Jindagi mere ghar aana - 5 in Hindi Moral Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | जिंदगी मेरे घर आना - 5

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जिंदगी मेरे घर आना - 5

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – ५

कार स्टार्ट होने की आवाज आई तो नेहा झपटकर ड्राइंगरूम में आ गई। ऐसी चाय, भला चुपचाप पीने का मजा क्या ? जल्दी से ढूढ़-ढ़ाँढ़ कर एक शास्त्रीय संगीत का सी.डी.लगा दिया । असली मजा तो अब आएगा जब वेस्टर्न म्युजिक पर थिरकने वाले को यह संगीत भी गटकना पड़ेगा। मुस्कराहट दबाते, एक पत्रिका में मुँह छुपाकर बैठ गई।

कप रख, खड़े हो, शरद ने एक जोरदार अँगड़ाई ली (मानो, इस चाय ने सारी थकान दूर कर दी हो) और एक अदद मुस्कराहट के साथ पूछा -‘कब से शुरू किया है, ये शास्त्रीय संगीत सुनना ?‘

जी में आता है, नोच कर फेंक दें इस मुस्कुराहट को। सच में अगर देखती रही तो कुछ न कुछ कर बैठेगी। इतना गुस्सा आता है, देख कर.आज तक, कोई मिस तरह दो पल में ही इनफॉर्मल नहीं हुआ पन्ने पर नजर गड़ाए ही रहस्यमय ढंग से बोली -

‘कब्भी से नहीं।‘

‘यही मैं भी सोच रहा हूँ।‘ -छूटते ही शरद बोला।

‘क्या ऽ ऽ‘ - अब चौंकी वह।

‘यही कि दूसरा कुछ नहीं मिला तो यही लगा दिया।‘

‘जी ऽऽ नहीं, कब्भी से नहीं का मतलब, बचपन से ही सुनती आ रही हूं, डैडी को शौक है, कभी शुरू करने का सवाल ही नहीं‘ - नेहा ने जरा जोर से कहा।

शरद ने भी वैसे ही स्वर में चिढ़ाया -‘तो, नेहा जी, अभी डैडी होते ना, तो आपने जम कर डाँट खायी होती।‘

ओह! कैसे बोल रहा है, मानो जाने कब से जान-पहचान हो।

‘क्यों ऽ ऽ ऽ‘... भौं चढ़ाई नेहा ने।

‘पगली, ये राग, रात में सुना जाता है, औरा तुम दिन में दस बजे लगाए बैठी हो - डाँट नहीं खाओगी तो क्या तारीफ करेंगे कि बिटिया रानी को बड़ी समझ है, संगीत की।‘

अब इस आदमी से लड़ा जा सकता है भला, इतने अपनत्व और प्यार से बोल रहा है, जैसे युगों से परिचित हो। जी में आया, पत्रिका फेंक-फांक खूब गप्पे मारे, जैसे शर्मा अंकल से करती है। उन्हीं जैसा नहीं लगता वह। लेकिन वे तो अंकल हैं - लेकिन ये साहब क्या हैं, बमुश्किल चार साल बड़े होंगे उससे और रौब ऐसे मार रहे हैं जैसे चालीस साल बड़े हों। उससे सही नहीं जाएगी, ये बाॅसिंग।

देखा, मनोयोग से रेकाॅर्ड छाँटनें में लगा है -‘ये राग तो ‘कुमार गंधर्व‘ का पसंदीदा राग है, सुन कर सब कुछ भूल जाए, आदमी, अंकल को शौक है, तब तो जरूर होना चाहिए।‘ वह उसकी तरफ पीठ किए ही बोल रहा था। चुपके से चली आई, नेहा। अब बतियाते रहें, दीवार से। लेकिन कुछ भी, कहेा- है, नं. वन बेवकूफ... इसमें संदेह नहीं, विश्वास कर ही लिया कि उसकी शास्त्रीय संगीत में रुचि है।... रुचि है खाक... उसने तो ‘कुमार गंधर्व‘ का नाम तक नहीं सुना।

***

फिर नाश्ते खाने में खिलवाड़ करने की हिम्मत नहीं हुई नेहा की... इसका क्या है, ये तो लक्कड़ हजम, पत्थर-हजम है... कुछ भी चबा लेगा। कहीं बीमार-वीमार पड़ गया तो वो जम भी जाएगा, दस दिन और डॉक्टर की फीस भरनी पड़ेगी, सो अलग, और उसकी जो लानत मलामत होगी, उसकी ते कल्पना ही बेकार है।

लेकिन इस बार दूसरा ही हथकंडा अपनाया नेहा ने, जी भर कर उपेक्षा की। रघु ने पूछा भी, कमरा ठीक करने की बाबत... तो टाल गई... सामान वैसे ही पैसेज में पड़ा रहा।

खाने के टेबल पर भी ऐसे मुँह बना रखा जैसे उसके साथ एक टेबल पर बैठकर अहसान कर रही हो। लेकिन उसकी उपेक्षा की परवाह भी किसे थी। उन आठ दिनों में लगता है, खूब रंग जमा गया था क्योंकि सावित्री काकाी के पोते के हालचाल से लेकर रघु के जमीन के झगड़े सबके विषय में खूब घुलमिलकर आधिकारिक ढंग से बातें कर रहा था। इन लोगों से व्यक्गित तौर पर कभी किसी ने बातें नहीं कीं इसलिए बड़ी खातिर-तवज्जो हो रही थी, शरद की। उसने कुछ भी हिदायत नहीं दी थी पर, डायनिंग टेबल स्वादिष्ट व्यंजनों से लदा पड़ा था।

सावित्री काकी का वात्सल्य भाव उमड़ा जा रहा था -‘ई ‘मलाई कोफ्ते‘ तो लो, खास तुमरे वास्ते बनायी है।‘ वह चुपचाप रोटी टूँगती रही। शरद ने उसे भी बातें में समेटने की कोशिश की -‘अ ऽ ऽ नेहा, जरा वो डोंगा इधर बढ़ाना तो।‘

नेहा ने हाथ रोककर रघु को आवाज दी और चेहरा पूरी तरह निर्विकार रखे... कहा-‘ये डोंगा, जरा उधर बढ़ा दो।‘

रघु के हाथ खाली नहीं थे। शरद ने तुरंत कहा -‘रहने दो... रहने दो... ले लेता हूँ, मैं। और आधा उठकर खींच लिया डोंगा अपनी तरफ। आवाज में कोई गिला-शिकवा नहीं। चेहरे पर एक शिकन तक नहीं... आराम से सब्जी डाल रहा था अपनी प्लेट में। लेकिन काकी ने उसकी चुप्पी गौर की।‘

‘ई नेहा बिटिया को का हुआ आज? कौनो सहेली से लड़ाई हो गई का?‘ - हँह, इन शरद महाराज से नहीं हो सकती ना। जाने कितना रूतबा जमा गया है, एक हफ्ते में ही।

वह कुछ बोलती कि मजे से अंगुलियां चाटता, शरद बोला -‘तुम्हारी नेहा, बिटिया का टाँसिल बढ़ गया है... आह! चटनी तो तुम क्या खूब बनाती हो, काकी। ‘लिटरली‘..लोग. अंगुलियां चाटते रह जाए.

‘लिटरली ?? खूब समझ रही होंगी, काकी।नेहा मन ही मन हंसी.

‘अउर ई मजे में दही खा रही है, मालकिन नहीं है तो?‘ - काकी बोलीं।

‘किसका टाँसिल बढ़ गया है‘ - तेज स्वर में कहा उसने।

“ ओह! साॅरी गला ठीक है ? दरअसल जब मेरा टाँसिल बढ़ जाता है तो मुझे बोलने में बड़ी तकलीफ होती है, तुम इतना कम बोल रही थी तो मैंने सोचा, शायद... ‘ और एक विशुद्ध निर्दोष हँसी।

‘हुँह! सोचने की दुम, जितना दिमाग होगा, उतना ही तो सोचोगे...‘ मन ही मन भुनभुनाते हुए एकबारगी ही कुर्सी ठेल उठ खड़ी हुई। यह भी नहीं देखा, शरद ने खाना खत्म किया भी है या नहीं।

***

अपने रूम में बिस्तर पर लेट, एक बुक उठा ली... तभी ध्यान आया शरद को तो आराम करने की कोई जगह बताई ही नहीं... रघु ने पूछा भी था... कमरा ठीक करने की बाबत... पर वह टाल गई थी। एक बार जी में आया... चलकर कमरा ठीक करवा ही दे... और व्यंग से मुस्करा दी... आखिर ‘अतिथिदेवो भव‘ और अतिथि-सत्कार तो परम धर्म है। पर यह विचार शीघ्र ही दूध की उफान की तरह बैठ गया। चलो भी, जब से आया है, उसे बना रहा है... और उसके आराम की फिक्र करती रहे वह। बहुत कष्ट हो रहा है तो अपना बैग उठाए और रास्ता नापे... और किताब में खो गई वह।