Ek Samundar mere andar - 5 in Hindi Moral Stories by Madhu Arora books and stories PDF | इक समंदर मेरे अंदर - 5

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इक समंदर मेरे अंदर - 5

इक समंदर मेरे अंदर

मधु अरोड़ा

(5)

उन्‍होंने यह कभी नहीं सोचा था कि भविष्‍य में उनकी बेटियां नौकरी भी करेंगी....उन्‍हें इस बात का सपने में भी गुमान नहीं था। उनकी तो बस यही तमन्ना थी कि उनकी बेटियां इतना पढ़ें कि लड़के वाले खुद आयें उनकी बेटियों का हाथ मांगने।

वे बेटियों को पढ़ाना ज्‍य़ादा ज़रूरी समझते थे। उनका मानना था कि बेटे तो पथ्थर तोड़कर भी पेट भर सकते थे लेकिन बेटियों पर कोई मुसीबत आयी तो ये कहां जायेंगी...ये किसके आगे हाथ पसारेंगी।

वे खुद सिर्फ़ दसवीं पास थे पर सोच में कई पढ़े लिखों की सोच को मात करते थे और बहुत सकारात्मक सोचते थे। उन्‍होंने अपने चारों बच्‍चों को पढ़ाया, जितना वे पढ़ा सकते थे। वह अपने खानदान में अकेली लड़की थी जिसने एमए पास किया था।

पिताजी को इस बात का काफी गर्व था और यह गर्व उन्‍हें मरते दम तक था। यही कारण था कि उसकी जो उम्र स्‍कूल में बढ़वाकर लिखवाई थी, वह हमेशा के लिये रिकार्ड में दर्ज़ हो गई थी। ऐसा नहीं था कि अम्‍मां-पिताजी ने जन्म प्रमाणपत्र में तारीख बदलवाने का कोई यत्न नहीं किया था।

उसका जन्‍म असम का था। वहां से आते समय इस बात की ज़रूरत ही नहीं समझी गयी थी कि बच्चियों के जन्‍म प्रमाणपत्र भी कभी सबसे ज़रूरी दस्तावेज बन जायेंगे। जब बात सिर पर आन पड़ी थी तो अम्‍मां असम गयी थीं।

उस म्युनिसिपल अस्पताल गयी थीं और जन्‍म प्रमाणपत्र मिलने की संभावनाओं के बारे में इन्क्वायरी की थी...पर कहते हैं न कि जब काम न होने हों तो रास्‍ते में सौ अड़ंगे लगते हैं और अड़चनें अपने आप आती जाती हैं बिन बुलाये मेहमान की तरह।

पता चला था कि उस अस्पताल में उन्‍हीं दिनों बच्‍चों की अदल-बदल हो गई थी। मामला लंबे समय से अदालत में था। सारे रिकार्ड और रजिस्‍टर अदालत में थे। कामना की जन्म तारीख़ भी उसी रजिस्‍टर में दर्ज थी। यानी कुछ नहीं हो सकता था।

वह तब से अपनी असली उम्र में दो बरस बढ़ा कर जी रही है। नौकरी से रिटायर भी वह इस चक्‍कर में दो बरस पहले ही हो गयी है। ये बात अलग है कि रिटायरमेंट के दिन भी वह पचास की ही लग रही थी। न तो उसका शरीर दुखता था, न कोई जोड़। न किसी तरह की बीमारी थी।

लोग जितना बीमारी पर खर्च करते थे, वह सोच भी नहीं सकती थी। अब मेडिक्‍लेम सुविधा और पांच सितारा अस्पतालों के आ जाने से लोग कुछ ज्‍य़ादा ही बीमार पड़ने लगे थे।

वह भी किन ख़यालों में खो जाती है और कहां कहां की सैर कर आती है। बात हो रही थी गायत्री और उस अभिनेत्री की बेटी की। गायत्री को साइकिल चलाने का बहुत शौक था और बहुत तेज़ साइकिल चलाती थी।

उन दिनों साइकिल किराये पर मिलती थी.. आधा घंटे के लिये चार आना किराया।..आठ आने एक घंटे के लिये...तो वह अम्‍मां से आठ आने रिरियाते हुए लेती थी। चाल में एक कमरा...कहां रखेंगे साइकिल।

गायत्री हमेशा जेन्ट्स साइकिल ही किराये पर लेती थी। इसमें उसे अपना बड़ा रुतबा लगता था। उसका जेंडर भले ही लड़की का था, पर स्‍वभाव लड़कों जैसा था। उसके स्‍कूल कॉलेज के लड़के उससे बहुत डरते थे और एक निश्चित दूरी बरतते थे।

उस बच्‍ची ने साइकिल पर बैठने की ज़िद की। गायत्री ने उसे आगे की रॉड पर बिठाया और पैडल मारते हुए साइकिल को हाइवे पर दौड़ा दिया। छोटी बच्‍ची के लिये यह रोमांचकारी था। उसने किलकारी मारते हुए जोश में आकर चलती साइकिल के पहिये में पैर घुसा दिया।

उफ़...जब बच्‍ची रोयी तो गायत्री का ध्‍यान गया और उसने हड़बड़ी में ब्रेक मारा और संतुलन बिगड़ने से साइकिल उलट गयी। आसपास के लोगों ने उस बच्‍ची का पैर निकाला और गायत्री को संभालकर चलाने के लिये कहा।

वह अंदर ही अंदर सहम तो गई थी पर जेम्‍स बांड थी न...बच्‍ची को उसके घर छोड़ा। यह तो अच्‍छा था कि उस समय उस बच्‍ची के पिताजी घर में नहीं थे। नौकरानी ने बच्‍ची को घर के अंदर लिया और कहा –

‘तू पण घरी जा...संध्‍याकाळी बघू, हे लोक काय सांगतात...मोठी माणसं आहेत....काही सांगता येत नाहीं’। गायत्री चुपचाप घर आ गई थी। अम्‍मां ने उसका मुंह लटका देखा तो पूछा – ‘का है गऔ? म्‍हौ सैं तौ लग रऔ है कि कछु बड़ौ काम करकैं आई हो’।

इस पर गायत्री ने सारी बात बतायी। सुनकर अम्‍मां ने कहा – ‘ठीक है, अब कछु मत करौ। हम संजा कौं उनके घर जायकें बिटिया कौं देख आयेंगे और माफ़ी भी मांग लेंगे’। इसके बाद घर में सब शांत हो गये थे।

शाम को पिताजी को भी बताया गया और आश्चर्य कि पिताजी बिल्‍कुल शांत रहे...वरना ग़लती होने पर बहुत डांटते थे। गायत्री को तो मार भी पड़ जाया करती थी। बहुत ज़िद्दी थी। ख़ैर, अम्‍मां और पिताजी उनके घर गये, बिटिया के हालचाल पूछे और बोले –

‘अगर कोई बड़ा खर्चा हो तो बता दीजियेगा। हमसे जो बन पड़ेगा, हम दे देंगे’। इस पर उन्‍होंने बड़ी विनम्रता से कहा – ‘कैसी बातें करते हैं आप, बच्‍ची को कुछ नहीं हुआ है। गायत्री भी तो बच्‍ची है। अब जो हो गया, सो हो गया

....हमारी बच्‍ची के लिये तो साइकिल पर जाना नया अनुभव था। चलिये, चाय पीते हैं, उसके बाद आप लोग जाइयेगा’। अम्‍मां पिताजी से कुछ कहते नहीं बना था। उन्‍होंने सोचा भी नहीं था कि मामला इतनी आसानी से सुलझ जायेगा।

उस समय ऐसे ही सहज ज़िंदगी जीते थे। वे लोग तो खरी खोटी सुनने का मन बनाकर गये थे। अम्‍मां की सहनशक्ति गज़ब की थी। उनके मुंह से कोई बात निकलवाना टेढ़ी खीर थी। उसने उनको कभी सोने के ज़ेवर पहने नहीं देखा था। गला अक्‍सर सूना रहता था।

जब एक बार वे मायके गयी थीं तो उनके भाई ने सोने की एक पतली चेन यह कहकर दी थी – ‘इस चेन को राखी और दीवाली वाली भाई दूज की भेंट समझ लो। हमारे सामने गले में डाल लो’।

अम्‍मां के इंदौर वाले भाई ने नाक में पहनने के लिये गहरे मरून रंग का छोटा सा नग दिया था। वह उनकी नाक में मरते दम तक रहा था। वे चूड़ियां कांच की ही पहनती थीं। एक बार अम्‍मां ने अपने पुराने दिन याद करते हुए कहा था –

‘जब हम गौना होकर आये थे तो हमें दहेज में ग्‍यारह साड़ियां, गले में पहनने की सोने की हंसुली, जड़ाऊ नेकलेस, दो मोटे मोटे कड़े और मांग में लगाने का बैना मिला था। यह सुनकर कामना और गायत्री की आंखें बड़ी हो गई थीं।

आगे बताया था – ‘जब हम गौने हैकें ससुराल आये तो हमाई नंद के ब्‍याह की तय्यारी चल रही थी। जब दहेज की बात आई तौ कहौ गऔ कि प्रेम की बहुरिया जो सामान लाई है, बई बकस एैसौ कौ ऐसौ दै देंगे। घर की बात है’

;...बकस खोलकें देखौ गऔ और सबके म्‍हौं पै एक मुस्‍कान आय गई। तब सें अब तक कड़न की बात तौ का करें, द्वै सोने की चूड़ी भी नाय लै पाये’। यह कहते समय उनके मन के दर्द और आंखों में आंसुओं को देखा जा सकता था।

तभी उसने तय कर लिया था कि उसे जो भी उपहार में मिला करेगा, वह किसी को नहीं देगी और उसने यह किया भी। उसी बिल्‍डिंग में मिस्‍टर प्रकाश मेहरोत्रा थे और उनकी पत्‍नी चंद्रा थीं। वे कल्‍याण के किसी स्‍कूल में टीचर थे।

इस परिवार से उसकी और गायत्री की बहुत पटती थी। मिस्‍टर प्रकाश सुबह साढ़े पांच बजे निकल जाते थे। उनके जाते ही चंद्रा सुबह सुबह नहा-धोकर मेकअप करके तैयार हो जाती थीं। चंद्रा के घर गायत्री भी बहुत जाती थी।

एक बार प्रकाश ने कामना से कहा था – ‘चंद्रा तो मायके बनारस गयी है। मेरे स्‍कूल में नृत्‍य का कार्यक्रम है। तुम चलो। शाम तक वापिस आ जायेंगे। तुम्‍हारे पिताजी से मैं परमिशन ले लूंगा’। वह उस समय चौदह साल की थी।

एक प्रसिद्ध नृत्यांगना का नृत्‍य देखने की उत्‍सुकता ने हां कहने पर विवश किया और उसने हां कर दी। पिताजी प्रकाश पर भरोसा करते थे तो मना करने का सवाल ही नहीं उठता था। पारिवारिक और घरेलू संबंधों में मना करना बहुत मुश्‍किल होता है।

सो दूसरे दिन प्रकाश कामना को लेकर सुबह पांच बजे की ट्रेन से वाया दादर कल्‍याण ले गये। उस दिन उसने वह गुलाबी फ्रॉक पहनी जिस पर हल्के गुलाबी रंग की पर रोयेंदार लेस लगी थी। सफेद रंग के घुटनों तक मोजे और कपड़े के सफेद मोजे पहने थे। बेबी पिंक बहुत फब रहा था।

वे खुद तो वहां जाकर व्‍यस्त हो गये थे और वह पूरे हॉल को टुकुर टुकुर देखती रही थी। जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो समां बंध गया। घुंघरू बज रहे थे और नर्तकी का कत्थक नृत्‍य देखते ही बनता था।

जब उसने माइक के सामने सिर्फ़ घुंघरू के स्‍वर सुनाये तो पूरे हॉल में सिर्फ़ वही आवाज़ थी। कब शाम के चार बज गये और कार्यक्रम ख़त्‍म हो गया, पता ही नहीं चला था। जब वे लोग ट्रेन से वापिस आ रहे थे और जोगेश्वरी स्‍टेशन आने लगा तो प्रकाश ने कहा था

....कामना, रात को सात बजे मेरे घर आकर खाना बना देना। चंद्रा कहकर गई है’। अब जब चंद्रा का नाम लिया तो वह कैसे मना कर सकती थी? वह थकी मांदी घर पहुंची और सो गई। शाम को सात बजे ही थे कि प्रकाश की आवाज़ सुनाई दी

... कामना, जल्‍दी आओ। मुझे सुबह स्‍कूल भी जाना है’। वह हडबड़ाकर उठी और मुंह धोकर प्रकाश के घर चली गई थी। प्रकाश ने दरवाज़ा खोला और हाथ पकड़कर दरवाज़ा बंद करके ऊपर से कुंडी लगा दी थी। उसे पलंग पर बैठने के लिये कहा।

वह आज्ञाकारी छात्रा की तरह पलंग पर बैठ गई थी। वे उसे अपने नज़दीक लेते हुए बोले – ‘मुझसे इतना डरती क्‍यों हो? चंद्रा घर में नहीं है’ और यह कहते हुए उन्‍होंने उसकी फ्रॉक के ऊपरी हिस्‍से से अंदर हाथ डालना चाहा।

वह घबराकर खड़ी हो गई और बोली – ‘भाई साहब, यह क्‍या कर रहे हैं? मेरे पिताजी के सामने तो बेटी कहते हैं। आप ऐसा करेंगे तो मैं चली जाऊंगी और फिर कभी नहीं आऊंगी’। यह कहकर वह दरवाज़े की ओर बढ़ी पर क़द कम होने से वह ऊपर तक नहीं पहुंच सकती थी।

इतना सुनकर प्रकाश ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा था – ‘बेटी जैसी हो न...मैंने कब मना किया और चंद्रा ने जन्म तो नहीं दिया है न तुम्‍हें। दरवाज़ा बंद है। कोई तुम्‍हारी आवाज़ भी नहीं सुन सकेगा’।

इस पर कामना बेबस सी रो पड़ी थी। तब उन्‍होंने उसकी पीठ सहलाते हुए कहा था – ‘आज जाने देता हूं...लेकिन कल नहीं छोड़ूंगा। तैयार होकर आना और मिनी स्कर्ट पहनकर आना’। वह कुछ नहीं बोली थी और कांपती हुई सी रसोईघर में चली गई थी।

उसने बड़ी बड़ी भिंडी काटीं और छौंक दी थीं। हींग जीरे के छौंक की खुशबू उड़ती हुई देखकर प्रकाश रसोईघर में आये और बोले थे – ‘तुम सच में अच्‍छी सब्जी बनाती हो। चंद्रा काम टालती है’ और एक बार फिर गाल थपथपाकर चले गये थे।

उसने आटा गूंथा और रोटी के लिये गोल गोल लोइयां बनाकर रख दी थीं। जैसे ही भिंडी बनीं, उसने तवा चढ़ाकर रोटी बेलकर सेंकना शुरू कर दिया था। उसका मन किसी काम में नहीं लग रहा था, बस निपटा रही थी।

जल्‍दी से उसने तीन रोटियां सेंकीं और थाली लगाकर प्रकाश के सामने रख दी थीं। इसके साथ ही वह रसोईघर के पिछले दरवाज़े से निकल गई थी। उसी समय भास्कर के किचन का दरवाज़ा खुला और भाड़ से बंद हो गया था।

घर आई तो अम्‍मां ने पूछा - बड़ी अबेर हो गई? इत्‍तौ का बनायकें आई हों’। इस पर वह धीमे स्‍वर में बोली थी – ‘कुछ भी तय्यारी नांय ही। सब करौ और बर्तन भी कर आई। भाई साहब अकेले हैं तो कामवाली भी नईं आती है’। उसने किसी को कुछ नहीं बताया था।

लेकिन रात भर सोचती रही थी कि कल क्‍या किया जाये? इसी उधेड़बुन में वह सो गई थी और सुबह तैयार होकर स्‍कूल चली गई थी। मन में खदर-बदर तो हो रही थी। जब नहीं रहा गया तो उसने रेसस में गायत्री को बुलाया – ‘दीदी, एक बात कहें? बुरौ तौ नांय मानौंगी’?

इस पर उसने कहा था – ‘का भऔ, बोलौ’ और उसने रोते हुए प्रकाश की हरकतें बता दी थीं और साथ ही धमकी भरा बुलावा भी बता दिया था। गायत्री ने गंभीर होते हुए कहा था – ‘ठीक है, तुमैं जायबे की जरुअत नई है। बुखार का बहाना बना देना। हम देख लेंगे कि उनका क्‍या करना है’।

और यह सुनकर वह निश्चिंत हो गई थी। शाम को छ: बजे प्रकाश घर पर बुलाने आये तो अम्‍मां ने कह दिया – ‘कामना को बुखार है और गायत्री को काम है। आप बाहर से मंगाकर खा लें। परसों तो चंद्रा आ रही है’। यह सुनकर वे चुपचाप चले गये थे।

उस वारदात के बाद कामना ने तय कर लिया था कि वह किसी भी अकेले मर्द के घर नहीं जायेगी। चाहे कितने भी घनिष्ठ संबंध क्‍यों न हों। और इस तरह उसने अपने चरित्र को मज़बूत बनाया था। वह किसी भी हाल में बहकती नहीं है।

वह आज भी उतनी ही मज़बूत है और उसकी अनुमति के बिना कोई भी उसकी उंगली भी नहीं छू सकता। टांगें चीरकर रख देगी। इतनी ताक़त तो उसके शरीर में तब भी थी और आज भी है। यह बात अलग थी कि ऐसी नौबत कभी आई नहीं।

इस तरह वह मज़बूत होती गई थी और अम्‍मां पिताजी का विश्‍वास जीतती गई थी। अच्‍छा हुआ कि प्रकाश कामना को फिर नहीं बुलाया था वरना किसी दिन गायत्री के हाथ का लपाड़ खाते। वह ऐसा घुमाकर देती थी कि सामने वाला हक्‍का-बक्‍का रह जाता था।

जहां तक चंद्रा का मामला था, उनके पड़ोसी बताते थे कि दोपहर बारह बजे के बाद मकान मालिक सत्‍यनारायण तिवारी के बेटे सुरेन्द्र और वीरेन्द्र बारी बारी से चंद्रा के पास आते थे और वह भी पीछे के दरवाज़े से, ताकि कोई देख न ले।

वे दोनों भी शादीशुदा थे। सुरेन्द्र और वीरेन्द्र का अपनी पत्नियों से इतना ही सरोकार था कि उनको समय पर खाना दे दें और रात को बिस्‍तर पर उनकी ज़रूरत पूरी कर दें। पत्नियों की ज़रूरत पूरी हो रही थी या नहीं, इससे उनको कोई सरोकार नहीं था। वे खुद इधर उधर मुंह मारते रहते।

जब उन्‍हें किरायेदारिन के रूप में चंद्रा मिलीं और और उनका मौन आमंत्रण भी तो फिर उनका उस घर में तो आना बनता था। उन दिनों लिव-इन-रिलेशनशिप का चलन नहीं था, पर लुका छिपी का खेला बहुत चलता था।

ऐसा नहीं था कि चंद्रा के पति प्रकाश को कुछ नहीं पता था, उन्‍हें सब पता था...लेकिन उनका अपना स्वार्थ था। टीचर की नौकरी में घर तो नहीं ही खरीदा जा सकता था।

सो इन पति-पत्‍नी की अंडरस्‍टेंडिंग थी कि चंद्रा सुरेन्‍द्र और वीरेन्‍द्र से दोस्‍ती करके किसी तरह यह मकान अपने नाम करवा लें। भले ही इसके लिये शरीर का इस्‍तेमाल करना पड़े। वे वही कर रही थीं और एक दिन पता चला कि वे लोग अपने मक़सद में कामयाब हो गये थे।

.... और मकान उन्‍होंने अपने नाम करवा लिया था। यह बात आग की तरह आस-पास फैल गई थी। वे घर से कम ही निकलने लगी थीं। पिताजी जी को जब पता चला तो पहले तो उन्‍हें विश्‍वास नहीं हुआ था, लेकिन जब लगातार लोग बात करते रहे तो उन्‍होंने उसे और गायत्री को प्रकाश के घर जाने से मना कर दिया था।