mahakavi bhavbhuti - 6 in Hindi Fiction Stories by रामगोपाल तिवारी books and stories PDF | महाकवि भवभूति - 6

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महाकवि भवभूति - 6

महाकवि भवभूति 6

उत्तररामचरितम् या प्रायश्चित.........

आदमी के मन में कोई नया काम करने की उमंग उठे, समझ लो नये सृजन का बीजारोपण हो रहा है। उस वक्त एक नशा सा चढ़ने लगाता है। एक तड़प मन को बेचैन करने लगती है। ऐसी स्थिति में हम मन की व्यथा उड़ेलने के लिये व्यग्र हो उठते हैैं। उस वक्त किसी से अपनी बात कहकर अथवा लिखकर मन की तरंग को शान्त करने का प्रयास करते हैं। आज भवभूति ऐसे ही विचारों में खेाये हुये थे।

सीता की अग्नि परीक्षा वाला प्रसंग मैं महावीरचरितम् में प्रस्तुत कर चुका हूँ। इन दिनों मुझे यह लगने लगा है कि उत्तररामचरितम् में सीता निवार्सन की कथा के इर्द-गिर्द ताने-बाने बुनकर एक नाट्य कृति लिखी जाये, लेकिन इसका अन्त महर्षि बाल्मीकि की तरह न करके परम्परागत तथ्यों से परे राम और सीता के मिलन से किया जाये। जो महावीरचरितम् में अग्नि परीक्षा वाला प्रसंग लिखा गया है उसका यही प्रायश्चित हो सकता है। जन-मन को कथ्य नवीन जरूर लगेगा। यह परम्परागत कथ्यों से भिन्न भी होगा। पौराणिक मिथकों को तोड़ने-मरोड़ने का दोष मेरे मत्थे मढ़ा जायेगा। यह मेरे लिये सहनीय होगा।

मैं यह ठीक तरह से समझ रहा हूँ। आने वाले समय में कवि अथवा लेखक रामकथा के इस कथ्य को मेरी तरह लिखने में संकोच करेंगे। इसका आभास मुझे मेरे अपने लेखन से ही हो गया है। सीता की अग्नि परीक्षा एवं शम्बूक वध वाले प्रसंग के कारण लोग राम की त्रुटियॉ गिनाने में संकोच नहीं कर रहे हैं । मैं इन्हीं कथ्यों को सामने रखकर कुछ समाधान खोजना चाहता हूँ। देखो, मैं अपने उद्देश्य में कहाँ तक सफल होता हूँ?

मेरा मन संवेदित है और आज मुझे नव रसों में करुण रस ही मुझे सबसे अधिक प्रभावित कर रहा है। सीता निर्वासन जैसा प्रसंग इसी रस से अपने सच्चे रूप में मुखरित हो सकेगा। मुझे इस कार्य को करने से पूर्व अपने मन में कुछ आधार बना लेना चाहिये। मनुष्य से मनुष्य व्यथित हो और इसके लिये राम के द्वारा किया गया कार्य भी पर्याप्त न हो, तो इससे बढ़कर करुणा की बात और क्या हो सकती है? यही सोचकर मैंने इस नाटक की रचना की है। यह केवल राम के उत्तर जीवन का चरित ही नहीं है, बल्कि यह तो लोकोत्तर राम का चरित है।

लोकानुरंजन के लिये राम के द्वारा इतना बड़ा त्याग करने के बाद, अयोध्या की जनता को समझ देनी थी। दृढ़ निश्चयी व्यक्तित्व के समक्ष क्या सभी नतमस्तक हो गये। प्रसव की पीड़ा सह रही सीता को वनोवास एवं महान तपस्वी शूद्र शम्बूक का राम के द्वारा वध। देखता हूँ इस पीड़ा में मैं आपको कितना सरावोर कर पाता हूँ।

उत्सव मंे भाग लेने आये अतिथियों की बिदाई के बाद शान्ता ने यह संदेश भेजा था कि सीता गर्भवती है और गर्भवती स्त्रियों की आकाँक्षाऐं अवश्य पूरी होनी चाहिए। अतः सीता की जो इच्छाऐं हों उन्हें राम को तुरन्त पूरी करनी चाहिए।

महर्षि वशिष्ठ ने यह संदेश भेजा कि रामभद्र नये राजा है। उन्हें प्रजानुरंजन का पूरा ध्यान रखना चाहिये।

इन दोनों संदेशों को राम ने ध्यान से सुना और कहा-‘ लोककल्याण के लिये स्नेह, दया, सौख्य की तो बात ही क्या है, प्राणप्रिया जानकी को भी छोड़ने में भी मुझे जरा हिचकिचाहट न होगी।’

याद हो आई सीता निर्वासन की। वाल्मीकि रामायण से पृथक ऐसी परिस्थिति उपस्थित की जाये जिससे निर्वासन सहज हो जाये और सीता को यह आभास भी न हो कि उसका निर्वासन किया जा रहा है। इसके लिये तो चित्रवीथिका का प्रदर्शन ही उचित लग रहा है। महावीरचरितम् को आधार मानकर अर्जुन नामक चित्रकार द्वारा बनाये गये चित्रों का सदुपयोग, नाट्यमंच पर सहज में ही हो सकेगा। यही सोचकर कथ्य का प्रवाह बढ़ने लगा-

एक दिन राम, सीता का मन बहलाने की दृष्टि से आलेख्य वीथिका में चित्रकारों द्वारा बनाये चित्रों को दिखाने के लिये ले गये। प्रथम चित्र में अग्निशुद्धि की बात देखकर राम ने सीता को साँत्वना देते हुये कहा- ‘देवी ,तुम तो जन्म से ही पवित्र हो। तुम्हारी शुद्धि के लिये क्या परीक्षा आवश्यक है ?’

आगे चित्रित जृम्भकास्त्र देखकर राम ने कहा-‘ देवी, इन जृम्भकास्त्र को हजारों वर्ष की तपस्या करके ब्रम्हा से प्राप्त किया था। अब ये तुम्हारी सन्तान की सेवा में रहेंगे।’

अगले चित्र में मिथिला वृत्तान्त, उससे आगे वनगमन, फिर वनवास के समय के पर्वत एवं नदियों के चित्र थे। वीथिका के अगले चित्र में पंचवटी में शूर्पणखा का वृत्तान्त, राम की वियोग जनित वेदनायें, हनुमान का मिलन आदि भी चित्रित थे।

सम्पूर्ण चित्र देखने पर सीता थक गयीं और उन्हांेने कहा- ‘आर्य पुत्र मेरी इच्छा हो रही है कि पुनः शान्त और गम्भीर वनप्रान्तर में एक बार और विहार करूँ तथा भगीरथी में गोता लगाऊँ। राम ने इस इच्छा की तुरन्त पूर्ति के लिये लक्ष्मण को रथ लेकर आने के लिये कहा।

इसी समय राम का अत्यन्त विश्वासपात्र दुर्मुख नाम का गुप्तचर मंच पर उपस्थित हुआ और सीता विषयक लोकोपवाद की सूचना राम को दी । यह सुनकर राम मूर्छित हो गये। आश्वस्त होने पर जिस रथ पर चढ़कर सीता वन विहार जाने वाली थीं, उसी से लक्ष्मण के द्वारा उन्हें वन में भेज देने का आदेश दे दिया।

ऐसी लोकाराधना किसी गणतंत्र में भी संभव नहीं हो सकेगी। रामराज्य की कल्पना कोई साधारण सी बात नहीं है, उसके लिये राजा को अपना सर्वस्व त्याग करने के लिये तैयार रहना पड़ेगा तभी रामराज्य जैसी सुन्दर व्यवस्था वह दे पायेगा। आने वाले समय में राजाओं के लिये राम का राज्य एक आदर्श कल्पना होगी।

इसके आगे गर्भवती जानकी घनघोर जंगल में विचरण करते हुये दिखाई दें। जंगली पशुओं के मध्य उनका जीवन व्यतीत हो। उसके बाद वाल्मीकि आश्रम में उनका रहना। स्तन्य त्याग के बाद लव और कुश का विकास। महर्षि के द्वारा उन बालकों का क्षत्रियोचित संस्कार कराना। जृम्भकास्त्र एवं दण्डनीति का अध्ययन कराना। जृम्भकास्त्र तो उन्हें जन्म से ही सिद्ध हैं। बच्चों की इस प्रकार कुशाग्र बुद्धि है कि अन्य बच्चे उनके साथ अध्ययन करने में अपने को हीन समझने लगते हैं।

एक दिन वाल्मीकि ऋषि तमसा नदी में स्नान करने जा रहे थ्ेा, किसी बहेलिये ने विचरते क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक को मार गिराया। इस करुण दृश्य को देखकर वाल्मीकि विचलित हो उठे और सहसा उनके मुख से यह छन्द निःसृत हुआ-

मा निषाद.......(परिशिष्ट श्लोक-1)

यह छन्द सुनकर वाग्देवता प्रसन्न होते हैं और रामायण की रचना के लिये उन्हें आदेश देते हैं। महर्षि का रामायण की रचना के लिये अधिक समय देना लव और कुश के अध्ययन में बाधा उत्पन्न करने लगा। इसी कारण वासन्ती और आत्रेयी का यहाँ से पंचवटी में अध्ययन के लिये जाना।

यह प्रसंग याद दिला रहा है, मुझे अपने अतीत की। मैं भी तो अध्ययन के लिये विदर्भ से यहाँ पद्मावती आया था। यह कोई आश्चर्यजनक बात नहीं हैं, यहाँ तो अध्ययन हेतु दूर देश से नारियाँ भी आश्रमों में आती रहीं हैं। वासन्ती और आत्रेयी की तरह वे कितनी बहादुर हैं।

यहाँ वासन्ती से जब आत्रेयी को यह ज्ञात होता है कि यह पंचवटी है तो उन्हें राम के पंचवटी निवास की बातें स्मरण हो आयीं। उनके द्वारा यह कहना कि अब तो सीता का नाम मात्र ही शेष रह गया है। वासन्ती ने आश्चर्य से पूछा- ‘आह! सीता को क्या हुआ?’ तब आत्रेयी ने लक्ष्मण द्वारा उन्हें वन में छोड़े जाने की बात बतलायी। वासन्ती को आश्चर्य होना कि रघुकुल की वृद्ध माताओं के रहते यह अनर्थ कैसे हो गया। आत्रेयी ने बतलाया कि ऋष्यश्रृङ्ग के यज्ञ में सभी चले गये थे। बारह वर्षों में सम्पन्न यज्ञ अब समाप्त हो गया है। किन्तु अब वे भी यह कहकर अयोध्या नहीं आये हैं कि वधू से शून्य अयोध्या में हम लोग नहीं जायंेगे।

वशिष्ठ मुनि की राय से सभी वाल्मीकि आश्रम में चले आये हैं। आत्रेयी को यह बतलाया कि रामभद्र सीता की हिरण्यमयी प्रतिकृति को सहधर्मिणी बनाकर अश्वमेघ यज्ञ किया है। अश्वमेघ के घोड़े छोड़े गये हैं। उनके साथ सेना की एक टुकड़ी है। जिस की सुरक्षा में लक्ष्मण का पुत्र चन्द्रकेतु हैं, जिसने दिव्यास्त्रों की परम्परागत शिक्षा प्राप्त की है।

यह सब तो परम्पारगत कथ्य ही है, जिसे नाट्य रूपांतरित करने में लग जाऊँ। वाल्मीकि के आश्रम के पास सीता को जब लक्ष्मण छोड़कर चले गये। सीता को प्रसव वेदना हुई तो वह गंगा में प्रविष्ट हो गयी। उन्हें दो पुत्र हुये ,पृथ्वी और भगीरथी ने उन्हें सँभाला। सीता पाताललोक मंे चली गयी। उनके बाद दोनों बच्चों को वाल्मीकि आश्रम में पहुँचा दिया।

भगीरथी ने सीता को अदृश्य बनाकर तमसा के साथ बारहवें वर्ष की मंगलग्रंथि के बहाने राम की रक्षा के लिये पंचवटी भेज दिया। उधर राम भी अगस्त्य के आश्रम से लौटकर पंचवटी में आये और सीता के साथ निवास किये स्थानों को देखकर मूर्छित हो गये। तमसा के कहने पर सीता ने अपने हाथों के स्पर्श से राम को आश्वस्त किया। वासन्ती भी राम से मिली और उसने सीता के संबंध में बातें की। राम और सीता दोनों अलग-अलग शोकाभिभूत होकर विलाप करने लगे। कुछ आश्वस्त होकर अश्वमेघ यज्ञ पूरा करने के लिये अयोध्या चले गये। उधर सीता भी अपने बच्चों की बारहवीं वर्षगाँठ मनाने के लिये गंगा के पास लौट गयी।

इस प्रसंग में नदियों के माध्यम से बातें कहलवा कर व्यर्थ काल्पनिक नामों से बचने का प्रयास किया है। छाया के रूप में सीता की उपस्थिति से एक नई संकल्पना प्रस्तुत की गई है। जिससे पाठक बंधे रहे। कथ्य की नवीनता भी पाठकों के मनों को आकर्षित करती रहे। राम सीता का इस तरह मिलन, निर्वासन पर अपना प्रायश्चित ही है। यह प्रसंग देखकर दर्शकों को अस्वाभाविक अवश्य ही लगेगा।

इसमें नैपथ्य से लड़कों का कोलाहल सुनायी पड़ा। कौसल्या और जनक का ध्यान कोलाहल की ओर चला गया। उन्हीं बालकों में एक अति तेजस्वी बालक को देखकर दोनों भाव विभोर हो उठे। कारण यह था कि उस बालक की आकृति ठीक वैसे ही थी जैसे बचपन में राम की थी। उस बालक को बुलाया गया। वह व्यवहार में भोला-भाला निश्छल किन्तु सर्वथा प्रखर तेजस्वी बालक था। उसने बातचीत के प्रसंग में अपने रामायण के ज्ञान का परिचय दिया। जब राजा जनक ने दशरथ के पुत्रों की सन्तानांे के संबंध में प्रश्न किया तो उसने इस विषय पर अनभिज्ञता बतलायी। यह बालक लव था। लव ने बताया कि महर्षि वाल्मीकि ने सरस दृश्य प्रबंध लिखकर उस कथा भाग के स्वहस्त लिखित सन्दर्भ मेरे ज्येष्ठ भ्राता कुश के संरक्षण में नाट्याचार्य भरत मुनि के पास भेजा है।

इतने में अश्वमेघ यज्ञ के प्रसंग में छोड़े गये घोड़े को देखकर आश्रम के लड़कों को बड़ा कौतुहल हुआ। वे दौड़ते हुये आये। कुछ लड़के लव को भी वहाँ ले गये। घोड़ा पकड़ लिया गया। जब रक्षकों ने इसका विरोध किया तब लव युद्ध करने को तैयार हो गया।

यह अश्वमेद्य यज्ञ का घोड़ा था। जिसे रामभद्र ने लक्ष्मण के पुत्र चन्द्रकेतु के संरक्षण में सेना सहित छोड़ा था। चन्द्रकेतु ने सोचा यह तो आश्रम है, यहाँ घोड़ा कौन पकड़ेगा? यही सोचकर वन की दृश्यावली देखने में उलझ गया। जब चन्द्रकेतु इधर आये तो देखा आश्रम का एक लड़का घोड़ा छोड़े जाने के प्रश्न पर रक्षकों से युद्ध करनेे को तैयार है। चन्द्रकेतु ने बतलाया कि यह घोड़ा महाराज रामभद्र का है। लव जिसे पूरी रामायण की कथा ज्ञात थी, उसने रामभद्र पर बालि वध को लेकर आक्षेप लगा दिया। चन्द्रकेतु के सैनिकों द्वारा किये गये कोलाहल तथा पीछे से किये गये आक्रमण के कारण लव को थोड़ा क्रोध हुआ ओर उसने जृम्भकास्त्र का प्रयोग कर पूरी सेना को आश्चर्यचकित कर दिया। रामभद्र पर आक्षेप और सेना का स्तम्भन देखकर चन्द्रकेतु क्रुद्ध हो गया। परिणामतः चन्द्रकेतु और लव में द्वन्दयुद्ध प्रारम्भ हो गया।

लव और चन्द्रकेतु के बीच घनघोर युद्ध हो रहा था। दोनों एक दूसरे पर खुलकर दिव्यास्त्रों का प्रयोग कर रहे थे। इनके आश्चर्यचकित कर देने वाले युद्ध को देखकर विद्याधर और उनकी पत्नी रोमांचित हो गये। प्रत्येक घटना का वर्णन करने लगे। इधर रामभद्र पंचवटी से अयोध्या को जाते हुये युद्ध क्षेत्र में आ गये।

चन्द्रकेतु और लव दोनों ने ही उन्हें प्रणाम किया। युद्ध बन्द हो गया। रामभद्र लव के पराक्रम को देखकर बहुत प्रभावित हुये। रामभद्र को जब यह ज्ञात हुआ कि लव ने जृम्भकास्त्र का प्रयोग करके सारी सेना को आश्चर्य चकित कर दिया है, तब रामभद्र ने लव से जृम्भकास्त्र का संहार करने के लिये कहा। लव ने उनके आदेश को तुरन्त मान लिया। भरत मुनि के आश्रम से लौटकर कुश भी वहांँ आ गये। अपने भ्राता लव से उनका परिचय पाकर कुश ने रामभद्र को प्रणाम किया। राम ने दोनों कुमारों से कई प्रश्न किये। रामभद्र के मन में संदेह हो गया कि यह दोनों तो सीता के ही पुत्र हैं किन्तु उन दोनों कुमारों ने सीता के विषय में किसी भी प्रकार की जानकारी नहीं दी। राम निश्चय नहीं कर पाये कि वे बालक कौन हैं? इसी बच्चों के झगड़े की बात सुनकर वाल्मीकि, जनक, वसिष्ठ, अरुन्धती तथा दशरथ की रानियाँ सभी वहाँ चले आये। रामभद्र उन्हें देखकर शोकाभिभूत हो गये ओर उनका स्वागत करने के लिये चल पड़े।

यह इस नाटक का अंतिम अंक होगा। इसमें परम्परागत कथ्य से पृथक होकर राम और सीता का मिलन करा देना होगा। वाल्मीकि रामायण की तरह सीता का धरती में समा जाने वाला प्रसंग उचित नहीं है। उनका मिलन ही एक नई सोच को जन्म देगा। यही सीता निर्वासन के दोष से राम का प्रायश्चित होगा। इससे आने वाले समय में लोग अग्नि परीक्षा के बाद सीता निर्वासन के दोष से राम को मुक्त कर सकेंगे। यही अंत उचित लगता है। इसी समय पत्नी दुर्गा कक्ष में दीप प्रज्ज्वलित कर चुपचाप कक्ष से बाहर निकल गई।

नाटक के अंत में भरतवाक्य- माता और गंगा के समान जगत की मंगलकारिणी तथा रमणीया यह राम की कथा सभी पापों को दूर करती है और कल्याण की शक्ति प्रदान करती है।

राम-सीता का यह मिलन ,उन लोगों को प्रताड़ित करने के लिये उचित ही है, जिससे लोगों को यह बोध हो सके कि हम सत् पथ पर नहीं थे। यह लोकरंजन पर लोकमंगल की विजयश्री होगी। इस तरह यह करुण रस से परिपूर्ण रचना हो सकेगी।

सम्पूर्ण कथ्य कुछ पन्नों में सिमिट गया है। अब तो कथ्य के आधार पर संवादों की परिणति ही शेष रह गयी है, जो समय के अनुसार पूर्ण हो सकेगी। यही महावीरचरितम् के सीता की अग्नि परीक्षा वाले प्रसंग का प्रायश्चित भी होगा।

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