TANABANA 13 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | तानाबाना - 13

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तानाबाना - 13

13

अफ्रीकावाली इन पार्बती ताई जी ने विभाजन होने से निरास,हताश इस परिवार को सिर माथे लिया । कुल मिला कर परिवार में पच्चीस लोग थे । उनके लिए हवेली के तीन कमरे खोल दिए गये । खाने पीने की पूरी व्यवस्था की गयी । परिवार के पास अपनी कहने को एक छत हो गयी । अगले दिन चंद्र और जमना परिवार को यहीं छोङ अबोहर जमीन का कब्जा लेने गये । दो चार दिन की भाग दौङ के बाद उन्हें जमीन का कब्जा मिल गया जिसे किसी को खेती के लिए बेच ये दोनों लौट आए और रुङकी के पास एक गांव में जमीन लेकर घर बार बना लिया । लज्जा का पति समझदार लङका था, इसने सिग्रेट फैक्ट्री में नौकरी ढूँढी और वे भी अपने फैक्ट्री से मिले क्वार्टर में रहने चले गये ।

अभी भी परिवार में नौ – दस लोग बचे थे । प्रीतम गिरि, सुरसती, उनके पाँच बच्चे, चंद्र के बङे दोनों बेटे और माँ मंगला । मंगला का स्वाभिमान उसे जेठानी की हालत देखते हुए और अधिक बोझ देने की इजाजत नहीं दे रहा था । उसने अपनी जेठानी की मदद से तीनों लङकों के लिए काम धंधे ढूँढे । पहले महीने वेतन मिलते ही यह परिवार उसी मौहल्ले में बनी एक और हवेली में दो रुपए महीना के किराए पर दो कमरे किराये पर ले रहने चला गया ।

सब कुछ पटरी पर आने लगा था कि चिंता और सदमे के चलते जमना को पागलपन के दौरे पङने लगे और सुरसती फेफङों के संक्रमण का शिकार हो गयी । घर की दो औरतें और दोनों बीमार हो गयी । ऊपर से इलाज के लिए पैसों का टोटा था । घर पर ही जङी बूटियाँ खरल करकरके पिलाई जाती ।

ऊपर से सबसे बङी समस्या थी जिस परिवार में धर्मशीला का रिश्ता तय हुआ था, उस परिवार का कुछ पता नहीं चल रहा था । रोज सुबह दिन निकलते ही दो लोग काम पर निकलते और दो लोग शरणार्थी शिविर दर शिविर जाकर पता लगाते कि शिविर में कोई परिवार पाकपट्टन से तो नहीं आया । सतपाल दो बार फिरोजपुर और फाजिल्का भी जाकर पूछ आया । हर बार निराशा ही हाथ लगती । परिवार में मायूसी छा गयी थी । जबान दी चुकी थी । धुर कई जन्मों के संबंध और जबान के सौदे । उससे फिरा कैसे जा सकता था और परिवार का कोई पता ही नहीं है ।

औरतों ने व्रत –उपवास शुरु कर दिये । कई मन्नतें माँगी गयी । और शायद उन्हीं अरदासों और

मन्नतों का फल था या कोई चमत्कार कि एक दिन सरसावा की हाट में प्रीतम को नंदलाल नाम का एक बुजुर्ग मिला जो चादर बिछाए लैमनजूस बेचने की कोशिश कर रहा था पर उसे बेचना आ नहीं रहा था । एक नजर देखते ही समझ में आ रहा था कि आदमी पहली बार कुछ बेचने निकला है । प्रीतम ने सट कर चादर बिछाई और चादर पर थोङी सी जङी बूटियां और खरल लगाया था । धीरे धीरे बात का सिलसिला चला तो पता चला कि नंदलाल पाकपटन शहर से ही उजङ कर आया था । वहाँ वह पटवारी साब का पङोसी था और शहर में महाजनी का तगङा कारोबार करता था । सब कुछ पीछे छूट गया । अब यहाँ नये सिरे से जीना सीख रहे हैं । सहारनपुर के ही शारदा मिल के रिफ्यूजी कैंप में शरण ली है ।

प्रीतम ने बताया कि पटवारी के बेटे से हमारी बङी बेटी का रिश्ता तय हुआ है । शादी करनी थी कि यह बँटवारी की आँधी चल पङी । अब यहाँ आ गये हैं । जहाँ किस्मत ले जाए । पर उस परिवार को कई महीनों से ढूँढ रहे हैं ।कोई खबर नहीं मिल रही । इसी चिंता में सब बीमार हो गये हैं तो नंदलाल हँस पङा ।

इसे कहते हैं तकदीर । चलो मैं तुम्हें ले चलूँगा उनके पास । वे तो रौला पङने से तीन महीने पहले ही अपनी ससुराल फाजिल्का आकर बस गये थे । वहाँ से सारा सामान बैलगाङियों पर लाद कर सेफ निकल आए थे, घर को ताले मार के । मैं आया था छोटे मुकुंद की बारात में । मुझे घर पता है ।

चल पङेंगे जिस दिन कहोगे । धी बेटी का काम है और धी बेटी तो सबकी साझी होती हैं ।

प्रीतम को तो भगवान मिल गया हो जैसे । वह रोता जाता और नंदलाल के गले लग जाता । फिर रोता , फिर गले मिलता । लंदलाल ने भी उसे रो लेने दिया । करीब बीस मिनट रो लेने के बाद उसने लोटे के पानी से मुँह धोया और पानी पिया तो मन बेहद शांत हो गया था । शाम को बिदा होते हुए नंदलाल ने रविवार को साथ चलने का वादा करके विदा ली ।

प्रीतम ने उस दिन की कमाई में से पच्चीस पैसे के पतासे खरीदे । घर पहुँच कर यह सुसंवाद और प्रसाद सुरसती को दिया तो इस तंगहाली में भी घर भर में खुशियाँ छा गयी । छा जाती भी क्यों न . घर की बेटी कुँआरी विधवा होने से बच गयी थी और परिवार को कन्यादान का सौभाग्य मिलने की उम्मीद हो गयी थी । सो ईश्वर, कुलदेवता बाबा क्षेत्रपाल, माँ काली,कृष्ण राधारानी सब को भोग लगा । सबने पतासे खाकर मुँह मीठा किया ।

रविवार को अपने वादे के मुताबिक नंदलाल आया और प्रीतम व उसके भतीजे धर्म गिरि को साथ लेकर रेलगाङी से फाजिल्का पहुंचा । घर आसानी से मिल गया । घर पर मुकुंद गिरि का साले और सालेहार मिले । पीतल के कङे वाले गिलास भर लस्सी से इनका स्वागत हुआ । वहाँ इन्हें पता चला कि मुकुंद तो गोनियाना मंडी में मास्टर हो गया है जो यहाँ से दो तीन घंटे के रास्ते पर ही है ।

लस्सी पीकर और पता लेकर ये तीनों गोनियाना के लिए चल पहे । गोनियाना छोटा सा स्टेशन था और शहर छोटी सी मंडी । रिक्शा वाले ने तीस पैसे लिए और स्कूल पहुँचा दिया । दोनों समधी राम और भरत की तरह गले मिले । मुकुंद उन्हें घर ले गये । प्रीतम और धर्म को तो बेटी के घर का पानी भी नहीं पीना था । नंदलाल ने दुरगी के हाथ की गोभी तंदूरी रोटी के साथ चटकारे लेकर खाई । मक्खन डली लस्सी का गिलास पी तृप्ति की डकार ली और दो महीने बाद शादी का दिन तय कर ये लोग लौट पङे । पर मुसीबत अभी खत्म नहीं हुई थी ।