shambuk - 4 in Hindi Mythological Stories by ramgopal bhavuk books and stories PDF | शम्बूक - 4

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शम्बूक - 4

उपन्यास शम्बूक - 4

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -09425715707 Email-tiwari ramgopal 5@gmai.com

2 जन चर्चा में.शम्बूक भाग 4

इनमें शम्बूक को कोई भी अपनाने को तैयार नहीं है। वह सोचता है- जाने किस अहम् में ये लोग डूबे हैं। वे अपने घर के मन्दिर में जोर-जोर से सभी को सुना सुनाकर वेदों की ऋचाओं का पाठ करेंगे। अरे! भगवान क्या बहरा हो गया है जो चिल्ला-चिल्ला कर पाठ कर रहे हो? वह तो चींटी के पग नूपुर बजते हें वह भी सुनता है। वह कानों के बिना सुनता है, आँखों के बिना भी देखता है, बिना त्वचा के स्पर्श महसूस करता है। वह बिना पग के चलता भी है। ऐसे सर्व व्यापक प्रभू को प्राप्त करने के लिए मुझे जो भी करना पड़े मैं उसे करके रहूँगा।

भैया, मैंने सुना है वह स्वयम् ही अपना गुरु है। सारे गुरु अन्तर्गुरु के जगाने का रास्ता बतलाते हैं। सुना है वह स्वयम् की साधना- जाप से भी जाग जाता है। मुझे उसे ही जगाने का प्रयास करना चाहिये। बाकी काम तो फिर अपने आप होते चले जातें हैं। रावण ने क्या किया, कठोर तप से अन्तर गुरु को जगा लिया। उसके बाद तो सभी देव साकार होकर उसके सामने उपस्थित हो गये। भगवान शंकर को साकार होकर उसके सामने उपस्थित होना पड़ा।

निर्गुण निराकार साकार बन कर उपस्थित हो जाता है। इस का अर्थ हुआ हम जैसा चाहते हैं वह वैसा ही रूप धारण कर लेता है। अरे! इसे प्राप्त करना बहुत ही सरल है। हम उसे चाहे जैसे भजें चाहे मरा-मरा कहें चाहे राम’ राम कहें, वह दोनों ही तरीके से हमारी सुनता है। मेरे लिये साधना में अब कोई अवरोध नहीं रहा। निश्चिन्त होकर जिसे मन स्वीकारे उसकी आराधना करते चले जायें, वह हमारी प्रार्थना को जरूर सुनता है। मेरा सोचना हैं कठिन साधना से वह जल्दी ही सुनता होगा इसलिये मैं कठिन साधना में ही लग जाना चाहता हूँ। रोनी सूरत बना कर बैठे रहने से कोई लाभ नहीं है। सभी तपस्वी किसी एकान्त स्थल पर ही तप करते देखे गये हैं। मेरे अपने इस क्षेत्र में तो एकान्त ही एकान्त है। मेरी तप साधना की किसी को भनक भी नहीं लगेगी।

इस चिन्तन के बाद सुमत सोचने लगा-‘सुना है पहले शम्बूक ने सामान्य तरीके से साधना में बैठना शुरू किया। बाद में उसका रूप बदलता चला गया। वह साधना को कठिन से कठिनतम बनाता चला गया। एक दिन एक पर्वत खण्ड को उसने नीचे गिरते देखा। वह किसी दूसरे खण्ड से टकराया। उसकी टकराहट से चिनगारी निकली। वह सोचने लगा-दो पत्थरों के टकराहट से चिनगारी निकल सकती है। इन पत्थरों में कोई शक्ति छिपी है जो एक दूसरे की टकराहट से बाहर निकल पड़ती हैं। इसका अर्थ है ऐसी ही टकराहट से शक्ति अर्जित की जाये। निश्चय ही कहीं कुछ प्राप्त किया जा सकता है तो कठोर तप से ही।

मेरी बुआजी ने बताया था कि शम्बूक को जब उसके पिताजी ने उसे एक आचार्य के पास अध्ययन करने के लिए भेजा था। आचार्य ने उसे उसमें प्रवेश तो दे दिया था किन्तु वह जल्दी ही वापस आ गया था कारण पूछा तो उसने बताया कि शूद्र वर्ग का होने के कारण आश्रम की सफाई का भार सौपा दिया। आश्रम इतना विशाल था कि सुबह से शाम तक वह उसमें झाडू ही लगाता रहता था तो भी उसका कुछ न कुछ हिस्सा झाडू लगानें से छूट जाता था। उसके साथी छात्र इस बात की शिकायत आचार्य जी से करते थे। वे शम्बूक से कहते-‘ जो काम तुमको दिया गया है उस काम के निवृत होने पर ही तुम पढ़ने-लिखने के लिये कक्षा में बैठ सकोगे।’ वह रात्रि से ही इस काम के लिये उठने लगा था तो भी सफाई का कार्य न निपट पाता। दूसरे छात्र उससे कहते-‘ शम्बूक तुम शूद्र जाति से हो, तुम्हारा काम सेवा करना हैं। तुम्हें पढ़ने-लिखने की जरूरत नहीं है। कोई चिटठी- पत्री अथवा लिखा पढ़ी का काम करना हो तो हम किस बात के लिये हैं। हमारा यही कार्य है। तुम तो व्यर्थ ही पढ़ने-लिखने के चक्कर में पढ़ रहे हो।’

शम्बूक उनकी बातों को सुनकर अनसुना करता रहा। उनकी बातें उसे सोचने को मजबूर कर रहीं थीं- ये लोग यह नहीं जानते, ऐसी बातें समाज का कितना बड़ा अहित कर रहीं हैं। ये समाज को अशिक्षित बनाये रखने के लिये ,सोची-समझी योजना बनाकर अपने अहम् की तुष्टि में लगे हैं। यदि हम पढ़ लिख गये और समझदार हो गये तो नीतिगत निर्णय ले सकेंगे। हमें शिक्षा से दूर कर वे अपने देशकाल के साथ न्याय नहीं कर रहे हैं, जिसका परिणाम पता नहीं कितनी पीढ़ियों को भुगतना पड़ेगा।

यही सोचकर जब आचार्य शिष्यों को अक्षर ज्ञान करा रहे होते, वह भी झाडू लगाते समय उन शब्दों को मन ही मन आत्मसात करने लगा। इस तरह वह अक्षर ज्ञान ही वहाँ सीख पाया। वह उन सुने गये शब्दो को बोल-बोल कर दोहराने लगा। यह बात वहाँ के छात्रों ने जान ली तो इस बात की शिकायत उन्होंने आचार्य जी से कर दी।

आचार्य जी शम्बूक से बोले-‘तुम्हें जो काम दिया गया है उसे न करके चोरी से पढ़ना-लिखना सीख रहे हो। हमने तुम्हें पढ़ने के लिये ही यहाँ आश्रम में स्थान दिया है किन्तु इस समय तुम्हें जो काम दिया है उस पर घ्यान दो। तुम हो कि चोरी से पढ़ना सीख रहे हो। तुम्हारा यह आचरण अच्छा नहीं है। यहाँ के छात्रों पर यह गलत सन्देश जा रहा है। यह आश्रम प्रणाली के विरुद्ध है। अतः मैं तुम्हें इस आश्रम से निष्कासित करता हूँ।

इस तरह उसे वह आश्रम छोड़कर ही आना पड़ा था। जब वह उस आश्रम से लौट कर आया तो उसकी माँ ने उसे सान्त्वना देने के लिये समझाते हुये कहा-‘मैंने सुना है तप-साधना से सारा ज्ञान अनायास ही प्राप्त हो जाता है फिर तो तुम्हें कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। यह बात पता नहीं क्यों अस्वाभाविक सी लगती है।,

उसी समय से यह बात उसका पीछा कर रही है कि इसी बात के भरोसे वह किसी ऐसे गुरु की खोज में रहने लगा जो उसे तप-साधना करने का सही पथ शिखा सकें।

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