहुँचा था और वहाँ केवल मैं ही था, जो अनन्या को उसके विषय में कुछ बता सकता था. पर संवाद जो होने थे, होने से रह गए थे. एक खाली जगह छूट गई थी.
पार्टी में अनन्या को देख कर त्रिपाठी वह नहीं रह था, जो उसके आने से पहले था. उसके चेहरे पर एक पीली छाया उतर आई थी. लग रहा था, जैसे उसका सारा उत्साह भी बुझ गया हो. उसकी निगाहें अपने गिलास में गढ़ी हुई थीं. अतीत अपनी पूरी शिद्दत के साथ ठीक उसके सामने आ खड़ा हुआ था.
”त्रिपाठी, दस साल बहुत होते हैं यार ! अब तक तो अनन्या सब कुछ भूल चुकी होगी.“ मैंने उसे आश्वासन बँधाया, हालांकि अपनी बात पर मुझे स्वयं ही विश्वास नहीं था. दिन में सेमिनार के बाद देखी अनन्या की उदास निगाहें अब भी मेरी स्मृति में थीं.
त्रिपाठी कुछ नहीं बोला. उसकी खामोशी अपनी भाषा बोलने लगी थी. शायद वह दस वर्ष पहले के उसी बिन्दु पर नहीं लौटना चाहता था, जहाँ वह अनन्या से अलग हुआ था. अनन्या तो त्रिपाठी से तुरंत विवाह करना चाहती थी, पर त्रिपाठी को पहले कुछ बनने की ऐसी धुन सवार थी कि उन दोनों के बीच दूरियाँ कब बढ़ गईं, उन्हें भी पता नहीं चल पाया था. त्रिपाठी अपने कैरियर के बारे में सोचता रहता और अनन्या घर बसाने के सपने देखा करती. इस जद्दोजहद में त्रिपाठी का कैरियर तो बन गया, पर अनन्या का सपना, सपना ही रह गया.
मैंने त्रिपाठी की ओर देखा. कुछ पाने की जिद में अपना सब कुछ खो देने की यन्त्रणा उसके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी. कई बार बीता हुआ कल सिवाय खरौंचों के और कुछ भी नहीं देता. त्रिपाठी भी बचने की कोशिश कर रहा था, अपने उन विगत क्षणों से, जो उसकी यातना से जुड़े हुए थे. बीता हुआ कल बीत कर भी बीता नहीं था.
अब तक त्रिपाठी ने अपना सिर अनन्या की ओर नहीं घुमाया था. उसकी पीठ अनन्या की ओर थी. वह अपने गिलास में पड़ी बर्फ को अपनी अँगुली से लगातार घुमा रहा था, जैसे मथ रहा हो, मानो वहाँ से किसी प्रश्न का उत्तर निकलने वाला हो ! पर प्रश्नों के उत्तर बर्फ के गिलासों में नहीं मिला करते.
डीजे के शोर में लगातार थिरकते दोस्तों की आवाजें घुल कर एक अजीब सा कोहराम मचा रही थीं. बार बार उनके ग्लासेज हवा में लहराते और चीयर्स की तेज आवाजें गूँजने लगतीं. कोई गाने लगता पर उसकी आवाज डीजे के शोर में डूब जाती. कभी कोई जोर से हँस पड़ता, तो कभी सब तालियाँ बजा कर भांगड़ा करने लगते. ड्रिंक्स और स्नेक्स सर्व करने वाले लड़कों को आने जाने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही थी.
कोई नहीं जानता था कि त्रिपाठी और अनन्या के मन में क्या चल रहा था ? उन दोनों की मनःस्थिति सिर्फ मैं समझ सकता था. मैं उनके जीवन में शामिल तो नहीं था, पर गवाह अवश्य था.
अचानक किसी ने मुझे और त्रिपाठी को भी डांस फ्लोर पर खींच लिया. एक बार फिर जोर का शोर उठा और कुछ लोगों ने मिल कर हम दोनों को हवा में उठा लिया. वे हँस रहे थे, नाच रहे थे, चींख रहे थे..... सभी नेे अपने दस साल उतार कर डांस रूम के बाहर रख दिए थे, जहाँ वे लावारिस पड़े हुए थे. उतरे हुए उन दस सालों को चोरी कर के ले जाने वाला कोई नहीं था.
डीजे वाले ने गाना बदला और देखते ही देखते डांस का एक और दौर फिर शुरू हो गया. मैंने उस अन्तराल का फायदा उठाया और त्रिपाठी का हाथ पकड़ कर उसे एक बार फिर काउन्टर पर ले आया. मैंने देखा कि अनन्या नीलिमा को हमारी ओर देखने के लिए कह रही थी. त्रिपाठी उनकी ओर पीठ किए चुपचाप सिप करता रहा.
तभी मैंने देखा कि पाण्डे के आग्रह पर नीलिमा और अनन्या भी उठ कर डांस करने लगी थीं. उन दोनों का डांस बेहद सधा हुआ और संयमित था. उछृंखलता से दूर, शालीन और लयबद्ध. नशे में चूर होने के बावजूद भी सब सहसा नाचना छोड़ कर उन्हें देखने लगे थे. शोर थम सा गया था. यह देख वे शर्म से लाल हो गईं और एक बार फिर अपनी जगह पर जा बैठीं. बहुत आग्रह के बाद भी वे फिर नहीं लौटीं.
”क्या तुम उनसे मिलोगे ?“ मैंने त्रिपाठी से पूछा.
वह चुप रहा.
”पर मैं उनके पास जा रहा हूँ.“ मैंने कहा और अपना गिलास लिए मैं उन दोनों के पास पहुँच गया.
”तुम दोनों को यहाँ देख कर अच्छा लगा.“ मैंने उनके सामने खाली पड़ी कुर्सी पर बैठते हुए कहा.
”कैसे हो तुम ?“ नीलिमा ने मुझसे पूछा. एक समय था जब हम सब एक दूसरे को ‘तू’ के सम्बोधन के साथ ही बात किया करते थे, पर इन दस वर्षों के अन्तराल के बाद अब ‘तू’ कह पाना संभव नहीं हो पा रहा था. मैं अपने विषय में बताने लगा और वह अपने. बातों का सिलसिला अपने सहज प्रवाह से चल निकला था. पिछले दस वर्षों का लेखा जोखा किसी हद तक खुलने लगा था. हालांकि इस दौरान अनन्या चुप ही बनी हुई थी. बार बार वह चुपके से काउन्टर की ओर देखने लगती और फिर निगाह झुका लेती थी. त्रिपाठी अब भी वहीं खड़े खड़े ड्रिंक्स ले रहा था. उसने एक बार भी घूम कर उनकी ओर नहीं देखा था.
”नीलिमा, तुम्हारे पति क्या करते हैं ?” मैंने पूछा.
”हम दोनों एक ही कम्पनी में काम करते हैं..... आज उन्होंने छुट्टी ली है. उन्हें दोनों बच्चों को सँभालना भी तो है.“ उसने मुस्कराते हुए कहा.
”अरे वाह ! यह तो बड़ी अच्छी सूचना दी है तुमने.... और अनन्या तुम ? तुम्हारे पति ?”
अनन्या ने कोई उत्तर नहीं दिया. नीलिमा ने ही कहा, ”उसने विवाह नहीं किया है. वह जाॅब में भी नहीं है.”
अनन्या चुप थी. जिस छाया ने उसके चेहरे पर अपना अधिकार जमा रखा था, वह सहसा गहरी होकर फैल गई थी. उसकी निगाहें मानो कहीं दूर लगी हुई थीं. उनका वर्तमान से कोई वास्ता नहीं था. कुछ लोग न चाहते हुए भी अतीतजीवी हो जाते हैं, या समय उन्हें वैसा बना देता है. इस बनने न बनने में उनका कोई बस नहीं चलता. अनन्या वैसी ही एक प्राणी थी.
“कोई बात नहीं. विवाह इतना जरूरी भी नहीं.... जरूरी है जीवन को जीए जाना.” मैंने स्थिति सँभालते हुए कहा, हालांकि यह कहते हुए एक बार मेरी आँखों के सामने गोलू की तस्वीर उभर आई थी. उसने जीवन जीने के बजाए उसे खत्म कर देना चुना था.
मेरी बात का किसी ने कोई जवाब नहीं दिया. वह बात मेरे पास दीवार पर उछाली किसी गैंद की तरह लौट आई थी. मैंने उसे सहेज लिया था.
”अनन्या, क्या तुम अब भी पुराने गाने गुनगुनाती हो ?“ मैंने एक बार फिर स्थिति को सामान्य बनाना चाहा.
वह ऐसे चैंकी, जैसे किसी ने ढेर सारा पानी उंडेल कर उसे गहरी नींद से जगा दिया हो. सहसा उसका चेहरा पीला पड़ गया था. बीते दिनों का दुःख उसके चेहरे पर उतर आया था. उस दुःख को मैं जानता था. वह दुःख त्रिपाठी से जुड़ा था. उसने इस बार भी मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया. मुझे दुःख हुआ कि मैंने वह प्रश्न पूछा ही क्यों ! उसकी आँखों में आँसू थे, ज्यादा नहीं, उतने ही, जिन्हें अन्दर सोखा जा सकता है. अपनी आँखें छुपाने के लिए उसने जल्दी से बीयर का मग उठा लिया था.
हम तीनों चुपचाप डांस फ्लोर पर थिरकते लोगों को देखते रहे.
कुछ देर तक खामोशी छाई रही, वहाँ बजते डीजे का तेज शोर भी उस खामोशी को तोड़ नहीं पा रहा था. वह एक ऐसी खामोशी थी, जो गूंजते शोर के बीच भी चुपचाप अपनी जगह बनाने की कूवत रखती थी. उस खामोशी की अपनी आवाज ही इतनी तेज थी कि अन्य सभी आवाजों ने सुनाई देना बन्द कर दिया था. अनायास ही एक गहरा सन्नाटा सा पसर गया था.
अनन्या ने कुछ नहीं कह कर भी बहुत कुछ कह दिया था. उसकी बार बार त्रिपाठी को देखती चुपचाप निगाहें, न टूटने वाली खामोशी, बेचैन अँगुलियाँ..... कितना कुछ था, जो वह लगातार कह रही थी. ऐसा नहीं कि मैं उसे ठीक से सुन नहीं पा रहा था. मेरी पूरी देह कान बनी हुई थी, पर अतीत में लौटना एक बार फिर उन्हीं यन्त्रणाओं को आमन्त्रण देना था, जो सिवाय पीड़ाओं के और कुछ देने वाली नहीं थीं.
थोड़ी देर तक कोई कुछ नहीं बोला. अनन्या की खामोशी ने हमें भी चुप करा दिया था. नीलिमा भी सहसा चुप हो गई थी. दोनों के बीयर मग टेबिल पर रखे हुए थे. मुझे अजीब लगा कि हमारी खामोशी उस व्यक्ति के कारण थी, जो हमारे बीच था भी नहीं. मैंने सिर घुमा कर काउन्टर की ओर देखा. त्रिपाठी वहाँ भी नहीं था. पर कुछ दूसरे लोग आ खड़े हुए थे.
त्रिपाठी कहाँ जा सकता है ! कहीं वह बीच में ही पार्टी छोड़ कर चला तो नहीं गया ?
”अब मुझे चलना चाहिए.“ मैंने कहा और उठ खड़ा हुआ. मैं अपना गिलास थामे हुए था. मुझेे पहली बार अपने पाँव लड़खड़ाते हुए महसूस हुए. त्रिपाठी कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था. शायद बाहर लाॅन में होगा. डांस करते हुए लोगों के बीच रास्ता बनाता हुआ मैं बाहर खुले में आ गया. तेज म्यूजिक और डांस करते दोस्तों के शोर से निजात पाकर मुझेे सुकून सा महसूस हुआ. लाॅन की ताजा हवा मुझे अच्छी लग रही थी. क्षण भर के लिए मैं भूल ही गया कि मैं बाहर क्यों आया था !
मैं लाॅन में ही एक बैंच पर बैठ गया. लेम्प पोस्ट की पीली रौशनी के बावजूद भी वहाँ काफी अँधेरा था. अँधेरा मैं चाह भी रहा था ताकि अनायास आई इस स्थिति पर कुछ विचार कर सकूँ. अनन्या के लिए मेरा मन उदास हो गया था. क्या उसने त्रिपाठी के कारण ही विवाह नहीं किया था ? क्या उसे उम्मीद थी कि टूटे हुए तार एक बार फिर जुड़ जाएँगे ? यदि त्रिपाठी ने विवाह नहीं किया होता, तो शायद यह संभव भी था, पर अब कोई संभावना शेष नहीं बची थी.... दुःख अपने आने के रास्ते खुद तलाश कर लेता है, हम केवल माध्यम भर होते हैं.....
”तुम यहाँ बैठे हो ! मैं तुम्हें अन्दर तलाश कर रहा था.“
यह त्रिपाठी की आवाज थी, जो सन्नाटे को बेधती हुई मेरेे कानों से आ टकराई थी. वह मेरेे पास ही अँधेरे में खड़ा हुआ था. व्हिस्की से भरा पूरा गिलास उसके हाथों में था. मुझेे लगा, जैसे मैंने किसी प्रेत को देख लिया हो.
”अन्दर बहुत शोर था.... मुझे फ्रेश एयर की जरूरत महसूस हो रही थी..... बैठो न !“ मैंने कहा. मैं झूठ बोल रहा था. सच बोलने के लिए अनेक बार साहस जुटाना पड़ता है. वह साहस उस समय मेरे पास नहीं था.
त्रिपाठी मेरेे पास बैठ गया. ड्रिंक की तेज गंध मेरे नथुनों में भर गई. मैं तुरंत ही जान गया था कि उसे चढ़ी हुई थी. यूँ तो उसे पीने का काई खास शौक नहीं था, पर वह जब पीने लगता था, तो सब कुछ भूल जाता था.
”तुम्हें चढ़ गई हैं.“ मैंने त्रिपाठी को ध्यान से देखते हुए कहा.
त्रिपाठी जोर से हँसा, ”याद है तुम्हें यूजीन ओ’नील.... इतनी पी रखी है कि पूरा जहाज डूब जाए, पर मैं नहीं डूब पाता.“
यह हमारा एक पुराना मजाक था.
मैं चुपचाप त्रिपाठी को देखता रहा. उसकी हँसी में हँसी ढूँढ़ता रहा. मुझेे विश्वास नहीं हुआ कि यह वही त्रिपाठी है, जो अभी कुछ देर पहले मुझसे सहज रूप में बात कर रहा था. अनन्या को देखते ही उसकी सारी सहजता क्षण भर में ही कहीं चली गई थी. उसे देखते ही कोई भी बता सकता था कि उसका कुछ खो गया है. एक वीरानी थी, जो उसमें कुंडली मार कर बैठी हुई थी.
”मुझे यहाँ नहीं आना चाहिए था.“ वह धीरे से बुदबुदाया.
”त्रिपाठी, अपने अतीत से हम बच नहीं सकते. वह हमें कभी अकेला छोड़ता ही नहीं ! यह हमारे आज की विवशता है कि उसे बीते हुए कल को साथ घसीटते हुए जीवित रहना पड़ता है.“
फिर गहरी चुप्पी छा गई. देर तक सिर्फ सन्नाटा बोलता रहा. झींगुरों के अनवरत स्वर उस उदासी को और बढ़ा रहे थे. अन्दर बजता म्यूजिक अपनी सारी ऊर्जा वहीं छोड़ कर हम तक पहुँच रहा था. चाँद कहीं नहीं था और उसकी अनुपस्थिति में तारे टुकुर टुकुर हमें ताक रहे थे. क्या इन तारों को याद होगा कि हमारे उन वसंत के दिनों में भी वे इसी तरह हमें ताका करते थे !
हमारे ग्लासेज हाथों में थे. पता नहीं कितनी देर तक हम चुपचाप ड्रिंक्स लेते रहे. यूँ तो हम अपने में डूबे हुए थे, पर हम दोनों के तार सीधे अनन्या से जुड़े हुए थे. अनन्या की अनुपस्थिति सबसे सघन उपस्थिति बनी हुई थी.
तभी कुछ आवाजें आईं. कुछ लोग नीलिमा और अनन्या को विदा करने बाहर आए हुए थे. वे जा रही थीं. मैं उठा और इससे पहले कि त्रिपाठी कुछ समझ पाए, मैं उसका हाथ पकड़ कर जल्दी से उनके पास पहुँच गया. मुझे डर था कि कहीं वे दोनों हमसे बिना मिले ही न चली जाएँ.
दोस्तों के वापस डांस फ्लोर पर चले जाने के बाद हम चारों अकेले रह गए थे. एक बार फिर सन्नाटा पसर गया था. झींगुरों की जो आवाजें कट गई थीं, फिर से आने लगी थीं. थोड़ी देर में उनकी कॅब आने वाली थी. यह वह खाली समय था, जो अनायास ही हमारी झोली में आ गिरा था.
”कैसी हो ?“ त्रिपाठी ने पूछा. उसका प्रश्न किस के लिए था, यह हम सब जानते थे.
”अच्छे हैं...“ अनन्या की जगह नीलिमा ने उत्तर दिया, ”और तुम ?“
”मैं भी ठीक हूँ.“ त्रिपाठी की निगाहें जमीन में गढ़ी हुई थीं. वह देख कर भी कुछ देख नहीं पा रहा था. उसके चेहरे पर छाया अवसाद कोई भी पढ़ सकता था.
”अभी रुकोगे ?“ नीलिमा ने फिर पूछा.
”नहीं, कल सुबह ही लौटना पड़ेगा.“ त्रिपाठी की आवाज जैसे किसी गहरे कूए से आ रही थी. बातों का प्रवाह अपना सामान्य रूप नहीं ले पा रहा था. सभी एक गहरा दबाव सा महसूस कर रहे थे.
अचानक मैंने कहा, ”नीलिमा, मुझे तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है. तुम जरा मेरे साथ आओ.“
नीलिमा के कुछ कहने से पहले ही मैं उसे खींच कर दूर उसी बैंच पर ले गया, जहाँ कुछ देर पहले मैं और त्रिपाठी बैठे हुए थे. वहाँ कोई नहीं था. लैमपोस्ट की मरी मरी सी रौशनी में हम चुपचाप खड़े रहे.
”बोलो....“ नीलिमा हैरान थी.
”यार, इतना भी नहीं समझती...... कुछ पल तो उन्हें अकेला रहने दो ! मैं चाहता हूँ कुछ हो. कुछ भी, जो इन दोनों के भीतर जमे मौन को तोड़ सके.“
क्षण भर वह चुप रही, फिर उसकी पीड़ा में डूबी आवाज आई, ”क्या तुम समझते हो कि अब कुछ हो सकता है ? कुछ नहीं हो सकता. सब कुछ खत्म हो चुका है, सब कुछ......“
”फिर वह कौन सी उम्मीद लेकर यहाँ आई है ?“
”उम्मीद ! कोई उम्मीद नहीं ले कर नहीं आई है वह. जानते हो, यहाँ आने से पहले उसने पता किया था कि कहीं त्रिपाठी तो नहीं आ रहा ! उसे बताया गया कि वह नहीं आ रहा था, वह तब आई है.“
”ठीक यही बात मुझे त्रिपाठी भी कह रहा था.“ मैंने कहा.
वे दोनों एक दूसरे से बच रहे थे, पर नियति उन्हें मिलाने पर तुली हुई थी. रात के उन उदास पलों में यह कह पाना कठिन था कि सही क्या था ?
खामोशी छा गई. ऐसी खामोशी, जो कहने को कुछ शेष नहीं रह जाने पर आती है. लेकिन मन ही मन संवादों का अनवरत सिलसिला बना हुआ था. वे संवाद त्रिपाठी और अनन्या के विगत और वर्तमान से जुड़े हुए थे, उनके रिश्ते की ऊष्मा से जुड़े हुए थे, और जुड़े थे उस असीम यन्त्रणा से, जो उनके अलग हो जाने के कारण उपजी थी. मैं और नीलिमा अनजाने में ही उस यन्त्रणा का हिस्सा बन गए थे.
अँधेरे में हम वैसे ही खड़े रहे. यूँ तो हम पास पास थे, पर हमारी सारी चेतना कुछ दूर त्रिपाठी और अनन्या से जुड़ी हुई थी. हम अपना होना तक भूल गए थे. ठहरी हुई हवा में कोई गंध नहीं थी और न ही डीजे का शोर हमें छू पा रहा था. हम अपनी दुनिया छोड़ कर त्रिपाठी और अनन्या की दुनिया में चले गए थे, जैसे फिल्म देखते हुए हम अपनी देह वहीं छोड़ कर फिल्म की दुनिया में चले जाते हैं. अभिनेताओं के सुख दुख हमारे सुख दुख बन जाते हैं.
कुछ देर बाद त्रिपाठी की आवाज आई, ”कहाँ हो तुम दोनों ? कॅब आ गई है.“
हम दोनों चैंक गए, मानों किसी ने हमें दुःस्वप्न से बाहर खींच लिया गया हो. जल्दी जल्दी हम मेन गेट की ओर जाने लगे. वहाँ त्रिपाठी अकेला खड़ा हुआ था. लेम्प पोस्ट की फीकी रौशनी उस पर गिर रही थी, जिसके प्रभाव में वह किसी ट्रजिक फिल्म का गहरे अवसाद में डूबे पात्र जैसा लग रहा था.
”अनन्या कहाँ है ?“ वहाँ पहुँचते ही मैंने पूछा.
त्रिपाठी ने कुछ नहीं कहा, सिर्फ कॅब की ओर इशारा कर दिया. हमनेे देखा कि अनन्या कॅब में बैठी हुई थी. उसकी आँखें आँसुओं में डूबी हुई थीं, जिन्हें वह बार बार साफ कर रही थी. नीलिमा बिना एक भी शब्द बोले उसके पास जा बैठी. कॅब स्टार्ट होने की आवाज आई और अगले ही पल वे जा चुकी थीं.
सब कुछ इतना जल्दी हुआ कि मैं उन दोनों को ठीक से विदा भी नहीं कर पाया. उनके चले जाने के बाद हम काफी देर तक यूँ ही खड़े रहे, जैसे विदा का अन्तिम संवाद बोला जाना अभी शेष था. सड़क का टैªफिक यथावत चल रहा था, मेरे और त्रिपाठी के मन में चल रहे अन्तद्र्वंद्व से उदासीन...... मैंने त्रिपाठी की ओर देखा. कुछ सूखे हुए आँसू अब भी उसके गालों पर टिके हुए थे.
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क्या उनका जाना अन्तिम जाना था ? क्या अन्तिम बार जाया जा सकता है..... कभी नहीं लौटने के लिए. अनेक अनसुलझे प्रश्नों ने हमारा सारा नशा उड़ा दिया था. शाम के समय मन पर छाई उदासी ने एक बार फिर मुझेे अपनी गिरफ्त में ले लिया था. मुझे यह सोच कर आश्चर्य हुआ कि त्रिपाठी और अनन्या दोनों ही एक दूसरे के नहीं आने की सूचना मिलने के बाद ही यहाँ आए थे, दोनों को नहीं आना था, पर आ दोनों ही गए थे. आप यातना से बचने की कितनी भी कोशिश क्यों न करो, वह इतनी ताकतवर होती है कि आपको कहीं भी, कभी भी पकड़ लेती है और आप विस्मय से सोचने लगते हैं कि आप जिस यातना से बचने का प्रयास कर रहे थे, वह तो स्वयं ही आपको धर दबोचने की फिराक में लगी हुई थी. बीता हुआ कल पुराने घावों को एक बार फिर हरा कर गया था.
”त्रिपाठी, अन्दर चलते हैं. सब हमारी प्रतीक्षा कर रहे होंगे.“
”आरोह.....“
”हाँ, बोलो, मैं तुम्हें सुन रहा हूँ.“
कुछ क्षण वह चुप रहा. फिर उसका काँपता सा स्वर आया, ”जानते हो, मैं दस साल आगे पहुँच चुका हूँ, पर अनन्या अब तक वहीं रुकी हुई है. दुःख तो इस बात का है कि गुनहगार मैं हूँ, पर सजा वह भुगत रही है....“
मैं सुनता रहा. त्रिपाठी का इतना हताश चेहरा मैंने पहले कभी नहीं देखा था. मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही त्रिपाठी है, मेरा पुराना दोस्त ! जिस उत्साह से वह आया था, उसका थोड़ा सा भी अंश शेष नहीं बचा था. त्रिपाठी की ही नहीं, मुझे अनन्या की स्थिति ऐसी ही महसूस हो रही थी.
कुछ देर बाद त्रिपाठी की बुझी हुई आवाज मुझ तक पहुँची, ”टूटना मुझे चाहिए था, पर टूट वह रही है.“ वह एक बार फिर रुका, ”वह मर रही है आरोह और मैं कुछ नहीं कर सकता !“
मैं एकटक त्रिपाठी को देखता रहा. मुझे लगा, मर त्रिपाठी भी रहा था, पर उसका मरना उसकी उपलब्धियों, उसके परिवार, उसके दोस्तों परिचितों के नीचे दब गया था. वह त्रिपाठी अलग था, जिसे सब जानते थे और वह अलग, जिसे सिर्फ वह खुद जानता था.
सहसा मुझेे गोलू का स्मरण हो आया, जिसने प्रेम में हताश होकर आत्महत्या कर ली थी. टुकड़ों टुकड़ों में मरने के बजाय गोलू ने एक ही बार में मरना ठीक समझा होगा. आत्महत्या के निर्णय से पहले उसे न जाने कितने अन्तद्र्वंद्वों से गुजरना पड़ा होगा. जीने के बरक्स मरना कोई आसान विकल्प होता भी नहीं. लेकिन फिर भी गोलू ने यही विकल्प चुना था.
मरना, मरना, मरना...... कितना तोड़ कर रख देता है यह शब्द ! और यह केवल एक शब्द नहीं है, क्रिया है, बाकायदा सांस लेती जीवित क्रिया, जो असीम निराशा के गर्भ से जन्म लेती है.
मैं सरक कर त्रिपाठी के पास आया और मैंने अपने दोनों हाथ उसके कन्धों पर रख दिए, ”नहीं त्रिपाठी, वह नहीं मर रही है, तुम भी नहीं मर रह हो.... मर रहा है वह प्रेम, जो कभी जीवित था. ये पीड़ा उस प्रेम के मरने से उपजी हैं..... और प्रेम ऐसे ही आसानी से नहीं मर जाता, हम जब तक जीवित रहते हैं, प्रेम भी हममें सांस लेता रहता है.” मैं उसे गोलू की घटना बताना चाहता था, कि उसने मृत प्रेम की असीम पीड़ा में जीवित रहने के बजाय उस प्रेम को ही मार डाला और ऐसा करना तभी संभव था, जब स्वयं का अंत कर दिया जाए ! लेकिन मुझसे गोलू के विषय में एक शब्द भी नहीं बोला गया.
त्रिपाठी कुछ देर मुझे देखता रहा. फिर उसने अपने कन्घों पर रखे मेरे हाथों को अपनी हथेलियों में भर लिया, ”बीता हुआ कल बीत कर भी बीतता क्यों नहीं यार.......“
”हम सब बीते हुए कल के साथ जीने के लिए अभिशप्त हैं, चाहे वे क्षण सुख के हों या दुःख के....“ मैंने कहा. तभी कुछ कारें हमारे सामने सड़क पर गुजरीं. उनके शोर में मेरी आधी अधूरी सी बात ही त्रिपाठी के कानों तक पहुँच पाई थी. एक बार फिर सन्नाटा छा गया था. कभी कभी अन्दर बजते डीजे की आवाज हम तक आती और फिर वही खामोशी छा जाती.
क्या एक सीमा पर पहुँच कर संवाद समाप्त हो जाते हैं ? या फिर खामोशी खुद बोलने लगती है ? सन्नाटे में पुराने घाव रिसने लगते हैं और हम अपने ही रिसते खून को चकित से देखने लगते हैं. अनायास ही वे दिन उभर आते हैं, जब हमने उन घावों को पाया था. उन दिनों का उभर आना महत्वपूर्ण नहीं होता, महत्वपूर्ण होता है उन घावों का जीवित रह जाना !
यह सब मैं त्रिपाठी को चाह कर भी कह नहीं सका था. मेरा अपना मन बेहद उदास हो गया था. काश ! मैं यहाँ नहीं आया होता. इन त्रासदायी स्थितियों से तो बच जाता. मेरे पास सान्त्वना का एक भी शब्द नहीं था, न तो त्रिपाठी के लिए और न ही अनन्या के लिए.
तभी कुछ दोस्त हमें ढूँढ़ते हुए वहाँ आए, ”तुम दोनों अँधेरे में यहाँ क्या कर रहे हो ? अन्दर सब तुम्हारा इन्तजार कर रहे हैं.“
न चाहते हुए भी हमें अन्दर जाना पड़ा. हमें फिर ग्लासेज पकड़ा दिए गए और एक बार फिर हमें किसी ने डांस फ्लोर पर खींच लिया. हमें डांस करना नहीं आता, पर फिर भी हम उनका मन रखने के लिए थिरकने लगे. किसी को भी हमारेे मन में चल रहे अन्तद्र्वंद्व के विषय में कुछ भी पता नहीं था. जल्दी ही हम काउन्टर पर आ गए और चुपचाप अपनी ड्रिंक्स लेने लगे.
सहसा मैंने देखा कि त्रिपाठी एकटक उस कुर्सियों को देख रहा था, जहाँ कुछ देर पहले नीलिमा और अनन्या बैठी हुईं थीं.
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