mahakavi bhavbhuti - 7 in Hindi Fiction Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | महाकवि भवभूति - 7

Featured Books
  • શ્રાપિત પ્રેમ - 18

    વિભા એ એક બાળકને જન્મ આપ્યો છે અને તેનો જન્મ ઓપરેશનથી થયો છે...

  • ખજાનો - 84

    જોનીની હિંમત અને બહાદુરીની દાદ આપતા સૌ કોઈ તેને થંબ બતાવી વે...

  • લવ યુ યાર - ભાગ 69

    સાંવરીએ મનોમન નક્કી કરી લીધું કે, હું મારા મીતને એકલો નહીં પ...

  • નિતુ - પ્રકરણ 51

    નિતુ : ૫૧ (ધ ગેમ ઇજ ઓન) નિતુ અને કરુણા બીજા દિવસથી જાણે કશું...

  • હું અને મારા અહસાસ - 108

    બ્રહ્માંડના હૃદયમાંથી નફરતને નાબૂદ કરતા રહો. ચાલો પ્રેમની જ્...

Categories
Share

महाकवि भवभूति - 7

महाकवि भवभूति 7

अतीत का झरोखा मालतीमाधवम्

शोभयात्रा में समग्र जीवन की झांकी संयुक्तरूप से एकरस होकर मुखरित हो उठती है। विविधता में एकता के दर्शन का आनन्द शोभायात्रा से मिलता है।

किसी लेखक अथवा रचनाकार को अपने सृजन पर पुनर्विचार अवश्य ही करना चाहिये। मेरा आग्रह है कि वे अपने लेखन पर एक बार पुनर्दृष्टि डालकर देखें और यह सुनिश्चित कर लें कि वर्तमान में उसमें कही बातों का मूल्य यथावत हैं या नहीं। क्या वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उनका लेखन उतना ही सटीक है, जितना कि लेखनकाल में था। सही सोचकर भवभूति अपने नाटक मालतीमाधवम् पर पुनर्विचार करने लगे।् उसका कथ्य क्रमशः उनके चिन्तन में आने लगा। साथ ही वे अपने आपको भी इस कृति में खेाजने लगे ।

नाटक के प्रारम्भ में महादेव की स्तुति प्रस्तुत करने के बाद भगवान कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव प्रसंग में विशाल जन समूह उपस्थित है। इसी समय सुन पड़ता है, सुत्रधार का यह कथन-

दक्षिण देश में पद्मपुर नामक एक नगर है। वहाँ तैत्तरीय शाखा वाले कश्यप गोत्र, दक्षिणाग्नि आदि पाँच अग्नियों का आव्हान करने वाले, सोमपायी चन्द्रपरायण आदि व्रत करने वाले, उदुम्बर नाम वाले, बेदाग व शुद्ध चैतन्य रूप ब्राह्मण तत्व निर्णय के लिये अधिक शास्त्र श्रवण का अनुष्ठान करने वाले और तड़ाग आदि कार्य के लिये धन का, संतान के लिये पत्नी का तथा तपस्या के लिये आयु का नित्य आदर करने वाले हैं। अतः उस कुल में उत्पन्न पुज्यनीय भट्ट गोपाल के पौत्र, पवित्र कीर्तिवाले नीलकण्ठ के पुत्र, व्याकरण मीमांसा और न्यायशास्त्र के विद्वान भवभूति उपाधि वाले श्रीकण्ठ नामक कवि ने नटों में स्वाभाविक सैाहार्द से व्यवहार कर ऐसे गुणों से रचित अपनी कृति मालतीमाधवम् नामक प्रकरण को हमारे हाथों में समर्पित किया है। इसी प्रकरण में उनके गुरुदेव का नाम ज्ञाननिधि एवं उनकी माताश्री का नाम जातुकर्णी है।

इसके बाद नट के कथन में- ‘विद्वान् ने अपने सम्पूर्ण वंश का परिचय कराकर नटवर्ग पुरुषों को पढ़ाया है। बौद्ध भिक्षुणी कामन्दकी की प्रथम भूमिका का तो विद्वान आप ही अभ्यास कर रहे हैं।

पूर्वकाल में भूरिवसु और देवरात नामके दो ब्राह्मण कुमारों की छात्रावस्था में घनिष्ठ मित्रता हुई। अपनी मित्रता को परिपक्व बनाये रखने के लिये दोनों मित्रांे में तय किया गया कि हम दोनों अपनी संतान को वैवाहिक सूत्र में आबद्ध करने के लिये वचनवद्ध हैं, यह परामर्श बौद्ध योगिनी और उसकी शिष्या सौदामिनी को भी विदित हो गया था।

कालान्तर में भूरिवसु पद्मावती के राजा के मंत्री हुये और उसी तरह देवरात को विदर्भराज का मंत्री पद प्राप्त हुआ। इसके बाद भूरिवसु को मालती नामक पुत्री और देवरात को माधव नामक पुत्र प्राप्त हुआ।

हमारे दर्शक यहाँ समझ जायेंगे कि यह विदर्भ राज्य का माधव और कोई नहीं, विदर्भ से संबंध होने के कारण मुझ में ही इस पात्र का अवलोकन करने लगेंगे। वे समझ जायेंगे कि विदर्भ राज्य का माधव और कोई नहीं मैं ही हूँ।

इस नाटक के सारे ताने-बाने अपने इर्द-गिर्द ही हैं। यह नाटक अपने ही आसपास की घटनाओं का क्रम है। माधव सुन्दर और चरित्रवान है। मेरी तरह ही वह व्याकरण, न्यायशास्त्र एवं मीमांसा आदि में पारंगत हो गया है। मकरकन्द से उसकी मित्रता हो गई है।

याद हो आई पत्नी दुर्गा की, मालती भी दुर्गा की तरह परम सुन्दरी, मितभाषिणी, माता-पिता और गुरुजनों की आज्ञाकारिणी है। वह भी विद्याओं एवं कलाओं आदि में दुर्गा की तरह ही निपुण है। इधर जब दोनों मित्रों को अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने का अवसर आया तब एक समस्या आकर उपस्थित हो गई। पद्मावती महाराज के नन्दन नामक सचिव थे। उन्होंने राजा के द्वारा भूरिवसु को अपने अनुकुल बनाकर मालती के साथ विवाह करने के लिये याचना की।

भूरिवसु का अपना प्रण पूर्ण करने में एक बड़ी अड़चन आ पड़ी। अपनी सुन्दर सुकुमारी पुत्री का कर्कश स्वभाव, कुरूप और अधिक उम्र वाले नन्दन के साथ विवाह की स्वीकृति देने में अत्यन्त क्लेश का सामना करना पड़ा। अंत में विवश होकर उन्होंने वाक् कौशल से राजा के प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। यह वृतान्त बौद्ध भिक्षुणी कामन्दकी को भी विदित हो गया। वे अपने दोनों मित्रों की प्रतिज्ञा को पूर्ण करने के लिये गुप्तरूप से मालती और माधव का विवाह कराने के लिये अपनी शिष्या अवलोकिता के साथ मंत्रणा की।

बौद्ध भिक्षुणी की बात याद आते ही उन्हें याद हो आई मातेश्वरी कामन्दकी की। कितना उत्साह था उनमें किसी काम के प्रति। समाज की सेवा में अपना सर्वस्व अर्पण करने को वे हमेशा तैयार रहती थीं। इसमें वे अपने भिक्षुणियों-योगिनियों के पद को भी भूल जाती थीं। यूँ अपने मुख्य कर्तव्य से च्युत होने में उन्हें कोई संकोच नहीं रहता था। ऐसी उनकी भावुकता के कारण यहाँ बौद्ध धर्म का ह्रास होने लगा है।

मेरी अपनी प्रगति में बौद्ध योगिनियों का कितना सहयोग रहा है। यह मैं जीवन भर भूल नहीं पाऊँगा। आज के सामाजिक परिवेश का यह मालतीमाधवम् नाटक उन्हीं के सहयोग से लिखा जा सका है इसका प्रदर्शन भी उन्हीं के सहयोग से किया गया था। मातेश्वरी कामन्दकी का चरित ही मुझे रुचिकर लगा है। इसी कारण मैंने मंचन के समय इसका सफलतापूर्वक अभिनय किया है। इसका स्पष्ट संकेत तो नाटक के प्रारम्भ में ही दिया जा चुका है।

कुछ समय व्यतीत होने पर विदर्भ राज के मंत्री देवरात ने अपने मित्र भूरिवसु को पूर्व प्रतिज्ञा की याद दिलाने के लिये अपने पुत्र माधव को न्यायशास्त्र के अध्ययन हेतु पद्मावती नगरी के लिये भेजा।

यह प्रसंग भी मेरे अपने जीवन से पूरी तरह मेल खाता है। मैं भी न्यायशास्त्र, व्याकरण और मीमांसा आदि के अध्ययन के लिये विदर्भ से पद्मावती आया था। पद्मावती का नाम जुड़ने से तो यह मेरे जीवन की पृष्ठभूमि से भी पूरी तरह मेल खाता है। ऐसी बातें नाटक में समाविष्ट हो गई हैं, जिससे मेरे बारे में सम्पूर्ण जानकारी प्राप्त की जा सकती है। यदि मुझे ये संकेत दर्शकों को न देना होते तो नाटक के पूर्व में ही मैं अपना परिचय क्यों प्रस्तुत करता ?

इन सभी तथ्यों को साथ-साथ रखने पर जो निष्कर्ष निकाला जा सकता है। वह सहजरूप से ही पाठकों एवं दर्शकों के समक्ष स्पष्ट हो जाता है कि यह नाटक के कल्पित बिन्दुओं को छोड़कर शेष मेरे अपने जीवन का ही लेख है। कोई भी कवि या लेखक अपने आसपास कितना काल्पनिक संसार बसा पाता है जितना उसे अपनी बात कहने के लिये आवश्यक लगे। रही पात्रों की बात वे काल्पनिक नाम के तो होते हैं पर किसी न किसी सजीव की आत्मा उसके कल्पना लोक में बसी रहती है। ऐसे चरित उभर कर जब सामने आते हैं तो इसमें भटकाव की संभावना नहीं रहती।

इस प्रकार मेरे प्रत्येक पात्र में कोई न कोई नजदीकी ही, सजीव होकर निवास करता है। चाहे पत्नी दुर्गा मालती में और मैं स्वयं माधव में। हाँ कुछ बौद्ध भिक्षुणी कामन्दकी जैसे पात्र अपने ऊँचे चरित्र के लिये आवश्यक परिवर्तन के साथ जैसे के तैसे रख लिये हैं। अपने इन नाटकों में कहीं भी राजा का नाम नहीं दे पाया हँू। राजभय या राजभक्ति के कारण किसी कवि अथवा लेखक को ऐसा करने की उसकी विवशता होती है।

इधर मंत्री भूरिवसु राजा के प्रस्ताव को स्वीकार कर अपनी पुत्री मालती का विवाह माधव के साथ न होने के कारण उदास हो जाते हैं। मातेश्वरी कामन्दकी की आज्ञा के अनुसार उनकी शिष्या अवलोकिता मालती और माधव में परस्पर अनुराग उत्पन्न करने के लिये माधव को मंत्री भूरिवसु के भवन के समीपस्थ मार्ग से विचरण कराने लगती है। उनका यह कार्य आंशिक रूप से सफल ही रहा। माधव की सौम्य सुन्दर आकृति को देखकर मालती को उससे अनुराग हो गया। मालती ने अपने दिल की संतुष्टि के लिये माधव का चित्र बनाया। वह चित्र माधव के हाथ में पड़ गया तो उसे भी मालती का अनुराग विदित हो गया।

अब इस कौशल को पूर्ण रूप से सफल बनाने के लिये अवलोकिता ने माधव को मदन उद्यान के उत्सव में भेज दिया। प्रातःकाल से ही माधव उद्यान में वकुलवृक्ष (मौलश्री) के नीचे बैठकर उसके फूलों की माला तैयार करने लगा। उसी समय सुन्दर वेशभूषा में सहेलियों से घिरी हुई मालती हाथी पर चढ़कर वहाँ आई। इस प्रकार माधव ने मालती के अनुपम सौन्दर्य का पान कर लिया। वे भी प्रथम दर्शन से ही मालती के प्रति आकृष्ट हो गये। मालती तो पहले दूर से ही माधव को देखकर उस पर अनुरक्त हो गई थी। इस बार निकट से उनके रूपसुधा का पान कर अपने को सँभाल न सकी।

उनके वहाँ से चले जाने पर माधव मालती के विरह का अनुभव करने लगे। इसी समय उसका मित्र मकरन्द आया। दोनों के नूतन प्रणय के बारे में बातें होने लगीं।

उसी समय मालती के द्वारा बनाये गये चित्र को लेकर माधव का अनुचर कलहंस वहाँ आया। उस चित्र को देखकर माधव को अत्यन्त प्रसन्नता हुई। माधव ने भी मालती का चित्र बनाया, उसी समय अपने प्रणयी कलहंस से छीने गये उस चित्र को खोजती हुई कलहंस की प्रणयिनी मंदारिका भी वहाँ आई, इससे उन दोनों को मालती के प्रेम का पता चल गया।

मकरन्द में मेरे एक निकटवर्ती मित्र आचार्य शर्मा की आत्मा निवास करती है। ऐसे ही कलहंस में महाशिल्पी वेदराम की आभा समाहित है। माधव का मित्र हो अथवा मेरा मित्र हो बात एक ही है। नाटक के पात्रों में अपने नजदीकी जनों का चरित ही प्रतिस्थापित रहता है, जिससे उनके स्वभाव, कार्यकलाप एवं उनके बातचीत करने के ढंग में भ्रमित होने की संभावना नहीं रहती। व्यर्थ काल्पनिक बिम्बों को स्मृति में बनाये रखने की आवश्यकता भी नहीं रही है।

इस समय मैं मालतीमाधवम् में बारम्बार अपने को खोजने लगता हूँ। इससे मुझे अपने जीवन की भूली-बिसरी घटनाओं की याद आने लगती है।

मालती और माधव के परस्पर प्रणय अंकुरित करने में कामन्दकी सफल हुई। अब राजा की आज्ञा पालन में तत्पर, मालती अपने पिता भूरिवसु पर कैेसे प्रभाव डालती है कि वह स्वेच्छा से ही माधव के साथ उसका विवाह करने को तैयार हो जाये। इस बात की चिन्ता कामन्दकी को सताने लगी। भूरिवसु भी अपनी पुत्री मालती का विवाह नन्दन के साथ नहीं करना चाहते थे, किन्तु सेवाधर्म की कठोरता के कारण भूरिवसु के प्रत्यक्ष रूप से माधव के साथ पुत्री का विवाह नहीं कर सकते थे। इन दिनों मालती का माधव के प्रति प्रेम पराकाष्ठा पर पहँुच गया। अपनी इच्छा पूर्ण करने के लिये कामन्दकी मालती के पास आई और उससे बात की। प्रसंगवश मालती के साथ नन्दन के विवाह की चर्चा चल पड़ी। उसने कहा आपके पिताश्री आपका विवाह नन्दन से सुनिश्चित कर चुके हैं और तुम हो कि माधव पर अनुरक्त हो। यह सुन मालती अत्यधिक दुःखी हुई। मालती अपने कर्तव्यनिष्ठ पिता को, राजा की आज्ञा के उल्लंघन में असमर्थ पाती थी। वहीं माधव से विवाह न होने के कारण अधिक दुःख का अनुभव करने लगी।

बौद्ध योगिनी कामन्दकी ने पिता भूरिवसु से मालती के मन में अश्रृद्धा उत्पन्न करने के लिये उर्वशी, शकुन्तला और वासवदत्ता आदि कुलीन स्त्रियांे के प्रसंग को चलाकर उपदेश दिया। पिता की अनुमति की चिन्ता न कर पुरुरवा, दुष्यन्त और उदयन आदि युवकों से अपना वैवाहिक सम्बन्ध जोड़ लिया था, उसी प्रकार माधव के साथ उसे भी अपने सम्बन्ध जोड़ लेना चाहिये। इस प्रकार के कौशल से कामन्दकी ने मालती के मन में पिता के प्रति अश्रृद्धा उत्पन्न कर दी, जिससे मालती माधव के साथ विवाह करने को तैयार हो गयी।

प्रसंगवश याद आने लगी अपने जीवन की वह घटना जिसमें मातेश्वरी कामन्दकी के सहयोग से उनका विवाह हो पाया था। उनके विवाह में पार्वती नन्दन के कारण कितने अवरोध आये थे? बेचारे माधव की भी ऐसी ही दुर्दशा मैंने इस कृति में की है।

ऐसे समय नन्दन जैसे पात्र सामने आ जाते हैं। राजा को छोटी-छोटी बातों में लिप्त करके, उनका शोषण करते रहते हैं। किस तरह से धूर्त लोगों पर राजा जैसे लोग विश्वास करने लगते हैं। इस घटना से राजा का चरित्र पूरी तरह उजागर हो गया है। जब शादी-विवाह जैसे प्रकरण में राजा हस्तक्षेप करने लगे, समझ लो राजा और राज्य, पतन की पराकाष्ठा पर पहुँच गये हैं। इस एक घटना ने सम्पूर्ण राजसत्ता के चरित को उजागर कर दिया है। वर्तमान राजनैतिक स्थितियों के संकेत इसके माध्यम से कर दिये हैं। इससे अधिक व्यवस्था के बारे में कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं है। यह तो उस समय की राजनैतिक एवं समाजिक व्यवस्था का स्पष्ट उल्लेख है।

बौद्ध भिक्षुणी कामन्दकी नन्दन की बहन मदयन्तिका के साथ माधव के मित्र मकरन्द का विवाह भी करना चाहती थीं। इस काम के लिये उन्होंने पहले ही मकरन्द के चित्र से आकृष्ट करने के लिये अपनी सखी बुद्धिरक्षिता को मदयन्तिका के पास सखी की तरह रख दिया। इधर कामन्दकी ने उद्यान के शिव मंदिर के पास माधव को बैठा दिया। उस दिन कृष्णपक्ष चतुर्दशी थी। अतः सिद्धि पाने के लिये अपने हाथांे से फूलों को तोड़कर मालती से देवता को अर्पण करने के लिये कहा।

इधर माधव ने शिव मंदिर के पास खड़े होकर मालती को पुष्प संचयन करते हुये देखा। उसी समय लवंगिका मालती को पुष्प आदि से उद्दीप्त कर कामाविष्ट करने का प्रयास कर रही थी। ऐसी स्थिति में माधव का चित्त भी अपने अधीन न रहा।

कुछ समय के बाद कामन्दकी ने मालती को अपने पास बुलाया, उधर मदनो़द्यान के उत्सव के बाद मालती के विरह से माधव की दशा शोचनीय हो रही थी। इसी समय लवंगिका ने माधव का चित्र और उन्हीं के हाथों से गुम्फित माला मालती को दिखाई।

ये सभी प्रसंग मेरे मित्रों के विवाह से सम्बन्धित हैं। पात्रों के नाम एवं घटनायें पृथक हैं।

इसी अवसर पर पिंजड़ा तोड़कर एक शेर निकल भागा। उसने कई मनुष्यों व जानवरांे को मरणासन्न कर डाला। यह देखकर भगदड़ मच गई। वह शेर मदयन्तिका पर झपट पड़ा। उसे बचाने क लिये कोई रक्षक दिखाई नहीं पड़ा। सौभाग्यवश मकरन्द ही हाथ में तलवार लेकर आ गया। वह शेर से लड़ने लगा। उसने शेर को मार डाला। इस प्रकार मदयन्तिका की रक्षा की। रक्त बहने से मकरन्द मूर्छित हो गया।

उस कोलाहल को सुनकर माधव भी वहाँ आ गया और मित्र मकरन्द की जान बचाने के लिये दौड़ पड़ा। किन्तु इससे पूर्व ही शेर मारा जा चुका था। मित्र को मूर्छित देखकर माधव भी संज्ञा शून्य हो गया।

उस दिन इस नाट्य कृति को लिखते समय मैंने सोचा था कि मैं यह क्या लिख गया! मैंने शेर को मारने का दृश्य दिखाकर अच्छा नहीं किया। यह राजा लोग शिकार के बहाने वन्य प्राणियों की निर्दयिता से हत्या कर डालते हैं। ये लोग यह नहीं जानते कि वे ऐसा करके प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहे हैं। लोगों की समझ में तो यह बात तब आयेगी जब प्रकृति का संतुलन पूरी तर बिगड़ चुका होगा।

उस दिन यह घटना नायक की वीरता प्रदर्शन के लिये आवश्यक थी। नायक को वीर और धीर होना ही चाहिए। परम्परा से नायक में ये गुण होना वांछनीय भी है। शेर वाली घटना से लोगों को यह संकेत मिलेगा कि पद्मावती में वन्य प्राणियों के लिये संग्रहालय थे। किसी की सुस्ती की कमी के कारण शेर छूट गया। वह बड़ी कठिनाई से मारा गया। इन्हीं सब घटनाओं का वर्णन इस नाटक के माध्यम से किया गया है।

ये सब आसपास की घटित घटनायें हैं, जिनका संकेत इस नाटक में आ गया है कुछ पूर्ववर्ती नाटकों के प्रभाव को भी इस पर स्वीकार करता हूँ।

नाटक के मूल कथ्य को छोड़कर मैं देशकाल की परिधि से परिचित कराने लगा। इसमें जो लिखा है, वह अपने समय की घटनाओं का बोध कराता रहेगा।

कामन्दकी ने माधव पर जल सिंचन करके उसकी मूर्छा का निवारण किया। माधव की मूर्छा हट गई। इसी अवसर पर मदयन्तिका और मकरन्द ने एक दूसरे को अच्छी तरह समझ लिया, जिससे दोनों में प्रणय का संचार हो गया।

इस तरह दोनों में घनिष्ठ प्रेम का संचरण हुआ। उसी समय एक व्यक्ति ने आकर बताया कि राजा की आज्ञा से नन्दन के साथ मालती के विवाह की बात पक्की हो गई है। वैवाहिक कार्य के सम्पादन के लिये नन्दन ने अपनी बहन मदयन्तिका को बुलाया है। मदयन्तिका यह जानकर बहुत ही प्रसन्न हुई कि मालती मेरी भौजाई बन रही है। अब वह मेरे साथ एक ही घर में रहेगी।

मालती और माधव को इस समाचार से बहुत दुःख हुआ। उन्हें अपनी आश पूर्ण होने में संदेह लगने लगा। कामन्दकी ने उन दोनों को साँन्त्वना प्रदान की। जब वैवाहिक वेशभूषा में सुसज्जित करने के लिये मालती को बुलाया गया। दोनों प्रणय के समुद्र में गोते लगाने लगे।

माधव कामन्दकी के आश्वासन को निस्सार समझने लगे। अब उन्हें समाचार के अनुसार श्मशान में पिशाचों को मांस विक्रय में अपनी आशा पूरी होने की संभावना प्रतीत होने लगी। मकरन्द ने माधव से मदयन्तिका के प्रति अपनी प्रगाढ़ उत्कण्ठा को प्रकट कर दिया। इसके बाद दोनों मित्रों ने नगरी की ओर प्रस्थान किया।

नाटक की इस घटना से लोग समझ जायेंगे कि माधव जैसे नायक भी अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये वामाचार के रास्ते चले जाते थे फिर जन सामान्य की स्थिति तो इससे भी निकृष्ट रही होगी।

यहाँ भवभूति को अपने बुद्धि कौशल पर गर्व का अनुभव हुआ कि उन्होंने किस प्रकार प्रतीक के रूप में श्मशान में महामांस विक्रय की बात करके व्यवस्था के बारे में क्या कुछ नहीं कह दिया!

भयंकर वेषवाली कापालिक कपालकुण्डला अपने गुरु अघेारघंट की सफलता के लिये, किये जाने वाले बलिपात्र के अन्वेषण के लिये आकाश मार्ग से भ्रमण करने लगी। उस समय उसने श्मशान में एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में नरमांस लिये हुये माधव को देखा।

कापालिक के आकाश मार्ग से संचरण वाली बात सभी को आश्चर्य में डाल देगी। सामाजिक परिवेश पर लिखे गये नाटक में ऐसी बातों का समावेश अस्वाभाविक लगेगा, लेकिन आप लोेगों को यह तो जानना ही चाहिए कि योग में बड़ी शक्ति निहित है। यहाँ योग का दुरुपयोग किया जा रहा है, इससे ये लोग पथ भ्रष्ट होकर पतन के मुख में समा जायेंगे। यहाँ प्रबुद्ध जनांे को समझाने इतने ही संकेत पर्याप्त हैं ।

अर्धरात्रि के समय करालादेवी के मंदिर के पास वाले श्मशान में माधव नरमांस बेचने के लिये पर्यटन कर रहा है। उसे उस समय रह-रह कर मालती की याद आ रही थी। उसे अपनी इच्छा र्पूिर्त करने के लिये कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। इसी समय उसे भयंकर आकृति वाले रक्त और मांस का अपयोग करते अगणित पिशाच और श्रृगाल दिखाई पड़े। सारे श्मशान में संचरण करने पर भी डर के मारे कोई भी पिशाच माधव के हाथ में स्थित महामांस को खरीदने को प्रस्तुत नहीं हुये। इसी समय किसी का करुण रोदन सुनाई पड़ा। वह स्वर करालादेवी के मंदिर से आता हुआ और कुछ परिचित सा प्रतीत होने लगा।

इसी समय मालती बंधी हुई, देवपूजन में तत्पर, कपालकुण्डला और अघोरघण्ट माधव को रास्तें में जाते हुये दिखे। पूजा समाप्ति के बाद स्तुति पाठ करके जब कापालिक अघोरघण्ट मालती पर खड़ग प्रहार के लिये तत्पर हुआ, उसी समय उसका पीछा कर रहा माधव, इस वीभत्स कार्य को रोकने के लिये बीच में कूद पड़ा। मालती ने जीवन बचाने के लिये उससे कातर भाव में प्रार्थना की। कपालकुण्डला ने अपने गुरु को माधव का परिचय दिया। कुपित कापालिक एवं माधव में कहा सुनी होने लगी और दोनों लड़ने लगे। माधव ने अघोरघण्ट का वध कर दिया।

समाज में इस प्रकार के कार्यों में नरबलि की परम्परा चली आ रही थी। यहाँ मैंने नारीबलि की बात को प्रस्तुत करके नाटक में गहरी करुणा का भाव भरने का प्रयास किया है। इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि नारी बलि जैसा घृणित कार्य भी ये कापालिक लोग करने लगे थे। माधव के द्वारा अघोरघण्ट के वध से कापालिकों की अस्तित्वहीन शक्ति की ओर संकेत दिया गया है।

विवाह के अवसर पर मालती के खो जाने से उसकी खोज की जाने लगी। कामन्दकी के परामर्श से भूरिवसु की आज्ञा से रक्षकों ने करालादेवी के मंदिर को घेर लिया। आखिर माधव द्वारा बचाई मालती मिल गयी।

इसके बाद मालती के विवाह की तैयारी होने लगी। अनेक प्रकार की सामग्रियों का संग्रह किया जाने लगा। नगर में उल्लास का वातावरण उत्पन्न होनें लगा। परन्तु वधू मालती की स्थिति सभी को ज्ञात न थी। मालती और माधव दोनों को ही अपनी आशा पूर्ण होने में संदेह होने लगा। इस समय कामन्दकी ने उनका इस विपत्ति से उबारने के लिये एक उपाय सुझाया। उसने माधव ओर मकरन्द को देवी के मंदिर में छिपा दिया। वधूवेष में सुसज्जित मालती को सौभाग्य वृद्धि के लिये उनकी माता की अनुमति से देवी मंदिर में जाने के लिये कहा गया। उसी समय राजा ने वधू मालती के लिये विवाह के उपयुक्त वस्त्र और आभूषणों को भेजा। कामन्दकी ने मंदिर के भीतर ही मालती को वस्त्र पहनाने के लिये लवंगिका को आज्ञा दे दी। उसने मालती को वस्त्र पहनाने चाहे। मालती ने इसे अस्वीकार कर दिया। हाथ जोड़कर मालती ने उससे प्रार्थना की, तुम मुझे सुसज्जित करना चाहती हो, तो मेरे प्राणेश्वर माधव के एकबार मुझे दर्शन करा दो। इसके बाद मैं उनका स्मरण कर अपने जीवन को विसर्जित कर दूँगी। ऐसा कहकर वह लवंगिका के चरणों में गिर पड़ी। लवंगिका ने माधव को संकेत कर दिया ओर स्वयं वहाँ से हट गई मालती ने उठकर उसे माधव जानकर प्रगाढ़ आलिंगन में ले लिया। माधव ने मौलश्री की माला अपने कण्ठ से उतार कर मालती को पहना दी। यह देखकर वह लज्जा से पीछे हट गई। इसी समय माधव ने अनेक प्रणय पूर्ण बातें मालती को कह सुनायी।

इतने पर भी भारतीय कुमारी सुलभ शालीनता के कारण मालती अपने पिताश्री की आज्ञा कों लाँघने में असमर्थ रही। उसी समय वहाँ कामन्दकी ने आकर समय के अनुकूल कार्य करने के लिये दोनों को समझाया। इस प्रकार कामन्दकी ने मालती और माधव का गन्धर्व विवाह करा दिया।

दुर्गा के साथ मेरी शादी में बौद्ध भिक्षुणी मातेश्वरी कामन्दकी का ही सहयोग रहा था। आज मैं इस नगरी में बौद्धधर्म के अस्तित्व के बारे में आप लोगों से चर्चा करने जा रहा हँू। इस नगरी में अब तो बौद्ध धर्म के एक दो ही विहार शेष रह गये हैं। बौद्ध योगिनी शादी-ब्याह की व्यवस्था में मदद करने में लगीं रहती है। ये लोग अपने लक्ष्य से भटक गये हैं। कामन्दकी जैसे पात्रों का यहाँ पूरा अस्तित्व था। संभव है किसी दिन इनका इस नगरी से अस्तित्व पूरी तरह समाप्त ही हो जाये। हम सब लोग भी तो उसके अस्तित्व को मटियामेट करने में संलग्न हैं। ये लोग हैं कि अधिक भावुक बनकर मुख्य कर्तव्य से हटते जा रहे हैं। इसी कारण इनकी संख्या में दिन प्रतिदिन कमी आती जा रही है।

नन्दन के विवाह में कठिनाई उपस्थित होने लगी। कामन्दकी ने मकरन्द को मालती की वेशभूषा में सुसज्जित कर स्त्री सदृश बनाकर नन्दन के पास भेजा। मालती और माधव को उद्यान मे रखा। वहीं दोनों का विवाह करा दिया। उधर जाकर नन्दन की शादी, मालती का रूप धारण करने वाले मकरन्द के साथ सम्पन्न हो गयी।

नन्दन सुहागरात में नवपरिणिता वधू जानकर मकरन्द के पास गये। मकरन्द ने उन्हें फटकार दिया। इस पर नन्दन बलात्कार के लिये प्रस्तुत हो गये। मकरन्द ने उनको प्रताड़ित किया। इसके बार वे क्रोधवश कौमार वध की दो चार कड़वी बातें कह कर कमरे से निकल पड़े। कुछ समय बाद मकरन्द भी वहाँ से चला गया।

नन्दन की इस अप्रतिष्ठा को लोग जान गये। मदयन्तिका अपनी भाभी मालती को बतलाने के लिये बुद्धिरक्षिता को साथ लेकर वहाँ आई। वार्तालाप में मालती की सखी लवंगिका ने नन्दन के दोषों का उद्घाटन किया। उसके बाद वीर पुरुष मकरन्द की चर्चा की। जिस समय उन्होंने सिंह के आक्रमण से आपकी रक्षा की थी। उसी समय मदयन्तिका का उनसे प्रणय और श्रृद्धा उत्पन्न हो गयी थी। लवंगिका जान गई कि मदयन्तिका तो आत्मसमर्पण करने को तैयार है।

इसी समय मकरन्द मदयन्तिका का हस्तग्रहण कर प्रणयालाप करने लगे। इसके बाद सभी लोगों ने मालती और माधव के निवास स्थान की ओर प्रस्थान किया।

इस अंक में तो मैनें दर्शकों को प्रेम प्रसंग के ताने-बाने में ही उलझाये रखा है। इस नाटक के प्रदर्शन के समय जब यह अंक प्रस्तुत किया जा रहा था लोग कितने दत्त-चित्त होकर इसका आनन्द ले रहे थे। इस में रोचकता तो है, साथ ही अगले अंक की भूमिका भी है।

लेखक जिस परिवेश में रहता है, उसे उस रूप में न सही किसी दूसरे रूप में लोगों के सामने ले ही आता है। मैंने भी यही सब किया है। किसी दिन इसे लोग समय के आलेख के रूप में प्रस्तुत कर सकते हैं।

अवलोकिता ने नन्दन भवन से लौटकर कामन्दकी का अभिवादन किया। दोनों मालती-माधव के पास चल दीं।

इधर मालती माधव में प्रेमपूर्ण वार्तालाप होने लगा। अवलोकिता भी उसमें भाग लेने लगी। उधर मकरन्द और मदयन्तिका दोनों उद्यान में जा रहे थे। पहरेदारों ने उनको बीच में ही रोक दिया। उस समय कलहंस को आते हुये देखकर मकरन्द ने चतुरता से सब स्त्रियों को उसके साथ भेज दिया और उन पहरेदारों से वह बहादुरी के साथ लड़ने लगा।

इन सभी प्रसंगों के सामने आते ही याद आने लगी पद्मावती की राजनैतिक और सामाजिक व्यवस्था जिसे सीधे-सीधे व्यक्त करने लग जाऊँ तो राजद्रोही घोषित कर दिया जाऊँगा। इसी कारण मन की व्यथा को व्यक्त करने के लिये साहित्य का सहारा लेना पड़ रहा है।

अर्धरात्रि के समय दो प्रेमियों का उद्यान मे ंभ्रमण, पहरेदारों द्वारा उनको रोकने का प्रयास, उसके विरोध में उनका लड़ जाना। माधव का अस्त्र-शस्त्र लेकर वहाँ पहुँचना। आजकल जो कुछ पदमावती नगरी में देखने को मिल रहा है। उन्हीं सब बातोें का नाटक के पात्रों द्वारा चित्रण। राजसत्ता नामक कोई चीज नहीं रह गयी है। यहाँ के राजा को जनता के दुःख-सुख से क्या लेना-देना! व्यवस्था पर उनकी पकड़ ही नही हैं। इस गहन चिन्तन के बाद तो वापस लौटना पड़ रहा है कथ्य की ओर- थोड़ी देर में कलहंस स्त्रियों को लेकर लौट आया तो माधव को सारा वृत्तान्त ज्ञात हुआ। माधव तत्काल अस्त्र-शस्त्र लेकर कलहंस के साथ ही चल पड़ा था। वहाँ जाकर देखा तो लड़ाई चल रहीं थी।

कुछ समय व्यतीत होने पर मालती का चित्त घबड़ाने लगा। उसने अवलोकिता और बुद्धिरक्षिता को कामन्दकी के पास और लवंगिका को माधव के पास भेजा। उस समय उद्यान में मदयन्तिका और मालती ही रह गयी। दोनों ही अधीर होकर मकरन्द ओर माधव की राह देखने लगीं। उसी समय अनुकुल अवसर जानकर कपालकुण्डला वहाँ आ गयी और मालती को श्रीपर्वत पर ले गयी।

उधर मकरन्द के पास माधव के पहुँचने से लड़ाई का रूप विकट हो गया। राजा ने दोनों कुमारियों के भवन से बाहर निकलने की बात सुनी। उन्होंने पहरेदारों को आदेश दिया कि मकरन्द और माधव को पकड़कर लाया जावे। पद्मावती के राजा स्वयं छत से लड़ाई के उस दृश्य को देखने लगे। जिसमें एक ओर तीन व्यक्ति और दूसरी ओर उनके सैकड़ों सिपाही थे। क्षणभर में उन तीनांे ने सभी सिपाहियों को क्षत- विक्षत कर दिया। सिपाही पलायन कर गये। उन तीनों की वीरता देखकर राजा उनसे बहुत प्रभावित हुये और उन्हें अभयदान देकर उन वीरों को अपने पास बुला लिया।

इधर पद्मावती के ऐसे किस्से कन्नौज के महाराज यशोवर्मा के समक्ष पहुंँचेंगे तो वे समझ जायेंगे किे पद्मावती नगरी तो बिना युद्ध के ही उनके अधीन हो जावेगी।

इधर पद्मावती के राजा की सहृदयता की प्रशंसा करते हुये दोनांे उद्यान में पहुँचे। अब तक मालती लापता हो चुकी थी। लवंगिका और मदयन्तिका उन्हें ढूँढ रही थीं। इस समय माधव को कपालकुण्डला की प्रतिज्ञा याद हो अयी। मालती के जीवन की यह घटना सुनकर वे निराश हो गये तो मकरन्द उन्हें साँत्वना देने लगे।

इस कथ्य के माध्यम से मैंने क्या नहीं कह दिया! नारियों की लूट-खसोट का ऐसा दृश्य संसार में कहीं न देखा होगा, जैसा इन दिनों पद्मावती में देखने को मिल रहा है। समझ में नहीं आ रहा है। यह सब यहाँ होने के बाद भी क्यों बंधा हुआ हूँ। मुझे इसी क्षण यह नगर छोड़ देना चाहिए। न होगा तो समय आने पर कन्नोज चला जाऊँगा। अब तो ये सब दृश्य देखे नहीं जा रहे हैं। नाटक में इससे अधिक और क्या दिखाया जा सकता है?

मालती को न पाकर माधव विक्षिप्त हो उठे ओर विन्ध्यपर्वत पर इधर-उधर भ्रमण करने लगे। मालती के गुण कीर्तन करते हुये उसे पुकारने लगे। विलाप करते हुये मूर्छित हो जाते थे। मकरन्द उन्हें होश में लाने का प्रयास कर रहा था। वे कभी बादलों से कभी जड़ पदार्थों से उसका पता पूछने लगे। विरह अवस्था इतनी बढ़ गई कि उन्हें मित्र मकरन्द के पास रहने का अहसास ही नहीं रहा। ऐसी स्थिति देखकर मकरन्द से रहा न गया। वह स्वयं आत्महत्या करने को प्रस्तुत हो गया। इसी समय एक योगिनी ने आकर उन्हें रोका और माधव के कर कमलों से गुँथी हुई माला दिखायी। जिससे उन्हें मालती के जीवित होने का प्रमाण मिल गया।

वह स्त्री योगिनी कामन्दकी की शिष्या सौदामिनी थी। जो मंत्र सिद्धी के लिये श्रीपर्वत पर आयी थी। सौदामिनी ने कपालकुण्डला से झिड़ककर मालती को बचा लिया। उसे अपनी कुटी में रखकर वकुलमाला (मौलश्री के फूलों की माला) उन्हें दे दी। मकरन्द भी उसी वन में स्थित कामन्दकी को यह सब वृत्तान्त सुनाने के लिये चले गये।

अब यहाँ मेरा चित्त समालोचकों की तरह हो रहा है। सिन्धु, पारा, मधुमति (महुअर) आदि नदियों का वर्णन पद्मावती का परिचय करवाने के लिये पर्याप्त हैं। लेकिन इस अंक में इनके नाम का उल्लेख आने वाले समय में इस नाट्यस्थली का परिचय भी करवाता रहेगा। पाटला एक वृक्ष का नाम भी तो है, जो दशमूल की एक औषधि है। प्रसव के समय इसका उपयोग किया जाता है। संभवतः उद्गम पर इस वृक्ष की अधिकता के कारण इस नदी का नाम पाटलावत्या पड़ गया हो। माधव की विरह अवस्था राम की विरह अवस्था से मेल खा रही है।

कामन्दकी, लवंगिका और मदयन्तिका आदि स्त्रियाँ शोक से व्याकुल होकर उसी वन में विचरण कर रही थी। मालती का कहीं भी पता नही ंचल सका। सभी ने विचार किया मालती के बिना उनका जीवन व्यर्थ है। अतः वे भी पहाड़ की चोटी पर आत्महत्या करने के लिये चढ़ गयी। उसी समय योगिनी सौदामिनी की प्रशंसा करते हुये मकरन्द वहाँ आया। राजा के मंत्री भूरिवसु भी अपनी कन्या मालती का वृत्तान्त सुनकर राजा की बात को ठुकराकर अग्नि में प्रवेश करने को तैयार हो गये। तब सौदामिनी ने वहाँ पहंँुचकर उन्हंे बचा लिया। उसी समय मालती को लेकर माधव भी वहाँ आ गये। रास्ते में पिताश्री की स्थिति जानकर मालती बेहोश हो गई। कुछ समय बाद वह होश में आई। सभी ने प्रसन्नता की लहर दौड़ गई।

सौदामिनी ने राजा का एक पत्र दिखलाया, जिसमें उन्होंने भूरिवसु के संबंध में माधव को लिखा था। तुम्हारे महाकुल प्रसूत गुणी पुरुष पर हम बहुत प्रसन्न हैं। इसीलिये तुम्हारी प्रसन्नता के लिये तुम्हारे मित्र मकरन्द के साथ नन्दन की बहन मदयन्तिका का विवाह हम स्वीकार करते हैं।

इस प्रकार योगिनी कामन्दकी की नीति-रीति के कारण सभी की अभिलाषा अंकुरित, पुष्पित और फलित हुयी। यदि कामन्दकी की ऐसी नीति-रीति न होती तो भूरिवसु ओर देवरात की प्रतिज्ञा पूर्ण नहीं होती। नन्दन और भूरिवसु में वैमनस्य होता। महाराज भी भूरिवसु से क्रुद्ध होते।

इस नाटक के द्वारा इन पात्रों के सद्गुणोें को उजागर न किया जाता तो इस पद्मावती की धरती पर आज क्या शेष रह जाता ? यहाँ मेरी अपनी बौद्धिक कल्पना जो साकार रूप धारण करके यहाँ की व्यवस्था पर प्रकाश डाल रही है, इसका मूल्याँकन तो आने वाले समय में ही सही हो सकेगा। जब कोई भावुक इस धरा पर जन्म लेगा। मेरे नाटकों के अन्दर यहाँ के परिवेश को ध्यान में रखकर झाँकने का प्रयास करेगा तब ही मेरा सही-सही मूल्याँकन संभव हो सकेगा।

इस नगरी में जो आत्महत्याओं का दौर चल रहा है लोग निराशा के गर्त में गोते लगा रहे हैं। आज यहाँ जो अमानुषिक दृश्य देखने सुनने को मिल रहे हैं उन्हें आने वाली पीढ़ियाँ अवश्य ही रेखांकित करेंगी। इन्ही नाटकों के सहारे लोग पद्मावती नगरी के बारे में परिचित हो सकेंगे।

मैं भी कैसा हँू, जो इस रचना के साथ प्रलाप ही करता रहा हूँ। जब-जब जिस-जिस को यह पदचाप सुनाई देगी वह भी मेरी तरह व्यथित होकर प्रलाप ही करेगा। मैं अतीत में खोकर हमेशा इन रचनाओं के माध्यम से आप सब से परिचित हो सकूँगा।

यह नगर योगी-योगिनियों का रहा है। योग में अपार शक्ति है। योग से प्राप्त शक्तियांे का हम यदि सदुपयोग कर सकें तो वह कल्याण का पथ होगा। मैंने इस धरती से योग सीखा है। जिसके सहारे आदमी अपने जीवन के लक्ष्य को पा सकता है। एकाग्रता के लिये इससे श्रेष्ठ कोई उपाय हो ही नहीं सकता। संकल्प-विकल्प रहित भी आदमी योग के द्वारा हो सकता है। अब तो मेरे जीवन का लक्ष्य साहित्य साधना के साथ-साथ योग साधना भी है।

यों मैं इस नाट्य कृति के द्वारा अपने मन की पीड़ा व्यक्त कर सका हूँ।

0 0 0 0 0