नई स्कूटी पाकर मन उमंग से भर गया किन्तु साथ मे चिन्तित भी | क्या पता मुझे चलानी आयेगी भी या नही ?? इसे तो देखकर ही भय लगता है | बचपन मे साइकिल चलाने की बड़ी इच्छा थी, उस वक्त मेरी उम्र लगभग बारह वर्ष की रही होगी | आज याद आ रहा है वह दिन , जब दूसरो को साईकिल चलाते देखूँ तो मन उसे हटा स्वयं साईकिल पर बैठने को करता या यूँ कहुँ कि एक लालसा उसके पीछे लग जाती थी |काश! मुझे भी कोई सिखा देता | घर पर साईकिल नही थी किन्तु , बाहर भी कभी हिम्मत न पड़ी किराये पर साईकिल लेने की | वैसे बाबा की लाड़ली थी सो बटुवे मे पैसे की कमी न थी | स्वभाव मे संकोच की उपस्थिति अक्सर अवसरो पर आघात करती है साथ ही आपके पैर हाथो को बाँध भविष्य मे उस विषय के प्रति अपाहिज भी कर देती है | एक बार मैं माँसी के घर गई थी | उनकी बेटी मंजू जो मेरी हम उम्र थी, रोज मुझे मैदान मे अपने साथ साईकिल चलाने का झाँसा दे ले जाया करती | मै भी पूर्वाभासी आनन्द मग्न हो पीछे - पीछे चल देती | वही मैदान मे पेड़ के नीचे खड़ी होकर, समय की गोट खेलते अपनी पारी का इन्तजार करती | खैर! मेरी पारी आने से पहले ही किराये के दो घण्टे पूरे हो जाते | मै संकोच वश अपनी खीज न उतार पाती , वैसे गुस्सा तो मन मे बहुत होता और , प्रतिदिन यह निर्णय भी करती कि अब मै मंजू के साथ नही जाऊँगी | पर उसमे भी बड़ी कला थी, मुझे मनाने मे उसे देर न लगती | कहावत है कि घूर के भी दिन आते हैं, सो मुझे भी एक अवसर प्राप्त हुआ | प्रथम बार साईकिल की सीट पर बैठी वह आनन्द आज तक न भूली हूँ | खैर! मंजू की चालाकी से अब तक मै अवगत हो चुकी थी ,सो साईकिल की सीट पर बैठने से पहले ही यह तय कर लिया, कि कुछ भी हो जाये दो घण्टे से पहले साईकिल न छोड़ूँगी | बड़ा प्रयास किया किया मंजू ने एक के बाद एक बहाने से, पर मै भी अड़ियल थी , सीट पर जो बैठी मानो चिपक गई | प्रथम बार मे ही पैडल मारते - मारते मैने बैलेंस बना लिया , अब क्या था सीट पर बैठ पैडल मारने लगी | तभी आवज आई "ज्यादा उड़ो मत !! जब तक गिरोगी नही ,चोट नही लगी तब तक साईकिल चलानी नही आती | अब उसकी बाते मन मे गूँजने लगी और खुद पर से नियंत्रण हट गया | साईकिल डममगाने लगी | जहाँ मुझे लगा था कि आज ही मैने साईकिल सीख ली , इस आत्मविश्वास ने जहाँ दोनो पैरो मे ऊर्जा भर दी थी, वहीं मंजू के वाक्य ने मानो उसपर तीर चला उसे घायल कर दिया हो | मुझे यकीन हो गया कि मै गिरी नही मुझे चोट नही लगी इसलिए अभी मुझे साईकिल चलानी नही आई | अब साईकिल चलाने मे वह उत्साह नही था, हालांकि साईकिल की सीट पर बैठने के आनन्द मे कमी नही आई थी | उस दिन दो घण्टे से पूर्व ही मंजू साईकिल स्टैंड पर जमा कर आई | शायद यह उसके मन की खीज ही होगी, जो रोज अपने साथ हो रहे अन्याय से प्रेरित प्रतिकार स्वरूप मेरे अड़ियलपने से उसमे उत्पन्न हो गया था | उस दिन के बाद से ही जब तक मै रही मंजू ने भी साईकिल अभ्यास छोड़ दिया | बस साईकिल पर मेरी इतनी ही कहानी थी, जो आज स्कूटी को देख स्वयं को स्वयं के लिए अपराधी मान रही थी | काश! मै संकोच का त्याग कर हिम्मत दिखाती और साईकिल सीख लेती तो कम से कम स्कूटी मे बैलेंन्स तो बना पाती | ढेर सारी सारी शिकायतें अपने आप से ही पर अब किया भी क्या सकता था | सीखना तो हर हाल मे है | स्कूटी सीखना मेरे जाब की सहुलियत और हिदायत जो थी |
कई लोगो से मिन्नते की कोई भी, सिखाने की जिम्मेदारी लेने को राजी न हुआ, सभी कोई न कोई बहाना लेकर कन्नी काट जाते |
सम्भवतः एक महोदय राजी भी हुए जो मेरे मुँह बोले भाई और सदैव सहयोगपूर्ण व्यवहार रखते थे, किन्तु मुझे उनसे सीखने मे थोड़ा भय अवश्य लग रहा था | कारण वे लम्बे किन्तु डेढ़ पसली के ,अर्थात अत्याधिक दुबले - पहले थे |कहाँ मै तन्दुरूस्त हालाँकि मोटी तो नही थी , किन्तु सीखते समय मेरे अनियंत्रित हो जाने पर वे मुझे न सम्भाल न पाते ऐसा मेरा विचार था | पर किया भी क्या जा सकता था | डूबते को तिनके का सहारा जैसी हालत थी मेरी , आखिर आग्रह भी तो मैने ही यह कहते हुए किया था कि , भैय्या कोई ऐसा है आपकी नजर मे जो मुझे स्कूटी चलाना सिखा दे, उस समय मै यह भूल गई थी कि , मेरे सामने जो बैठे है वह भी विकल्प मे प्रस्तुत हो सकते हैं | उत्तर मे हाँ हाँ! मै हूँ न!! संकोच वश और उन्हें बुरा न लगे मैने भी उनके द्वारा सीखना स्वीकार कर लिया | कई दिन बीत गये काम मे व्यस्तता के चलते वे नही आ पाये | स्कूटी की तरफ देख ऐसा प्रतीत होता जैसे अपने चमकीले दाँत निपोर मेरी खिल्ली उड़ा रही हो , फोन पर बार - बार आग्रह के परिणामस्वरूप आखिर एक दिन उन्होने निकाल ही लिया | शाम को कालोनी की खाली रोट पर मुझे एक्सीलेटर, ब्रेक और इंडिकेटर हार्न के बारे मे बता , मुझे स्कूटी के आगे बिठा स्वयं पीछे बैठ गये दोनो हाथ मे हैंडल पकड़ मै केवल चलाने का अभिनय ही कर रही थी किन्तु , पूरा नियंत्रण भैय्या के हाथ मे ही था | उनकी सजगता से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि, अपनी तुलनात्मक स्थिति का उन्हें भान हो चुका है तो फिर भला आत्मविश्वास मे भर मुझे स्वतंत्र कैसे छोड़ते | उसके बाद से एक सप्ताह बीत गया वो सिखाने नहीं आयेे | मेरे बड़े अनुरोध के पश्चात पिताजी सिखाने को राजी हुए छुट्टी वाले दिन दोपहर कालोनी की सुनसान सड़क पर मुझे सिखाना आरम्भ किया तरीका भी बड़ा निराला स्कूटी के पीछे हाथ सिकोड़ इस प्रकार बैठे जैसे मै पारंगत हूँ, मै भी अति उत्साहित थी चलाती हुई खूब दूर तक ले गई किन्तु वापस लौटते समय सामने से आते दो बच्चों को बचाने और मोड़ न पाने की वजह से बिजली वाले खम्भे मे स्कूटी दे मारी , हिम्मत इतनी की एक्सीलेटर से हाथ नही हटा और कमाल की बात फुल एक्सीलेटर भी दिये जा रही थी | ऐसा इसलिए था कि मुझे समझ नही आ रहा था कि उसे रोका कैसे जाये बार - बार पिता जी और बच्चों के चिल्लाने पर कानो की बात को दिमाग ने ग्रहण कर आदेश दिया और हैंडल से मैने अपने हाथ हटा लिए पिता जी ने फुर्ती से स्वयं का बचाव पहले ही कर लिया था, और मुझे भी दैवी कृपा से खरोच न आई , किन्तु बेचारी स्कूटी की आँख फूट गई | अपनी नई स्कूटी की ऐसी अवस्था देख मन आत्मग्लानी से भर गया | बचपन से मन मे एक बात जो घर कर गई थी कि साईकिल स्कूटी बिना चोट लगे नही आती | मन से सोचा स्कूटी की कुछ चोट मुझे लग जाती तो शायद मै चलाना सीख जाती | इस दुर्घटना के पश्चात स्कूटी महीनो यूँ ही खड़ी रही | अब तो उसने मुझे चिढ़ाना भी बन्द कर दिया था | बेचारी चिढ़ाती भी तो कैसे , अपनी फूटी आँखों से ? उस हादसे की दहशत मन पर इस प्रकार हावी थी कि, बहनो की उलाहना भी मुझे सीखने के लिए प्रेरित न कर पाती | छ : महीने बीत चुके थे अचानक एक दिन ऑफिस की एक कलीग ने स्कूटी न सीख पाने का हवाला देते हुए मेरी योग्यता पर उंगली उठाई , कानो मे गूँजती उसकी उस उलाहना ने मेरे आत्मसम्मान को झकझोर मुझे स्कूटी चलाना सिखा दिया | इस पूरे प्रकरण ने मुझे एक बात सिखाई जहाँ मंजू के विपरीत शब्दों ने मेरे आत्मविश्वास पर प्रहार किया था , वही कलीग द्वारा बोले विपरीत शब्दों ने ही मेरे , सोते आत्मविश्वास को जागृत किया | निष्कर्षत: शब्द चाहे सकारात्मक हो या नकारात्मक विकास , हमारे ग्रहण की प्रक्रिया पर निर्भर है |