Chaar Degree celsius wala rishta in Hindi Moral Stories by Garima Dubey books and stories PDF | चार डिग्री सेल्सियस वाला रिश्ता

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चार डिग्री सेल्सियस वाला रिश्ता

चार डिग्री सेल्सियस वाला रिश्ता

डॉ. गरिमा संजय दुबे

"पापा, आपने मेरी मम्मा से शादी क्यों की " 11 साल का कौस्तुभ हर बार यही प्रश्न करता और सौम्य हर बार एक ही जवाब देता "क्योंकी वो तुम्हारे पापा से प्यार करती थी,और तुम्हारा पापा मुझसे प्यार करता था " हो गई ना इनडाइरेकट रिलेशनशिप" दूध गिलास में डाल सौम्य ने कौस्तुभ के गाल पर चपत लगाते हुए कहा ।

गिलास को मुँह से लगा अपने होठों पर बन आई दूध की सफेद मूछें दौड़ कर सौम्य को दिखाते हुए वह बोला "देखो देखो मूंछें", सौम्य हौले से मुस्कुराते हुए बोला बस साहबजादे थोड़े दिनों में ये बचपना छूटने वाला है, असली मूंछें आ जाएगी" ।

कौस्तुभ तुनक पड़ा,मुझे नहीं होना बड़ा,वड़ा,छोटा ही खुश हूँ,आपके साथ" कहते हुए सौम्य से लिपट गया । कौस्तुभ जब जब सौम्य से यूँ लिपटता तो वह भीग जाता । यूँ तो हर पिता अपने बच्चे को चाहता है, लेकिन उनके बीच का रिश्ता खास था । काव्या आज कौस्तुभ की दादी के घर गई थी क्योंकि शोभित की वार्षिक तिथि थी आज । कौस्तुभ भी वहीं जा रहा था उसे घर के बाहर छोड़ वह वापस आ जाएगा । उसे अंदर जाने की इजाज़त नहीं थी । एक समय था शोभित का यही घर उसका भी घर ही था ।

उस घर की एक एक चीज़ उसे वैसी ही याद है जैसी आठ बरस पहले थी ।काव्या के लौटने पर कभी कभी पूछ बैठता, खिड़की के पास रखी बड़ी सी हाथी की मूर्ति है या टूट गई, किचेन में क्या अब भी माँ बेसन के लड्डू से भरा मर्तबान रखती हैं । माँ के बिस्तर पर क्या अभी भी सफेद रंग की पीले फूलों वाली चादर बिछी रहती है या पापा की आराम कुर्सी पर ही सो जाने वाली आदत वैसी ही है, नोक झोंक वैसी ही है, या कि घर के बगीचे में पांच पेड़ जो शोभित ने और उसने लगाए थे वैसे ही हैं । काव्या हैरानी से उसकी तरफ देखती तो झट वह नज़रे घुमा अपनी भर आई आंखे पोंछ लेता ।

"पापा पापा,चाय ठंडी हो रही है । "ओह हाँ" वह लौट पड़ा वापस कप उठाकर चाय पीने लगा । "चल तुझे दादी के यहाँ छोड़ देता हूँ", उसने कहा ।

"आज आप भी अंदर चलोगे, ये क्या हर बार बाहर से वापस आ जाते हो, दादी नही डाँटेगी" कौस्तुभ ने मचलते हुए कहा ।

"आज नहीं बेटा ज़रूरी मीटिंग है", कहकर उसे छोड़ा । काव्या के मोबाइल पर मैसेज डाला वह आकर उसे ले गई । काव्या और कौस्तुभ दोनो उसे गेट पर हाथ हिला कर रुआंसे से टाटा कर रहे थे, "टाटा पापा "।

मन तो उसका भी करता कि दौड़ कर अंदर घुस जाए उसी तरह जैसे आठ साल पहले घुस जाया करता था । और दौड़कर खीर का कटोरा माँ के हाथ से ले शोभित से पहले ही खत्म कर देता था । माँ बाबूजी हँस हँस कर लौट पोट हो जाते थे । माँ उसकी पीठ पर हाथ फेर और मनुहार कर खीर खिलाती थी । एक दिन उस घर में जाए बिना, खाना खाये बिना नहीं बीतता और अब ये आलम है कि आमना सामना भी नहीं कर सकते । अलबत्ता काव्या के हाथ उसके लिए...... नहीं नहीं यह कहकर कि कौस्तुभ ने ठीक से खीर नहीं खाई है रात को खिला देना कहकर भेजती हैं । क्या वह जानता नहीं कि खीर किसके लिए भेजी जा रही है,माँ है ना, भले बेटा न सही बेटे जैसा तो हमेशा माना है उसने । सोचते सोचते दो बूंद आंखों से टपक गई ।

दिन भर ऑफिस का काम कर शाम को जब उन्हें लेने गया तो फिर मेसेज डाला,"बाहर आ गया हूँ, चलो ", । आंखें बार बार दरवाजे के भीतर तक घुस जाना चाहती थी । कौस्तुभ और काव्या के लिए नहीं, माँ बाबूजी के लिए, कभी वे दिख जाए,कभी वे उसे देख लें ।

हर बार यह दिन उसके जीवन में उथल पुथल मचा जाता । कोई कसर नहीं छोड़ी थी उसने शोभित को किया वादा निभाने में । काव्या ने भी उसे अपना लिया था, और कौस्तुभ तो उसकी जान है लेकिन काश काश उस मनहूस घड़ी को वह टाल पाता । तीन साल का था कौस्तुभ जब । पिकनिक पर जा रहे थे सब, हँसते गाते, खिलखिलाते,एक जगह अच्छी सीनरी देख फ़ोटो खींचने उतरे और थोड़ी मौज मजा कर वापस गाड़ी में बैठ गए, अचानक जाने क्या हुआ कि शोभित ने ड्राइवर की सीट संभाल ली और बोला "अब गाड़ी मैं चलाऊंगा ", बहुत मना किया "तुमने अभी अभी गाड़ी चलानी सीखी है, रहने दो" । "नहीं कॉन्फिडेंस कैसे बढ़ेगा, ऐसे डरता रहा तो, सौम्य ने भी सोचा सच है धीरे धीरे तो हिम्मत बढ़ानी पड़ेगी । गाड़ी चल पड़ी बाते करते चले जा रहे थे, 20 किलोमीटर ही चल पाए थे कि गलत दिशा से तेजी से आते ट्रक ने जोरदार टक्कर मार दी । गाड़ी तीन पलटी खाती हुई रुक गई । काव्या, कौस्तुभ,शोभीत और उसकी दर्द भरी चीखें गूंज उठी । अस्पताल पहुँचाया गया । कौस्तुभ और सौम्य को ज्यादा चोट नहीं थी लेकिन शोभित की हालत गंभीर थी । वह अपना दर्द भूल कभी काव्या, कभी कौस्तुभ और कभी शोभित की तरफ दौड़ता रहा । कौस्तुभ के पैर में फ्रैक्चर था, काव्या के सिर और हाथ पर चोट थी लेकिन शोभित की छाती पर स्टेरिंग के जोर से टकराने की वजह से इंटरनल ब्लीडिंग होने लगा था ।डॉक्टर खोज नहीं पा रहे थे । शोभित ने दोनों का हाथ हाथ में ले काव्या से शादी का वचन ले दम तोड़ दिया था । वह समझ ही नही सका। मां को जब पता चला कि गाड़ी शोभित चला रहा तो बदहवास की तरह उसके गालों पर तमाचे मारते हुए कहने लगी थी "क्यों दी तूने उसे गाड़ी, अरे तू मर जाता तेरा कौन था, क्यों दी उसे गाड़ी " । सच ही तो कहा था माँ ने उसका था ही कौन । अनाथालय में पला बढ़ा, जो मिला था इसी घर से मिला था, अनाथालय का ही तो बच्चा था वो जिसकी शोभित से दोस्ती ने उसे इस घर का दूसरा बेटा बना दिया था । वह अपराध बोध से भर गया था । जिनके साथ माँ बाप का प्यार मिला उनसे ही बेटा छीन लिया, क्यों दी उसे गाड़ी, लेकिन शोभित को कब किस बात के लिए मना कर पाया था वो । उसके प्यार के, इस घर की ममता के इतने अहसान हैं उस पर कि जान भी मांग लेता तो दे देता, लेकिन कमबख्त ने जान कहाँ माँगी, जान दे दी,हमेशा सबसे बचाता ही तो आया था वो, आज भी मौत से बचा कर चला गया । यंत्रवत सारे काम निपटाए,काव्या और कौस्तुभ बेसुध थे । माँ राजी नहीं थी । कई महीने तक वह कुछ बोली नहीं फिर बेटे की अंतिम इच्छा को दिल पर पत्थर रख पूरा किया ।

कौस्तुभ को अपने सीने से चिपकाए घंटों रोते रहे थे, मिश्रा दंपत्ति । लेकिन एक लक्ष्मण रेखा

खींच दी थी सौम्य के लिए कि "अब यह मुझे अपनी शक्ल नहीं दिखायेगा" । ओह कैसी सज़ा थी उस अपराध की जो किसी ने किया ही नहीं,जो कभी हुआ ही नहीं बस जैसे सब समय के फेर में उलझ से गए थे सुलगने को । कौस्तुभ को अपने सीने से लगा आंख में आंसू भरे वह निकल आया था ।

"पापा पापा आ गए ", कौस्तुभ की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा, वह दौड़ता हुआ आया और गाड़ी का गेट खोल बैठ गया, उसने उसे प्यार से देखा और पूछा "मम्मी कहाँ हैं "।

"आ रही है दादी दादाजी से कुछ बात कर रही है," उसने गाड़ी थोड़ी आगे बढ़ा कर लगाई और कौस्तुभ की पसंद का गाना लगा दिया ।

अंदर जैसे ही मेसेज आया था, काव्या ने कनखियों से माँ की तरफ देखा । सौम्य के आने की खबर से ही उनकी बैचेनी बढ़ जाती, और गाड़ी का हॉर्न सुन दोनो की हालत ऐसी हो जाती मानो पैर तो बाहर की तरफ दौड़ने को मचलते,आंखों की पुतलियाँ पर्दे के बाहर झांकना चाहती, बाहें किसी को अपने में भर लेने को मचलती, लेकिन दोनों उन्हें रोकने की कोशिश करते । कुछ न कुछ बोलना शुरू कर देते या कोई काम करने लगते । वह उनकी इस दशा से तडफ़ कर रह जाती ।

शुरू शुरू मे इतने बड़े दुख से निकलना उसे भी असंभव लग रहा था । लेकिन सौम्य के हौसले और प्यार ने उसे फिर से जीने की ललक पैदा की । कभी कभी उसे आश्चर्य भी होता कि कोई इतना अच्छा कैसे हो सकता है । यूँ तो वो अकेली ही जी सकती थी माता पिता के साथ लेकिन सहारा नहीं साथ और हम कब तक रहेंगें, इंसान को भावनात्मक साथ की जरूरत होती है" के पिता के तर्क ने उसे मजबूर कर दिया । फिर कौस्तुभ का सौम्य से लगाव देख उसने भी हाँ भर दी । माँ को भी उसके दूसरे विवाह से हर्ज नहीं था लेकिन पता नहीं क्यों वह सौम्य को उस दुर्घटना का ज़िम्मेदार मानती रही । हालांकि काव्या नफरत की कठोर सतह के नीचे बहते रिश्ते को देख पाती थी लेकिन पता नहीं ऐसी कौन सी ग्रंथि थी जो वे तोड़ना नहीं चाहती थी ।

आज सोच लिया था उसने, इस जमी बर्फ को तोड़ेगी, उसने मेसेज किया, कौस्तुभ को पास के गार्डन में ले जाने का कह वह बोल पड़ी "माँ पापा कब तक आप सजा देते रहेंगें सौम्य को,मैंने देखी है उसकी तडफ़, और और .......आपकी भी " । दोनों एक साथ चौक पड़े जैसे किसी ने चोरी पकड़ ली हो । माँ खीज भरे स्वर में बोली "फालतू बात मत करो काव्या जो चल रहा है वैसा चलने दो अब वह यहाँ नहीं आएगा, उसने अगर गाड़ी नहीं दी होती तो .........तो आज मेरा बेटा ज़िन्दा होता और तुम, कौस्तुभ सब साथ में होते "कहते कहते माँ सुबकने लगी । पिताजी वहीं कुर्सी पर बैठ गए । "माँ मैं थी साथ में, कितनी बार मना किया था हम सबने,लेकिन क्या आप अपने बेटे को जानती नहीं,कितने जिद्दी थे शोभित, एक नहीं मानी और ...और.....आंखों से ढलक आये आंसू पोंछ वह फिर बोली -"हम सबने कुछ न कुछ खोया है, लेकिन देखा है मैंने सौम्य ने अपनी नींद अपना चैन सब खो दिया है । आज भी वह खुद को अपराधी मानते हैं,तरसते हैं आप दोनो के लिए, मुझे, कौस्तुभ को इतना प्यार दिया है कि झोली में न समाए, बस आप दोनों से मिलने की तडफ़ मुझसे नहीं देखी जाती, माफ कर दीजिए, उनके सर पर हाथ फेर उनके दिल का बोझ हल्का कर दीजिए, देखिए शोभित क्या खुश होंगें यह देखकर कि जिसे मैं पापा का बेटा बना कर गया था, उसे इस घर में आने की इजाज़त तक नहीं। पिता की कुर्सी पर हाथ रख बोली "क्या आप नहीं तड़फते उसके लिए " । माँ आंसू बहाती सुनाती रही लेकिन चिढ़ कर बोली "बस बस रहने दे,इतनी जल्दी भूल गई शोभित को .....यही था प्यार या अपनी जरूरत ......"

"सरोज क्या बकवास कर रही हो" मिश्रा जी जोर से बोल पड़े । काव्या की आंखों से आँसू की धार फूट पड़ी वह दौड़ते हुए घर से निकल गई ।

उधर सौम्य और कौस्तुभ गार्डन में खेल रहे थे । खेलते खेलते कौस्तुभ ने सौम्य से कहा "पापा आज हमारी टीचर ने बताया कि ठंड में झील जम जाती है, और एक जादू होता है उसके नीचे पानी होता है, और और 4 डिग्री सेल्सियास टेम्परेचर जिसमें मछलियां और बाकी सब ज़िन्दा रहतें हैं "।

सौम्य चुपचाप सुनता रहता । आज का दिन उसके लिए भारी गुजरता । कौस्तुभ ने ठीक से खाया नहीं कहकर भेजा गया खाना ही उसे अपने और माँ बाबूजी के बीच के रिश्ते को जिंदा होने का अहसास देता । उसे लगता कहीं अभी उम्मीद बाकी है । उसने काव्या को दौड़ कर आते देखा तो कौस्तुभ को उठा गाड़ी की तरफ चल दिया । काव्या की लाल आंखे देख कुछ समझ तो गया लेकिन कुछ बोला नहीं । तीनों गाड़ी में बैठे थे चुपचाप तभी कौस्तुभ बोल पड़ा, माँ दादी ने आज भी पापा को अंदर नहीं बुलाया "। सौम्य हौले से मुस्कुराया "क्या दादी भी कभी मानेगी " वह फिर बोला । सौम्य ने धीरे से कहा "कौस्तुभ दादा दादी और मेरा रिश्ता भी तुम्हारी जमी झील सा है, ऊपर से जमा हुआ कठोर और नीचे 4 डिग्री सेल्सियस पर बहता.........जिंदा......., क्यों काव्या, माँ ने खाना भेजा है न आज भी" । काव्या ने कठोरता से कहा " नहीं ",झटके से गाड़ी रुक गई,"क्या .....अ......... ऐसा नहीं हो सकता " सहसा सौम्य को अपने अंदर कुछ जमता सा लगा..... लगा जैसे रिश्ते की झील की ऊपरी सतह ही नहीं अब पूरी झील जम गई है, सतह के नीचे बहते,ज़िन्दा रिश्ते की उम्मीद ख़त्म हो गई, और जैसे जमती झील में जीव जंतु तडफ़ तडफ़ कर मरने लगते हैं,वैसी ही तडफ़,वैसी ही जकड़न उसे अंदर महसूस होने लगी । रिश्ते की झील तो जम रही थी लेकिन आंखों से पिघलता हुआ सा कुछ बहने लगा, उसे देख कौस्तुभ भी सिसकने लगा । कौस्तुभ को चुप करवा पास की दुकान से आइसक्रीम लाने का बोल काव्या ने सौम्य को संभाला । बड़ी मुश्किल से सिसकते सिसकते बोला "मुझे सज़ा दे दे माँ बाबूजी,लेकिन इस तरह नफरत का बोझ अब नहीं सहा जाता काव्या, मैं उनका ख्याल रखना चाहता हूँ, इस उम्र में अकेले रहते हैं वो, मैं माँ के पैर दबाना चाहता हूँ, बाबूजी की दवाइयां लाना चाहता हूँ, उनसे बाते करना चाहता हूँ, उनके साथ बैठकर क्रिकेट देखना चाहता हूँ,खाना खाना चाहता हूँ । शोभित से वादा किया था मैंने सबका ख्याल रखूंगा, लेकिन एक बेटे का फर्ज नहीं निभा पा रहा मैं, उसकी मौत का अपराधी तो हूँ ही, माँ बाबूजी की सेवा न करने का अपराध भी हो रहा है, अब और नहीं सहा जाता........ और आज माँ ने एक आखिरी उम्मीद भी तोड़ दी, मैं क्या करूँ, मैं क्या करूँ .....कहते कहते वह बिखर गया । काव्या ने भी भर आईं आंखों को बह जाने दिया, उसे प्यार से सहलाते हुए कहा "सौम्य और कितना सहोगे, किस उम्मीद में हो, कब तक सज़ा दोगे उस अपराध की अपने आप को जो तुमने किया ही नहीं, मुझसे और नहीं देखा जाता, हम है ना तुम्हारे साथ, तुम्हारा प्यार हमारे जीने की वजह है,जिन्हें नहीं है परवाह उनके लिए तड़फना छोड़ो" । सौम्य यूँहीं स्टेरिंग पर हाथ रखे बैठा रहा,बोला कुछ नहीं । साल भर में केवल एक यही दिन तो उसे लगता है जब माँ ने उसके सर पर हाथ फेरा हो । दुख सुख दोनो इसी दिन मिलते उसे । प्रिय मित्र को खोने का दर्द और मां से जुड़े होने का अहसास एक साथ उसे मिलता । लेकिन आज केवल दर्द ही दर्द है, घुटन ही घुटन है ।

इधर काव्या के दौड़कर घर से चले जाने पर शोभित के पिता व माँ असहाय से,निढाल से बैठे रह गए । मिश्रा जी बोले "सरोज आज तुमने आखिरी तार भी तोड़ दिया, अब काव्या को किस मुँह से बुलाओगी और कौस्तुभ, मेरा भी मन होता है, उसके साथ दिन रात रहने को, दूसरे बच्चों के दादाजी की तरह उसे स्कूल बस से लाने ले जाने को, उसके साथ शैतानियां करने को "।

माँ सिसकती हुई बोली,"क्या मेरा मन नहीं होता उसे अपने आँचल में समेट लेने को,उसके मुँह से दिन रात दादी दादी सुनने को " ।

"तो क्या मजबूरी है, सौम्य ज़िम्मेदार नहीं है इन सबके लिए, अगर वो तीनों अकेले होते तो क्या कौस्तुभ और काव्या को दोषी ठहराती ? दुर्घटना थी,हमारा दुर्भाग्य था " । वे सर को पीछे टिकाते हुए बोले ।

ये बाते कई बार दोहरा चुके थे वे लेकिन आज कुछ अंदर उतर रहा था । सिसकते सिसकते नजर डाइनिंग टेबल पर पड़े टिफिन पर पड़ी, वे हड़बड़ा कर उठीं,"जी .......सुनिए वो सौम्य के लिए खाना...........मेरा मतलब कौस्तुभ के लिए ..........बोलते बोलते झिझक गईं मानों कोई चोरी पकड़ी गई हो । मिश्रा जी ने कंधे पर हाथ रखकर कहा,"मत छुपाओ सरोज ....क्या मैं जानता नहीं कि कौस्तुभ की आड़ लेकर सौम्य के लिए ही खाना भेजती हो, माँ हो ना,ऊपर से चाहे नाराज़ लेकिन तुम्हारे अंदर बहती धार को क्या मैं नहीं जानता" । वे उनके सीने पर सिर रख फफक फफक कर रो उठी, बोली "चलिए न .........मेरे सौम्य को खाना देने,जानती हूँ आज इसके सिवा वो कुछ नहीं खाता, भूखा होगा और दुःखी भी" । मिश्राजी ने झटपट कुर्ते की बाहों से आँखे पोंछी "हाँ हाँ अभी चलते हैं, तुम तैयार हो जाओ",और दौड़कर रिक्शा लाने चले गए । आज उनके बूढ़े घुटनों का दर्द जाने कहाँ गायब हो गया था । वे भी कपड़े बदलने चल दी फुर्ती से, हैरान थीं आज कमर के दर्द ने राह नहीं रोकी थी । उन्होंने सौम्य की बरसो पहले दी हुई साड़ी पहनी और वे दोनों सौम्य के घर की तरफ चल दिए ।

इधर ये तीनों गाड़ी खड़ी कर थके हुए, हारे हुए कदमो से घर की तरफ आ रहे थे । काव्या याद कर रही थी कैसे एक एक डब्बा खोल सौम्य टूट पड़ता था खाने पर,एक एक उंगली चाटते हुए माँ, बाबूजी और शोभित के बारे में कौस्तुभ और काव्या को ढेर सारी बाते बताते हुए । कौस्तुभ भी "और फिर, और बताओं न पापा "कहते कौतुहूल और प्यार से सारी बाते सुनता ।

सौम्य रोता जाता और खाना खाता जाता, कौस्तुभ और काव्या प्यार से उसे देखते रहते लेकिन आज सूनी आँखों में आँसूं नहीं थे । वे धीरे धीरे घर की तरफ जा रहे थे । तभी कौस्तुभ जोर से चिल्लाया "दादी दादाजी", काव्या और सौम्य ने चौक कर देखा, सहसा आंखों पर विश्वास नहीं हुआ, काव्या ने सौम्य का हाथ हिलाया सौम्य "देखो माँ, बाबूजी आएं हैं "और दौड़ती हुई सरोज से लिपट गई । सौम्य वहीं खड़ा था,स्तब्ध सा जैसे कोई सपना देख रहा हो ।

कुछ पल लगे उसे समझने में और फिर पाया कि नहीं नहीं यह सपना नहीं है,सच है,चारो उसे पुकार रहें हैं । अपनी तंद्रा से बाहर आते ही वह दौड़ पड़ा और माँ पिताजी के पैरों में गिर पड़ा । भावनाओं का तूफान आ गया था, दोनो ने उसे उठा अपने सीने से लगा लिया और फूट फूट कर रोने लगे । माँ उसे बेतहाशा चूमने लगी बरसों का ममत्व जो किसी अनजाने बांध ने रोक रखा था आज सारे बंधन तोड़ देना चाहता था । माँ का चेहरा हाथों में भरकर देर तक देखता रहा कौस्तुभ, आँखे सब बोल रही थीं, बरस रहीं थीं, शब्द खामोश थे, शब्दों की जरूरत भी भला किसे थी । माँ ने अपनी पहनी साड़ी का आँचल उसे दिखाया तो सौम्य ने देखा वही साड़ी जो अपनी पहली कमाई से माँ के लिए लाया था, उस आँचल को चेहरे पर ढाँप फफक पड़ा फिर से और मां ने उसे सीने में भींच लिया फिर से । हाथ में टिफिन देखकर, छीनकर वहीं घर के आंगन में ही बैठ उसे खोल कर सौम्य ने ऐसे खाना शुरू किया जैसे बरसों का भूखा हो । माँ बाबूजी उसके सिर पर हाथ फेरते जा रहे थे रोते जा रहे थे । काव्या कौस्तुभ नम आँखें और चेहरे पर मुस्कान लिए सब देख रहे थे ।

गिले शिकवे शिकायतें सब बह गईं थी बाकी था तो बस प्रेम और प्रेम की ऊष्मा । सतह के नीचे 4 डिग्री पर ज़िन्दा रिश्ते की इस ऊष्मा ने इतनी गर्मी फैलाई कि रिश्तों की जमी हुई झील पिघल गई थी और ज़िन्दगी खुल कर सांस लेने लगी थी ।

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