Baat bus itni si thi - 4 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 4

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बात बस इतनी सी थी - 4

बात बस इतनी सी थी

4

मंजरी की माँ ने जब देखा कि पुरोहित के मत का समर्थन करते हुए मंजरी के पिता खुद ही अपनी बेटी के पक्ष को कमजोर कर रहे हैं, तब वह आगे आकर बोली -

"ठीक ही तो कह रही है बेटी ! क्या ऐसी तर्कहीन और विवेकहीन परंपराओं का अंधा अनुकरण करना जरूरी है, जिनका अर्थ और महत्व समाज भूल चुका है ! समाज की अर्थहीन जंजीरों को तोड़कर एक बेटी अपने अस्तित्व को महत्व दे रही है, तो इसमें गलत क्या है ? शरीर से स्वस्थ, बुद्धि और विवेक से संपन्न और संवेदनशील किसी एक मनुष्य को कोई दूसरा मनुष्य दान में देने का अधिकारी कैसे हो सकता है ? और क्यों हो सकता है ? केवल इसलिए कि वह मनुष्य कन्या है ? बेटी है ? परंपरा के नाम पर मैं अपनी बेटी के अस्तित्व की उपेक्षा नहीं होने दूँगी ! मैं अपनी बेटी के साथ हूँ ! मैं न तो इसका कन्यादान करूँगी और न ही करने दूँगी ! यह मेरी बेटी थी, बेटी है और आजीवन मेरी बेटी ही रहेगी ! यह कोई निर्जीव वस्तु नहीं है, जिसको परंपरा के नाम पर दान कर दिया जाए ! यह समर्थ है, संवेदनशील और विवेकशील है, इसलिए यह स्वयं अपने जीवन की स्वामिनी है ! अपने बारे में खुद कोई भी निर्णय लेने का इसको पूरा अधिकार है !"

एक ओर मंजरी और उसकी माँ थी तथा दूसरी ओर मेरी माता जी ! दोनों के बीच तर्क-वितर्क और वाद-विवाद आरम्भ हो गया । यह देखकर मंजरी के पिता की चिंता बढ़ने लगी कि बात कहीं नियंत्रण से बाहर न चली जाए । कुछ ही क्षणों में उनकी वह चिंता क्रोध में बदल गयी । उनकी नज़र में स्थिति को इस अवस्था में ले जाने के लिए मंजरी की अपेक्षा उसकी माँ अधिक दोषी थी ! वे क्रोधावेश में बोले -

"बस, बहुत बोल चुकी तू ! मंजरी तो बच्ची है, पर तू तो समाज के रीति-रिवाजों को जानती समझती है ! इसकी बचकानी बातों को सहारा क्यों दे रही है ? क्या चाहती है तू ? क्या तू चाहती है, मंजरी की बारात वापस लौट जाए ?"

मंजरी अपनी माँ के लिए पिता के रूखे व्यवहार का कारण अच्छी तरह जानती थी । किंतु पिता की नजर में माँ को दोषी देखना उसके लिए सहन करना कठिन था । उसने अपनी पीड़ा और गुस्से को छिपाने की कोशिश करते हुए धीमी आवाज में कहा -

"मम्मी को छोडिए ! समाज के उन नियमों-परंपराओं को मैं नहीं मानती, जो स्त्री को पुरुषों के अधीन रहने के लिए मजबूर करती हैं ! वह पुरुष पिता, पति, पुत्र, भाई या कोई भी रिश्तेदार हो । हर कोई उसके बारे में निर्णय लेने का अधिकारी हो सकता है, परन्तु खुद वह स्त्री अपने बारे में स्वतंत्रतापूर्वक कोई निर्णय नहीं ले सकती ! क्यों ? क्योंकि हमारी इस सामाजिक संरचना में वह पुरुष की अघोषित संपत्ति है ! कन्यादान का अनुष्ठान उसी सामाजिक संरचना का एक हिस्सा है !" अंतिम शब्दों में मंजरी का आवेश गर्जना के साथ फुट पड़ा था ।

मंजरी द्वारा कन्यादान के अनुष्ठान पर आपत्ति किये जाने का परंपराओं की रक्षा के नाम पर अब सभी लोग एक सुर में विरोध करने लगे थे । देखते-ही-देखते यह विरोध हंगामे में बदलने लगा था । स्थिति बिगड़ती देखकर पुरोहित जी ने मौर्चा संभाला । उन्होंने मंजरी से कहा -

"बेटी, शायद तुमने कुछ शब्दों का मिथ्या अर्थ ग्रहण कर लिया है, इसलिए तुम भ्रमित हो गयी हो ! मैं तुम्हें समझाता हूँ !"

"आप भी समझाइए, क्या समझाना चाहते हैं ?" मंजरी ने अनमने भाव से कहा ।

"बेटी, हमारी संस्कृति में कन्या को कभी जड़ वस्तु नहीं, सचेतन और पूजनीय माना जाता है ! पौराणिक संदर्भों में कन्या को देवी माना जाता है ! वह सृष्टा है और प्रकृति का सत्-चित्-आनंद स्वरूप है ! सज्जनों के घर में कन्या का जन्म शुभ माना जाता है ! वर्तमान समय में वैज्ञानिक दृष्टि से भी कन्या का पिता होने का गौरवमय भाव-विचार कल्याणकारी ही है ! इससे समाज में नर-नारी का संतुलन बना रहेगा !"

"पुरोहित जी, मुझे यह बताइए, जिस कन्या को आप पूजनीय देवी कहते हैं, आप उसका दान कैसे कर सकते हैं ?"

"दान का सीधा-सा अर्थ है देना ! जरूरी नहीं कि केवल धन या वस्तु ही दी जाए ! विद्या, परामर्श, सहमति, अनुमति, सहानुभूति, सहयोग, औषधि, उपचार, यहाँ तक कि सद्भावना भी दी जाने वाली वस्तुओं के रूप में ही आती है ! बेटी, इस दृष्टि से विचार करोगी, तो तुम्हें बोध हो जाएगा कि वास्तव में कन्यादान कन्या के माता-पिता द्वारा अपने तथा वर-पक्ष के बन्धु-बान्धवों और समाज के समक्ष चयनित वर के साथ अपनी कन्या के संयोग की अनुमति-सहमति देना है !"

"पुरोहित जी, यदि ऐसा है, तो आप कन्यादान शब्द के स्थान पर अनुमति-सहमति देना ही बोलिए, इसमें मुझे कोई आपत्ति नहीं है !"

मेरी माता जी को ये शब्द स्वीकार नहीं थे । माता जी को डर था कि मंजरी और उसकी माँ की शर्तों पर शादी संपन्न हो गयी, तो न केवल वर की माँ होने के नाते उनका इस समय भारी अपमान हो जाएगा, बल्कि हमेशा के लिए उसके शासन की नींव हिल जाएगी । वह कभी भी अपनी बहू पर नियंत्रण नहीं रख पाएगी ! भविष्य के लिए अपना पक्ष मजबूत करने की प्रवृत्ति से प्रेरित होकर मेरी माता जी अपना वार करते हुए पूरे आवेश में बोली -

"अब यह शादी तभी संपन्न होगी, जब वर-वधू पूरे रीति-रिवाज और परंपरा का निर्वाह करते हुए परिणय-सूत्र में बंधेगे ! परंपरा का निर्वाह नहीं करना था, तो मंडप में यज्ञ-वेदी पर बैठकर पुरोहित जी को क्यों बुलाया था ? भले घर से संबंध जोड़ने की क्या जरूरत थी ? बारात बुलाने की क्या जरूरत थी ? बिना ब्याह के किसी की रखैल बनकर रह लेती !"

वहाँ पर उपस्थित कुछ अन्य लोगों ने भी मेरी माता जी का समर्थन किया और उनको उकसाते हुए समाज में युगों-युगों से चली आ रही परंपरा को बचाने के लिए प्राणों-पण की बाजी लगाने का दम भरने लगे ।

"चुप ! चुप हो जाइए आप सब ! वरना ...!"

यह कहते-कहते मंजरी ने अपने निकट सादे वेश में खड़ी पुलिस अधिकारी की पिस्तौल निकालकर हवाई फायर कर दिया । फायर होते ही शोर बंद हो गया । विरोधियों का स्वर पुनः प्रबल हो पाता, इससे पहले ही मंजरी ने कहा -

मेरे आधे से ज्यादा मेहमान सादे वेश में पुलिस के सिपाही हैं ! मैं जानती थी यहाँ यह सब जरूर होगा ! इसलिए मैंने पहले ही इस स्थिति से निबटने का इंतज़ाम कर लिया था ! अब अगर किसी ने भी मेरी शादी में किसी तरह की कोई अड़चन डालने की कोशिश की, तो उसके लिए अच्छा नहीं होगा !"

मंजरी की चेतावनी सुनकर गाँव के लोग सावधान हो गये । जो लोग अब तक समाज में युगों-युगों से चली आ रही परंपरा को बचाने के लिए प्राणोपण की बाजी लगाने का दम भर रहे थे, अब शांत होकर तमाशा देखने लगे थे । क्या हौगा ? और कैसे होगा ? का इंतजार करते हुए सभी लोग एक बार फिर अपनी-अपनी जगह पर बैठ गए थे । मैं और मंजरी भी यज्ञ वेदी के निकट उसी अवस्था में बैठ गये, जिस अवस्था में हंगामा शुरू होने से पहले बैठे थे, ताकि शादी की बाकी बची हुई रस्में संपन्न की जा सकें ।

मेरी माता जी अभी तक पूरी तरह से शान्त नहीं हुई थी । अब मेरी माता जी के निशाने पर मंजरी की ड्रैस आ गयी थी । परंपरागत ढंग से बने मंडप में पूरे परंपरागत ढंग से शादी की रस्म का आयोजन होने के बावजूद उसने गठ-बंधन के समय भी परंपरागत वस्त्र-आभूषण नहीं पहने थे । वरमाला और फेरों के शुभारंभ से पहले ही वधू का परंपरागत वस्त्रों-आभूषणों से सुसज्जित न होना और साधारण वेशभूषा में आना मेरी माता जी के लिए असंतोष का विषय बन गया था । उस समय तो मेरी माता जी मेरे मौन अनुरोध पर अपने अरमानों का गला घोंटकर, दिल पर पत्थर रखकर चुप रह गयी थी । लेकिन जब उन्हें अपने अनुकूल अवसर मिला, तो उनका वह असंतोष अब ज्वालामुखी का लावा बनकर बनकर बाहर निकलने लगा था ।

चूँकि उन्हें वर की माँ का होने का गौरव प्राप्त था, इसलिए वह अपनी होने वाली बहू के साथ-साथ उसके परिजनों को भी कभी भी, कुछ भी कहना अपना अधिकार समझती थी । मेरी माता जी का गुस्सा देखकर मंजरी के पिता ने उन्हें समझाकर शांत करने का विनम्र प्रयास किया, परन्तु वे जितना शांत करने की कोशिश कर रहे थे, मेरी माता जी उतना ही अधिक भड़क रही थी और क्रोध के आवेश में मंजरी तथा उसकी माँ के लिए उतनी ही अधिकाधिक अभद्र टिप्पणियाँ कर रही थी ।

ऐसे समय पर मंजरी के पिता का यह कहना -

"कृपया आप शांत हो जाइए ! चिंता मत कीजिए ! सब-कुछ ऐसे ही होगा, जैसा आप चाहेंगे !" उनके असंतोष को और अधिक बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ । उनके इस वाक्य ने मेरी माँ के क्रोध की अग्नि में घी का काम किया -

"आप कहते हैं कि जैसे मैं चाहूँगी, वैसे ही होगा ! क्या यह मैंने चाहा था कि मेरी होने वाली बहू कुर्ती और जींस में विवाह मंडप में आए ? या यह मैंने कहा था कि मेरी होने वाली बहू सुहाग का एक भी सामान न पहनें ! न इसने नाक में नथनी पहनी है, न कान में झुमके, न गले में मंगलसूत्र और न हाथ में कोई आभूषण पहने हैं ! क्या मंगलसूत्र न पहनने और चूड़ियाँ न पहनने के मैंने कहा था । यह तो मेरे बेटे के लिए शादी से पहले ही अनिष्ट का जाल बुन रही है ! इसके ऐसे अशुभ कर्मों से तो मेरा बेटा कुँवारा ही रहे, तो भी अच्छा है !"

अपना वाक्य समाप्त करते-करते उन्होंने मेरा हाथ पकड़कर मुझे विवाह की यज्ञ-वेदी से दूर करने का उपक्रम शुरू कर दिया । यह देखकर मंजरी के पिता के चेहरे पर विवशता और दयनीयता का भाव उभर आया, किंतु मंजरी के चेहरे पर कठोरता आ गयी । उसने अपने चेहरे पर कठोर लाते हुए संयत शब्दों में कहा -

"आंटी जी ! एक कदम भी आगे मत बढ़ाना !"

"मैं अपने बेटे को कुँवारा रख लूँगी, पर इसकी शादी तेरे जैसी कुलच्छिनी के साथ नहीं करूँगी !"

मेरी माता जी ने पूरे आत्मविश्वास के साथ चेतावनी देते हुए पूरे धमकी भरे लहज़े में कहा । मेरी माता जी की धमकी को स्वीकारते हुए मंजरी मुस्कुरायी और बोली -

"आंटी जी, अब आप अपने बेटे को न तो कुँवारा कह सकती हैं और न ही कुँवारा रख सकती हैं ! इस मंडप में आने के बाद आपका बेटा विवाह संपन्न होने के बाद ही यहाँ से जा सकता है !"

मंजरी की चुनौती को स्वीकार करके मेरी माता जी अब और भी अधिक आक्रामक हो गई थी । मंडप में उपस्थित ग्रामीणों का समर्थन भी उन्हें भरपूर मिल रहा था, जिससे उनके उत्साह में निरंतर वृद्धि हो रही थी ।

दूसरी ओर मंजरी थी, जिसको अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए, अपने अस्तित्व की सामाजिक स्वीकृति के लिए रूढ़ियों से भी और रूढ़िवादी समाज से भी दोनों से संघर्ष करना पड़ रहा था । वह संघर्षरत थी, क्योंकि वह अपनी माँ के कष्टप्रद जीवन को देखकर सदियों से स्त्रियों के अस्तित्व को नकारने वाले समाज की संवेदनहीनता की गवाह रह चुकी थी । परंपरा के नाम पर अपने पिता के स्नेह से वंचित मंजरी अपने बचपन से स्त्रियों पर थोपी गयी अनगिनत रूढ़ियों का परिणाम देखती आ रही थी ।

तीसरी ओर विवाह की यज्ञ-वेदी पर भँवर में फँसा हुआ 'मैं' था । मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या बोलूँ ? क्या करूँ ? माता जी के आग्रह पर विवाह के मंडप से बाहर जाऊँ ? या माता जी का विरोध करके चालीस की उम्र में हुए अपने पहले-पहले प्यार तथा वर्षों की प्रतीक्षा के बाद मेरे भाग्य और परिश्रम के संयोग से मिले भावी जीवन-साथी मंजरी का साथ दूँ ?

मंजरी का दुर्भाग्य था कि उसको अपने पिता का भी समर्थन नहीं मिल पा रहा था । हालांकि उसके पिता उसका हित चाहते थे, लेकिन उनकी बेटी का हित रूढ़ियो के परिपोषण में है ? या रूढ़ियों की जंजीर को तोड़कर बेटी को मजबूत और शक्तिशाली बनाने में है, वे यह नहीं समझ पा रहे थे । यही वजह थी कि मंजरी के पिता अपनी बेटी के हित की चिंता करते हुए भी मंडप में उपस्थित रूढ़िवादी लोगों का विरोध नहीं कर पा रहे थे ।

क्रमश..