Khushi ka taabiz in Hindi Children Stories by SAMIR GANGULY books and stories PDF | ख़ुशी का ताबीज

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ख़ुशी का ताबीज

पिताजी का नाम यूं तो राजीव सेठ था, पर वे ज़्यादा मशहूर से थे कंजूस सेठ के नाम से.

यह नाम बचपन में दादी ने यानी उनकी मां ने, जवानी में मम्मी ने और अधबुढ़ापे में बाकी बची सारी दुनिया ने दिया था.

पिताजी की कंजूसी के कई किस्से मशहूर थे, जिन्हें दादी और मम्मी से लेकर उनके कई दोस्त चटकारे लेकर सुनाते थे.

जब मम्मी मुझे प्रोविजन स्टोर में सामान की पर्ची लेकर भेजती थी तो लाला अपने नौकर को आवाज देकर कहता था, ‘‘ अरे भय्या कंजूस सेठ का सामान तौल दे, दोपहर बाद डिलीवरी देना, पैसे मांजी से मांगना और कंजूस सेठ घर पे हो तो चुपचाप लौट आना.’’

यह सुनकर मैं अपमान का घूंट पीकर रह जाता था. मगर कंजूस सेठ ऊर्फ मेरे आदरणीय पिताजी पर इसका कोई असर नहीं होता था.

अपने इस काम को वे बचत या व्यावहारिकता कहते थे. और सबकी टीका-टिप्पणियों को ठेंगे पर रखते थे.

इसलिए मैं उनके साथ बाजार जाने से हमेशा कतराता था. वे हर जगह मोलभाव करते थे.

मां कहती थी, उन्होंने उन्हें डॉक्टर और बस कंडक्टर के साथ भी मोल-भाव करते देखा है.

***

लेकिन उस दिन उनके साथ मंदिर में जाना मेरी नियति में था.

हुआ यूं कि मेरी सातवीं कक्षा का रिजल्ट निकला. बहुत अच्छे मार्क्स आए थे. पूरा घर खुश हो गया. मम्मी ने पिताजी से कहा, ‘‘ सेठ साहब, थोड़ी दरियादिली दिखाओ, मिठाई खिलाओ.’’

जवाब में कंजूस सेठ उर्फ पापा बोले, ‘‘ ज़रूर! हम बेटे के साथ मंदिर जाएंगे,प्रसाद चढ़ाएंगे. चलो तैयार हो जाओ.’’

मेरा दिल ‘धक्क’ हो गया. पिताजी के साथ मंदिर यानी फूल की डाली वाले के साथ मोलभाव, प्रसाद वाले के साथ मोलभाव. दान-दक्षिणा में कंजूसी. मगर कोई विकल्प न था, चुपचाप चल दिया पिताजी के साथ... मंदिर की ओर.

जैसा सोचा था वैसा ही हुआ. बेस्ट मोलभाव के साथ भगवान को चढ़ायी गई फूलों की डाली. और फिर प्रसाद चढ़ाने के बाद मैं मंदिर से निकल कर जल्दी से घर पहुंचना चाहता था. पिताजी को अचानक फुटपाथ पर बैठी एक औरत के पास रूकते देखा. वह औरत ताबीज-गंडे बेच रही थी. और उसका एक दो साल का बच्चा नजदीक ही बैठा टुकुर-टुकर सबको देख रहा था.

पिताजी को वहां रूकते देख मैं चौंक गया. पितजी ने पूछा, ‘‘ ये क्या है?’’

उस औरत ने जवाब दिया ‘‘ ताबीज-गंडे बाबूजी. ये आदमी की तकदीर बदलते हैं.’’

मैं पिताजी के सामने जा खड़ा हुआ, मम्मी होती तो हाथ खींचकर उन्हें चलने को कहता, लेकिन पितजी के साथ ऐसी गुस्ताखी नहीं कर सकता था. इसलिए मूक दर्शक बना रहा.

पिताजी ने आगे पूछा, ‘‘ क्या ये काम करते हैं?’’

और ताबीज बिकने की आस में वह बोली,‘‘ हां बाबूजी गारंटी है. इसे पहनने से बीमार आदमी ठीक हो जाता है. भूत-प्रेत की बाधा दूर होती है. पढ़ाई में कमजोर बच्चा अच्छे नंबर से पास होता है. कंगाल को छप्पर फाड़ कर पैसा मिलता है.’’

पिताजी ने आगे पूछा, ‘‘ और इनके दाम? अब उस औरत की आंखों में मक्कारी आ गई थी, वो पिताजी की तरफ देखते हुए बोली, ‘‘ जैसा काम वैसा दाम. बाबूजी मेरे पास दस रूपए से लेकर हजार रूपए तक के ताबीज हैं.’’

पिताजी उसके जाल में फंसते हुए बोले, ‘‘ सबसे महंगा ताबीज दिखाओ और उसकी खासियत भी बताओ.’’

अब उस औरत ने एक पोटली से हरे रंग का एक ताबीज निकाला और उसे आंखों से लगाते हुए कहा, ‘‘बाबूजी यह ताबीज रंक को राजा बना सकता है. इसकी कीमत है एक हजार एक रूपए.’’

पिताजी ने उसे हाथ में लिया और कुछ पल तक देखते रहे.

मैं दिल थामे इस महानाटक के अगले दृश्य की कल्पना कर रहा था.

फिर पिताजी ने चुपचाप जेब से पर्स निकाला और उससे पांच-पांच सौ के दो नोट और एक का एक सिक्का निकाल कर उस औरत के हाथ में रख दिया.

मेरा सिर भन्ना उठा, वह औरत भी चौंक उठी.

मगर पिताजी यहीं रूके नहीं, उन्होंने झुककर वह ताबीज उस औरत के बच्चे की बांह में बांध दिया और उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरकर उठकर मुझसे बोले, ‘‘चलो .’’

पिताजी आगे बढ़ गए. पिताजी का यह रूप? क्या यहा है मेरे अच्छे मार्क्स के साथ पास होने की उनकी खुशी?

अचानक मुझे लगा, मेरी आंख की पोर से एक मोती झर रहा है. मैंने उसे सहेज लिया और पिताजी के पीछे-पीछे घर कर तरफ चलने लगा.