अपने-अपने इन्द्रधनुष
(3)
कई दिनों के पश्चात् आज काॅलेज के काॅरीडोर में विक्रान्त मिल गया। वह बाहर जा रहा था। उसे देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वह जल्दी में हो। मुझे देखते ही वह रूक गया। स्वभाववश मेरा हाल पूछ बैठा। मैं भी रूक गई। औपचारिक बातों के पश्चात् वह बताने लगा, ’’ क्या बताऊँ नीलाक्षी जी घर में परिस्थितियाँ ठीक नही चल रही हैं। ’’
’’ क्या हुआ?’’ मैंने पूछ लिया।
’’ कुछ नही नीलाक्षी जी। ’’ कह कर वह चुप हो गया। किन्तु उसकी व्याकुलता बता रही थी कि चुप रह कर भी वह बहुत कुछ मुझसे कहना चाहता है। ’’
’’ अभी मैं घर जा रहा हूँ। शीघ्र जाना है। माँ का फोन था। अच्छा हुआ आप मिल गयीं। ये मेरी अवकाश की अप्लीकेशन है। कार्यालय में दे दीजिएगा। मुझे तत्काल जाना है। शीघ्र ही मिलता हूँ। अच्छा चलूँ। नमस्कार। ’’
विक्रान्त चला गया। मैं सोचती रही कि क्या बात हो सकती है? क्यों विक्रान्त इतनी शीघ्रता स,े कुछ हड़बड़ाया हुआ घर जा रहा है। ये तो मैंने सुना था कि विक्रान्त के घर वाले पुराने विचारों वाले है। कस्बाई सोच रखते है। स्वंय विक्रान्त भी आधुनिकता का दिखावा करता है। वो भी दकियानुसी विचारों का है। विशेष कर स्त्री-पुरूष मंे लिंग भेद की भावना का पक्षधर है। स्त्रियों को दोयम दर्जे का प्राणी मानता है। उसके घर में उसके माता-पिता, उसकी एक अविवाहित बहन, पत्नी तथा दो बेटियाँ है। वो सभी ठीक तो हैं? मैं उसके लिए चिन्तित हो गयी।
मैंने सुना है कि उसके माता-पिता ने उसका विवाह एक साधरण घर की कम पढ़ी-लिखी लड़की से किया है। ऐसा विवाह करने के पीछे उनकी मंशा यह थी कि ऐसी लड़की को घर में दबा कर रखा जा सकेगा। घर के सभी कार्य वह चुपचाप करेगी, एक नौकरानी की भाँति। विक्रान्त को जानने वाले बताते हैं कि जब से उसकी दूसरी पुत्री हुई है तब से वह अपनी पत्नी को प्रताड़ित करता है। उसके माता-पिता दो पुत्रियाँ पैदा करने के लिए उसकी पत्नी को कुसूरवार ठहराते हैं। बात-बात पर ताने मार कर उसको मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहते हैं। पुत्री पैदा करने के अपराध में उन्हें प्रसन्न रखने के लिए विक्रान्त की पत्नी दिन-रात घर के कार्यों मे जुटी रहती है। जी-जान से खटने के उपरान्त भी वह उन्हंे प्रसन्न नही कर पाती।
उसकी पत्नी के मायके की अर्थिक स्थिति अच्छी नही है। इस कारण वह मायके भी नही जा पाती है। या यूँ कहे कि उसे बुलाया नही जाता। हमारे समाज में विवाहोपरान्त लड़कियाँ बिना बुलाये अपने माता-पिता के घर नही जा सकती। उनसे मिलने की इच्छा होने के पश्चात् भी वो अपने माता-पिता के घर बिना बुलाये नही जा सकती। मायके से बुलाने पर ससुराल से भी विदाई की रस्म आवश्यक है। विवाह कर के किसी प्रकार अपने उत्तरदायित्व से मुक्त होने वाले माता-पिता पुत्री को पास बुलाने का रस्म बार-बार क्यों निभायेंगे? उपहार आदि दे कर विदा करने की रस्म अदायगी करने में क्यों अपने ऊपर आर्थिक बोझ डालेंगे? विक्रान्त की पत्नी के साथ के साथ भी यही स्थिति है। वह प्रताड़ित होती है........रोती है........पुनः घर के कार्यों में जुट जाती है। सुना है कि विक्रान्त भी उस पर हाथ उठाता है। अपराध मात्र यह कि वह दो पुत्रियों की जननी है।
विक्रान्त का वाह्नय व्यक्तित्व आधुनिकता के छद्म आवरण से ढँका है। किन्तु मन से वह पुराने विचारों का है। महिलाओं के लिए उसकी सोच दकियानूसी ही है। उसकी बातों से उसे अनेक बार आभास हुआ है कि वह महिलाओं की शिक्षा, उनके विकास व पुरूषों के बराबर उन्हंे अधिकार देने के पक्ष में नही है। इस विषय पर आपस में बात चलने पर उसकी तरफ से सदा विरोध के स्वर मुखर होते हैं।
आज वह इतनी शीघ्रता में है तथा इतना घबराया हुआ लग रहा है कि वो ये भी नही बता पा रहा है कि वह जा कहाँ रहा है, घर या कहीं और? मन कुछ चिन्तित-सा हो रहा है यह सोच कर कि उसके घर में सब कुछ ठीक तो है?
विक्रान्त चला गया। मैं काॅलेज के कार्यों में व्यस्त हो गयी। छुट्टी के समय चन्द्रकान्ता मिल गयी। हम अक्सर काॅलेज से घर के लिए एक साथ निकलते हैं। मैंने उसे विक्रान्त की परेशानी के बारे में बताया। कदाचित् उसे कारण ज्ञात हो? क्यों कि वह विक्रान्त के सम्पर्क में रहती है। फोन पर भी उसकी विक्रान्त से बातें होती रहती हैं।
चन्द्रकान्ता कुछ देर चिन्तित हो कर सोचती रही- ’’ पिछले हफ्ते की बात है घर में बढ़ चुके कलह व झगड़ों से त्रस्त हो कर विक्रान्त की पत्नी इस बार दोनों बेटियों को ले कर अपने भाई के घर चली गई तथा परिवारिक न्यायालय व महिला आयोग में उसने दहेज के लिए व बेटी होने पर प्रताड़ित करने का आरोप उन पर लगाया है। ’’
’’ सुना है उसने अपनी तथा बेटियों की जीविका चलाने के लिए भाई से कुछ पैसे ले कर घर में मसाले व पापड़ तैयार करने का छोटा-सा व्यवसाय प्रारम्भ कर दिया है। ’’ मुझे देख कर मुस्कराती हुई चन्द्रकान्ता बताती जा रही थी। उसकी बातें सुन कर मुझे विक्रान्त की पत्नी पर गर्व हो रहा था। यद्यपि मैंने उसे कभी देख नही था। पर मेरी कल्पनाओं में वह एक अत्यन्त साहसी व समझदार स्त्री को परिभाषित कर रही थी।
चन्द्रकान्ता बताती जा रही थी, ’’ विक्रान्त व उसके घर वालों ने सोचा था कि कम पढ़ी-लिखी सुलभा सारी उम्र इसी प्रकार प्रताड़ित होती रहेगी व दो रोटियांे के बदले घर में नौकरानी की भाँति कार्य करने के लिए विवश रहेगी। किन्तु सहनशक्ति की भी सीमायें होती हंै। उसने वो सीमायें तोड़ दी हैं। ’’ कह कर चन्द्रकान्ता चुप हो गई।
’’ विक्रान्त अपने घर की , अपने मन की बातंे कभी-कभी मुझसे बता देता है। वह जानता है कि उसकी परिवारिक बातें मैं स्वंय तक सीमित रखूँगी। ’’ कुछ क्षण चुप रहने के पश्चात् चन्द्रकान्ता ने बातों का तारतम्य जारी रखा।
’’ मैं सोचती हूँ कि हम पढ़ी-लिखी महिलाओं से कहीं आगे बढ़ कर सुलभा ने साहस का कार्य किया है। उसने अन्याय व ग़लत बातों का साहस पूर्वक प्रतिकार किया है। स्वावलम्बी बनने का उसका प्रयास सराहनीय है। ’’
’’ अब कानूनी नोटिस पाकर विक्रान्त की दशा देखने बन रही है। उसने सोचा भी नही था कि एक दबी-सहमी रहने वाली औरत भी सही तरीके से विद्रोह के स्वर मुखर कर सकती है। विक्रान्त को समाज द्वारा उपहास का भय सता रहा है तो नौकरी में समस्यायें उत्पन्न होने का डर। वह क्या करे.....क्या न करे? इसी सोच में घबराया हुआ है। समझौता या अपनी त्रुटि पर पत्नी से क्षमा मांग लेना उसके पुरूषवादी अहं को स्वीकार नही है। उसकी समस्या का मुख्य कारण यही है। ’’
चन्द्रकान्ता की मुस्कान थोड़ी और बढ़ गयी। वह मेरी तरफ देखती जा रही थी, ’’ विक्रान्त मुझे मित्र समझता है, और मैं भी उससे मित्रता निभाने में पीछे नही हूँ। वह मेरी आवश्यकताओं के समय मेरे साथ रहता है। अतः मेरा तुमसे अनुरोध है कि उसके परिवार ही बातें अपने तक सीमित रखना। ’’ चन्द्रकान्ता ने मुझसे कहा।
मैंने चन्द्रकान्ता के कंधे पर हाथ रख कर उसे आश्वस्त किया। चन्द्रकान्ता मार्ग में अपने घर की तरफ मुड़ गई मैं अपने।
चन्द्रकान्ता तो प्रतिदिन मिलती है। किन्तु आज मुझे वो कुछ नई बदली-बदली सी आकर्षक व सुलझी हुई लगी। विक्रान्त के लिए कितने सुलझे व उचित विचार थे उसके।
घर पहुँच कर आज मैं मम्मी-पापा के पास जा कर ड्राइंग रूम में बैठ गई। पापा प्रसन्न दिख रहे थे, जैसा वो अक्सर दिखते हैं। टी0 वी0 देख रहे थे। मम्मी-पापा घर के काम समाप्त कर खाली समय में शाम को ड्राइंग रूम में ही बैठते है तथा टी0 वी0 देखा करते हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात् समय व्यतीत करने व मनारंजन करने का इससे अच्छा कोई अन्य साधन नही हो सकता। पापा को प्रसन्न देख कर मुझे अच्छा लगा। मुझे देख कर माँ कभी-कभी चिन्तित हो जाती हैं। उनकी चिन्ता का कारण मैं समझती हूँ। उनके चेहरे पर आज भी मुझे चिन्ता की रेखायें स्पष्ट दिख रही थीं। इसका कारण मैं हूँ। जब भी मैं उनके पास जा कर बैठती हूँ और उस समय यदि मेरी बात चल गई तो माँ वही पुरानी बातें ले कर बैठ जाती हैं। बातें वही पाँच-छः वर्ष पुरानी। टूटने के कगार पर पहुँच चुके मेरे वैवाहिक जीवन से सम्बन्धित। मेरे प्रयत्न करने पर भी मेरा वैवाहिक जीवन सफल होता नही दिख रहा है। पापा अपने सकारात्मक दृष्टिकोण से मेरे भीतर साहस का संचार करते हैं। माँ थोड़ी चिन्तित हो जाती हैं, किन्तु अपनी चिन्ता व्यक्त नही करती।
उनकी चिन्ता का कारण मैं समझती हूँ। कभी -कभी उनकी चिन्ता मुझे उचित भी लगती है। उम्र के इस पड़ाव पर एक माँ कहाँ से साहस व सकारात्मक विचार ला सकती है? जब कि वह जानती हंै, स्त्री की पीड़ा और उसकी आवश्यकतायें। समाज में एक परित्यक्ता की समस्यायें। समाज का उसके प्रति संकुचित दृष्टिकोण। उनके विचार से किसी भी स्त्री की खुशियाँ उसके सुखी वैवाहिक जीवन में नीहित हंै। तभी तो वह चुप हो जाती हैं। उनकी मूक भाषा में छिपे अर्थों को मैं समझती हूँ। मैंने कब नही चाहा कि मेरा वैवाहिक जीवन सफल रहे?
माँ-पापा को एक साथ देख कर मैं उनके पास बैठ गई। आज मैं उनके बीच अपने जीवन की निरर्थक बाते नही आने देना चाहती थी। अतः आते ही मैंने घर की, मौसम की व खाने-पीने की औपचारिक बातों के पश्चात् मैंने तुरन्त विक्रान्त की बाते प्रारम्भ कर दीं। जैसे ही मैंने उन्हंे यह बताया कि उसकी पत्नी ने परिवारिक न्यायालय में गुहार लगाने के पश्चात् स्वावलम्बन की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये हैं। उन्हंे सुखद आश्चर्य हुआ।
मैंने उन्हें यह भी बताया कि छुटकी ने भी नौकरियों के लिए आवेदन करना प्रारम्भ कर दिया है। उसकी कोचिगं पूरी का गई है। ईश्वर ने चाहा तो उसे सफलता अवश्य मिलेगी। वह प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती है। इसके लिए उसने कठिन परिश्रम किया है। मैं छोटी बहन की शिक्षा व उसके द्वारा अपना करियर बनाने को लेकर उसके परिश्रम की चार्चा कर माँ-पिताजी को एक नयी आशा की डोर में बाँधना चाहती हूँ। इस समय उसकी चार्चा करने का मेरा उद्देश्य यही है। माँ-पिताजी भी तो इस समय पारिवारिक समस्याओं के कारण चिन्तित रहते हैं। यद्यपि छोटी बहन ने उनकी आशाओं का अभी तक जीवित रखा है। मैं उन्हेें यही समझाने का प्रयत्न करती हूँ कि मेरा वैवाहिक जीवन सफल नही हुआ तो इसका अर्थ ये नही है कि छुटकी के साथ भी ऐसा ही होगा। इस संसार में सभी पुरूष एक जैसी सोच नही रखते न सबका भाग्य एक जैसा होता है। मेरे समझाने पर माँ -पिताजी कुछ देर के लिए चिन्तामुक्त अवश्य हो जाते हैं। पुनः आशंकायें उन्हे घेरने लगती है। किन्तु मुझे पूर्ण विश्वास है कि छोटी के साथ सब कुछ अच्छा होगा।
ऋतुयें जब भी परिवर्तित होती हैं, उसका प्रभाव हमारे हृदय पर भी पड़ता है। सुखद ऋतुओं में आपाधापी व समस्याओं के पश्चात् भी हमारा हृदय प्रसन्नता का अनुभव करता है। तपिश या कठोर सर्दी की ऋतु हमें व्याकुल कर देती है, और अनायास हम सुखद क्षणों की तलाश करने लगते हैं।
मार्च का महीना प्रारम्भ हो चुका है। यह माह परिवर्तन के प्रारम्भ का महीना है। वसंत के आगमन के संकेत सृष्टि पर सर्वत्र दिखने लगे हैं। झारखण्ड का यह छोटा-सा शहर प्राकृतिक संसाधनों व हरे-भरे प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण है।
शहर के इर्द-गिर्द वृक्षों की बाहुल्यता देख कर ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये वृक्ष बस शहर को सुरक्षा घेरे में बाँधे हुए खड़े हों। आम, महुए, जामुन, ढाक, पलाश के वृक्ष अपनी गंध से यहाँ की हवा में मादकता का प्रवाह करते हैं। आस-पास फैले जंगलों में यहाँ रहने वाले मूल आदिवासियों के छोटे-छोटे गाँव बसे हैं। इनके जीवनयापन का जरिया यहाँ के जंगल ही हैं। यहाँ ही महिलायें अत्यन्त कर्मठ हैं। अपनी जीविका भरण-पोषण के लिए ये किसी अन्य पर निर्भर नही रहती। ये खेती बाड़ी का कार्य स्वंय करती है। इसके अतिरिक्त डलिये, सूप और बाँस की टहनियों व गेहूँ की डंठलों से सजावटी वस्तुयें बनाने में कुशल हैं। इनके परिश्रम का कोई सानी नही। ये पुरूषों से कम नही बल्कि अधिक परिश्रमी हैं। साँवली व गेहुएँ जैसी आकर्षक रंगत, सुडौल कदकाठी व रंग-बिरंगे खूबसूरत गहनों से सजने सँवरने में रूचि रखने वाली ये महिलायें आवश्यकता पडने पर अपने दुधमुँहे बच्चे को पीठ पर बाँध कर मजदूरी व उद्यमिता भी कर लेती हैं। परिश्रमशीलता के कारण ये अपनी अलग पहचान बनाती हैं।
इन्हीं आदिवासी समाज से आती है हमारे काॅलेज के गल्र्स हाॅस्टल में काम करने वाली महुआ। पैंतिस-चालीस वर्ष के मध्य की उम्र वाली महुआ गेहुँए वर्ण, मध्यम कद व गठे शरीर की आकर्षक महिला हैं। वह अत्यन्त हँसमुख स्वभाव की है। छः-सात किलोमीटर दूर घने जंगल के समीप स्थित आदिवासी बस्ती से वह पैदल ही काॅलेज आती-जाती है। तीन बेटियों व एक बेटे की माँ महुआ का जीवन सरल नही है। किन्तु उसे देख कर किंचित मात्र भी आभास नही होता कि वह इन दुरूह परिस्थतियों से प्रभावित या हताश है।
हाल पूछने पर कहती है, ’’ एकदम अच्छा हैं दीदी। अपने दुःखों को हम कब के जंगल में छोड़ आये हैं। वो उधर ही कहीं बिला गये हैं। जंगल से निकलते समय राह में खुशियाँ पड़ी मिली, उन्हें उठा लिया और इधर निकल आयी।’’ कह कर खिलखिला कर हँस पड़ती है। उसके सुडौल चेहरे पर श्वेत दन्त पंक्तियाँ चमक पड़ती हैं। नाक की झुलनी दाँतो को स्पर्श करने लगती है।
बातों-बातों में महुआ बताती है कि ’’ पहले उसके आदिवासी समाज के लोग बहुत परिश्रमी व ईमानदार होते थे । जब से शहरी सभ्यताओं ने उनके जीवन में प्रवेश किया है। वे न तो पूर्णतः आदिवासी रह गए हैं, न शहरी। अपने मौलिक स्वरूप की विशेषतायें खो दी हैं उन्हांेने। खिचड़ी स्वरूप रह गया है उनका, जिनमें अनेक खामियाँ घर करती जा रही हैं। युवक शहरों में जा कर रोटी रोजगार तलाशने लगे हैं। आवश्यकतायें उन्हें शहरों में खींच रही हैं, तो जंगल में बिखरी जड़ें उन्हें उनके प्राकृतिक स्वरूप का स्मरण कराती हैं। इन सबमें स्त्रियाँ, बालिकायें वनों में ही इस परिवर्तन को देख रही हैं। वे स्तब्ध हैं समय के साथ हो रहे परिवर्तन को देख कर। उनकी दशा में कोई परिवर्तन नही हो रहा है। न शिक्षा, न स्वास्थ्य, न शोषण की स्थिति में कोई सुधार हो रहा है। ले दे कर हम आदिवासी समाज के लोग आधुनिकता की भांैडी नकल उतर रहे हैं। ’’ महुआ की समझदारी भरी बातें सुन कर मैं हँस पड़ती हूँ।
’’ तुम भी तो उसी समाज से हो, किन्तु तुम्हारी सोच तो अलग है। तुममें समझदारी है। तुम पढ़ी-लिखी भी लगती हो। ’’ मेरे इतना कहते ही उसके चेहरे पर वही निश्छल मुस्कान फैल जाती है। झुलनी दाँतों का स्पर्श करने लगती है।
यह तो मैं जानती हूँ कि महुआ अधिक पढ़ी-लिखी नही है। पर कितना यही मैं जानना चहती हूँ।
महुआ चुप रहने वाली नही थी। बोल पड़ी, ’’ दीदी मैं पढ़ी-लिखी नही हूँ। मैंने विद्यालय का मुँह तक नही देखा है। तब मेरी बस्ती में विद्यालय भी नही था। ’’ महुआ ने वस्तुस्थिति स्पष्ट की।
’’ तुम तो खड़ी बोली अच्छी बोलती हो। ’’ मैंने कहा।
’’ मैं खड़ी बोली ठीक से बोलना व समझना इसलिए सीख पायी क्यों कि जब मैं आठ नौ वर्ष की थी, तब उस समय हमारी बस्ती में चिकित्सकों की टीम सबके स्वास्थ्य की जाँच व बच्चों के टीकाकरण के लिए आयी थी। उनमें एक डाॅक्टरनी जी भी थीं। वो सब लोग वहीं पास के एक डाक बंगले में रूक गये थे। क्यों कि सभी दूर शहर से आये थे। उनका प्रतिदिन घर आना- जाना संभव नही था। डाॅक्टरनी दीदी मुझे अपने साथ डाकबंगले में ले गयी थीं। जब तक वो वहाँ रही मैं भी उनके साथ दिन-रात वहीं रही। उनका नाम मुझे अब तक स्मरण है- डा0 साधना नाम था उनका। वो बहुत भली थीं। उन्हांेने मुझे अपना नाम लिख कर दस्तख़त करना सिखाया और मैं बन गई पढ़ी-लिखी। ’’
कुछ क्षण रूक कर रहस्यमयी अंदाज में महुआ बोली, ’’ मैं पढ़ी-लिखी नही हूँ दीदी। बस्स, अपना नाम लिख लेती हूँ। नाम के अतिरिक्त अन्य कोई अक्षर नही पहचानती। मैं अपना नाम सौ नामों में से भी पहचान लेती हूँ। चाहे उसे किसी ने भी लिखा हो।’’ कह कर महुआ खिलखिला पड़ी। ’’
मैं उसकी बातें सुन रही थी। उसकी बातें मात्र बातें नही थीं। उनमें गहराई थी, समझदारी थी। इस प्रकार ध्यानपूर्वक मुझे अपनी बातें सुनते देख महुआ झेंप-सी गई तथा चुप हो गई। साँझ का आगमन हो रहा था। वह धीरे-धीरे क्षितिज से वृक्षों पर उतरने लगी थी। महुआ को भी घर जाना था, मुझे भी।