Aakha teez ka byaah - 6 in Hindi Moral Stories by Ankita Bhargava books and stories PDF | आखा तीज का ब्याह - 6

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आखा तीज का ब्याह - 6

आखा तीज का ब्याह

(6)

‘वासंती’, प्रतीक की आवाज से वासंती चौंक पड़ी, उसे अपनी विचार श्रंखला में यह खलल पसंद नहीं आया, उस दिन वह दोहरा सफर कर रही थी, उसका शरीर भले ही कार में सबके साथ था पर उसका मन अतीत की गलियों घूम रहा था| उसने सवालिया निगाहों से प्रतीक की ओर देखा, ‘चलो चाय पीते हैं, थोड़ा आराम भी हो जायेगा,’ प्रतीक ने गाड़ी एक ढाबे पर रुकवा ली थी| ढाबे पर प्रतीक ने वन्या के साथ खूब मस्ती की, वन्या ने साथ तो वासंती का भी चाहा था पर उस दिन वासंती कहीं और ही थी| चाय पीने के बाद वो लोग अपने आगे के सफर पर चल पड़े और वासंती की भी अपनी यात्रा फिर से शुरू हो गई, उसे याद आ रहा था वह दिन जब श्वेता ने उसे एक ज़ोरदार डांट पिलाई थी|

वासंती उस दिन अपने कमरे में गुमसुम सी बैठी थी| उसके सामने टेबल पर पहले सेमेस्टर की मार्कशीट पड़ी थी| पहले सेमेस्टर में उसके नम्बर बहुत कम आये थे, बड़ी मुश्किल से पास भर हो पाई थी| आज तक उसके साथ कभी ऐसा नहीं हुआ, इतने कम नम्बर उसके कभी नहीं आये, हमेशा वह अव्वल नम्बरों से पास होती रही फिर इस बार ऐसा क्या हो गया, उसे समझ नहीं आ रहा था |

“क्या बात है ऐसे क्यों बैठी हो?” श्वेता के प्रश्न के उत्तर में उसने अपनी मार्कशीट की ओर इशारा कर दिया| “ओह, तो ये बात है| अपनी लापरवाही का शोक मनाया जा रहा है|”

“लापरवाही का शोक? ये क्या कह रही हो तुम श्वेता| कौनसी लापरवाही, देखो अभी मैं बहुत परेशान हूँ तुम ये पहेलियाँ बुझा कर मुझे और ज्यादा परेशान मत करो|”

“मैं पहेलियाँ नहीं बुझा रही हूँ बल्कि तुम्हें सच का आइना दिखा रही हूँ| एक गाँव की लड़की बसंती से मोर्डन वासंती बनने में तुम इतनी मशगूल हो गयी कि तुम्हें याद ही नहीं कि रहा बसंती अपने गाँव से एक उद्देश्य ले कर आई थी| उसे डॉक्टर बनना था फैशन आइकॉन नहीं| शहर की चमक दमक और कॉलेज के खुले माहौल में तुम अपना उद्देश्य भूल गयी| यह रिजल्ट उसी भूल का परिणाम है|” श्वेता का स्वर कुछ कठोर हो गया था, उसे वासंती पर गुस्सा आ रहा था उसे लगा कहीं वह उसके साथ झगड़ ही ना बैठे, इसलिये उसे उस वक्त वहां से बाहर जाना ज्यादा सही लगा| हाँ ठीक है कॉलेज लाइफ ज़िन्दगी में एक ही बार मिलती है तो थोड़ा मस्ती मज़ाक तो बनता है पर अति तो हर चीज़ की बुरी होती है, जीवन में संतुलन और अनुशासन की भी कुछ अहमियत होती है और वासंती यही बात भुला बैठी थी|

‘शायद श्वेता ठीक कह रही थी, भूल मेरी ही है और इसे सुधारना भी मुझे ही होगा|’ अब अपनी भूल समझ आ रही थी| वासंती जानती थी इस असफलता से उसे सबक सीखना ही होगा और अपनी भूल सुधारनी ही होगी| इस तरह की असफलताओं के लिए उसके जीवन में कोई जगह नहीं थी| उसके असफल होने का मतलब था उसी चूल्हे-चौके की दुनिया में सीमित हो जाना जिसमें उसकी माँ सीमित है और वह वैसी निरुद्देश्य ज़िन्दगी नहीं जीना चाहती थी| वह जानती थी उसके घर वाले भले ही उसे कितना भी प्रेम करें परन्तु कुछ हदें थी जिन्हें पार करने का हक उन्होंने उसे नहीं दिया था| उनके लिए अब भी बेटी पराया धन थी| जिसे घर की सभी जिम्मेदारीयां उठाने लायक बना कर समय पर विवाह नामक बंधन में बांध कर ससुराल भेज दो, जहाँ लड़कियां जाती तो डोली में बैठ कर हैं पर वापसी उनकी अर्थी में ही होती है|

हाँ वासंती थोड़ी सी तकदीर वाली थी कि सबका भरपूर प्यार मिला| और गाँव के अन्य परिवारों की तरह उसे कभी बोझ या घास फूस जैसी अपमान जनक संज्ञा नहीं दी गयी| बल्कि वह तो माँ-बापू से ज्यादा दादा-दादी की लाडली थी| खाने पहनने में उसमें और भाई में कभी किसी ने कोई फ़र्क नहीं किया| पर फिर भी वह लड़की थी और भाई से अलग थी यह उसे तभी समझ आ गया था जब गाँव के स्कूल के मास्टरजी दादाजी से मिलने घर आये थे|

उस दिन वह भाई के पास बैठ कर कच्चे आंगन में रेत पर अक्षर बना रही थी| भाई के स्कूल में दाखिले के बाद यह उसका पसंदीदा खेल था| भाई अपनी कॉपी में जो भी लिखता उसका अभ्यास वह जमीन पर करती थी| उसे इस तरह रेत में अक्षर मांडते देख बोल मास्टरजी कह उठे “हरखारामजी मुझे तो इस छोरी पे सरस्वती माता की कृपा दिख रही है| देखो कैसे लगन से अक्षर मांड रही है| लिखावट भी कितनी सुंदर है छोरी की| मैं तो कहता हूँ आप इसका भी स्कूल में दाखिला करा दो | दोनों भाई बहन एक साथ पढ़ने आ जाया करेंगे|”

“आ के करेगी मास्टरजी पढ़गे, छोरी है, करणों तो आगले घरे जाके चूल्हों चोको ही है| बो घर में सीख ही लेसी|”

“ये आपने क्या कही हरखारामजी, छोरा-छोरी में अब कोई भेद नहीं रहा| अब तो छोरी छोरों के बराबर पढाई करती हैं और नौकरी भी करती हैं| अब वो जमाना ना रहा जब छोरियों की दुनिया बस चूल्हे-चोके तक सीमित थी| अब तो छोरियां चाँद पे भी जा रही हैं|”

“पर मास्टरजी म्हे तो म्हारी छोरी चाँद पर ना भेजनी| धरती के कम है, कित्तो ही घुम्मो|”

“हा-हा-हा हरखारामजी मैं तो एक उदाहरण दे रहा था| मेरी बात मानो आप इसे भी पढ़ने भेजो, मेरी बात याद रखना बसंती भी एक दिन आपका नाम रोशन करेगी|”

“चालो फेर थे इत्तो कहण लाग रह्या हो तो ओही सही, थे बसंती गो नाम भी लिख ल्यो काल ऊं आ भी इस्कूल जासी|”

मास्टरजी की बात दादाजी को जच गयी और बसंती भी स्कूल जाने लगी| माँ उसे बड़ा सजा कर स्कूल भेजती थी और वह भी भाई की उंगली पकड़ कर ठुमकती जाती बिलकुल भी नहीं रोती| वह बहुत ध्यान से मास्टरजी का बताया सबक याद करती और दूसरे बच्चों से अलग स्कूल में खूब खुश रहती | आखिर क्यों ना खुश होती बसंती, अब उसके पास भी भाई की तरह अक्षर मांडने को और नयी नयी बातें सीखने को कॉपी-किताब थी| अब उसे अपना पसंदीदा अक्षर मांडने का खेल जमीन पर खेलने की जरुरत नहीं थी| पर फिर भी एक नयी बात उसे उस दिन पता चली थी कि वह लड़की है और भाई से अलग है, भाई उससे ज्यादा खास है दादाजी के लिए, यह उसे पहली बार उसी दिन पता चला था और यह बात नन्हीं बसंती के कोमल मन पर कहीं गहरे तक घर गयी|

अपनी इसी सोच के विस्तार के तहत धीरे धीरे उम के साथ उसे यह भी समझ में आया कि उसे कुछ भी उतना सहज उपलब्ध नहीं है जितना भाई को, घर में उसके अधिकार सीमित हैं| यदि ऐसा ना होता तो बचपन में ही उसका ब्याह कर माँ बाप उसकी जिम्मेदारी से मुक्त ना हो गए होते| ब्याह चाहे बचपन में हुआ, चाहे अभी गौना नहीं हुआ था पर उसका घर उसके लिए पराया हो गया था, अब तो हर बात में उसे यही सुनने को मिलता ‘जो करणो है सासरे जार करी’|

जब भी माँ या दादी उसे कुछ काम बताती और वह कहती, ‘मैं पढ़ण लाग रही हूँ,’ इसके साथ ही दादी के प्रवचन शुरू हो जाते, “‘मैं पढण लाग रही हूँ’, आग लागे थारी किताबां नै, बहाना देखो छोरी गा| बाई परो के करेगी अत्तो पढ़ गे तन्ने किसो डॉक्टर बणनो है|” तो कभी कहती, “छोरी गृहस्थी गा दो काम सीख ले जी लगार, थारे तो बे ई ही काम आसी ऐ किताबां नहीं, नहीं तो सासु कहसी कीं कोनी सीखायो माँ|”

जबकी भाई के साथ तो ऐसा नहीं था, वह अब दादा-दादी समेत सभी के प्रेम और घर में मौजूद हर वस्तु का इकलौता वारिस था| ब्याह तो उसका भी बचपन में ही हो गया था बसंती की तरह, पर उसके लिए घर पराया नहीं हुआ था और कभी होना भी नहीं था | सबके इस बदले व्यवहार ने वासंती को एक बात समझा दी कि उसे तो हर चीज संघर्ष कर के लेनी होगी| दादी के इन रोज रोज के प्रवचनों ने उसके मन में अपने पति और ससुरालवालों के प्रति एक अजीब वितृष्णा का भाव पैदा कर दिया| धीरे धीरे उसे यह विवाह अपने सपनों के बीच एक बाधा की तरह लगने लगा| अब उसके सोचने का ढंग बदल गया था, दादी उसे बार बार डॉक्टर बनने का ताना देती थी अब वह भी उन्हें डॉक्टर बनकर ही दिखाना चाहती थी, उन्हें बताना चाहती थी कि बेशक भाई उनके अनुसार कितना भी लायक हो पर वह भी किसी से कम नहीं है|

अपने इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उसने क्या क्या पापड़ नहीं बेले, बहुत मेहनत की, मेडिकल प्रवेश परीक्षा के लिए जान लगा दी, प्रवेश परीक्षा पास करने के बाद दादाजी और बापू की मिन्नतें निकालीं कि उसे शहर के मेडिकल कॉलेज में पढ़ने जाने दें| दादी ने विरोध किया तो उनके साथ जम कर लड़ाई भी की|

एक बार तो वह निराश हो चली थी जब सबने मना कर दिया, उसके ससुरालवाले भी उसे और ज्यादा पढ़ाने को तैयार नहीं थे| उनका कहना था, ‘हमें कौनसा बहू की कमाई खानी है, भगवान का दिया सबकुछ है हमारे घर में,’ इसके पीछे का असली कारण तो यह था कि उनका बेटा ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था, और जब बेटा पढा लिखा नहीं है तो बहू कैसे पढ़ सकती है? आखिर जोड़ी तो बराबर की होनी चाहिए, चाहे फिर इसके लिए बहू को अपनी इच्छाएं दबानी ही क्यों ना पड़े| अजीब तर्क है यह, जो कभी उसकी समझ में कभी नहीं आया | अरे भई तुम्हारा बेटा नहीं पढ़ा क्योंकि उसमें योग्यता नहीं है, जिस बेटे में पढ़ने की आगे बढाने की योग्यता है उसे तो नहीं रोका किसी ने, बल्कि घर के बड़े बेटे के शहर जाकर पढ़ने पर तो सबको गर्व है| यहां बहू की वही योग्यता सबके एतराज का विषय है, उसे आगे पढने से सब रोक रहे हैं, क्यों रोक रहे हैं? और किस हक से रोक रहे हैं? अभी गौना तो हुआ ही नहीं फिर कैसे तुम उस पर अपनी सोच, लाद सकते हो? वह जानना चाहती थी पर किससे पूछती| लड़कियाँ सवाल नहीं पूछ सकती, बहूएं तो बिल्कुल भी नहीं|

वासंती को लगा उसके सपने अब टूट गए| वह हार रही थी, टूट रही थी, उसे लग रहा था उसकी आँखों में भरे आंसुओं का मोल समझने वाला कोई नहीं है| पर अचानक मास्टरजी उसके लिए एक बार फिर देवदूत की तरह सबसे बड़े मददगार सिद्ध हुए| उन्होंने ही दादाजी से बात कर उन्हें उसे जयपुर भेजने के लिए मनाया| “बधाई हो हरखारामजी, बसंती ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा पहले ही प्रयास में पास करली| मैं ना कहता था छोरी होशियार है जरुर कामयाबी पायेगी|”

“थारी बात तो ठीक है मास्टरजी पर अब छोरी जैपर जाके बड़े कॉलेज मै पढ़णगी जिद करे बैठी है| बैने थे समझावो ओ कोनी हो सके|” हरखारामजी ने मास्टरजी से कहा|

“ये कैसे संभव है हरखारामजी| अब जयपुर गए बिना डॉक्टर कैसे बनेगी लड़की| आपको तो दाद देनी चाहिए उसकी हिम्मत की| आपकी पोती ने एक छोटे से गाँव में रहकर पढ़ते हुए इतनी बड़ी सफलता हासिल की है जो बड़े शहर के ज्यादातर बच्चे भी कम से कम दो बार में जाकर हासिल कर पाते हैं| और फिर नुकसान क्या है उसे शहर भेजने में| डॉक्टर बनेगी तो गाँव का ही लाभ है| अभी ईलाज के लिए गाँव की औरतों को शहर जाना पड़ता है और देर-सवेर होने पर उनकी जान जाने का खतरा भी रहता है जब बसंती डॉक्टर बन जाएगी तो सोचो उन्हें कितना लाभ होगा| आखिर वह इसी गाँव की बेटी है और बहू भी इसी गाँव की है तो यहीं रहेगी हमारे पास |” मास्टरजी के तर्कों ने बसंती के दादाजी के साथ साथ उसके ससुरालपक्ष को भी निरुत्तर कर दिया|

दादाजी सिर्फ़ एक शर्त पर बसंती को शहर भेजने को तैयार हुए थे कि यदि उसे किसी भी तरह की कोई समस्या आई या उसकी कोई शिकायत आई तो वह उसे फ़ौरन वापस बुला लेंगे| उस दिन वह मास्टरजी की दिल से शुक्रगुज़ार थी| केवल एक मास्टरजी ही थे जो शिक्षा के महत्व को समझते थे, जिन्हें उसकी मेहनत की कदर थी, यदि आज वे ना होते तो उसकी मेहनत पर सबने पानी फेर ही दिया था| परन्तु बसंती के घरवाले तो उसके ससुरालवालों की महानता के कसीदे पढ रहे थे कि उन्होंने उसे आगे पढ़ने की इजाज़त दे दी| बसंती यह सोच कर और भी चिढ़ गयी कि उसकी इतनी बड़ी कामयाबी उसके ससुरालवालों के रहमोकरम की मोहताज बन कर रह गयी थी|

वासंती लाइब्रेरी में कुछ किताबें ढूंढ रही थी मगर उसे समझ नहीं आ रहा था कि किस लेखक की किताब उसके लिए ठीक रहेगी| तभी उसे सामने से प्रतीक आता दिखाई दिया| वह बचकर निकलना चाहती थी पर प्रतीक की भी उस पर नज़र पड़ गयी तो वह मुस्कुराता हुआ उसकी ओर बढ़ गया| “हे वासंती, हाऊ आर यू| फर्स्ट सेमेस्टर के रिजल्ट्स आ गए हैं, आपका कैसा रहा?”

“अच्छा नहीं रहा सर| बस पास ही हो पाई हूँ|” शर्म से गड़ गयी वासंती, उसे लगा उससे गलती हो गयी, उसे प्रतीक को देख कर पहले ही यहाँ से निकल लेना चाहिए था| अब ये और इसके दोस्त उसका मज़ाक बनायेंगे|

“ओह! इट्स ओके! हो जाता है कभी कभी| एक तो सेमेस्टर ही लेट शुरू हुआ था फिर शुरू शुरू में नए माहौल में सेटल होने में भी प्रोब्लम आती है इससे भी पढाई से फॉकस हट जाता है| मुझे लगता है शायद आपके साथ लैंग्वेज की प्रोब्लम भी आई होगी| हिंदी मीडियम से एकदम इंग्लिश मीडियम में आना आसन नहीं होता| दिल छोटा मत करो इस बार थोड़ी ज्यादा मेहनत कर लेना अच्छे मार्क्स स्कोर कर लोगी| कोई मदद चाहिए हो तो बता देना, हम बता देंगे| अब तो हम दोस्त हैं ना|”

‘तबेले वाली चली थी डॉक्टर बनने’ वासंती किसी ऐसे ही डायलोग का इंतज़ार कर थी| पर प्रतीक को उम्मीद के विपरीत बात करते देख वासंती को थोड़ा आश्चर्य हुआ, उसने वासंती को श्वेता की तरह डांटा भी नहीं और कितनी सरल भाषा में उसकी गलती भी बता दी| वासंती ने शालीनता से मुस्कुराते हुए उसने प्रतीक को धन्यवाद कहा|

“किताबें ढूंढ रही हो? मैं कुछ मदद कर दूं? बताओ किस सब्जेक्ट की किताब चाहिए, मैं देख कर देता हूँ|”

“एनाटोमी|” वसन्ति केवल इतना भर कह पाई कि प्रतीक आगे बढ़ कर उसके लिए किताबें देखने लगा साथ ही वह उसे कुछ रेफरेंस बुक्स के बारे में भी बताता जा रहा था| “ये लो, ये आपके काम आएँगी| मेरे पास कुछ नोट्स भी रखे हैं थोड़ी सरल भाषा में हैं मैंने रजत के लिए बनाये थे क्योंकि वो भी हिंदी मीडियम से था| मैं ला दूंगा आप उन्हें भी पढ़ना आपको समझनें में आसानी होगी|”

“धन्यवाद सर|” इस बार वासंती की आवाज़ में कृतज्ञता भी थी| प्रतीक मुस्कुरा दिया| आज पहली बार वासंती को प्रतीक में एक सुलझा हुआ इंसान नज़र आया वरना तो वह उसे अकडू और बददिमाग ही समझती आई थी| अनजाने ही वह प्रतीक की तुलना अपने पति से कर बैठी| दोनों में जमीन आसमान का फ़र्क था| एक ओर प्रतीक उसकी पढाई में मदद कर रहा है, उसके लिए किताबें ढूंढ रहा है और दूसरी ओर उसके पति ने पुरज़ोर कोशिश की थी उसे जयपुर आने से रोकने की| यद्यपि बचपन की दहलीज़ लांघते ही उनके मिलने जुलने पर पाबन्दी थी पर फोन पर बात हो जाती थी कभी कभी| उस दिन जब उसका फोन आया था तो काफ़ी उखड़ा हुआ था, बोला था, “के जरूरत है जैपर जाणगी, डॉक्टर बणनो जरुरी थोड़ी है, कीं और पढ़ ले| तू डॉक्टर कोणी बणे तो दुनिया थोड़ी पलट जासी| घरे बैठ आराम ऊँ कोई जरूरत कोनी कठे भी जाणगी|”

जब वासंती उसकी बात नहीं मानी तो उससे झगड़ भी पड़ा था, गौने के बाद देख लेने की धमकी भी देने लगा था, बोला, “मैं थारो बींद हूँ म्हारी बात तो तन्ने माननी ही पड़ेगी, अभी मन गी करले, एकर मेरे घरे आ फेर बताऊँ तन्ने कियां जाये करे है छोरियां शहर पढ़ण|” वह फिर भी नहीं मानी तो उसने अपने और वासंती के दादाजी की आड़ लेकर भी उसे रोकने की कोशिश की पर उसका यह दाव भी मास्टरजी ने बेकार कर दिया तो उसने एक कोशिश और भी की यह कह कर कि उसका और वासंती का गौना करवा दो तो वह भी उसके साथ चला जायेगा फिर वासंती को अकेले नहीं रहना पड़ेगा| पर इसके लिए उसके अपने दादाजी ने मना कर दिया क्योंकि उस साल बरसात कम होने के कारण फ़सल अच्छी नहीं हुई थी और दोनों ही परिवार गौने पर होने वाला बड़ा खर्च उठाने की स्थिति में नहीं थे| फिर वो अपने दोनों पोतों के ब्याह की तरह उनका गौना भी एक साथ ही करवाना चाहते थे और सोहन भाईजी अभी दिल्ली में आई. ए. एस. की तयारी कर रहे थे और वे गौने के लिए तैयार नहीं थे| सोहन भाईजी ने समझाया तो आखिर तिलक को हार माननी पड़ी|

तिलक तो बसंती को छोड़ने भी आना चाहता था पर उसने ही मना कर दिया| अच्छा ही हुआ वरना कॉलेज में पहले दिन जो वाकया हुआ, अगर उसके बारे में वह दादाजी को बता देता तो शायद फिर वासंती का आगे पढ़ पाना मुमकिन ना होता| वैसे भी सब लोगों ने वासंती का ही गंवार कह कर मज़ाक उड़ाया था अगर वे तिलक से मिलते तो जाने क्या हाल करते| उसका हुलिया देख कर तो यहाँ कोई अपनी हंसी भी नहीं रोक पाता|

वासंती को उस दिन प्रतीक के रूप में एक अच्छा मित्र मिल गया जो हमेशा उसकी मदद करता, उसका ख्याल रखता| ऐसा तो उसने कभी नहीं देखा था| उसके गाँव में पुरुषों का व्यवहार स्त्रियों के प्रति ऐसा नहीं होता| अधिकतर पुरुष तो स्त्रियों की समस्याओं के प्रति उदासीन ही रहते थे और यदि कोई समझने का प्रयास भी करता तो उसे लोक लाज के नाम पर चुप रह जाना पड़ता था| हाँ इस बार जब वह छुट्टियों में घर गयी थी तो तिलक ने जरुर उसके साथ अपनी एक योजना शेयर करी थी, “बसंती जद तू डाक्टर बण जावेगी ना तो मैं तेरे वास्ते गाँव में एक बड़ो हस्पताल खोलूँगा, फेर तू आपगे हस्पताल में ही डॉक्टरी करी|”

“ठीक है, पर आ बता हस्पताल बनाण वास्ते जमीन कठे है, और पीसा भी तो चाहिए, पीसा कठे है?” तिलक की बातें सुन कर उसे मज़ा आया तो वह भी उसके साथ शुरू हो गयी| उसके सवालों का तिलक को एकदम से कोई जवाब नहीं सूझा क्योंकि वह अभी तक कोई काम नहीं लगा था और उसकी छवि भी एक लापरवाह छोरे की ही थी तो परिवार में भी कोई उसकी मदद नहीं करने वाला था| कुछ देर सोच कर बोला, “एक बारी खेत में तम्बू गाड़ ल्यांगा| डाक्टरी गो सामान तू लियाई, मेज कुर्सी मैं लियाऊंगा तेरो हस्पताल चाल जासी|” तिलक की योजना सुनकर वह हंसते हंसते लोटपोट हो गयी थी और वह बेचारा सकपका गया था|

“अभी मेरे डॉक्टर बणन में भोत टाइम है| पहलां मन्ने डिग्री मिलण दे फेर होस्पिटल बणाई|”

बेचारे छोटे से गाँव के तिलक के सपने भी छोटे छोटे ही थे| वहीँ प्रतीक के सपने बड़े थे| वह तो एम.एस. एम.डी. करने और किसी बड़े हॉस्पिटल में विश्वप्रसिद्ध सर्जन बनने के ख्वाब देखता था| वह वासंती को भी हमेशा और ज्यादा मेहनत करने के लिए प्रेरित किया करता था|