Purn-Viram se pahle - 17 in Hindi Moral Stories by Pragati Gupta books and stories PDF | पूर्ण-विराम से पहले....!!! - 17

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पूर्ण-विराम से पहले....!!! - 17

पूर्ण-विराम से पहले....!!!

17.

हालांकि समीर और शिखा को ऐसी कोई मेजर हेल्थ प्रॉब्लम नही थी कि उनको किसी भी इमरजेंसी में अपने बेटे की जरूरत होती| पर और मां-बाप की तरह ही समीर और शिखा ने भी सार्थक से छोटी-छोटी उम्मीदें पाल ली थी।

अगले दिन शाम को चार बजे दोनो की लखनऊ के लिए ट्रेन थी। शिखा ने सार्थक के जाने की सभी तैयारियों में उसकी व मीता की मदद की। उसका बहुत मन था कि अपनी बहू से कुछ बातें करें।

शिखा ने अपने बेटे सार्थक की शादी के लिए भी बहुत सारे ख्वाब देखे थे। सभी रस्मों को बहुत अच्छे से करवाकर वो अपनी बहु को घर लाना चाहती थी। पर जब अपने ही सिक्के में खोट हो तो कोई क्या बोले। ऐसा नही था कि उसके मन में यह बातें इस लिए आ रही थी कि सार्थक गोद लिया हुआ था| बल्कि नई जनरेशन आपकी जाई ही क्यों न हो.....आज अपने माँ-बाबा से चोरी छिपे क्या-क्या नही करती।

खैर शिखा अपने बात करने के मोह को छोड़ नही पा रही थी। उसका दिल बार बार मचल रहा था| बहु के हाल-चाल पूछे उसके परिवार व सभी के बारे में जाने। पर समय की कमी के रहते जब उसने अपनी बहु से पूछा..

"मीता तुम और सार्थक बहुत कम दिनों के लिए आये हो बेटा। अपनी पसंद का खाना बताओ। ताकि तुमको भी बना के खिला सकूं। सार्थक का तो मुझे अच्छे से पता है वो क्या खायेगा। वही बनाया है मैंने। तुम भी बता दो तुम्हारे लिए भी बना दूँ। साथ ही ट्रेन का भी बताना डिनर में क्या लेकर जाओगे। सवेरे दस ग्यारह बजे तक पहुंचोगे। थोड़ी लड्डू और मठरी भी बना दी है सवेरे चाय के साथ खा लेना।" ..

“ठीक है आपने जो भी बना दिया है वही काफ़ी है| बहुत ज़्यादा मत बनाइये|” बोलकर मीता कमरे में चली गई|

अपनी पसंद का खाना बताए बगैर या फिर शिखा से पूछे बगैर कि उसको रसोई में कोई मदद चाहिए हो तो वो साथ में करवा दे| वो रसोई में खुद के लिए कॉफी बनाने आई थी सो कॉफी बना कर निकल गई| बस कॉफी बनाने के सामान का पूछा कहाँ-कहाँ रखा है| बाकी उसने ऐसी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई| जिसकी वजह से शिखा को उस पर कोई लाड़ उमड़ता|

शिखा ने पहले वापस आवाज़ लगाने का सोचा मगर फिर रुक गई। न जाने क्यों मीता का व्यवहार देख कर शिखा को लगा कि मीता कोई बात नही करना चाहती। अगर वो बात करना चाहती तो रुक कर कुछ भी बोलती। काम करवाने के लिए पूछना भी दोनों के बीच जुड़ाव की पहली कड़ी बांधता|

उसने तो शिखा और समीर को मां-पापा तक नही कहा। न ही वो दोनो के पास बैठने आई। जब से आई थी अपने ही कमरे में थी। पर माँ का मन तो मन ही था| आहत होने पर भी कुछ कोशिशें कर लेना चाहता था|

इतना सब होने के बाद भी शिखा ने सार्थक से कहा कि बहु को बोले हमारे साथ बैठने आये तब सार्थक ने कहा था ..

"मां! मीता बहुत ज्यादा मिक्स-अप नही होती। उसे जैसा ठीक लगे करने दो। बाद में जब आप दोनों से मिलेगी.. अपने आप मिक्स-अप हो जाएगी|"

सार्थक की बात का शिखा के पास कोई जवाब नही था|

अगले दिन भी शिखा दोनों बच्चों के लिए सवेरे पाँच बजे से किचन में लगी थी| मीता नौ बजे अपनी और सार्थक की जब कॉफी बनाने आई, तब उसने शिखा को काम करते हुए तो देखा.....पर वो चुपचाप अपनी और सार्थक की कॉफी बनाती रही| उसने यह तक नहीं पूछा कि वो उसकी या समीर की कॉफी बनाए|

बेटा पूरे डेढ़ साल बाद आया था वो भी बहु को लेकर| उसका तो लाड़ अपने आप ही उमड़ रहा था| शिखा तो मीता के थोड़ा-सा ही प्यार जताने से ही पिघल जाती| आदमी और औरत की प्रकृति में यही तो फर्क होता है|

पर आज शिखा के सामने काम करते-करते पुनः-पुनः वही घटना क्रम दौड़ने लगा....जब वो बच्चे के लिए तरसती थी| स्कूल में भी जब कई टीचर्स अपने बच्चों की बातें करती तो शिखा को खुद का अकेलापन भरने के लिए बच्चे का ही विकल्प दिखता था|.....पर समीर अपने विचारों से टस से मस नहीं होता था|

आज शिखा को अपने उस सतही क्षणिक सुख को पाने की चाह बहुत खोखली महसूस हुई| बेटे की ज़िंदगी में मां-पापा की क्या जगह है वो गुज़रे दिनों में नज़र आ गई।

खैर बहु के घर आने पर जब शिखा ने समीर से उसको कुछ देने को कहा तो समीर ने साफ इंकार यह कहकर कर दिया..

"दोगी तो उसे न....जब वो खुद को इस घर की बहु माने। तुम्हारे पास कोई कुबेर का खजाना तो है नही....जो कभी खाली नही होगा। कोई जरूरत नही अभी कुछ देने की| शिखा मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा यह अपना सामान यहाँ क्यों छोड़कर जा रहे हैं| जबकि हम दोनों की जगह सार्थक ने महसूस करवा दी है| बहु ने तो एक बार भी माँ या पापा कहकर संबोधित ही नहीं किया| हाँ उसने सार्थक से यह जरूर कहा कि सामान इस घर में रख देते हैं| समझ सको तो उसकी मंशा समझने की कोशिश करो|”

विवाह के बाद के इतने सालों में शिखा ने पहली बार समीर को इतने क्रोध में देखा। उनके बोलने से लग रहा था कि जल्द से जल्द बहु-बेटे घर से चले जाएं। सार्थक के ऐसा करने से समीर बहुत आहत हुए थे|

समीर ने हमेशा सार्थक के लिए जो बेस्ट था वो किया| बहुत अच्छा स्कूल फिर कॉलेज....कहीं पर भी समझौता नहीं किया| उसके लिए हमेशा ब्रांडेड कपड़े खरीदे भले ही खुद के लिए न लिए हो| वैसे भी समीर की आदत थी वो जो भी किसी के लिए करते......हमेशा अच्छे से अच्छा करने की कोशिश करते|

समीर दोनो को स्टेशन छोड़ने भी नही जाना चाहते थे पर जब शिखा ने उनको समझाया कि हमेशा के लिए बात हो जाएगी.. चले जाओ| शिखा के बोलने से ही समीर गए।

जब शाम की ट्रैन से दोनो निकल गए तब समीर ने शिखा को बुलाया कर कहा..

"अब अच्छी-सी चाय बनाओ दोनो शांति से बैठ कर पीते है। उम्र के साथ समीर में आये इस चेंज को देख कर शिखा हैरान थी। जो समीर बहुत कम बोलता था अब उससे कुछ न कुछ शेयर करने लगा था। प्रखर से मिलने के बाद समीर में आये इस सकारात्मक परिवर्तन के लिए शिखा काफी खुश थी। चाय पीते-पीते समीर ने शिखा को बुलाकर पास बैठाया और कहा..

"शिखा अब हम दोनों को बहुत कुछ सोचना होगा। अब तुमको भी महसूस हो रहा होगा सार्थक के व्यवहार में हमारे घर के संस्कार कहीं भी नही हैं। इस उम्र में हम उसको सुधार भी नही सकते। उसको जो सीखना था वो हमारे दिए संस्कारों से सीख जाता| अब तो अमल करने का वक़्त था|”

समीर की बातें सुनकर शिखा ने बीच में टोका..

"इतना नकारात्मक क्यों सोच रहे हैं। क्या हों गया है आपको।"

"कुछ नही हुआ शिखा ... सार्थक के इन दो दिनों के व्यवहार ने बहुत कुछ महसूस करवा दिया है। हम दोनों ने भी काफी दुनिया देख ली है। ज्यादा आशाएं मत पालो। यह हम दोनों के लिए कुछ नही करेगा।"..

शिखा की ओर एक दृष्टि डालकर समीर ने आगे कहना शुरू किया..

"शिखा मुझे कुछ भी ठीक नही लग रहा है। सार्थक को हमने बहुत कुछ भावों से जुड़ा देना चाहा। इसके आने के बाद हमारी ज़िंदगियाँ बदल गई। घर चहकने लगा। पर आज जो सार्थक ने किया है मुझे नही लगता कभी हमारी जरूरत में सार्थक साथ होगा।"...शिखा चुपचाप समीर की बातें सुन रही थी। उसने बीच में समीर को टोका भी..

"मत सोचिये बहुत ज्यादा...जो लिखा होगा संभाल लेंगे मिलकर।"

"क्या संभाल लोगी मिलकर। मुझे तो आज महसूस हो रहा है ..मुझे किसी रोज कुछ हो गया तो .. मुझे नहीं लगता यह तुम्हारा ख्याल रखेगा...... अब सोच में पड़ गया हूँ।.. मुझे सार्थक से कोई उम्मीद नही। वैसे तो मेरे भाई हैं पर सबकी अपनी-अपनी जिम्मेदारियों है।"

"अब आप ज्यादा मत सोचिये। ऐसा कुछ भी नही होगा.. आप ठीक रहेंगे| क्या हो गया है आज आपको सब नकारात्मक ही सोच रहे हैं।"

“पढ़ी-लिखी होकर कैसी बातें कर रही हो शिखा| इंसान को किसी भी मोह में पड़कर अपने भविष्य की प्लानिंग करना नहीं छोड़ना चाहिए| उलटे मुंह खानी पड़ती है| समय संग चेते जाने से ही सब सध सकता है|”

थोड़ा रुक कर समीर ने अपने मन की बात शिखा के साथ साझा की ..

शिखा हम लोगों तक की पीढ़ी में बहुत गुंजाइशें थी..अब सहनशीलता और निभाने का स्तर बदल गया है| माँ-पापा होकर हमने उसको उच्च शिक्षा दी..आज वो बहुत समर्थ है| उसका भविष्य उसको खूब तरक्की दे..आज की पीढ़ी आपके मरने के बाद मिलने वाली धरोहर के प्रति संवेदनशील नहीं होती|

वो तुम्हारी या मेरी तरह माँ-बाऊजी के घर में अंतिम समय नहीं गुजारना चाहती| वो तो जितनी जल्दी होता है उसको बेच कर स्ट्रेस फ्री होना चाहती है| उनके पास एक ही स्टैट्मन्ट होता है ‘किसके पास समय है बार-बार देखने जाने का|.. हमारे बेटे सार्थक की तो स्थिति ही अलग है.. उस पर विश्लेषण जितना कम करें उतना अच्छा है|

बहुत देर तक समीर की बातें सुनकर शिखा ने समीर से कहा.....

“अगर ऐसी कोई स्थिति आई भी तो मैं समर्थ हूँ समीर। अकेले भी रह सकती हूं। अगर मैं पहले गई तो आपको दिक्कत होगी।..”

बोल कर शिखा चुपचाप काफी देर तक लेटी रही.....कब नींद आई उसे पता ही नही चला।

जैसे-जैसे समय गुज़रा समीर की शंकाएं ही सच साबित हुई। बेटे-बहु को जब भी छुट्टियां मिलती घर आने की बजाए वो दोनों घूमने निकल जाते। जो फ़ोन पहले हफ्ते में आते थे वो महीने में आने लगे। बहु मीता ने कभी दोनो से चलाकर बात की हो शिखा को याद नही आता। वो हमेशा नमस्ते करके फोन सार्थक को पकड़ा देती|

एक ओर तो प्रखर शिखा और समीर को प्रणय को मिलवाने के लिए आतुर था दूसरी ओर शिखा और समीर तो सार्थक को प्रखर से मिलवाने का भी सोच नहीं पाए| सच तो यह था कि इस बार सार्थक शिखा और समीर को बहुत अपरिचित-सा लगा| जिसने बहुत कुछ सोचने के लिए दोनों को मजबूर कर दिया|

क्रमश..