सन्त कवियों की कविता में लोक एवं लोकोत्तर दर्शन
सन्त काव्य अथवा व्यापक भक्ति काव्य के सम्बन्ध में यह स्थापना आध्यात्मिक दर्शन के रूप में काफी समय तक सरलीकरण की तरह प्रचलित रही कि यह काव्य लोक की सर्वथा उपेक्षा करके लोकोत्तर की साधना करता है। प्रत्यक्ष और परोक्ष का यह वैचारिक द्वन्द्व सामान्यतः संवाद की स्थिति तक न पहुँच कर भौतिकता और आध्यात्मिकता के रूपकों में ही समझा जाता रहा। वेदान्त वाङमय के दार्शनिक प्रतिपादन पर आधारित भक्ति और सन्त काव्य का सैद्धान्तिक पक्ष द्वैत और अद्वैत के विभिन्न मतों का विमर्श करता है तथा उसमें जीव जगत और परमात्मा की स्थिति की व्याख्या करते हुए भक्ति के स्वरूप विशेष की महत्ता सिद्ध करता है।
भक्ति काव्य और विशेष रूप से सन्त कवियों की कविताओं का सामाजिक संदर्भ में पुनर्पाठ करते हुए समीक्षकों ने यह प्रतिष्ठा की कि लोकोत्तरता के विचार के साथ ही उसमें हुए जीवन के भी संदर्भ है; कभी काफी समक्ष और कभी आवश्यकतानुसार प्रसंग के रूप में। संत कवियों के लोक का साध्य लोकोत्तर तो है पर उसकी साधना भूमि तो लोक मेें ही है। इसीलिये वियोगी हरि ने ‘साखी सतसई’ की भूमि में लिखा है कि केवल वैराग्य और ज्ञान भक्ति की ही झलकंे साखियाँ नहीं दिखाती हैं। शील सदाचार भी वे खूब लुटाती हैं और कर्तव्य कर्मों की भी प्रेरणा देती हैं। कबीर, दादू, रैदास, नानक, हरिदास, सींगा, लालदास, मलूकदास, सुन्दरदास, सदना, सहजोबाई, दयाबाई, धरमदास शेख फरीद आदि सन्तों की लम्बी परम्परा में लोक और लोकोत्तर तत्त्वों का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों तरह का विवेचन है। असल में यह संसार और वह जीवन ऐसी वास्तविकता है जिसके विकारों और उनकी मोहक आसक्तियों को अतिक्रमित करने तथा अन्तिम सत्य के रूप में परमात्मा की अनुभूति करने की विभिन्न साधनाओं का प्रयोग तो होता रहा है पर इस जगत का विचार भी पूरी तरह विस्मृत नहीं हुआ।
संतों के काव्य का दार्शनिक स्वरूप साधना के स्तर पर व्यक्तिगत विषय है लेकिन उसमें सामाजिकता और मनुष्य को इस लोक में सदाचारी बनाने की चिन्ता भी है। कबीर आदि सभी संतों ने मूल रूप से उपनिषदों और शंकर के अद्वैतवाद के अनुसार ब्रह्म को सत्य माना और संसार को मिथ्या। यह जगत माया से आच्छन्न है और भ्रमात्मक है। इस नाम रूपात्मक जगत की सृष्टि ब्रह्म से है और यह उसी में लीन हो जाता है। इसलिये जीव का धर्म है किवह अपने जीवन की सार्थकता तथा आनन्दानुभूति के लिये मिथ्यात्व से निकलकर सत्य का साक्षात्कार करे। इसके लिये किसी बाह्याचार की आवश्यकता नहीं है। निर्गुण निराकार ब्रह्म मूर्ति, अवतार, तीर्थ, व्रत माला में नहीं बसता है। वह तो सारे जगत में व्याप्त है। संसार उसी का विस्तार है और जीव उसी का अंश है। वह ज्ञान के द्वारा ज्ञेय है और प्रेम के द्वारा प्राप्य है। कबीर और अन्य सन्तों के इस परमात्म निरूपण में सूफियों का प्रेम तत्त्व भी शामिल है, इस्लाम के एकेश्वरवाद की भी झलक है और शंकर के अद्वैतवाद का भी प्रभाव है। वहाँ हठयोग भी है और सगुण भक्ति के तत्त्व भी।
अध्यात्म के इस उदात्त और परम लक्ष्य के मार्ग में सारे लौकिक भेद मिट जाते है। वहाँ न जातीय श्रेष्ठता का हीनता पर अहंकार है, न सांसारिक वैभव और अकिंचनता की सीमाएँ हैं। यह अनायास या संयोगमात्र नहीं है कि ये सभी सन्त कवि निम्न समझी जाने वाली जातियों के थे और अपनी आध्यात्मिक तथा आचरणगत श्रेष्ठता के कारण सभी के आदरणीय थे। हरि की भक्ति ही महत्त्वपूर्ण है। उसी से वह परमात्मा को प्रिय होता है, जाति से नहीं। जातिवाद और अस्पृश्यता से मुक्त समाज को एक करने और उसे अभेद में देखने की सन्त कवियों की यह विशेष दृष्टि थी। परमात्मा से मिलने के लिये संसार त्याग या वैराग्य की आवश्यकता नहीं हैं। ये सन्त कवि नाथों और सिद्धों की परम्परा में आयी विकृतियाँ देख चुके थे। इन संतों ने अपनेे उदाहरण से यह भी सिद्ध किया कि गृहस्थ रहकर तथा अपना व्यवसाय करते हुए भी उस लोकोत्तर को पाया जा सकता है। दार्शनिकता के सूखे तत्त्ववाद में ही न उलझकर इन सन्त कवियों ने समाजपरकता और विश्व मानवता को अध्यात्म के अन्तर्गत प्रमुख भूमिका प्रदान की तथा पाखण्ड आडम्बर और बाह्याचार में उलझे अनुभूतिविहीन मनुष्यों को परम तत्त्व का सच्चा मर्म समझाया।
इन सन्त कवियों में लोक के स्वीकार का एक और पक्ष है। लोक में व्याप्त सभी पारिवारिक सम्बन्धों की भावपूर्णता को उन्होंने ईश्वर और जीव के बीच रिश्तों का प्रतीक बनाया। कहीं हरि जननी है और जीव उसका पुत्र, कहं ईश्वर पति है तो जीव या आत्मा उसकी पत्नी, कहीं परमात्मा पिता है तो जीव उसका पुत्र। इन सम्बन्धों ने भक्ति को अधिक जीवनपरक और भावनोन्मुख बनाया। प्रिय और प्रेमिका के रूपक ने तो प्रेम की उस तीव्र भावपूर्णता को स्थान दिया जिसमें मिलन की विकल उत्कंठा प्रिय के प्रति ऐकान्तिक समर्पण और विरह की आकुल अधीरता है। इन प्रतीकों से परमात्मा किसी अपरिचित लोक का निवासी न लगकर अपने ही संसार का व्यक्ति लगने लगता है। ऐसे सम्बन्धों के द्वारा उसे जानना और अपना बना लेना अधिक स्वाभाविक है।
इन सन्त कवियों ने आचरण की सरलता और प्रभुता को महत्त्व देते हुए लोक और वेद में से लोक को चुना। वेद का अर्थ उनकी दृष्टि में शास्त्र है, पुस्तकीय ज्ञान है। जानकारियों के इस संचय का सम्बन्ध बुद्धि से है जबकि भक्ति का स्थान हृदय और अनुभूति है। लोक अपने अनुभवों में संशोधन करते हुए सामयिक और गतिशील बना रहता है। इसके विपरीत शास्त्र स्थिर होकर कभी कभी अप्रासंगिक हो जाता है। दादू कहते हैं-
पोथी अपणा प्यंड करि हरि जस मांहै लेख।
पंडित अपणां प्राण करि दादू कथौ अलेख।।
हिन्दू और मुसलमान दोनों के ही धार्मिक कर्मकाण्ड की आलोचना में सभी सन्त कवियों में कबीर सर्वाधिक उग्र और अनुदार है। पलटूदास कहते हैं-
हिन्दू पूजै देवरा मुसलमान महजीद
पलटू पूजै बोलता जो खाय दीद बर दीद।
मलूकदास कहते हैं-
मक्का मदिना द्वारिका बद्री अरू केदार।
बिना दया सब झूठ है कहै मलूक विचार।।
डॉ0 नगेन्द्र द्वारा सम्पादित हिन्दी साहित्य के इतिहास में लिखा है कि सन्त साहित्य आध्यात्मिक अनुभूतियों का लेखा जोखा मात्र नहीं है। उसमें तत्कालीन जन जीवन का प्रतिबिम्ब भी विद्यमान है। धार्मिक रूढ़ियों और सामाजिक सांस्कृतिक परम्पराओं का अन्धानुसरण न कर उन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था के विरोध, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा आदि की निन्दा सदाचारादि गुणों की प्रतिष्ठा शास्त्रीय ज्ञान की अनिवार्यता के निषेध आत्मानुभूति की प्रमाणिकता आदि पर बल दिया।
सन्त कवियों की दार्शनिकता में लोकोत्तर लोक से सर्वथा परे अथवा उसका विरोधी नहीं है। ब्रह्म ही मूल है। जगत औेर जीव उसी के अंश है और अन्ततः उनका उसी में विलय हो जाता है, पानी और बर्फ की तरह बूँदे और समुद्र की तरह। सन्त कवियों की लोकोत्तर साधना लोक में ही होती है जैसे परिष्कार या उदात्तीकरण की प्रक्रिया हो। वे संसार से मुक्ति नहीं चाहते बल्कि संसार में ही मुक्ति की कामना करते हैं। इस मुक्ति को भक्ति कहा जा सकता है। उस निर्गुण निराकार को हरि, राम, अल्लाह, खुदा किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है । अविद्या माया हमें उससे पृथक कर देती है। सतगुरू द्वारा दिया गया ज्ञान और प्रेम उससे मिलने के मार्ग हैं। मन का संचय इसमें आवश्यक है। संत सहजोबाई कहती हैं-
प्रेम दिखाने जो भये सहजों डिग मिग देह।
पाँव पड़ै कितकै किती हरि सम्हाल सब लेह।।
कबीर का कथन है-
कबिरा मनहिं गयंद है, आंकुस दै दै राखु।
विष की बेली परिहरी अमृत का फल चाखु।।
इस भक्ति का प्रताप यह है कि कबीर के शब्दों में ’’कहत कबीर कोई संत जन करम की रेख पर मेष मारै।
इस तरह सन्त कवियों ने काव्य को जन काव्य बनाया। समाज और लोक को जाति, वर्ण, उपाधि भेदों को मिटाकर मानवीय वैचारिकता दी। ये संत कवि व्यापक लोक के प्रतिनिधि थे। लोकोत्तर दृष्टि से भी सन्त कवियों ने मनुष्य जीवन की सार्थकता के लिये अद्वैत स्थापित करते हुए परमात्मा को हमारे निकट रखा। हठयोग की कुछ कठिन साधना के अतिरिकत इन सन्तों की साधना में सहजता और निर्मलता है। रैदास के प्रसिद्ध पद प्रभुजी तुम चन्दन हम पानी की तरह लोक और लोकोत्तर में परस्पर पूरकता का भाव है।