Jindagi mere ghar aana - 3 in Hindi Moral Stories by Rashmi Ravija books and stories PDF | जिंदगी मेरे घर आना - 3

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जिंदगी मेरे घर आना - 3

जिंदगी मेरे घर आना

भाग – ३

 

सुबह उठी तब भी ये भारीपन दिलो-दिमाग पर तारी था। कल वाली घटना भुलाए नहीं भूल रही थी। इसलिए मन बदलने की खातिर लाॅन में चलीं आई। सुनहरी धूप, हरी दूब, उसपर झिलमिलाते ओसकण... सब मिलकर एक अलग ही छटा प्रस्तुत कर रहे थे कि... शरद को प्रवेश करते देख उसका शरारती दिमाग पैंतरे लेने लगा।

००

रस्ते के दोनों ओर झूलते डहेलियां औरों की तरह शरद को भी मोह रहे थे। और वह रूक-रूक कर कुछ झुकते हुए बड़े गौर से उन्हें देखते हुए आगे बढ़ रहा था।

धीरे से पीछे जाकर उसने बड़े पुराने परिचित की तरह गर्मजोशी से कहा -‘हल्लो!!! मि. शरद... ‘ आशा थी हड़बड़ा कर पलटेगा तो एक खनकती हुई हँसी उसे और भी स्तंभित कर देगी। लेकिन उसने तो धीमे से नजरें घुमायीं और उसका जायजा लेता हुआ हल्के से हँस कर बोला... ‘हलो! आपकी तारीफ।‘ जैसे कोई बड़ा बुजुर्ग शरारती बच्चे की नादानी पर हँसता है।

खीझ गया उसका मन, ऐंठ कर बोली-‘जितनी भी की जाए कम है।‘

‘करेक्ट.. बिल्कुल सही‘ उसकी बात खत्म भी न हुइ कि बोल उठा वह -‘आज के युग के लिए ‘अपना काम स्वयं करो‘ की जगह ‘अपनी प्रशंसा आप करो‘ वाला सूत्र ही ठीक रहेगा... वरना यहाँ दूसरों के लिए मर-खप जाओ.. पर तारीफ के दो बोल न फूटेंगे किसी के मुख से.. बिल्कुल प्रैक्टीकल बात की तुमने... आई एप्रीशिएट।‘

‘हम्म् तो बच्चू को बोलना भी आता है। देखती हूँ कब तक जुबान साथ देती है। और नेहा ने अपना नुस्खा नं. 1, आजमाया। यानी किसी को बुरी तरह काॅशस कर देने वाली दृष्टि से घूरना कितनेा को पानी पिला चुकी थी वह अपने इस हथियार से। भैया के एक दोस्त तो इस कदर परेशान हो गए थे कि दो मिनट में ही मैदान छोड़ गए थे। ये कहते हुए कि... ‘एक जरूरी काम याद आ गया है.. निलय से बाद में मिल लूँगा।‘ और हफ्ते भर सूरत नहीं दिखाई थी उन्होंने। बहुत बाद में बताया था कि कभी लगता उल्टा शर्ट पहन कर चले आए हैं... या बालों में कंधी करना भूल गए है... या शायद चेहरे पर कुछ लगा हुआ है... और भागकर दस मिनट तक प्रत्येक कोण से निहारते रहे थे खुद को, आईने में।

शर्मा आंटी तो आते ही हथियार डाल देती - ‘भई, इस तरह मत देखा कर, कुछ गड़बड़ हो तो पहले ही बता दे।‘

यहाँ भी वह भौं चढ़ाए, माथे पर बल डाले, सामने वाले का निरीक्षण करती रही थी। एक पल को तो शरद भी काँशस हो ही गया था, लेकिन दूसरे ही क्षण असलियत समझ हँस पड़ा... ‘ऐसे क्या देख रही हो, भई, पागलखाने से नहीं छूटा हूँ... और आसपास कोई अजायबघर भी तो नहीं... सीधा रेलवे स्टेशन से आ रहा हूँ।‘

ओह!... कोई फड़कता सा जबाब देना चाहिए और कुछ सूझ ही नहीं रहा... ‘थैंक गाॅड! मम्मी ने उबार लिया। आवाज सुनते ही बाहर निकल आई थीं। शरद उन्हें देख पांवों तक झुक आया। बस अब तो मम्मी के ‘गुडबुक‘ में नाम दर्ज हो गया। यह अप-टू-डेट लिबास और यह विनीत भाव। गदगद हो गईं होंगी मम्मी तो... हो ही गईं... पीठ थपथपाते हुए अंदर ले गई... कुशल-क्षेम पूछती रहीं... बातों से पता लगा जनाब उसकी अनुपस्थिति में पूरे दस दिन यहाँ की मेहमानवाजी का लुत्फ उठा गए हैं। (सुना तो था कि भैय्या का कोई दोस्त आया था, पर वो तो बचपन से देख रही है, हाॅस्टल से कोई न कोई दोस्त भैय्या के साथ आया ही करता थ)... आंटी इधर से गुजर रहा था तो बिना मिले जाना अच्छा नहीं लगा... और आपकी नाराजगी का डर तो था ही... अच्छा ! ये नियल कहाँ है? (भले आदमी को इतनी देर बाद अपने दोस्त की सुध आई है)... बताने पर खड़े अफसोस भरे स्वर में बोला -‘कल लौटेगा?? तब तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। सोच रहा था आज रात की ट्रेन से निकल जाऊँ।‘

वह चैंकी... सोच रहा था... क्या मतलब... यानी अब जमोगे। मम्मी बड़े लाड़ से बोल रही थीं -‘अरे, ऐसे कैसे... कुछ दिन रूको, फिर जाना।‘

हुँह। कुछ दिन?? इनको रूखसत करने के लिए तो कुछ मिनट ही काफी होंगे। वह भी इसलिए कि खाल जरा मोटी है। वरना अनचाहे लोगों को तो वह दो पल में ही दरवाजे का रूख करवा देती है और मजा ये कि वे खुद ही शीघ्रतिशीघ्र दरवाजे की तरफ कदम बढ़ाने को उत्सुक होते हैं।

तभी अचानक ख्याल आया वह तो बिल्कुल उपेक्षित खड़ी है, चुपचाप... क्यों खड़ी है भला? बहुत बेटा-बेटा कर रही है हैं, मम्मी... तो करें अपने बेटे का स्वागत... दोनों में से जरा सा किसी को भी गुमान नहीं कि... वह भी खड़ी है यहां। और वह पलट कर चल दी। जाने उसके पलटने के अंदाज ने ही उसके मन की बात उजागर कर दी या क्या कि दोनों ने अचानक उसकी तरफ पलट कर देखा (ठीक ही तो कहती है स्वस्ति, नेहा सिर्फ तेरा चेहरा ही आईना नहीं बल्कि तू खुद एक आदमकद दर्पण है... तेरे हाव-भाव तक तेरे मन की झलक दे जाते हैं।) मम्मी ने तुरंत कहा -‘यही है, नेहा।‘

‘वह तो मैं देखते ही समझ गया था।‘ सोफे पर थोड़ा और फैलते हुए बोला, साथ ही वही बुर्जुगाना मुस्कुराहट। तिलमिला कर रह गई वह... हुँह! देखते ही समझ गया था। नाम लिखा है ना, उसका चेहरे पर - झूठ की भी हद होती है। वह सिर झटक कर चल दी!

मम्मी का नाराजगी भरा स्वर भी उभरा... ‘नेहाऽऽ!‘ परवाह नहीं।

जाते-जाते सुना शायद मम्मी ने नाश्ते के लिए पूछा था क्योंकि जनाब फरमा रहे थे... ‘आंटी, नाश्ता-वाश्ता तो बाद में अभी तो बस एक कड़क चाय चलेगी। स्टेशन का चाय ने मुँह का जायका बिगाड़ कर रख दिया।‘ - हद है, लोग कहते हैं नाश्ता-वाश्ता छोड़िए सिर्फ चाय मँगवाइए और ये... कर्ट्सी तो है ही नहीं जरा भी।