Nashtar Khamoshiyo ke - 2 in Hindi Moral Stories by Shailendra Sharma books and stories PDF | नश्तर खामोशियों के - 2

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नश्तर खामोशियों के - 2

नश्तर खामोशियों के

शैलेंद्र शर्मा

2.

प्रथम वर्ष के छात्र-छात्राओं की पहली क्लास थी. मैं बैठी थी वैसे ही - रोज़ की तरह खामोश,अपने को कहीँ भी एडजस्ट न कर पाने की झुंझलाहट और क्षोभ से त्रस्त. डिसेक्शन हॉल में सन्नाटा छाया हुआ था. कैसे लग रहे थे सब! रैगिंग और नई जगह के भय से त्रस्त, सफेद कपड़े, सीनियरों के डर से कटवाए गए छोटे-छोटे बाल.

हाज़िरी शुरू हुई और जैसा कि मैं डर रही थी, रजिस्टर मुझे ही थमाया गया. उस पर झुक कर मैंने आवाज को भरसक संयत बनाते हुए पुकारा, "स्टूडेंट्स, अटेंड टू योर रोल कॉल प्लीज! आभा गुलाटी!

"प्रेजेंट मैम"

"आलोक सक्सेना!"

"यस मैडम"

"आ..." तीसरे नाम के अक्षर जैसे शूल की तरह आंखों में जा घुसे...यह नाम...मैंने तड़पकर सिर उठाया. शव-विछेदन के लिए रखे हुए मृत शरीर के चारों ओर बैठे छात्रों की पहली मेज़ पर दृष्टि टिका दी. सब लोग सर झुकाये बैठे थे ,मगर दो मासूम निगाहें मेरे चेहरे की ओर टंगी हुई थी और प्रतीक्षा कर रही थीं, कि कब उनका नाम पुकारा जाए. मेरी गर्दन में रक्त जैसे तेजी से ऊपर चढ़ने लगा.

"डॉ.साहब, क्या बात है?" बगल मैं बैठे दूसरे डेमोस्ट्रेटर ने पूछा.

"क-कुछ नही..." मैंने टूटा-फूटा सा उत्तर दिया और फिर शुरू किया तो पुकारती ही चली गयी. पूरे सौ नाम थे.फल यह हुआ कि अंत मे इतनी क्लांत हो गयी कि रजिस्टर में दस्तखत भी नही हुए मुझसे.

डेमोंस्ट्रेटर इधर-उधर छात्रों के पास पंहुचकर बातें करने लगे थे. आम तौर से शुरु-शुरू में पढ़ाई की ओर कोई बहुत गंभीरता से ध्यान नही देता, क्योंकि सब जानते हैं कि दूर-दराज़ से अपने घरों को छोड़ कर, नए माहौल में आये हुए किशोर ह्रदयों को व्यवस्थित होने में थोड़ा समय तो लगता ही है.

सप्रयास मैं पहली मेज़ की तरफ पहुची. हौले से नाम पूछा. वह शिष्टाचारवश हड़बड़ाकर उठ खड़ा हुआ. झुकी आंखों से धीरे से उत्तर दिया. मैं उससे क़िताबों वगैरह के बारे में पूछने लगी. उसकी बातों से इतनी मासूमियत, इतना कच्चा पन झलक रहा था कि मैं धीरे-धीरे कठोर हो उठी. दरअसल उसकी नाजुक जुकाम भरी आवाज, और किताब पर धीरे-धीरे लरजती पतली अंगुलियां मुझे बार-बार कई वर्ष पूर्व ले जाकर पटक रही थीं. उसको बर्दाश्त न कर पाने की कोशिश मुझे धीरे-धीरे और कठोर, पहले लकड़ी, फिर पत्थर बनाती चली गई. जो आपके सामने वैसे ही मरा हुआ हो, उसे मारने के लिए कोई खास बहाना नहीं चाहिए. मुझे भी मिल गया.

प्रवेश के समय शरीर-रचना विभाग की ओर से पहली पुस्तक के एक से पंद्रह तक पन्ने पढ़ने का जो निर्देश मिलता है, उसका पालन उसने नहीं किया था(वैसे कोई करता भी नहीं.) और मैं अपने नाखून और दांत तेज़ करके उसे आहत करने में जुट गई. वह जितना मासूम होता जा रहा था, मुझे उतना ही सुख मिल रहा था. अंत मे जब उसने धीरे से आंखें उठायीं तो उनमें मोटे-मोटे आँसू देखकर मुझे अपनी विजय का बोध हुआ, और मैं वापस अपनी कुर्सी की ओर लौट आई. मगर ...जितनी कायरतापूर्ण मेरी विजय थी, उतना ही उसने भी मुझे निचोड़ दिया था.

कल के वक्त को याद करते हुए अपना सारा व्यवहार अभद्र और बेमानी लगने लगा, और तब मैंने महसूस किया कि इस अभद्रता को स्वीकार कर लेने की वजह से, मेरे लड़खड़ाते कदमों को थोड़ा सहारा मिल गया है, और मैं कुछ संयत हो उठी हूँ.

"डॉ.साहब चाय!"चपरासी गैलरी के दरवाजे पर खड़ा था.

"भीतर साहब के चैम्बर में रख दो, आ रही हूँ."

कमरे में चाय के घूंटों से थोड़ी तसल्ली मिली. सामने प्रोफेसर साहब की एक बड़ी सी तस्वीर लगी थी, शहर के मेयर के साथ, सेमिनार के उद्घाटन के वक्त की. एक कान से दूसरे कान तक खिंची होने के बावजूद उनकी मुस्कुराहट, उतनी ही खोखली, उतनी ही अर्थहीन लग रही थी, जितनी कि वह सेमिनार थी. चाय का अंतिम घूंट भरते हुए एक अजीब सा खयाल आया, कि मुझे पांच वर्षों में इस आदमी से नफरत क्यो नहीं हो गयी? क्यों नही इसको देखते ही मेरे तन-बदन में आग लग जाती है?

पीछे शेल्फ पर इनकी शील्ड्स और कप सजे हुए थे. किसी ने एक बार कहा था कि साहब, अगर कोई कमरा प्रोफेसर का सा वाकई लगता है, तो प्रो.भारद्वाज का है. इनकी तथाकथित काबिलियत और शोमैन शिप पर गर्वित होने के बजाय, विद्रूप से मेरे होंठ टेढ़े हो आये. उस वक्त कहीं बहुत अंधेरे मे से, उस अकेली जिंदगी की याद हो आई जिसे कभी कोई मैडल, कोई शील्ड, कोई कप, कोई अलंकरण नही मिला और अनाम, असम्मानित रहते हुए एक दिन जिसने रोशनी के दायरे की दहलीज पर ही दम तोड़ दिया. आनंद की काबिलियत, उसके क्लीनिकल ज्ञान के चर्चों की याद आने लगी, और साथ ही उसके साथ जुड़ी उस सहानुभूति की, जो उसके जानने वालों के मन मे उसे लेकर थी, क्योंकि सब जानते थे कि खन्ना के रहते उसे कभी बैच में पहला स्थान नहीं मिल सकता था.

बेहद अंतर्मुखी होने के कारण, आनंद ने कभी किसी के सामने अपना आक्रोश जाहिर नहीं किया. मगर अकेले में मेरे सामने जब भी खन्ना का, या खन्ना के हर प्रोफेशनल परीक्षा में प्रथम आने का, या आनंद के अथक परिश्रम के बावजूद द्वितीय रह जाने का जिक्र आता, तो उसकी आँखों की चिनगारियों पर से राख हट जाती और उसकी मुट्ठियां कस जातीं, "तुम देखना विनी... साला कभी-न-कभी तो चूकेगा ही! इस बार देखता हूं." और हर बार की तरह हारने के बावजूद वह फिर दोबारा जुट जाता.

मगर अपनी इतनी मेहनत और मेरी इतनी दुआओं-कामनाओं के बावजूद, आनंद हर बार हारा. प्रिंसिपल और औषधि विज्ञान के विभागाध्यक्ष के सुपुत्र होने की जो चाभी खन्ना के पास थी, उससे हर फाटक का ताला बड़ी आसानी से खुल जाता था. हर बार पटखनी खाने के बाद मेरा अना, आहत सांप जैसा फुफकारता; मगर उसकी पीड़ा, उसका रुदन, उस आक्रोश में छुप नही पाता था. और हर बार नए सिरे से किये गए संकल्प की पराजय, अना को भीतर-ही-भीतर छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ती चली गयी.