30 Shades of Bela - 12 in Hindi Moral Stories by Jayanti Ranganathan books and stories PDF | 30 शेड्स ऑफ बेला - 12

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30 शेड्स ऑफ बेला - 12

30 शेड्स ऑफ बेला

(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)

Episode 12 by Shilpa Sharma शिल्पा शर्मा

इस सुबह की शाम कब होगी

ट्रेन तीव्रतम वेग से दौड़ रही थी और उससे कहीं तेज़ गति से बेला की आंखों के आगे आ-जा रहे थे कई चेहरे-पापा, मौसी, समीर, पद्मा, इंद्रपाल, कृष, रिया। नेटवर्क ने सही मौक़े पर मोबाइल का साथ छोड़ दिया। कृष की बात सुनकर उसे अपने कानों पर भले ही विश्वास न हुआ हो, पर विश्वास की हिली हुई चूलों ने आंखों को कब नम कर दिया बेला भी नहीं समझ पाई। वह तुरंत अपनी ऊपर की बर्थ पर आ गई। फ़ोन स्विच ऑफ़ कर दिया। आंसुओं की गति ट्रेन की गति को मात दे रही थी, जैसे होड़ हो उनमें और कई सवाल मन को मथे जा रहे थे-क्या मेरे अपने लोग ही मेरे साथ कोई खेल खेल रहे हैं? क्या पापा ने मुझे यही सच्चाई बताने के लिए बुलाया है? ये कैसा सच आ रहा है मेरे सामने, जिसपर भरोसा करने को दिल नहीं चाहता।
भारी मन और बोझिल पलकों के साथ जो आंख लगी तो रात के तक़रीबन दो बजे तीखी प्यास ने उसे जगा दिया। बोतल में पानी नहीं था। इतनी रात को तो कोई वेंडर भी आने से रहा। दो पल लेटी ही रही बेला, पर जब प्यास सहन नहीं हुई तो हैंडबैग और बोतल लेकर नीचे उतरी और कोच के गेट पर आ खड़ी हुई। ट्रेन रुकी हुई थी। छोटा-सा स्टेशन झालावाड़ रोड और सामने प्लेटफ़ॉर्म पर थोड़ी दूर ही एक छोटी-सी वेंडर शॉप पर पानी की बोतल।

ट्रेन रुकी ही है तो क्यों न पानी ले लूं? बेला उतरकर शॉप तक पहुंची ही थी कि अचानक ट्रेन चल पड़ी। वह भागी। सोचा पिछले दरवाज़े से अंदर हो लेगी, लेकिन दरवाज़ा बंद था। वह भी और उसके पीछे के कोच का भी। ट्रेन ने गति पकड़ ली और बेला की आंखों के आगे से ओझल हो गई।
परेशान-सी बेला ने, जब ख़ुद को संभाला तो इस बात की तसल्ली थी कि हैंड बैग साथ में है यानी फ़ोन, कार्ड्स और पैसे उसके साथ हैं। उसने पहले पानी खरीद कर पिया। फिर सीधे स्टेशन पर मौजूद रेल्वे पुलिस चौकी पहुंची। ट्रेन छूटने की बात बताई। वहां मौजूद पुलिसकर्मी उसे स्टेशन मास्टर के पास ले गया। एन के तिवारी, स्टेशन मास्टर ने उसे आश्वस्त कराया कि उसका सामान दिल्ली में उतरवा लिया जाएगा।
बेला को पता चला कि दिल्ली के लिए उसे अगली ट्रेन सुबह ही मिल सकेगी। अब कहां इंतज़ार करे बेला? तिवारी बेला की समस्या को जैसे बिन कहे समझ गए, ‘आप चाहें तो रात यहीं बैठ सकती है, मेरे ऑफ़िस में, सुबह ट्रेन लेकर निकल जाइए. कोई वेटिंग रूम तो है नहीं यहां।’ तिवारी ने बेला के लिए चाय मंगाई.

चाय पीते-पीते अचानक बेला की नज़र उनकी चेयर के पीछे टंगी बड़ी-सी पेंटिंग पर गई। जाना पहचाना सा, अपने से रंग। वो सहसा उठ खड़ी हुई। सफ़ेद, नीले और हरे रंग की अधिकतावाली उस पेंटिंग में कोहरे के बीच एक लडक़ी घिरी बैठी थी। बेला को रोमांच हो आया। ऐसी तस्वीर उसने बनते हुए देखीं है। पास जाकर बेला ने देखा तो वो ठिठक गई। नियति, यही नाम तो लिखा है पेंटिंग के नीचे। ये तो उसकी मां की बनाई हुई पेंटिग है। हां, बिल्कुल। उसने दोबारा देखा। वे ऐसे ही लिखती थीं अपना नाम। ‘ये पेंटिंग आपने कहीं से ख़रीदी है?’ बेल की आवाज में उतावलापन था। तिवारी जी ने सिर उठाया, आंखों में सवाल , इस पेंटिंग में ऐसा क्या है?
वे सकुचाते हुए बोले, ‘नहीं-नहीं, मेरे चचेरे भाई राहुल की वाइफ़ ने बनाई है. वाइफ़ भी कैसे कहूं उनको? उन दोनों ने शादी नहीं की थी। एक कार ऐक्सीडेंट में उन दोनों की डेथ हो गई। उनकी विल के मुताबिक़ उनकी संपत्ति तो दान कर दी गई, पर कुछ सामान हमें लाना पड़ा। ये पेंटिंग और एक बॉक्स भी। मेरी वाइफ़ ने इसे घर पर लगाने से इनकार कर दिया तो मैंने ऑफ़िस में लगा ली।’
बेला कांप सी गयी, उसकी मां... क्या वे उसकी मां के बारे में कह रहे हैं? क्या उसकी मां नहीं रहीं? ओह, ये कैसे-कैसे सच सामने ला रही है नियति? पर हमने भी तो कभी उनके बारे में जानने की कोशिश नहीं की। हे ईश्वर...! आंसू उसकी पलकों की कोर पर जम गए। बेला को सोच में डूबा देखकर तिवारी ने पूछा,‘क्या आप जानती हैं इन्हें?’ हामी में सर हिलाया उसने और धीरे से पूछा,' आप उनके किसी बॉक्स का जिक्र कर रहे थे, आपके पास...'
'हां, यहीं है। आपकी कोई जानकार थीं क्या? मै मिला था उनसे। बेहद ज़हीन महिला थीं, आप देखना चाहेंगी?'
तिवारी जी ने पुरानी अलमारी खोलकर नीले रंग का बक्सा निकाला, धूल में लिपटा.
बेला ने धूल भरे बक्से पर प्यार से हाथ फेरा, मां... कितने अरसे बाद वो अपना वाला स्पर्श। खोला तो उसमें से दो डायरियां निकलीं, और कुछ पेंटिंग्स।
बेला ने धीरे से पूछा,'आप इज़ाज़त देंगे, मैं पढ़ना चाहती हूं, ' बेल को अपनी आवाज़ कहीं दूर से आती लगी। तिवारी जी ने सिर हिलाया।
वहां बैठे-बैठे ट्रेन आने तक कई-कई सवालों से घिरी बेला ने दोनों डायरियों को पढ़ डाला। जिसके कुछ पन्नों पर लिखी सच्चाई का सामना भीगी आंखों और बड़े धीरज से किया बेला ने-
हां, मैं मां नहीं बन सकती थी। पर पुष्पेंद्र को पिता बनाने के लिए मैंने अपनी बहन आशा को मना लिया और पुष्पेंद्र को भी। बेला का जीवन में आना सुखद है, पर मैं उससे बायोलॉजिकल मां की तरह जुड़ नहीं पाती। मैं पुष्पेंद्र और आशा के बीच बढ़ रही नज़दीकियों से परेशान हूं। मैं बेला को आशा के पास नहीं जाने दूंगी। केवल अम्मा ही मुझे समझ पाती हैं, थोड़ा-बहुत। अम्मा ने बेला को पूरे मन से अपना लिया है। मुझसे कहीं ज़्यादा ख़याल रखती हैं अम्मा, बेला का। आज पता चला कि आशा ने पुष्पेंद्र की दूसरी बेटी को जन्म दिया है। मेरे अकेलेपन का किसी को एहसास नहीं। पुष्पेंद्र आशा के पास जाएं, ये मैं बर्दाश्त करती रहूं, पर मेरी कला के मुरीद राहुल से मैं अकेले चार पल बात करूं पुष्पेंद्र को यह गवारा नहीं। बेला मेरी नहीं, पुष्पेंद्र मेरा नहीं तो मैं क्यों रहूं यहां? राहुल और मेरा अकेलापन अब मिलकर एक हो जाए यही बेहतर है, आख़िर जीवन जीने और प्यार पाने का हक़ तो मिलना ही चाहिए मुझे भी।
कुछ और सवालों के धुंध में घिर गई बेला... मेरी मां मेरी मां नहीं तो क्या आशा मौसी ही मेरी मां हैं? क्या पद्मा मेरी सगी बहन है? क्या वजह थी कि मुझसे इतने सच छुपाए गए? चूंकि मां बायोलॉजिकल चाइल्ड न होने की वजह से मुझे नहीं अपना सकीं, कहीं इसीलिए तो पापा का रिया के प्रति उदासीन रवैय्या नहीं है?
सुबह होने को थी और दिल्ली को जानेवाली ट्रेन आने को थी। सवालों के झंझावत में घिरी बेला तिवारी का शुक्रिया अदा करते हुए बोझिल मन से दिल्ली की ट्रेन में बैठ गई। ट्रेन में बैठते ही फ़ोन का स्विच ऑन किया और सोचा कि घर ख़बर कर दे, पर क्यों? किसको? घर पर किसे है उसकी परवाह? क्यों उसे सच जानने से महरूम रखा गया। उसकी सोच में ख़लल पड़ा फ़ोन की घंटी से, जिसमें कल ही उसने मेंहदी हसन की गाई हुई ग़ज़ल को रिंग टोन बनाया था, बज रही थी-तन्हा-तन्हा मत सोचा कर, मर जाएगा...मत सोचा कर।
कृष का फोन था,‘कहां हो टुम? फ़ोन क्यों स्विच ऑफ़ टा टुम्हारा? मैं कल राट से लगातार लगा रहा हूं और तुम राजधानी में नहीं हो। मैंने पूरी ट्रेन ढूंढ ली।’ एक सांस में बोल गया वह.
‘तुम दिल्ली कब पहुंचे कृष? और क्यों?’ बेला की आवाज कुछ तेज़ हो गयी।
कृष ने भी उतनी ही तेजी से कहा,‘जस्ट बिकॉज़ आई लव यू बेला!’

लव यू... उसका कृष कह रहा है...उसकी जिंदगी में जो झंझावात आया है, उसे उबरने के लिए क्या कृष का प्यार काफी है? उसने अपनेआपको कहते सुना... में तुमसे शाम को मिलूंगी दिल्ली में, मेरा इंतज़ार करना...