गूगल बॉय
(रक्तदान जागृति का किशोर उपन्यास)
मधुकांत
समर्पण :
श्री बाँके बिहारी जी के उपासक
श्री रामजी व बुआ माया देवी (बेरी वालों) को सादर समर्पित
भूमिका
सुबह-सुबह सब्ज़ी ख़रीदने जाता तो मेरे पथ में एक कबाड़ी की दुकान पड़ती थी। उसकी दुकान के बाहर प्राचीन समय की एक सोफ़ा-कुर्सी पड़ी रहती थी। वैसे तो उस पर धूल-मिट्टी जमी रहती थी, परन्तु कभी-कभी उस पर कबाड़ी का ग्राहक भी बैठा दिखायी दे जाता था। उस कुर्सी के चारों ओर लगी लकड़ी पर बहुत सुन्दर कारीगरी उकेरी गयी थी जो धूल जमने के कारण किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं करती थी, परन्तु मैं जब भी वहाँ से गुज़रता तो वह सदैव मेरा ध्यान आकृष्ट करती।
लगभग सौ वर्ष पुरानी तो होगी ही यह सोफ़ा-कुर्सी। काश! मैं इसे कबाड़ी से ख़रीद कर ले जाऊँ और घर ले जाने के बाद अचानक इसमें छुपा हुआ ख़ज़ाना निकल आये....... मेरा मन सुखद कल्पना करने लगता। प्राचीन समय में लोग चोरों से छुपाने के लिये अपने धन को इसी प्रकार रखते थे।
मेरी कल्पना उड़ान भरने लगी। यदि इसमें छुपा ख़ज़ाना मिल जाये तो...... परन्तु उसपर मेरा अधिकार तो नहीं होगा, क्योंकि मैंने उसके लिये कोई परिश्रम नहीं किया...... तो क्या करें इस ख़ज़ाने का?...... सेवा में लगा दें....... सबसे बड़ी सेवा तो स्वैच्छिक रक्तदान है.... इस प्रकार प्रतिदिन कहानी कल्पना में आगे बढ़ती चली गयी।
उपन्यास ‘गूगल बॉय’ लिखते हुए मुझे एक और विशेष अनुभूति हुई। वैसे तो कभी भी मैं कट्टर धार्मिक नहीं रहा, सभी देवी-देवताओं में मेरी आस्था रही है, परन्तु कोई विशेष देवता मेरा आराध्य नहीं रहा। ‘गूगल बॉय’ को लिखते हुए मुझे अचानक मिले उस धन को छुपाने और खर्च करने के लिये कोई माध्यम का चुनाव करना था। न जाने कैसे मेरे अन्तर्मन में ‘श्री बाँके बिहारी जी’ ने निवास कर लिया। मैं उनका भक्त बन गया। अचानक मिले धन को हम गूगल बॉय का तो बता नहीं सकते थे, इसलिये वह सबसे कहने लगा कि यह धन बाँके बिहारी जी का है। इसे रक्तदान में खर्च करने के लिये बिहारी जी ने दिया है......और धीरे-धीरे उपन्यास के माध्यम से बाँके बिहारी मेरे मन-मस्तिष्क पर आच्छादित हो गये।
वर्षों पूर्व हमारी बुआ माया जी ने हमें वृन्दावन बुलाया था। वर्षों से हमारे फूफा सेठ श्री रामजी कलकत्ता में व्यापार से सेवानिवृत्त होकर वृन्दावन आ गये थे। श्री बाँके बिहारी जी में उनकी पैतृक आस्था थी। वृन्दावन प्रवास के दौरान एक चर्चा में बुआ जी को बताया कि आजकल जीवन में भागदौड़ बहुत बढ़ गयी है......।
‘हाँ बेटे, सुबह चार बजे उठती हूँ और रात को सोते-सोते दस बज जाते हैं। सारे दिन भागमभाग में लगी रहती हूँ....।’
हमें बहुत आश्चर्य हुआ। पूछ लिया - ‘केवल दो प्राणी, घर में नौकर-चाकर.....फिर भागदौड़ कैसी....?’
उन्होंने हमारे प्रश्न को समझ लिया और बताने लगी - ‘सुबह-सवेरे चार बजे उठना, लड्डू गोपाल जी का द्वार खोलना, स्नान आदि से निवृत्त होकर अपने लड्डू गोपाल के मन्दिर में बैठकर पूजा-पाठ करना, सुबह की चाय पीना-पिलाना, लड्डू गोपाल के लिये नाश्ता तैयार करना, भागकर बाँके बिहारी के मन्दिर में दर्शन करने जाना, लौट कर गोपाल जी को नाश्ता कराना, अपना नाश्ता बनाना-कराना, बिहारी जी के भोजन की तैयारी करना.....।’ रात के दस बजे तक की एक लम्बी सूचि उन्होंने सुना दी और मुझे विश्वास हो गया कि सचमुच उनके पास बहुत काम है।
उपन्यास लिखने से पूर्व एक बार भी बिहारी जी मेरे ज़हन में नहीं आये परन्तु उपन्यास लिखना आरम्भ किया तो बाँके बिहारी जी इस उपन्यास का आधार बन गये। ऐसा लगने लगा, वे मेरी उँगलियों को थाम कर कलम को चलवाते रहते हैं।
‘गूगल बॉय’ स्वैच्छिक रक्तदान से ही क्यों जुड़ा? वास्तव में, रक्तदान करना-कराना मेरी रुचि का विषय रहा है और गूगल बॉय ने अपने बचपन से युवावस्था तक अपनी माँ से अनेक दानवीरों की कहानियाँ सुनी थीं तो दानशीलता का स्वभाव अन्तर्मन में बस गया।
मित्रो, बचपन से लेकर युवावस्था तक गूगल बॉय का पालन-पोषण मैंने कर दिया है। सम्भव है, उसमें कहीं त्रुटि भी रह गयी हो, परन्तु अब मैं उसे आपके हाथों में सौंप रहा हूँ। आप गूगल बॉय का पालन-पोषण अपनी इच्छा अनुसार कर सकते हैं।
बाँके बिहारी की जय!
मधुकांत
211-एल, मॉडल टाऊन,
डबल-पार्क, रोहतक
मो. 98966-67714
प्रथम फ्लैप
स्वैच्छिक रक्तदान जागृति
महादानियों की प्रेरक कहानियाँ
वीर बालक बादल की कहानी
रक्तदाताओं का सम्मान
गूगल बॉय का अनुकरणीय आदर्श चरित्र
श्री बाँके बिहारी जी की अनुकम्पा
किशोर छात्रों के लिये उपयोगी
समाज सेवा ही ईश्वरीय सेवा
परिश्रम से अर्जित धन ही अपना
गुरु-श्रद्धा से अर्जित ज्ञान
हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, लाल खून है सबमें भाई
द्वितीय फ्लैप
‘बेटे, बाँके बिहारी ने रक्तदान सेवा का काम तेरे निमित्त करवाने के लिये यह धन तुझे सौंपा है’ - भोजन की थाली उसके सामने रखते हुए माँ ने आगे कहा - ‘बेटे, जब हम किसी प्राणी के बच्चे के लिये कुछ करते हैं तो उसके माता-पिता स्वयं ही खुश हो जाते हैं। माता-पिता को खुश करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वे तो स्वयं ही खुश हो जाते हैं। यही बात बाँके बिहारी पर भी लागू होती है। हम सब उनकी संतान हैं और जो इंसान उनकी संतान की सेवा करता है, रक्तदान करके उनके जीवन की रक्षा करता है तो श्री बाँके बिहारी जी उससे स्वयं ही खुश हो जाते हैं। अपनी भक्ति से अधिक वे अपनी संतान की सेवा करने वालों पर खुश होते हैं।’
खण्ड - एक
द्वार पर घंटी बजी तो तुरन्त गूगल समझ गया कि पापा शहर से लौट आये हैं। माँ के कहने से पहले ही वह शीघ्रता से उठकर द्वार खोलने चला गया। पापा का एक थैला अपने हाथ में लिये वह सीधा उनके साथ-साथ बड़े कमरे में आ गया। माँ भी पानी का गिलास हाथ में लिये वहीं आ गयी।
पानी पीकर गूगल का पापा, गोपाल थैले से सामान निकालने लगा। पहले थैले में घर के लिये दाल, चावल, मसाले आदि तथा दूसरे थैले में माँ के लिये सूट का कपड़ा, अपने लिये कुर्ते-पाजामे का कपड़ा तथा गूगल के लिये एक जोड़ी पैंट-क़मीज़.....।
‘बेटे गूगल, यह तेरी पसन्द की पुस्तक’, गोपाल ने पुस्तक बेटे के हाथ में देते हुए कहा।
पुस्तक को देखकर गूगल का चेहरा चमक उठा - ‘वाह पापा, श्रीमती इन्द्रा स्वप्न द्वारा लिखित पुस्तक ‘दानवीर महापुरुषों की कहानियाँ’ - सचमुच मुझे दानदाताओं की कहानियाँ बहुत अच्छी लगती हैं। थैंक्यू पापा....।’
‘चलो खाना खा लो। मैंने सब तैयारी कर रखी है। आप दोनों की पसन्द का भोजन बनाया है’, माँ ने कहा।
‘हाँ, हाँ चलो, पेट में चूहे दौड़ रहे हैं’, कहते हुए पापा माँ के साथ चल पड़े।
माँ ने सब की पसन्द का सरसों का साग, मक्का की रोटी, मक्खन और गुड़ को थाली में परोसा तो पिता-पुत्र दोनों की भूख बढ़ गयी। एक तो मन पसन्द भोजन, दूसरा पेट में भूख....। दोनों ने बड़े चाव से भोजन किया।
भोजन परोसते हुए माँ ने गोपाल को ख़ुशी का समाचार सुनाया - ‘देखो जी, अपना गूगल आज दसवीं कक्षा में पास हो गया है।’
‘अरे वाह, यह तो बहुत ख़ुशी का समाचार है.....शाबाश बेटे गूगल, शाबाश।’
‘परन्तु नम्बर कुछ कम आये हैं.....।’
‘कितने...?’
‘साठ प्रतिशत....।’
‘अरे भागवान्, साठ प्रतिशत क्या कम होते हैं! पास हो गया, मैं तो इसमें भी गूगल की बहादुरी मानता हूँ। मैं तो आठवीं पास भी नहीं कर पाया था.....’, गोपाल ने गूगल की पीठ थपथपायी।
‘अब आगे गूगल को कहाँ पढ़ाना है?’
‘गूगल से ही पूछो, वह कहाँ और क्या पढ़ना चाहता है? इस बारे में तो वह ही अच्छी प्रकार बता सकता है....।’
‘पापा, मेरे शिक्षक ने कहा है कि प्रत्येक छात्र को अपनी पसन्द की पढ़ाई पढ़नी चाहिए। इसलिये मैं तो अपने गाँव में ही आई.टी.आई. में दाख़िला लेकर ‘कारपेंटर’ का कोर्स करना चाहता हूँ। दो वर्ष का कोर्स भी हो जायेगा और मैं आपके काम में सहायता भी कर पाऊँगा।’
‘बहुत अच्छी सोच है बेटे तुम्हारी’ - कहते हुए गोपाल रसोई से निकलकर बड़े कमरे में आ गया। कुछ समय बाद माँ भी वहाँ आ गयी।
गोपाल - ‘भागवान, तुम्हारा बेटा पास हो गया और मुँह भी मीठा नहीं कराया!’
‘बाज़ार की मिठाई तो गूगल को पसन्द नहीं है, इसलिये मैंने सबकी पसन्द का हलवा बनाया है। लो, मिलकर खा लो’, माँ ने हलवे की प्लेट मेज़ पर रख दी और दोनों के हाथ में चम्मच पकड़ा दिये।
‘माँ, एक बात बताओ, मेरा नाम गूगल किसने रखा? अब तो स्कूल में सब मुझे गूगल बॉय कहकर बोलने लगे हैं’, गूगल ने पूछा।
गोपाल बीच में बोल पड़ा - ‘बेटे, असल बात तो यह है कि तुम्हारी दादी ने तुम्हारा नाम गुगन रखा था, लेकिन जब वे स्कूल में तुम्हारा प्रवेश कराने गयीं तो तुम्हारे अध्यापक ने तुम्हारा नाम गूगल सुना और वही लिख दिया। पहले बच्चे का दाख़िला कराते हुए अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था...।’
‘बेटे, अब तुम समझदार हो गये हो। क्या यह नाम तुम्हें अच्छा नहीं लगता?’ माँ ने पूछा।
‘नहीं माँ, यह नाम तो बहुत अच्छा है। मेरे सब साथी पूछते हैं, तुम्हारा इतना अच्छा नाम किसने रखा? माँ, ‘गूगल’ तो बहुत बड़ा नाम है...।’
‘चलो, ईश्वर जो करता है, अच्छा ही करता है’, गूगल की बात सुनकर माँ भी खुश हो गयी।
‘माँ, आज कौन-सी कहानी सुनाओगी?’
‘बेटे, तुम्हारे पापा ने तुम्हारे लिये कहानी की किताब ला तो दी है। उसी में से पढ़ लो।’
‘नहीं माँ। तुम्हारे मुँह से अच्छी-अच्छी कहानी सुनने में अलग ही आनन्द आता है, क्योंकि मन में कोई सवाल उठे तो तुम उसका समाधान भी कर देती हो।’
‘ऐसी बात है तो ठीक है। आज मैं तुम्हें दानवीर कर्ण की कहानी सुनाती हूँ।’
‘बहुत अच्छा माँ। मैंने दानवीर कर्ण को महाभारत में देखा है, परन्तु मुझे उसकी दानशीलता के विषय में कुछ अधिक मालूम नहीं है।’
‘तो सुनो बेटा। दानवीर कर्ण की दानवीरता की कई घटनाओं के कारण उन्हें संसार का सबसे बड़ा दानवीर कहा जाता है।’
‘भगवान कृष्ण तथा देवराज इन्द्र भलीभाँति जानते थे कि कवच और कुण्डलों के धारण रहते उनका मित्र अर्जुन कभी भी कर्ण से नहीं जीत सकता। इसलिये उन्होंने कर्ण से उसके कवच और कुण्डल माँगने का निश्चय किया।’
‘परन्तु माँ, भगवान कृष्ण और देवराज इन्द्र ऐसा क्यों चाहते थे?’
‘अर्जुन को बचाने के लिये, क्योंकि अर्जुन श्री कृष्ण का सखा था और देवराज इन्द्र का पुत्र। दोनों ने मिलकर योजना बनाई। इन्द्र महाराज एवं श्री कृष्ण जी गरीब ब्राह्मण का वेश धारण करके कर्ण से माँगने के लिये गये। कर्ण ने उन्हें कुछ भी माँग लेने का वचन दिया तो इन्द्र ने उनसे कवच और कुण्डल माँग लिये। दानवीर कर्ण ने तुरन्त शस्त्र से अपने शरीर से चिपके कवच और कुण्डल उखाड़ कर दे दिये।
‘एक बार कर्ण की माता कुंती भी उनके सामने याचक बन कर गयी थी। पहले तो उन्होंने कर्ण के सामने यह प्रस्ताव रखा कि वह इस युद्ध में पाण्डवों का साथ दे, परन्तु कर्ण ने अपने साथियों से विश्वासघात करने से इनकार कर दिया तो कुंती ने उससे कहा कि तुम इतना तो कर सकते हो कि अपने भाइयों की मौत का कारण न बनो। दानवीर कर्ण ने तुरन्त अपनी दानवीरता का परिचय देते हुए माँ को आश्वासन दिया कि युद्ध के मैदान में अर्जुन को छोड़कर वह किसी भी भाई पर शस्त्र नहीं उठाएगा। माता कुंती उसके आश्वासन के बाद संतुष्ट हो गयी।
‘श्री कृष्ण सदैव कर्ण की दानवीरता की प्रशंसा करते रहते थे। अर्जुन को यह अच्छा नहीं लगता था तो वह उन्हें टोक देता। तब श्री कृष्ण कहते, समय आने पर सब कुछ सिद्ध हो जायेगा।
‘एक बार कई दिनों तक लगातार वर्षा होती रही। एक गरीब ब्राह्मण पाण्डवों के दरबार में आकर बोला - राजन, मैंने प्रण किया है कि मैं बिना हवन किये कभी भी अन्न का दाना अपने मुँह में नहीं डालूँगा। परन्तु मुझे हवन करने के लिये चंदन की सूखी लकड़ी कहीं नहीं मिली। यदि मुझे लकड़ी न मिली तो मैं हवन नहीं कर पाऊँगा और बिना हवन किये मैं भोजन नहीं कर सकता। इसलिये मेरा मरना निश्चित है।
‘अर्जुन ने आगे आकर कहा - ब्राह्मण देवता, बरसात कई दिनों से हो रही है, इस कारण हमारे भण्डार में सूखी लकड़ियाँ समाप्त हो गयी हैं.....आप...।
‘श्री कृष्ण ने उनको बीच में ही टोक दिया - ब्राह्मण देवता, आपको चंदन की सूखी लकड़ी दानवीर कर्ण के पास मिल सकती है। इसलिये आप उनके पास जाएँ।
‘ब्राह्मण देवता कर्ण के पास जाने लगे तो श्री कृष्ण और अर्जुन भी भेष बदलकर उनके साथ हो लिये। दानवीर कर्ण के पास जाकर ब्राह्मण ने अपनी माँग दोहराई। एक क्षण तो दानवीर कर्ण चिंतित हुए, परन्तु तुरन्त उन्होंने अपने महल में लगे चंदन के खिड़की और दरवाज़े तोड़कर लकड़ी का ढेर लगा दिया। कर्ण की दानवीरता से ब्राह्मण बहुत खुश हुआ।
‘बाहर आकर श्री कृष्ण ने अर्जुन को समझाया - सामान्य रूप में दान देते हुए अपनी प्रिय तथा महत्त्वपूर्ण वस्तु का दान देना ही महादान कहलाता है। पाण्डवों के दरबार में तो इससे भी अधिक चंदन की लकड़ी लगी थी, परन्तु वे उसका मोह नहीं छोड़ पाये।’
‘सचमुच माँ, कमाल के दानवीर थे कर्ण तो। माँ, मुझे भी उनकी दानवीरता की एक घटना याद है। युद्धक्षेत्र में घायल हो कर कर्ण जब अंतिम साँसें गिन रहा था तो भगवान कृष्ण ने उसकी परीक्षा लेनी चाही। वे ब्राह्मण का भेष धारण करके उसके सामने चले गये। ब्राह्मण ने कहा - ‘कर्ण, क्या तुम मुझे स्वर्ण का दान कर सकते हो? कर्ण ने कराहते हुए कहा - मेरे मुँह में सोने का दाँत लगा है, आप उसे ख़ुशी से निकाल लें...।’
‘नहीं, मैं तुम्हारा दाँत तोड़ कर दान नहीं ले सकता।’
‘कोई बात नहीं।’ कर्ण ने तुरन्त एक पत्थर उठाया और अपना दाँत उन्हें देने लगे।
‘मैं आपका जूठा दाँत कैसे ले सकता हूँ?’
तभी दानवीर कर्ण ने अपने धनुष से एक तीर चलाया। वर्षा होने लगी और वर्षा के पानी से दाँत का खून साफ़ करके उन्होंने सोने का दाँत श्री कृष्ण की हथेली पर रख दिया।’
‘हाँ बेटे गूगल, एक घटना के अनुसार तो तीर्थ यात्रा करने के लिये एक वृद्ध साधु ने जब कर्ण से यौवन की याचना की तो उन्होंने साधु को अपना यौवन भी दान कर दिया था। इसलिये बेटे, हम दानवीर कर्ण को महादानी कहते हैं। ऐसे दानी महापुरुषों से हमारा इतिहास भरा पड़ा है।’
‘वाह माँ, दानवीर कर्ण तो सचमुच के दानवीरों के हीरो थे....।’
‘अब सो जा बेटे, कल सुबह मुझे भी शीघ्र उठकर काम करना है’, कहते हुए माँ बिस्तर पर लेट गयी। गूगल देर तक दानवीर कर्ण की दानवीरता के विषय में सोचता रहा।
॰॰॰॰॰