अरमान दुल्हन के भाग 10
शादी की सभी रस्में निबटने के बाद कविता को पगफेरे की रस्म के लिए मायके वापस जाना था।
रज्जो कविता के लिए खाना ले आई और साथ खुद भी खाने लगी।
बुआ ने कविता को समझाते हुए कहा- "ए सरजू की बहू सुण!या तेरी सासु कोनी इसनै मां ए समझिये, अर इसकी खूब सेवा करिए।"
कविता ने हां में गर्दन हिलाई।
"ढंग तैं रहवैगी तो ठीक सै, ना मैं तो न्यारे भांडे धरदयूंगी (अलग करना) इसके!"पार्वती ने एक झटके में ही बोल दिया था।
कविता को अपनी सास से ये तो बिल्कुल अपेक्षा नहीं थी।रोटी उसके हलक में फंस सी गई। उसे धसक आ गई।रज्जो ने उसे पानी पिलाया।
इस तरह की बात अपनी सास के मुख से सुनकर उसकी भूख विदा ले चुकी थी। साथ ही उसने भी मायके पगफेरे के लिए जाने के लिए विदा लिए ले ली थी।
उसी दिन शाम को सरजू कविता को मायके से वापस लिवा लाया था।
वह वापस आई तब तक तीनों ननदें और बुआ भी अपनी अपनी ससुराल जा चुकी थीं। घर में सिर्फ तीन ही लोग बचे थे। कविता ने आशीर्वाद लेने के लिए सास के कदमों में ज्यों ही झुकी पार्वती पीछे हट गई। कविता को आशीर्वाद देना तो दूर की बात थी । खनखनाते हुए सास के शब्दों ने उसके कानों में गर्म सीसा सा उड़ेल दिया था।
"घणी एक्टिंग करण की जरूरत ना सै,सुणगी नै। तेरा मेरै गैल कोय रिश्ता ना सै। यो सरजू ए सै तेरा सब किम्मे (सबकुछ)लागै सै।मेरै तैं फालतू बोल बी मत जाईये।देख ,मन्नै तो रोटी ली खा।अपणी बणाल्यो अर खा ल्यो ।"
कविता सहम सी गई।उसके बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि ससुराल में उसका इस तरह से स्वागत होगा! उसकी आंखों से आंसू ओं का सैलाब उमड़ पड़ा। वह फफक फफककर रो दी। सरजू भी अपनी मां का यह रूप देखकर विस्मित था। उसे यकीन नहीं हो रहा था यह वही मां है जो पड़ोसियों की बहुओं को भी इतना मान सम्मान देती थी और आज खुद की बहू के लिए उनके दिल में जरा भी ममता नहीं।
कविता आंसू पोंछकर खड़ी हो गई।
ससुराल में दूसरा दिन ही तो था आज और आते ही रसोई घर में घुसा दिया गया।
उसने खाना बनाना तो ढ़ंग से कभी सीखा ही नहीं था । उसे तो केवल पढ़ने का शौक था।मां कहती थी खाना बनाने के लिए तो तपाक से कह देता थी मेरी सास बना कर खिला देगी मुझे और ढिठाई से हंँस पड़ती थी। मगर आज परिस्थिति बिल्कुल अलग थी।
वह कपड़े बदल कर रसोई में घुसी।रसोई का जायजा लिया क्या चीज कहाँ पर है।तभी पीछे पीछे सरजू भी आ गया।
"सुण मीनू! चल मैं तेरी सहायता करूँ। सब्जी रहणदे, मैं चटणी बणाऊं सूं लस्सण (लहसून) की।अर तैं रोटी पो ले। दोनों ने मिलकर खाना पकाया। रोटियां टेढ़ी- मेढ़ी भारत का नक्शा सा प्रतीत हो रही थीं। कुछ जल गई और कुछ कच्ची भी थीं।
"अरे वाह तुम्हारे हाथ की रोटियां का तो बिलकुल मां के हाथ की रोटियों के स्वाद जिस्सा (जैसा)सै।" सरजू ने रोटियों की तारीफ करते हुए कहा। ताकि कविता को मां के रवैये से जो दुख हुआ उसे भूल जाए।
तभी मां रसोई में आ जाती है।कविता उन्हें खाना खाने के लिए कहती है।
जली और कच्ची रोटियों को देखकर पार्वती नाक सिकोड़ती है और तेज कदमों से बाहर निकल जाती है।
कविता हर रोज सास को मनाने का हरसंभव प्रयास करती और सास के नखरे और नाराजगी दिन -ब -दिन बढ़ती जा रही थी। कविता कोशिश करती कि कोई भी ऐसा काम ना करूँ जिससे सासु मां नाराज हों। किंतु सास ने तो मानो कसम खा रखी थी हर बात में नुक्स निकालने की।कविता जितना सास को मान देती सास उतना कविता को अपमानित करती। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरा जो कविता ने रोकर न बिताया हो।
चार-पांच दिन जैसे तैसे बीते । पांचवें दिन रीति रिवाजों के अनुसार कविता का भाई रमेश उसे लेने आता है।
"मौसी राम-राम राज्जी सो के( सब कुशल तो हैं) ?" रमेश ने पार्वती को अभिवादन कर पूछा।
"राम-राम मैं तो राज्जी सूं ,बाकी तेरी बेबे नै पूछले! पार्वती रूखा सा जवाब देकर अपने कमरे में चली गई।
कविता अपने भाई को देखकर खुश हो गई।
" राम -राम भाई। घरां सारे ठीक सैं के!" कविता ने पूछा
"मां -पापा ,भाई- भाभी, दादा सब ठीक सैं बेबे। मौसी नू क्यूकर उखड़ी उखड़ी सी सै?" रमेश ने बहन की आंखों में झांककर जानने का प्रयास किया।
"बेरा नै भाई! मैं तो जिद की इस घर मैं आई सूं न्युए देखूँ सूं इणनै।"कविता ने बताया।
क्रमशः
एमके कागदाना
फतेहाबाद हरियाणा