kasaibada in Hindi Women Focused by Ranjana Jaiswal books and stories PDF | कसाईबाड़ा

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कसाईबाड़ा

जब मेरी शादी हुई थी मैं मात्र पंद्रह वर्ष की थी |दुबली-पतली गेहुएं रंग की ...शरीर में भराव अभी शुरू ही हुआ था |पति की उम्र भी बीस से अधिक न थी ,पर वे थे बड़े रंगीन मिजाज |शादी के बाद जब मेरी सहेली ने उनसे पूछा –जीजा जी हनीमून पर कहाँ ले जाएंगे मिताली को ,तो वे मेरी तरफ ध्यान से देखते हुए बोले—इन्हें ....अरे,आप होती तो कुछ सोचता भी |यह कहकर इन्होंने सहेली के उभार पर अपनी नजर गड़ा दी |
उनका यह मज़ाक मुझे भीतर तक चुभ गया |कहाँ तो मैं इन्हें तन-मन ,पूरी भावना और संवेदना से परमेश्वर माने बैठी हूँ और ये मेरे ही दोस्तों के बीच मुझे यूं अपमानित कर रहे हैं |
सहेली गर्व से मुस्कुरा रही थी |यह वही सहेली थी ,जो हर क्षेत्र में मुझसे मात खा जाती थी ,पर वह आज जीत गयी थी क्योंकि उसकी देह पर मांस ज्यादा था |शायद मैं उनके इस फर्स्ट इंप्रेशन को भूल भी जाती ,पर ये जब भी लड़कियों या स्त्रियों के बीच होते ...ऐसे ही जुमले कहते रहते |मैं उनसे प्यार करती थी ,इसलिए उनकी बात से आहत होती |मैं ऐसे अवसरों पर उठकर अपने कमरे में चली जाती और शीशे में खुद को देखकर खूब रोती |ऐसा नहीं कि मैं सुंदर नहीं थी |ससुराल के मुहल्ले के हर घर में मेरे रूप के चर्चे होते ,पर उस समय बिहार में मांसल देह वाली लड़कियों को ज्यादा सुंदर माना जाता था |
मैं अपनी उम्र से कुछ ज्यादा लंबी हो गयी थी ,इसलिए देह में भराव नहीं आया था |
एक दिन मैंने इन्हें समझाया कि –आपकी इस हरकत से मुझे दुख होता है आखिर आप ऐसा क्यों करते हैं |आपने तो मुझे पसंद करके विवाह किया है |
फिर तो इन्होंने मेरी कमजोर नस पकड़ ली |पता नहीं मुझे दुखी करके इन्हें कौन-सा सुख मिलता था |बचपन से ही अपने रंग-रूप के कारण मुझे अपमान सहन करने पड़े थे |मेरे माता-पिता ,भाई-बहन सभी गौर वर्ण के और भरे शरीर वाले थे ।जाने मैं कैसे गेहुएं रंग और दुबली-पतली हो गयी थी |पिता मज़ाक करते—अस्पताल में बदल गयी लड़की ...|भाई-बहनों ने मेरा नाम कलूटी ही रख दिया |परिवार से उपेक्षित होकर मैं अपने-आप में सिमट गयी |खूब पढ़ती,पूजा करती और पड़ोस के बच्चों के साथ खेलती |खेलने के बाद जब घर लौटती तो माँ की डांट भी खाती |बहनें चिढ़ाती और मैं बिस्तर में मुंह छुपाकर खूब रोती |जब रोकर थक जाती तो नींद से पूर्व मेरी कल्पना में एक राजकुमार आता ,जो मेरे आँसू पोंछता और सुनहरे रथ में बैठाकर परी-लोक ले जाता |जहां प्यार था ..खुशी थी ...सम्मान था ...|सुबह जब सोकर उठती तो मेरे होंठ मुस्कुरा रहे होते ...दिन-भर की उपेक्षा अपने राजकुमार की कल्पना के सहारे सह लेती |
हाईस्कूल में मैंने टॉप किया और आगे पढ़ना चाहती थी पर मेरे विरोध के बावजूद मेरी शादी कर दी गयी |रिश्ता लड़के ने स्वयम रखा था और दहेज का भी टंटा न था ,इसलिए घर वाले यह सुअवसर नहीं छोड़ सके |
मैंने हार मानकर अपने पति में ही अपने राजकुमार को ढूँढना चाहा ,पर वे तो मेरे थे ही नहीं |जेब में लड़कियों के फोटो लेकर घूमते ...|कहीं भी कोई सुंदर लड़की देखते तो आहें भरते और कहते –इसे होना चाहिए था मेरी पत्नी |कई बार फिल्म दिखाने या घूमने चलने के लिए मुझे तैयार होने को कहते और जब मैं तैयार होकर उनके सामने आती तो मुझे एक बार सिर से पैर तक निहारकर कहते—'फिर चलेंगे कभी' और बाहर चले जाते। मैं अपमानित –सी वहीं खड़ी रह जाती |पता नहीं क्यों ये मेरी हीन-भावना को और भी बढ़ा रहे थे ,जबकि हर मामले में ये मुझसे उन्नीस ही थे |दसवीं में दूसरी बार पास हुए थे ,वह भी थर्ड डिवीजन |घर की आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि दोनों जून का खाना मिलना भी मुहाल था |ससुराल कम मायके ही मुझे ज्यादा रहना पड़ता था क्योंकि साथ में हम दोनों की पढ़ाई भी चल रही थी |
उनकी आदत कभी नहीं छूटी |दुनिया की हर स्त्री उनके लिए सुंदर थी ...गुणवती थी ..बस मैं ही...|मैं उनसे प्रशंसा पाने के लिए उनके हिसाब से काम करती पर वे प्रसन्न ही नहीं होते थे |सादगी से रहती तो उन्हें सजी-संवरी स्त्री अच्छी लगती |शृंगार कर लेती तो कहते –देहातिन हो ।पूरी मांग सिंदूर से भर लेती हो ,ये बिंदी ,महावर ...शृंगार ...छि:...सादी औरतें कितनी अच्छी लगती हैं |जो चीजें उन्हें दूसरी स्त्रियों में अच्छी लगतीं,वह मैं जतन ने सीख लेती ,तो कहते-बेकार समय खोटा करती हो |मैं परेशान हो जाती कि आखिर ये चाहते क्या हैं ?मन उदास रहता था |मुझे उदास देखते तो सबसे कहते-चाहती है बस इसी की प्रशंसा करूं |बहुत ईर्ष्यालू है |
अपने लिए कहते –पुरूष का रूप-रंग नहीं देखा जाता |पुरूष होना ही उसकी खासियत होती है |माँ के घर माँ-बहनों या सखियों के बीच मेरा मज़ाक बनाते और ससुराल में पड़ोस की भाभियों और मामियों के बीच |हर बात पर दूसरी औरतों को बुला लाते |हमारे बीच की बात प्राइवेट नहीं रह पाती थी |अजीब बनने वाला इनका स्वभाव था ,जो मेरे गंभीर स्वभाव से बिलकुल मेल नहीं खाता था |मैं उस समय पतिव्रत –धर्म में विश्वास करती थी और शील-संकोच भी मुझमें कुछ ज्यादा ही था ,इसलिए इनको जवाब नहीं देती थी |पर ये मुझे हमेशा चिढ़ाते-खिझाते ही रहे |
एक खास बात यह कि जब मैं ससुराल में रहती, तो ये अक्सर शाम को ही मुझे दुखी करते और रात को अकेले बाहर के बारांडे में सोते |कभी-भी पूरी रात मेरे पास नहीं सोये |कहते कि –माँ कहती है कि रात-भर पत्नी के पास सोने से मर्दानगी घट जाती है और आदमी कमजोर हो जाता है |मैं अक्सर भीतर कमरे में जागती रहती |न जाने क्यों नींद ही नहीं आती थी |कई बार देखा रात को बाहर ताला लगाकर यह कहीं जाते हैं |कब लौटते ,पता नहीं ,कहाँ जाते हैं,यह पूछना अपनी शामत बुलानी थी |ऐसा नहीं कि वे कभी मेरे पास नहीं आते थे |महीने में एक-दोबार आते ,वह भी दस-पंद्रह मिनटों के लिए और फिर बारांडा ...मैं रात-भर अतृप्ति से छटपटाती रहती ...करवटें बदलती रहती ...बदन तवे –सा तपता ...पर मैं इनसे संकोच-वश कुछ कहने का साहस नहीं जुटा पाती थी |यह भी डर लगता कि कहीं ये न कह दें कि मैं सेक्स की आदी या भूखी हूँ |मैं शारीरिक और मानसिक दोनों सुख से बंचित थी |शादी के पूर्व मैं अपने काल्पनिक राजकुमार के सीने पर सिर रखकर आराम से सो लेती थी ,पर शादी के बाद तो वह कल्पिक सुख भी जाता रहा |पतिव्रता स्त्री थी ,जिसके लिए पराए पुरूष की कल्पना भी पाप है ।और अपने पुरूष ने एक बार भी सीने से लगाकर प्यार नहीं किया ,ऊपर से उपेक्षा...अपमान|मैं ससुराल में दिन-भर खूब काम करती |घर कच्चा था |पूरे घर को मिट्टी से लीप देती और भी कठिन से कठिन काम करती ताकि इतनी थक जाऊँ कि रात को अपने-आप नींद आ जाए ,पर जाने क्यों ऐसा नहीं होता |शरीर रात-भर सुलगता ही रहता |कभी-कभी मैं खुद को धिक्कारती कि अच्छी-अच्छी बातें क्यों नहीं सोचती |पर न तो पूजा-पाठ में मन लगता और न किताबों में |शायद कम उम्र में विवाह से मेरी इच्छाएँ जाग गयी थीं |बस रात होते ही पति की बाहों में खो जाने की इच्छा जाग उठती ,जो कभी पूरी नहीं होती थी और मैं रात-रात भर आँसू बहती रह जाती |माँ के घर रहती ,तो ये सब परेशानियाँ नहीं होतीं |यही कारण है कि एक-दो महीने ही ससुराल में रहती कि बीमार हो जाती |
इस बार तो मैं गंभीर रूप से बीमार पड़ी |खांसी खाई और उसके साथ खून भी निकला ,बस पति ने भीतर –बाहर सब जगह ढिंढोरा पीट दिया कि मुझे टीबी हो गयी है |मुझे रूमाल से मुंह ढंककर बात करने को कहते |मेरी खाट-बिस्तर सब अलग कर दी |डाक्टर को दिखाया तो उसने कहा-फेफड़े में निमोनिया है अगर ठीक से इलाज नहीं हुआ तो टीबी हो जाएगी |यह बीमारी राजयक्ष्मा कही जाती थी |महंगी दवाएं ...पौष्टिक आहार साथ ही पूर्ण बेडरेस्ट |पति बौखला उठे |तुरन्त पिताजी को बुला लिया और कहा-मेरे पास पैसा नहीं कि इलाज कराऊँ ...इनका पाप है ये भोगें |आप इसे ले जाइए |मेरे गरीब पिता ,जिनपर अपने दूसरे आठ अन्य बच्चों का दायित्व था ,क्या करते ,मुझे लेकर घर आ गए |पति ने एक बार भी न सहानुभूति जताई न पलट कर देखा और उसी क्षण उस पतिव्रत की चारदीवारी गिर पड़ी ,जिसमें मैं कैद थी |मेरी हालत देखकर सब रो पड़े |माँ ने हिम्मत नहीं हारी अपनी बेटी को बचाने के लिए उसने जान लगा दी |अपने जेवर गिरवी रखकर इलाज कराया |पूरे परिवार को रूखा-सूखा खिलाकर मुझे पौष्टिक चीजें खिलाईं |उसने दूसरी बार मुझे जन्म और जीवन दिया था।तीन महीने के भीतर ही मेरा कायाकल्प हो गया |देह भर गयी रंग निखर कर गोरा हो गया और बीमारी का दू-दूर तक पता नहीं था |शायद उम्र बढने का भी इसमें हाथ था अब मैं अठारह में पहुंच गई थी |मैंने बीए में दाखिला ले लिया और मन लगाकर पढ़ने लगी |छह माह बाद पति आए तो मेरा कायाकल्प देखकर दंग रह गए |मेरा कालेज जाना उन्हें पसंद नहीं आया |उन्होंने माँ से मुझे विदा कर देने को कहा |माँ ने कहा-जब कमाने लगना तो ले जाना |अभी तो बीए कर रहे हो |ये वहाँ अभाव में रहकर फिर बीमार हो जाएगी |
पर ये जिद पर अड़ गए और माँ से चिढ़कर मेरे पास आकर दबाव डालने लगे कि-या तो पढ़ाई या मैं |मैंने पहली बार निर्णय दिया-पढ़ाई |ये बौखला उठे । रिश्तेदारों के पास गए |पड़ोसियों के घर बैठकी की,पर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा |मैं पढ़-लिखकर अपने पैरों पर खड़े होने का फैसला कर चुकी थी |ये हारकर चले गए और जब मैंने बीए की फाइनल परीक्षा दी ।पता चला इन्होंने मुझे सबक सीखाने के लिए दूसरी शादी कर ली है |बिना तलाक के दूसरी शादी ,वह भी एक विधवा से |मैंने कहा-जाने दो जब उससे हृदय का ही रिश्ता नहीं रहा तो कागजी लड़ाई क्या लड़ना ?
और इस तरह से मेरे जीवन का वह पहला अध्याय बंद हुआ |
दूसरा अध्याय तब शुरू हुआ ,जब मैं नौकरी करने बड़े शहर आई |विमल अपने नाम की तरह ही स्वच्छ ...सफ़ेद था |पानी जैसा स्वभाव |वह रूप-रंग में बिलकुल मेरे सपनों के राजकुमार की तरह था |वहीं घुघराले बाल ,चौथा माथा ,बड़ी-बड़ी आँखें ,गुलाबी होंठ और चौड़ा-चकला सीना ....पौरूष से दीप्त पुरूष |जाने क्यों उसे देखते ही मुझे नींद आने लगती ,जी चाहता उसके सीने पर सिर रखकर आराम से सो जाऊँ पर ऐसा संभव ही नहीं था |वह मेरा प्रशंसक था |उसकी दृष्टि में मैं भव्य और भारतीय स्त्री के सौंदर्य की प्रतिमान थी ,वह मुझपर मुग्ध था |मैं उसे अपना अतीत बता चुकी थी पर उसे कोई फर्क नहीं पड़ा था |वह विवाह के पक्ष में नहीं था पर शारीरिक मिलन उसकी दृष्टि में गलत नहीं था |उसका तर्क होता कि-जब दो हाथ आपस में मिल सकते हैं तो फिर दो शरीर क्यों नहीं ?
उसकी बातें मेरे भीतर भी कुछ जगातीं ,पर संस्कार , संयम की जंजीरें मुझे बांधे रहतीं |उसकी एक हो जाने की बात का मैं समर्थन नहीं कर पाती थी ,तो वह खीझ जाता और मुझे घोर नैतिकतावादी कहता |
रूठ भी जाता ,जब मैं उसे मनाने जाती तो फिर वही आफ़र ।धीरे -धीरे वह मेरे दिल-दिमाग पर छा गया था |मैं उसे प्रेम करने लगी थी और किसी भी कीमत पर उसे खोना नहीं चाहती थी |
और एक दिन मैं कमजोर पड़ी ...सारी जंजीरें टूटीं |प्रेम बिना शरीर के नहीं हो सकता ,इसका समर्थन भी करने लगी थी |शायद मैं मोह-ग्रस्त थी |उसके एक मित्र के घर हमारा मिलन हुआ |मैं बार-बार उसके सीने में समाई जा रही थी और वह मुझसे पशुओं की खरीदार की तरह से पेश आ रहा था |मैंने सोचा-इसके जीवन का पहला स्त्री-अनुभव है, शायद इसीलिए ....प्यार करने भी नहीं आता ...|
अभी मैं उस नशीले वातवरण से निकली भी नहीं थी कि उसका मित्र आ गया |उसने दोनों को एक-दूसरे को पा लेने की बधाई दी |मैं चाय बनाने किचन में गयी और दोनों मित्र आपस में बात करने लगे |मित्र ने दोनों के सामने पहले ही यह प्रस्ताव रखा था कि आज रात आप दोनों यहीं ठहरें और फिर कुछ दिनों के लिए किसी हिल-स्टेशन चले जाएँ |मित्र के प्रस्ताव से मैं खिल उठी थी कि मैं अपने राजकुमार की बाहों में सो सकूँगी |
चाय का पानी उबल रहा था |मित्र किचन में आया |मैंने उससे पूछा-वे क्या कह रहे हैं |प्रस्ताव स्वीकार है उन्हें |मित्र ने अपनी आँखें नचाकर कहा-मैं तो प्रेशर डाल रहा हूँ पर मान ही नहीं रहा |कहता है सब इन्हीं पर लूटा दूँगा तो भावी पत्नी के लिए क्या बचेगा ...?अब बहुत हो गया ...इस चेप्टर को बंद करना पड़ेगा |कहीं घर वालों को पता चल गया तो मुश्किल हो जाएगी और समाज में बात फैली तो मेरा विवाह मुश्किल हो जाएगा |
मेरा चेहरा उसकी बात सुनकर उतरता जा रहा था |उसने गहरी निगाह से मुझे टटोला और धीरे से बोला -आप कोई व्यायाम क्यों नहीं करतीं |आजकल स्लिम लड़कियों की मांग है |वह कह रहा था कि आपके बदन में कसाव की कमी है ...वैसे मैं जानता हूँ कि वह अनाड़ी है ...सुंदरता की कद्र नहीं करता ...आप मुझे आजमाइए ...निराश नहीं करूंगा ...|कहते हुए उसने अपना हाथ आगे बढ़ाया |मैं अपमान और गुस्से से काँपने लगीऔर दो कदम पीछे हट गयी|वह यह कहता हुआ चला गया कि –आपकी मर्जी ...जो कुछ उसके साथ कर सकती हैं मेरे साथ क्यों नहीं ...इतना तो बुरा नहीं हूँ मैं |मैं चाय की पत्तियों के साथ उबलती रही ...तड़पती रही ...|
-अरे भाई,चाय कब मिलेगी |-विमल पुकार उठा |मैं चाय लेकर आई |विमल मेरी ओर देखकर मुस्कुराया –आपका धन्यवाद ...आपने मुझे बहुत सुख दिया ...मुझसे मेरा ही परिचय करा दिया |अब मैं अपने घरवालों को विवाह की स्वीकृति दे सकता हूँ |
उसका मित्र भी मुझे देखकर मुस्कुराया |
अचानक मुझे लगा कि मैं किसी कसाई बाड़े में खड़ी हूँ ।जहां कसाई अपनी आँखों से मेरे अंगों को टटोल रहे हैं|मैंने घबराकर विमल की ओर देखा तो चकित रह गयी |वहाँ मेरे राजकुमार का चेहरा न था ...वह तो मेरे पूर्व पति का चेहरा था |