30 शेड्स ऑफ बेला
(30 दिन, तीस लेखक और एक उपन्यास)
Eposode 10 by Rinki Vaish रिंकी वैश
दरख्तों पर पसर गए हैं साए
आंखों से बहते खारे पानी ने ताज़ी लिखी इबारत को धो डाला था। अपनी टैगलाइन से लोगों को सपने बेचने वाली बेला के खुद के सपने आंखों में चुभ रहे थे। कृष के साथ बिताए कुछ घंटों ने ज़िंदगी में उथल-पुथल मचा दी थी। वहीं सोफ़े से टिक कर देर तक रोना बेला को भला लगा। बचपन से ही आंसुओं से बेला की पक्की दोस्ती थी। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ी, दोस्ती कम होती गयी। ज़िंदगी से जद्दोजहद करते-करते नौबत यह आ गई कि दोनों पक्के दुश्मन बन गए। “आँसू सामने वाले को आपकी कमज़ोरी का एहसास कराते हैं,” बेला जल्दी भावुक हो जाने वाली लड़कियों को यह समझाने लगी थी। लेकिन दूसरों को समझाना और खुद अमल करना, दो अलग बातें हैं। अपने पुराने लेख पढ़कर उसे इस बात का शिद्दत से एहसास होता था। क्या नहीं लिखती थी वह...क्या नहीं पता था उसे...न्याय-अन्याय, अच्छा-बुरा, सच्चा-झूठा, सही-गलत। लोगों को इनका फ़र्क समझाने वाली बेला खुद यह सब कब भूल गयी, पता ही नहीं चला।
रिया को तैयार करके स्कूल भेजा ही था कि समीर ऑफ़िस से वापस आ गया। बेला अभी संभल भी नहीं पायी थी।
“मैं बहुत थक गया हूँ। बस नहाकर सो जाऊंगा,” समीर ने आते ही एलान किया।
बेला ने धीरे से जवाब दिया, “अच्छा।”
जूतों के फ़ीते खोलते हुए समीर ने एक नज़र बेला को देखा।
“क्या हुआ? आज फ़िर अपसेट हो? प्लीज़, इस वक्त मैं कुछ सुनने के मूड में नहीं हूं।”
“मैं कुछ सुनाने के मूड में भी नहीं हूं।” थोड़ी तल्ख आवाज़ में बेला बोल पड़ी।
समीर ने थोड़ी हैरानी के साथ बेला को देखा क्योंकि यह बेला की स्वाभाविक टोन नहीं थी। बेला बिंदास, बेलौस ज़रूर थी मगर बदज़बानी और बदतमीज़ी, उसकी शख्सियत में कभी शामिल नहीं थी। बेला का चेहरा एकदम सपाट, आंखें थोड़ी सूजी हुई थीं। समीर के पास इतना वक्त नहीं था कि वह बेला के सपाट चेहरे के मायने पूछता। वह नहाने चला गया। खुशमिज़ाज चुहलबाजी से उनका रिश्ता तंज और अव्यक्त तनाव की हद तक आ पहुंचा था। समीर को बेला की भावनाएं बचपना लगतीं, बेला को समीर ज़रूरत से ज़्यादा प्रैक्टिकल लगता। जॉन ग्रे की Men Are from Mars, Women Are from Venus वाली थ्योरी यहां पूरी तरह काम कर रही थी। बेला ने आज घर से काम करने का मन बना लिया था लेकिन समीर घर पर रहेगा, यह सोचकर वह ऑफ़िस चली गई।
अपने केबिन में पहुंचकर उसे थोड़ा सुकून मिला। दिमाग में अभी तक कृष छाया हुआ था। सब कुछ जानते-समझते हुए भी वह क्यों इतनी अशांत थी, यह समझने की कोशिश में लगी थी बेला। वह कृष से बहुत प्यार करती थी, यह जानते हुए भी उसने खुद ही कृष को ऑस्ट्रेलिया वापस भेज दिया था क्योंकि वहां कोई उसका इंतज़ार कर रहा था। दूसरों के बारे में खुद से पहले सोचना उसकी बचपन की आदतों में शुमार था। वैसे भी, बचपन में मां की तड़प वह देख चुकी थी। रिश्तों का उलझाव कैसी उलझनें पैदा करता है, उसने बहुत करीब से देखा था। कृष सालों पहले जा चुका था, उसकी ज़िंदगी से और समीर से मिलने के बाद उसके दिमाग से भी। वह कभी उसका था ही नहीं। फिर वह भी तो समीर से प्यार करने लगी थी। शादी...बच्चा...नौकरी, ज़िंदगी अपने ढर्रे पर चल निकली थी। यह बात अलग थी कि वक्त बीतने के साथ एक अजीब सा अजनबीपन उसके और समीर के रिश्ते पर तारी होने लगा था। लेकिन कृष, आज अचानक क्यों वापस आ गया? उसे आना ही नहीं चाहिए था। लेकिन वह तो अपनी वाइफ़ के साथ आया है...वे दोनों मुंबई क्यों आए होंगे? फिर साथ क्यों नहीं आए दोनों? अलग-अलग दिन के टिकट क्यों? इसी उधेड़बुन में पूरा दिन निकल गया। बेला की बेचैनी इस बात का सबूत थी कि कृष भले ही उसकी ज़िंदगी और दिमाग से चला गया था, लेकिन दिल के किसी कोने में आज भी उसका वजूद बरकरार था।
शाम पूरे शबाब के साथ ज़मीन पर उतर आई थी। बेला ने वहीं ऑफ़िस में बैठे-बैठे भारी मन से आसमान को निहारा। तरह-तरह के रंगों से सजा आसमान देखना बेला का पसंदीदा शगल था। क्षितिज पर इतने सारे रंग देखकर बेला को ख्याल आया कि इंसान भी आसमां जैसा ही है- कई रंगों से मिलकर बना हुआ। जैसे आसमान में इतने सारे रंग हैं, लेकिन उसकी पहचान बताने वाला रंग नीला है। वैसे ही हर इंसान के व्यक्तित्व के कई पहलू होते हैं, लेकिन कोई एक पहलू इतना प्रभावी होता है कि वही उसकी पहचान बन जाता है। बेला अपने रंग, अपनी पहचान के बारे में सोचने लगी थी। पर एक ही शख्स की पहचान हर किसी के लिए अलग भी तो हो सकती है। जैसे समीर, जैसे कृष, जैसे मम्मी, जैसे पापा, जैसे मौसी...सब, सबके लिए अलग। “जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी,” रामचरित मानस की चौपाई बेला के दिमाग में कौंध गई।
घर आयी तो समीर ऑफ़िस जा चुका था। रिया बाहर खेल रही थी। सोचा कृष से बात करके देखती हूं, कहां रुका है। वाइफ़ के साथ आया है, वीकएंड पर घर बुलाती हूं डिनर के लिए। कॉल करने के लिए फ़ोन उठाया, तो देखा मौसी की मिस्ड कॉल पड़ी थी। मौसी की कॉल, वह तो कभी फ़ोन नहीं करतीं। आज क्यों कॉल किया होगा? बनारस वाले हादसे के बाद शायद ही उनकी कभी बात हुई हो। बेला और मौसी एक नदी के दो किनारों जैसे थे। बेला को उनकी मौजूदगी भी नागवार गुज़रती थी। यही कारण था कि वह पापा से मिलने भी कम ही जाती थी।
फिर भी उसने मौसी को वापस फोन किया।
“आपने फोन किया था, सब ठीक तो है न!”
“हां बेटा, तुम्हारे पापा की तबीयत थोड़ी ठीक नहीं है। वह तुमसे मिलना चाहते हैं। तुम आ पाओगी क्या?”
“क्या हुआ उन्हें?”
“नहीं, कोई सीरियस बात नहीं है। थोड़ा बीपी बढ़ा है बस। तुमसे मिलना चाहते हैं। तुम्हें कुछ बताना चाहते हैं।”
“फ़ोन पर बात करवा दीजिये। टाइम निकालकर मैं बाद में आ जाऊंगी।”
“नहीं, फ़ोन पर नहीं। आने पर ही बात हो पाएगी। कोई बात नहीं, जब फ़्री होना, तब आ जाना। मगर कोशिश करके जल्दी आना।”
“ठीक है। बॉय।”
बेला ने फोन रख दिया। पापा की तबीयत की तरफ़ से वह निश्चिन्त थी। पता था कि मौसी उनका पूरा ख्याल रखती हैं। मगर ऐसी क्या बात हो सकती है, जो पापा उससे मिलकर बताना चाहते हैं। ज़मीन-जायदाद में तो उसे वैसे भी कभी रुचि नहीं थी, तो वसीयत की बात भी नहीं होगी। यह बात पापा भी जानते थे। फिर क्या हो सकता है, बेला का दिमाग चारों तरफ़ दौड़ रहा था। फिर सोचा कि अगले महीने गुड फ़्राइडे वाला लॉन्ग वीकएंड है, तब दो दिन की छुट्टी और लेकर चली जाएगी।
ध्यान आया कि वह तो कृष को फ़ोन करने जा रही थी। बेला ने कृष को फ़ोन लगाया।
“ऑल लाइंस ऑफ़ दिस रूट आर बिज़ी। प्लीज़ कॉल ऑफ़्टर समटाइम।”
हाथ-मुंह धोकर बेला ने फिर कॉल किया।
“इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं…,” बेला ने फ़ोन काट दिया। मन ही मन बुदबुदाई, “नए शहर में भी पता नहीं कितनी जान-पहचान है, जो बात करने में लगा हुआ है।”
बेला का मन बेचैन था, कहीं कुछ ठीक नहीं हो जैसे। थोड़ी देर बाद उसने फिर कॉल किया। घंटी जा रही थी। फ़ोन कृष की वाइफ़ ने उठाया।
“हेलो!”
किसी लड़की की आवाज़ कृष के फ़ोन पर सुनकर बेला थोड़ा अचकचा गई। फिर संयत होकर बोली,
“हेलो, माइ नेम इज़ बेला। कैन आइ टॉक टु कृष, प्लीज़?”
“जी, वह बाहर गए हैं। बाद में फ़ोन करियेगा।” इतना कहकर उसने फ़ोन रख दिया।
‘यह क्या, वह तो हिंदी में बोल रही थी। जितना मुझे पता है, कृष की गर्लफ़्रेंड तो ऑस्ट्रेलियन थी। फिर यह कौन थी।’ बेला के दिमाग में हजारों सवाल घूमने लगे। कृष की शादी इंडियन लड़की के साथ कब हुई? वह फिर से कब इंडिया आया होगा? आया भी तो बेला से नहीं मिला। मिला भी तो इतने सालों के बाद, वह भी इस तरह। इस लड़की की आवाज़ भी कुछ सुनी हुई लग रही थी...हो सकता है, वहम ही हो।
रिया बाहर से खेलकर आ चुकी थी। बेला को देखते ही उसकी गोद में जा बैठी। बेला ने उसे उठाकर चारों ओर नचाया। रिया की किलकारियों से घर और बेला का मन दोनों गूंज उठे। अब कुछ हल्का महसूस कर रही थी बेला। रिया गोद से उतरकर सोफ़े पर खेलने लगी। खेलते समय रिया हमेशा सोफ़े के कुशन हटाकर अपने टेडीबेयर्स वहां बिठा देती थी। रिया के कुशन हटाते ही उसके हाथ एक वॉलेट लग गया। खेल-खेल में रिया ने वॉलेट का सारा सामान सोफ़े पर उलट दिया। अचानक बेला की नज़र उस पर पड़ी।
‘यह तो कृष का वॉलेट लग रहा है। मगर उसने फ़ोन भी नहीं किया कि वॉलेट छूट गया है...कितना लापरवाह हो गया है!’
वह वॉलेट का सामान वापस उसमें डालने लगी। तभी एक फोटो देखते ही उसके दिमाग की नसें जैसे तन गईं। यह तस्वीर...कृष और उसकी वाइफ़...यह तो मैं हूं...लेकिन मैं कैसे हो सकती हूं? ओ माइ गॉड...नहीं, यह नहीं हो सकता...मेरी हमशक्ल पद्मा...तो क्या पद्मा कृष की बीवी है? नहीं, यह तो संभव ही नहीं है। हे भगवान! यह कैसा भंवर है या फिर कोई भ्रमजाल है। बेला के पैर कांप रहे थे। वह सोफ़े पर बैठ गयी।
न खत्म होने वाले सवालों का सिलसिला एक बार फिर जारी हो चुका था, जिनके जवाब खोजने के लिए बेला बेचैन थी।