Ek Samundar mere andar - 7 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 7

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इक समंदर मेरे अंदर - 7

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(7)

उस चाल में वर्माजी का ही पूरा परिवार था...बाकी लोगों के परिवार गांव में थे। वे लोग यहां अकेले रहकर मिलों में और इधर उधर छोटे मोटे काम करते और हर महीने अपने घर पैसा भेज दिया करते थे। वहां खेती-बाड़ी थी तो वे दाना पानी से निश्चिंत थे।

उल्टे, जब वे लोग मई में अपने गांव जाते और जून में वापिस आते थे तो अपने साथ देसी गुड़ और चबैना, सत्तू लेकर आते थे और सभी को थोड़ा थोड़ा बांटते थे। मुंबई का यह दौर कामना ने खूब देखा है।

पिताजी की पगार साढ़े तीन सौ रुपये हो गई थी। उन दिनों ये पगार काफ़ी अच्‍छी मानी जाती थी। अम्‍मां ने कमरे के बाहर दो खाटें डलवा दी थीं। दिन में ये कपड़े सुखाने के काम आती थीं और शाम को उस खाट पर गद्दा बिछा दिया जाता था। पिताजी वहीं सोते थे।

उन दिनों इसी तरह सोने का रिवाज था। दूसरी खाट पर कामना के दोनों भाई सोते थे। बेडरूम की परंपरा तो तब से शुरू हुई है, जब से फ्लैट में रहने का चलन शुरू हुआ है। बेडरूम सारे फ़साद की जड़़ है। उसे बेडरूम में सोने में कभी मज़ा ही नहीं आया था। बस, वहां सोना था, तो सो जाती थी।

उन्‍हीं दिनों अचानक एक अफ़वाह फैली कि एक आदमी...जिसका नाम रमन राघव था, रात को बारह बजे सुनसान सड़कों पर निकलता था। वह ‘सीरियल किलर’ के नाम से प्रसिद्ध था। उसे लोग कोल्‍ड ब्‍लडेड किलर के नाम से भी पुकारते थे।

खुद उसने अपने अनेक नाम रखे हुए थे....सिंधी दलवाई, तलवाई, अन्ना, तंबी, वेलुस्‍वामी आदि आदि। जो लोग बाहर सड़कों पर सोते थे उन्‍हें वह लोहे के सरिया व चाकू से गोद-गोदकर मारता था।

यह गाज चाल में रहनेवालों और सड़क पर सोने वालों पर गिरती थी। ग़रीबों का हर जगह मरण था...आज भी और तब भी। उसके डर से लोग बारी बारी से रात को बारह बजे के बाद जागकर पहरा देते थे...।

हर समय लोगों की जान सांसत में रहती थी कि आज किसका नंबर होगा। वह 1969 में पकड़ा गया था और फिर भी यही कहता रहा – ‘जब जेल से छूट जाऊंगा, तब फिर से ऐसे ही मारूंगा लोगों को’। 13 अगस्‍त, 1969 में उसे फांसी की सज़ा दी गई लेकिन 1987 में उसे डॉक्टरी जांच में मानसिक रूप से विक्षिप्त पाया गया था।

उसकी फांसी की सज़ा आजीवन कारावास में बदल दी गई थी। 1995 में वह पुणे के ससून अस्पताल में मर गया था। उसी दौरान यानी 1987 में ‘स्‍टोनमेन’ नाम के एक दूसरे सीरियल किलर ने सायन कोलीवाड़ा के आसपास के इलाकों में मारकाट मचाई थी।

वह पथ्‍थर मार-मारकर लोगों की हत्‍या करता था... वह रहस्यमय तरीके से ग़ायब हो गया था। पुलिस उसे नहीं पकड़ पाई थी। वह समय शायद मारकाट का ही था।

जब तब हिंदू मुस्लिमों के बीच छोटी छोटी बातों पर झगड़ा हो जाया करता था। नतीजा ये होता था कि हुड़दंगी लोग आस पास के ढाबों होटलों से सोडा वाटर की बोतलें उठा उठा कर एक दूसरे पर फेंकते थे। सुबह सड़कों पर कांच ही कांच बिखरा मिलता था।

बेशक पास में ही पुलिस का बूथ था, लेकिन पुलिस वाले कभी बीच में नहीं पड़ते थे। वहां दो हवलदार होते थे और उनके पास छोटा-सा डंडा और टॉर्च ही होते थे। हवलदार का कहना था – ‘मेरा काम बड़ी पुलिस चौकी को इन्‍फॉर्म करने का है। मैं एकटा क्‍या करेगा?

....क्‍या तो वो लोग एक दूसरे पर बॉटल फेंकता है....अपने बूथ का दरवाज़ा बंद कर लेता है अपुन। अभी वो रेस्‍तरांवाले को रात को नौ बजे शटर गिराने को बोल दिया है। खाली फोकट का लफड़ा नईं मंगता। कितना बाटली मारता एक दूसरे को’।

उसे और अन्‍य बच्‍चों को ऐसे ही माहौल से निकलना होता था स्‍कूल जाने के लिये और स्‍कूल तक पैदल चलना पड़ता था। चाल के आगे एक बहुत बड़ा मैदान था। एक बार उस मैदान के सामने खड़े पहाड़ों की खुदाई और पथ्‍थर कटाई का काम चल रहा था।

वहां मज़दूर रात को अपनी दरियां बिछाकर सो जाते थे। सुबह दरियां लपेट कर किनारे रख जाते थे। एक प्रकार से वहां सबका अपना अपना हिस्‍सा था। दिन भर वे लोग वहां सामने खड़े पहाड़ को काटने का काम करते थे। अधिकतर मज़दूर यूपी से आये थे।

उस मैदान के आगे अधिकतर मराठी आबादी थी। एक रात पता नहीं, उस मैदान में क्‍या हो गया था कि लोग घबराकर घर के बाहर निकल आये थे। पिताजी और भाई बाहर अपनी अपनी खाट पर सो रहे थे। कामना और गायत्री घर के अंदर ही थे।

उस मैदान से ज़ोर ज़ोर से आवाजें आ रही थीं - मारो काटो, जाने मत दो, भागने न पायें। देखते देखते वहां खून की नदियां बहने लगी थीं। उन दिनों शिवसेना अस्तित्व में नहीं आयी थी। बावजूद इसके स्थानीय लोगों में यह सुगबुगाहट होने लगी थी।

यहां यूपी से लोग आते हैं और मिलों में काम करते हैं, इस वजह से लोकल लोगों को काम नहीं मिलता। सच तो यह था कि वे काम करना ही नहीं चाहते थे...। किसी ने उनको रोका तो नहीं था...लेकिन यह दंगा तो होना था और हुआ था।

रात के दस बजते ही सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था और लड़कों के ग्रुप के ग्रुप गले में रूमाल बांधकर और माथे पर पट्टा बांधे उस मैदान की ओर बढ़ने लगते थे। उनकी चाल और हंसी में एक अजीब सा वहशीपन होता था। चाल लड़खड़ाती हुई

...वे कत्लेआम के लिए निकलते थे। मार काट होश में नहीं हुआ करती। उसके लिये नशा करना होता है....तभी उन्माद फैलता है। चूंकि उनका घर सड़क से सटा हुआ था, तो सारी बातें साफ सुनाई देती थीं – ‘यांना सोडायच नाहीं...कशाला येतात इकडे, झख मारायला? हरामखोर माणसं...आमाला नोकरी नको का? मारुन टाकायचा यांना....बंबई आमची आहे’।

पिताजी बहुत परेशान थे कि उनकी बेटियां हैं, कहीं कुछ ऊंच-नीच हो गई तो वे कहीं के नहीं रहेंगे। ख़ैर....क़रीब दस दिनों तक यह कत्लेआम चलता रहा। रोज़ सुबह पुलिस की गाड़ी सायरन बजाते हुए आती थी और साथ में ट्रक लाती थी।

रात को जब वारदातें हो रही होतीं तो नहीं आती थे। रात को कत्लेआम में शहीद हुए लोगों की लाशों को ट्रक में डलवाया जाता था। जब ये ट्रक सड़क से गुजरते थे तो पूरे वातावरण में अजीब सी बदबू फैल जाती...खून और मांस की मिली जुली दुर्गंध। ऐसे में भी सूबेदार के शराब पीने में कमी नहीं आई थी।

वह दिन में शराब के अद्धे सामने वाली दुकान से खरीद लाता और एक अद्धा हमेशा उसकी बंडी में रहता था। वह रात को नशे में चूर होकर चाल में आता और उनके ही कमरे का दरवाज़ा खटखटाते हुए कहता था –

‘साब जी, आप परेशान मत होना। चाहे कुछ भी हो जाये, आपको और आपकी बेटियों को कुछ नहीं होने देंगे। हम ज़िंदा हैं अभी। और यह कहकर सड़क से उतर जाता था। उस दिन दोपहर के बारह बजे थे। रविवार का दिन था। एक मरगिल्‍ला सा आदमी उनके के घर के सामने आया था।

सिंगल पसली का था। छोटा सा क़द, आंखों में प्रतिशोध की भावना। चेहरे पर भाव ऐसे कि उसका वश चलता तो वह यूपी के लोगों को एक ही दिन में खत्‍म कर देता। तय था कि वह पिये हुए था। वह उसी चाल में रहता था। कभी कभार ही दिखता था।

उसने अपना परिचय कुछ यूं दिया – ‘साब, मी मोरे आहे, बाहेर याल का? आपसे कुछ काम है। पिताजी जल्‍दी से बाहर निकले - बोलो मोरे, क्‍या काम है? साहेब, अपन आपको गैरंटी देता है कि मेरे होते हुए आपकी लड़की लोग की ओर कोई आंख उठाकर भी नहीं देखेगा.....

हम है न इधर। हम सब आपकी बहुत इज्‍ज़त करते हैं। आप खाली एक मदत कर दो। हम लोग को रात को सरिया की गरज होती है। ....वो दिन में आप अपने घर में छिपाकर रख लो। हमको जभी मंगेगा, ले जायेगा। उधर पुलिस का बहुत लफड़ा है। हमारे घर से सरिया मिला तो पकड़ा जायेगा और जेल हो जायेगा, फिर हम काम कैसे करेगा’?

इस पर पिताजी कुछ देर चुप रहे तो वह बोला था – ‘जल्‍दी बोलो साहेब, टैम नहीं है...आपको मदत नहीं करने का है, तो ना बोल दो....दूसरा घर देखेगा...आपके इधर लड़की है, इसके लिये बोला है’।

पिताजी असमंजस में पड़ गये थे। एक ओर कानून तो दूसरी ओर जीवन रक्षा के लिए अपनों ही के द्वारा मदद की गुहार। वह भी गलत काम के लिए। एक तरह से हिंसा में भागीदारी के लिए। यदि पुलिस को पता चल गया तो? दुधारी तलवार थी। मोरे की जगह वे ही पकड़े जायेंगे।

लेकिन अपनी और खोली की भी चिंता थी। पता नहीं क्‍या सोच कर या किसी अज्ञात डर से और मोरे के चेहरे पर डर की रेखाएं देख कर कह दिया था – ‘ठीक है। रख जाओ, पर जल्‍दी ले जाना। हम किसी मुसीबत में नहीं पड़ना चाहते।‘

यह सुनकर मोरे के चेहरे पर क्षण भर को चैन दिखा था और बोला था – ‘काही काळजी करू नका। मी आहे न....मी ही मदत कधी ही विसरणार नाहीं’। उसी दिन शाम के झुटपुटे में वह सरिये का गट्ठर घर में छोड़ गया था और पिताजी ने उसे घर के अंदर बाकड़े के नीचे सरका दिया था और ऊपर से एक चादर डाल दी थी ताकि सरिये न दिखें।

दंगों का कोई समय नहीं था। जब जिसका मौका लगता था, वह मार-काट मचा देता था। चाल में सभी के मन में एक डर तो था लेकिन पिताजी ने मोरे की जो अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की थी, उससे चाल और सामने वाली बिल्‍डिंग के लोग सुरक्षित हो गये थे।

सुबेदार का रात को नशे में आकर आवाज़ें लगाना बदस्तूर जारी था। सुरक्षा के लिये उस मैदान में पुलिस की दो गाड़ियां दिन-रात खड़ी रहने लगी थीं। तब जाकर मामला कुछ शान्त हुआ था।

तब तक न जाने कितने लोग काटे जा चुके थे और कितने स्थानीय लोग मारे जा चुके थे। जब जब मुंबई में घरेलू दंगे हुए, नुक़सान दोनों पक्षों का होता था। इस बात को लोग तब भी नहीं समझ पाते थे और आज भी नहीं समझते हैं। सियासत के खेल में कॉमन आदमी ही मारा जाता है।

उस दिन रविवार था। मोरे सुबह छ: बजे आया और अपने सरिया उठाकर ले गया था। वह शायद समझ गया था कि अपनी जगह वह किसी शरीफ आदमी की जान सांसत में डाल रहा है। पिताजी ने राहत की सांस ली थी।

वह और गायत्री जिस म्युनिसिपल स्‍कूल में जाती थीं, वह सातवीं तक था। उस स्‍कूल तक जाने के लिये बच्‍चों को एक नाला पार करना पड़ता था। नाले पर लकड़ी का पुल बना हुआ था। बरसात में वह नाला हरहराकर बहता था और पानी की आवाज़ सुनकर कामना डर जाती थी।

उस नाले का पानी जैसे जैसे बरसात में बढ़ता जाता, पुल हिलने लगता था। वह शायद जून का अंतिम सप्ताह था। वे स्‍कूल के लिये निकल चुकी थीं और बरसात अपना ज़ोर पकड़ रही थी। रास्‍ते में उनकी क्लासमेट गुलाब, सुशीला साथ हो ली थीं। उन दिनों ग्रुप बनाकर स्‍कूल जाया करते थे।

नाले से पहले एक जामुन का पेड़ था। उस पेड़ के पास उनकी क्‍लास के लड़के खड़े थे। उन्‍होंने उन सबको इशारे से वहीं बुलाया और कहा – ‘आज नाला ओवरफ्लो होने को है। हम आज यहीं खाना खायेंगे और फिर अपने अपने घर जायेंगे’।

बात सही थी और उन सबने स्‍कूल जाना कैंसिल कर दिया था। लड़कों ने पेड़ पर चढ़कर जामुन तोड़े थे। सबने मिलकर अपने टिफिन खोले थे और सब्जी को रोटी में लपेटकर चोंगा मोंगा बनाकर खाया और पानी पीने की जगह जामुन खाये गये थे।

इस तरह दोपहर बितायी गई थी और स्‍कूल छूटने के समय पर सब अपने अपने घर की ओर चल दिये थे। उन दिनों बचपन जिया जाता था। बिना उमर के बच्‍चों के कंधों पर बोझिल बस्‍ते नहीं टांगे जाते थे। सहज बचपन...सहज पढ़ाई थी उन दिनों।

उन दिनों जब रात में बादल गड़गड़ाते थे और रह-रहकर बिजली चमकती थी, तो उसका दिल दहल जाता था। कई बार तो बिजली कड़कड़ाकर नीचे की ओर आती थी। टीन के पतरे पर पानी की बूंदें मानो घुंघरुओं के बजने का आभास देती थीं। बाद में छत पर कवला डलवा लिया गया था।

दूसरे दिन पता चलता था कि बिजली की वह आकाशीय बेल खंभे से टकराकर खत्‍म हो गई थी। अगर किसी राहगीर पर गिरती तो? कई बार तो बादलों के गरजने के बीच आकाश गंगा तक दिख जाती थी.....ये लंबी....बल खाती सड़क सी...उफ़...तौबा।

उन दिनों मुंबई में न मॉल थे और न टावर। खुला खुला आसमान था...बरसात जम कर होती थी और वे सब बरसात और अपने कमरे के सामने बहते पानी में अम्‍मां द्वारा बनाई गई काग़ज़ की छोटी छोटी नावों को छोड़ती थी।

उन नावों का छोटे शिशु की तरह डग-मग आगे बढ़ते जाना। बरसते पानी की लड़ियों को हाथ में पकड़ने की अदम्य लालसा होती थी और वे लड़ियां मोती की तरह हाथ से फिसल जाती थीं। आज भी उसे वह सब बहुत याद आता है।

आज मुंबई में जिस तरह रिहायशी टावर बन रहे हैं, मॉल बन रहे हैं, वे आसमान को मानो ढक रहे हैं। खुला आसमान दिखता ही नहीं है। न बादल टकराते हैं, न बरसात होती है। न आदमी टकराते हैं। सब लंबे रास्‍ते पर अकेले चले जा रहे होते हैं अपने अपने नीड़ की ओर।

अभी कुछ बरस पहले सितंबर महीने में दिन के ढाई बजे बादल गरजे थे और उसे जोगेश्वरी के पुराने दिनों की याद आ गई थी। उस दिन दोपहर का समय था और पुल पर कोई ज्‍यादा भीड़ भाड़ नहीं थी। पुल पानी का दबाव सह नहीं पाया और चरमराकर टूट गया था। पानी अपनी सीमाएं तोड़ चुका था।

ऐसे में स्‍कूल के टीचर बच्‍चों को अपने साथ ले गये थे और एक टेकड़ीनुमा पहाड़ से बच्‍चों को सड़क पर छोड़ा था और फिर वहां से वे अपनी अपनी रिस्‍क पर घर के लिये निकल गये थे। सातवीं के बाद तो स्‍कूल बदलना था।

म्युनिसिपल स्‍कूल के बच्‍चों को वैसे भी अच्‍छे स्‍कूल में प्रवेश मिलना मुश्‍किल था, लेकिन वह और गायत्री शुरू से पढ़ाई में अच्‍छी थीं। इसलिये उनको मालाड के गर्ल्स स्‍कूल में प्रवेश मिल गया था। अच्‍छा स्‍कूल यानी अच्‍छे खर्च।

साफ़ सुथरी सफेद फ्रॉक, सफेद मोजे और वह भी एंकर के होने ज़रूरी थे। मर्दाने काले जूते, काली पॉलिश, लाल रिबन, मैरून पट्टा, जो नेकटाई की तरह कमर में बांधा जाता था। ऊपर से फीस।

पिताजी ने इन सब खर्चों को स्‍वीकार कर लिया था। वे अपनी बेटियों के बेहतर स्‍कूल में पढ़ाना चाहते थे। अम्‍मां कपड़े की दुकान पर गईं थीं और वहां से चार फ्रॉकों के पीस कटाकर ले आई थीं।

उन दिनों किस्तों पर भुगतान करने की व्‍यवस्‍था थी, जैसे आज लोग अपनी भौतिक सुविधाओं के लिये साप्ताहिक या मासिक किस्तों पर सामान खरीदकर मकान को घर बनाने की कोशिश करते हैं, वैसे ही तब यह सुविधा कपड़ों के लिये थी।

जोगेश्वरी की प्रसिद्ध एक मंज़िला इमारत महाराज भवन से थोड़ी दूर आगे कटपीस कपड़ों की एक छोटी सी दुकान थी, जिसे मिस्‍टर खन्ना चलाया करते थे। उनके यहां चेक के कपड़े खूब अच्‍छे मिलते थे। अम्‍मां यहां से ही चेक का कपड़ा खरीदती थी।

जब फ्राकें सिलकर आ गई थीं और जब पहले दिन वह तैयार हुई तो शीशे में खुद को ही नहीं पहचान पाई थी। राजकुमारी लग रही थी। अम्‍मां ने उसके कान के पीछे काजल का टीका लगा दिया था, जो उनके स्‍नेह का प्रतीक था। ये फ्रॉक कायदे से उसकी पहली स्‍कूल यूनिफॉर्म थी।

आज इतने खूबसूरत चेक खोजने पर भी नहीं मिलते, यहां तक कि फैब इंडिया में भी। उसने बहुत खोजा था, हरा-काला चेक, लाल काला चेक। लाल काला चेक मिला तो, पर वह चेक का कपड़ा गद्दा भरने वालों के यहां दिखा था।