Jindagi mere ghar aana - 4 in Hindi Moral Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | जिंदगी मेरे घर आना - 4

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जिंदगी मेरे घर आना - 4

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – ४

जब मम्मी ने शरद से चाय के लिए पूछा और शरद ने हाँ कहा तो नेहा को बड़ी ख़ुशी हुई. उसने जोर से सर हिलाया, ‘अब आएगा मजा..”

रघु बाजार गया है और सावित्री काकी गेहूँ धो रही हैं। चाय तो नेहा को ही बनानी होगी। ऐसी चाय पिलाएगी, बच्चू जीवन भर याद रखोगे। ठीक ही सोचा था, मम्मी थोड़े देर में आईं और चाय का आदेश दे चली गईं। आश्चर्य चकित भी हुईं कि बिना ना-नुकुर किए इतनी सहजता से कैसे तैयार हो गई वह।

पूरे मनोयोग से चाय बनायी नेहा ने। इतनी एकाग्रता से उसे काम करते देख लें तो मम्मी, डैडी, भैया, रघु, सावित्री काकी सब गदगद हो जाएं। चाय में बस थोड़ी काली मिर्च छिड़की हल्का सा नमक मिलाया, पास रखी मसाले की शीशियों में से जरा-जरा सा डाला और चम्मच हिलाती हुई पहुँच गईं।

परदे के पास पहुँची ही थी कि सुना -‘अब तो बस तीन महीने की ट्रेनिंग बाकी है न... इतनी कम उम्र में सेकेंड लेफ्टिनेंट बन जाओगे... बहुत ही अच्छा कैरियर चुना...‘

हाथ कांप गया उसका... गाॅड, ये चिकने-चुपड़े वाला लड़का लेफ्टिनेंट है ??.. ना चेहरे पर कोई कठोरता... ना आवाज ही रौबदार क्या जाने उसने ध्यान न दिया हो। ना बाबा... ये चाय नहीं देगी... कौन जाने ‘कप‘ पटक दे और चीखने-चिल्लाने लगे तो? रिवाॅल्वर भी जरूर होगी इसके पास... घर में कोई है भी नहीं। कहीं शूट-वूट कर निकल भागे तो? बाप रे! इन लोगों का गुस्सा भी मशहूर है। कोई आँच तो इन पर आएगी नहीं... जिस तरह इन लोगों का मन बढ़ा हुआ है, जो जी में आए कर डालो और खूबसूरती से उसे एक ‘एनकाउंटर‘ का नाम दे दो। - एक क्षण में ही खुराफाती दिमाग यह सब सोच गया... लेकिन अब करती भी क्या एक पैर अंदर रख चुकी थी।

‘डरते-डरते कप‘ टेबल पर रख ही रही थी कि बीच में ही थाम लिया शरद ने और मुस्कुराते हुए पूछा -‘किस क्लास में हो?‘

सिर से पाँव तक लहक उठी वह। सारा डर जाने कहाँ उड़ गया। बहुत अच्छा किया जो ऐसी चाय बना लाई। अभी लौटा ले जाती तो कितना अफसोस होता... इसी लायक है वह ‘लेफ्टिनेंट बनने जा रहा है, हुँह! शक्ल तो देखो जरा, ऐसा लगता है, जैसे ए बी सी डी सीख रहा है... और उसे स्कूल में समझता है... हुँह!‘

गुस्से से तमतमाता चेहरा लिए कुछ बोलने जा ही रही थी कि मम्मी हँस पड़ी -‘अरे! वह एम.ए. प्रीवियस में है, तुम्हें इतनी बच्ची लगती है।‘

‘अच्छा ऽ ऽ ऽ‘ -आश्चर्य से मुँह फाड़ा (हे भगवान! कोई मक्खी घुस जाए, मुँह में) और फिर... ‘बच्ची तो खैर है ही।‘

ठीक है, बच्ची हूँ न, तो अभी एक सिप लो, सारा बचपना पता चल जाएगा। और आगे आने वाले दृश्य की कल्पना कर तनी हुई नसें ढीली पड़ गईं.. उमड़ती हुई हँसी ने सारा गुस्सा काफूर कर दिया। अभी मुँह बनाते हुए थू-थू करेगा न तो असली लेफ्टिनेंट लगेगा... क्या मजा आएगा... बड़ा स्नेह उमड़ रहा है न मम्मी का, कितनी मेहनत से बनाई थी ये क्रोशिए का सफेद टेबल-क्लाॅथ... अभी जब चाय से तर होगा न तब दिखाइएगा ये प्रेम भाव। या ये नई कालीन खराब होगी तब; हाल ही में डैडी ने मँगवाया है, जयपुर से। कोई पानी का ग्लास भी ले कर आए तो कहते हैं... ‘ऐ! देखो जरा ध्यान से।‘ तब पता चलेगा मम्मी को.... जब डाँट पड़ेगी। जिस-तिस को बैठा लेती हैं। और अगर कुछ बोलेगा तो बिल्कुल नकार जाएगी उल्टा बुरा मान जाएगी... बिगड़ पड़ेगी -‘कैसी बातें करते हैं, ऐसी भी भला कहीं चाय बनती है, दिमाग तो ठीक है, आपका? कोई उसकी जूठी चाय चखने से तो रहा।‘

पूरी तरह तैयार हो, वह एकटक उसके चेहरे पर नजरें जमाए खड़ी थी। लेकिन ये तो कप लिए बैठा है।...कहीं भनक तो नहीं लग गई... तभी शरद ने प्याला होठों की ओर बढ़ाया और नेहा की सांस रूक गई। लेकिन सांस थोड़ी और देर तक रूकी रह गई। उसके सामने जो बैठा है, वह आदमी ही है न। शरद ने एक सिप लिया और एकदम उसी मुखमुद्रा में मम्मी के अगले प्रश्न का उत्तर देने लगा। एक शिकन तक नहीं उभरी चेहरे पर। जैसे बिल्कुल सामान्य चाय हो। यही नहीं, दूसरा सिप लिया फिर उसके बाद तीसरा, चैथा, पाँचवा... और मम्मी से वैसे ही बातें करता रहा।

एक बार उसकी तरफ नजर तक नहीं की। कम से कम विजयी नजरों से ही देख लेता... कि देखो, मैंने पी ली... लेकिन कोई रिएक्शन नहीं और नेहा फिर और नहीं रूक सकी। दिमाग को ठकठकाया; कहीं ऐसा तो नहीं कि वह सोचती ही रह गई और सामान्य चाय बना कर दे आई। किचन में जाकर देखा, लापरवाही से खुली रह गई शीशियाँ इस सत्य से इंकार कर रही थीं। हाथ जोड़ माथे से लगा लिया... ‘मान गए भई, गैंडे की खाल है तुम्हारी।‘

नेहा अपने कमरे में लेटी शरद के बारे में ही सोच रही थी, कैसा लड़का है,, ऐसी चाय पी गया... इस बार उसका सामना एक मजबूत प्रतिद्वन्द्वी से पड़ा है. आसानी से नहीं हार मानने वाला वो. तभी कमरे में मम्मी आई और चिंतित स्वर में बोलीं -‘बुआ की तबितयत, अचानक खराब हो गई है, रमण का फोन आया है, मुझे तुरंत जाना होगा, लौटने में शायद शाम हो जाए, गेस्ट-रूम शरद के लिए ठीक करवा देना। खाने में ये ये बनवा लेना और... और अपनी शरारतें जरा बंद रखना।‘

वो ऽऽ मारा... इससे अच्छी बात भला और क्या हो सकती है। अब तो पूरा चार्ज ही मिल गया... चलो मि. शरद... आगे-आगे देखो, होता है क्या। प्रकट में बोली -‘मम्मी, बस ऐसे ही सब मुझे दोष देते हैं... क्या करती हूँ मैं, एक भी शिकायत मिले तो देखना।‘

‘नहीं कुछ देखना-वेखना नहीं, मुझे कोई शिकायत मिलनी ही नहीं चाहिए-‘ मम्मी को कुछ सुनने की फुर्सत नहीं थी। वे तुरंत बाहर निकल गईं।

खुशी से उछल पड़ी वह और अचानक पंचम सुर में अलाप उठी... ‘आ ऽ ऽ देखें जरा, किसमें कितना है दम, ख्याल आया तो हड़बड़ा कर चुप हुई।‘

अक्सर गौर करती है, मन की कोई भी बात गीत के शक्ल में होठों पर आ जाती है पर वह दिन रात गीतों में डूबी भी तो रहती है.