Yaarbaaz - 8 in Hindi Moral Stories by Vikram Singh books and stories PDF | यारबाज़ - 8

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यारबाज़ - 8

यारबाज़

विक्रम सिंह

(8)

आज मैथ का एग्जाम था तो दोनों को दूध पीते हुए ही मिथिलेश्वर चाचा ने समझा दिया कि सोच समझ कर लिखना जो भी लिखना सही लिखना। सही मायने में वह नंदलाल को समझा रहे थे क्योंकि श्याम पर तो उन्हें भरोसा था। दूध पिलाने के बाद चाचा उनसे थोड़ा डंड पिलवाया करते थे। और उसके बाद फिर उन्हें स्कूल भेजते थे। खैर आज एग्जाम था इसलिए दोनों को कहा कि एक बार थोड़ा किताब खोलकर सरसरी नजर मार लो। खुद ध्यान की चाय की दुकान की तरफ चल दिए। क्योंकि ध्यान के पिता मिथिलेश्वर चाचा के परम मित्रों में से एक थे। वहां एक कप चाय पीकर और ध्यान से थोड़ी बहुत बातचीत करके उनका हालचाल लेकर फिर वह आकर नाश्ता कर कोलयारी को निकल जाते थे।

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ठीक 8:30 बजे सुबह श्यामलाल साइकिल में सवार होकर मेरे घर के नीचे आ गया और एक पैर जमीन पर रखकर और दूसरा साइकिल के पैडल पर रखे हुए उसने आवाज़ लगाई। दरअसल मेरे घर से होते हुए स्कूल का रास्ता जाता था श्यामलाल मेरे घर के ठीक थोड़े पीछे की तरफ उसका घर था। वह अक्सर इसी तरह स्कूल जाने और ट्यूशन जाने के समय मुझे नीचे खड़ा होकर आवाज लगाया करता था। या फिर साइकिल की घंटी बजाता रहता था। उस वक्त मैं एक ही आवाज लगाया करता था "आ रहा हूं श्याम आ रहा हूं।" इतने वक्त श्यामलाल कॉलेज आती जाती लड़कियों को देखा करता था पर कोई भी लड़की उसे देखती नहीं थी। वह इसी तरह लड़कियों को देखता रहता था साइकिल की घंटी बजाता रहता था मैं समझ नहीं पाता था कि यह साला घंटी मेरे लिए बजाता है। या लड़कियों के लिए। आज भी उस ने घंटी जैसे ही बजाना शुरू की तो मैंने आवाज लगा दिया, आ गया श्याम आ गया। मैंने जैसे ही ऐसा कहा तो उसने मुझसे कहा कोई बात नहीं आराम से आओ मैं भी खड़ा हूं क्योंकि उसे लगा कि साला लड़कियां तो कुछ देर देख लूं । खैर आज एग्जाम था इसलिए मैं पहले से ही तैयार था।

हड़बड़ी में अपनी परीक्षा बोर्ड उठाता हूं फटाफट घर से निकलकर सीढ़ियों से छलांग लगा लगा कर नीचे उतर कर आ जाता हूं। हमारे घर के नीचे ही एक छोटा सा गेरेज था। दरअसल हर ऊपर तले क्वार्टर में रहने वाले को नीचे एक गैरेज मिला हुआ था और यह गैराज करीब दो-तीन लोगों को साझा मिला हुआ था। जिसमें मेरी साइकिल रहा करती थी मैं वहां से साइकिल को निकाल कर। साइकिल चलाते हुए श्याम लाल के पास आ जाता हूं श्यामलाल अपनी साइकिल में पैडल मारते हुए मुझे कहता है, "आज बड़ी जल्दी आ गए दोस्त।"

"डर के मारे पहले ही तैयार होकर बैठा हुआ था जल्दी से यह एग्जाम निकल जाए।"

"तुम्हारे जल्दी करने से एग्जाम जल्दी थोड़े हो जाएगी। वो तो वक़्त के साथ ही होगा।"

"पता है।"

"कैसी हुई तैयारी?"

"मोटा - मोटी। सोच रहा हूं कि बस तुम्हारे आमने-सामने या पीछे बैठने का मौका मिल जाए।"

दरअसल इतिहास के एग्जाम के दिन मुझे श्याम लाल के बगल में बैठने का मौका मिल गया था। लेकिन मैं साइंस ग्रुप को छोड़कर बाकी सभी विषयों में सही था इसलिए मुझे उस दिन श्याम की कोई ज्यादा जरूरत नहीं पड़ी। पर आज मैं ईश्वर को मना रहा था इसके अगल-बगल बैठने मिल जाए तो मजा आ जाए।

"कल का मैच कैसा रहा?"

"मैन ऑफ द मैच।"

"बहुत-बहुत बधाई दोस्त।"

तभी मेरी नजर सामने से गुजरती एक लेडीज साइकिल पर जाती एक लड़की पर जाती है। दरअसल कोई और नहीं मेरी प्रेमिका बबनी थी। अक्सर स्कूल जाते वक्त हम दोनों आमने-सामने हो आते थे। बस हम दोनों अलग स्कूल में पढ़ते थे बननी गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी और मैं ब्वॉयज वाले में। उन दिनों रानीगंज कोई ऐसा सरकारी स्कूल नहीं था जहां लड़कियां और लड़के एक साथ पढ़ते हो। मेरे ख्याल से दोनों की सेफ्टी के लिए।

खैर जैसे सोचा था वेसा कुछ नहीं हुआ। मुझे अलग क्लास मिली और श्याम को अलग क्लास में बैठाया गया।

लेकिन उस दिन मुझे अच्छा भी लगा कि मैंने अपनी पूरी ईमानदारी के साथ एग्जाम दिया। श्यामलाल जहां बैठा था उस जगह उसके आसपास और पीछे वाले हमेशा श्यामलाल के पेपर पर नजर गड़ाए हुए थे अक्सर ऐसा ही होता है जब एग्जाम होआप अपना कॉन्फिडेंस हार चुके होते हैं और दूसरों के खाते में बार-बार देख रहे होते हैं तो फिर आप अपना कुछ भी करने में असमर्थ हो जाते है श्याम ने अपने अगल बगल और पीछे वाले तक को भी अपना पेपर दिखाया कभी उसने अपनी गर्दन टेढ़ी की तो कभी कभी वह अपनी जगह से थोड़ा बहुत इधर-उधर सरका।।

पर जैसे ही श्यामलाल पेपर कंप्लीट करके जाने लगा तो दो विद्यार्थी ने टोका,थोड़ी देर और बैठ जाते तो काम हो जाता। पर श्याम ने उन सबको इतना कहा पूरा दिखा दूंगा तो मैं पीछे हो जाऊंगा।

श्याम लाल शिक्षक को कॉपी दे कर निकल गया।

श्यामलाल ने रास्ते में मुझे पूछा कि एग्जाम कैसा गया। वैसे मैं जानता था कि मेरा उतना बेहतर तो नहीं गया होगा लेकिन मैं इस बात से खुश था कि मैंने जो भी करके आया हूं उस पर संतुष्टि तो थी। ठीक-ठाक ही है। श्यामलाल शायद इस बात से बहुत डरता था कि कहीं गणित विषय पर मै कंपार्टमेंटल ना हो जाऊं और मैं एक क्लास उसे पीछे ना हो जाऊं क्योंकि हम दोनों की जोड़ी लगोटिया जो थी। हां पांचवी से ही एक क्लास में एक ही स्कूल में पढ़ रहे थे । जब हम पांचवी क्लास में थे दोनों पैदल ही स्कूल जाया करते थे । उन दिनों हमारी कॉलोनी से स्कूल तक के सफर के बीच जंगल का शॉर्टकट रास्ता पड़ता था । हम दोनों उस जंगल से होकर ही स्कूल जाते थे । उस जंगल के सफर में सबसे गंदी बात यह हुआ करती थी कि आदमी और जानवरों की टट्टी बहुत हुआ करती थी । हम दोनों उस टट्टी से बच -बच कर चलते थे । कहीं जूतों में ना लग जाए। बरसात के दिनों में तो बड़ी ही थी रहती थी। जंगल में हर तरफ कीचड़ ही कीचड़ हो जाया करता था। हम जूता खोलकर दोनों जन जूते हाथों में पकड़ लेते थे । वह यह अच्छी तरह जानता था कि मेरा गणित बहुत कमजोर है कि मेरा गणित बहुत कमजोर है कई बार वह मुझे गणित के सवाल हल करना सिखाता भी था। खैर एग्जाम के एक दिन पहले वह क्रिकेट खेलने चला गया नहीं तो उस दिन भी मैं उसके साथ बैठकर कुछ प्रैक्टिस तो जरूर करता। मैंने श्याम से फिर कहा," कल तुम होते तो एग्जाम शायद और अच्छा जाता। लेकिन निकल जाऊंगा।"

यह बात सुनकर श्याम ने मुस्कुरा कर कहा ,"बस गाड़ी पार हो जानी चाहिए।"

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मिथिलेश्वर चाचा जिस कांटा घर में जाकर बैठा करते थे वह चारों तरफ से कोयले की धूल से भरी पड़ी थी। बाहर आसपास से लेकर दूर-दूर तक के घास, पेड़ और छोटी-मोटी झाड़ियां भी कोयले की राख से खाली पड़ी हुई थी। ट्रक के चलते ही वहां कोयले राख ही राख उड़ती थी। इस वजह से ही काटा घर में घुसते ही वह सबसे पहले अपने मुंह के चारों तरफ गमछा अच्छी तरह लपेट लेते थे। अपने पास एक छोटा सा बैग रख लेते थे।

जैसा की मैंने आप लोगों को पहले ही बताया कि मिथिलेश्वर चाचा के कांटा बाबू बनने के बाद तो जैसे कि उनके पांचों उंगलियां घी में डूब गई। तनख्वाह तो महीने की बंधी ही थी। उसके अलावा और वह हर दिन अच्छा बटोर के ले आते थे। क्योंकि उन दिनों कंप्यूटर नहीं था सब कुछ हाथ से लिखना था अपना ही कलम था कुछ भी लिखो कुछ भी दिखाओ क्या फर्क पड़ता था। ट्रकों की भारी भीड़ रहती थी। उनके कांटा रूम में पहुंचते ही हर एक ट्रक वाला यही चाहता था कि सबसे पहले उसका ट्रक का कांटा हो जाए। ऐसे में कुछ चालाक ट्रक वाले अपने ट्रक को पहले कांटा करने के लिए कुछ ना कुछ उनके रूम में पकड़ा देते। ऐसे मैं कई बार तो ऐसा भी होता था कि जो जीतने ज्यादा पैसे देता था वही सबसे पहले लगता था अर्थात सबसे पहले कांटा होता था। दिनभर ट्रकों का आना जाना लगा रहता था। मिथिलेश्वर जी ने कभी लेने से मना नहीं किया। आती हुई लक्ष्मी को क्यों जाने दे। उस ट्रक वाले को घुमा फिरा कर लाकर कांटा में चढ़ाने को कह देते। और बस कांटा हो गया कांटा बाबू ने हाथ से कांटे में आए वजन को लिख दिया। यह तो हुई एक कमाई दूसरी कमाई का भी जरिया था। हर ट्रक में स्टेपनी लगी होती थी। ट्रक स्टेपनी के साथ वजन होता था। कोयला लोड होने के बाद कांटा होते समय स्टेपनी को खोल दिया जाता। स्टेपनी के लोड के बराबर कोयला भर दिया जाता। इसे कुछ टन कोयला ट्रक में ज्यादा चला जाता। काटा होने के बाद स्टपनी को दुबारा लगा दिया जाता। खैर मिथिलेश्वर चाचा तो कभी कभार स्टेपनी ना होने पर भी ट्रक का लोड कम लिख देते। कोयला अधिक चला जाता। मानिए या ना मानिए दुनिया का कुछ भ्रष्टाचार तो कंप्यूटर ने भी खत्म किया। और उन दिनों कंप्यूटर से काटा ना होने की वजह से मिथिलेश्वर जी ने कांटे का खूब फायदा उठाया। दिन भर में जितनी कमाई होती बैग में भर उसे शाम को ले जाते। मिथिलेश्वरचाचा के घर में ट्रंक रखा हुआ था उसी का अंदर एक छोटा सा बैग रखा हुआ था उसी बैग के अंदर अपने पैसों को जा कर रख देते थे अर्थात उसी बैग में अपना पैसा जमा करते वह बैग ट्रंक उनका एक अपना प्राइवेट बैंक था। ऐसा भी नहीं था कि उनका किसी सरकारी बैंक के खाते में अकाउंट नहीं था पर वह तो समझते थे कि इन पैसों को बैंक में रख कर क्या होगा? वो मानते थे की जमीन अचल संपत्ति होती है जब भी जाएगी साला दुगना पैसा देकर जाएगी सो उन्होंने इन पैसों का एक बड़ा फायदा उठाने के लिए यह किया कि गांव में खेत लिखवाने लगे।

.....

कॉलोनी के बीचों बीच से कच्ची सड़क जाती थी। सड़क के किनारी एक छोटी सी गुमटी थी उसकी विशेषता यह थी कि सालों साल बंद रहती थी सिर्फ और सिर्फ होली के दिन खुलती थी। होली के दिन वह सुबह-सुबह खुल जाती थी। यह गुमटी कॉलोनी में ही रहने वाले की थी जिसका नाम भगना था जिसे कॉलोनी के लोग भगना मामा बोलते थे। मामा क्यों कहते थे मुझे कुछ नहीं पता था। होली के दिन मामा भोजपुरी गीत जल्दी से गाड़ी पकड़ ला हो राजा आग लागल बा चोली में। हा होली में.... रंग बरसे भीगे चुनरवाली रंग बरसे.... और एक से एक बढ़कर एक होली के गाने बजाते लगता था। करीब शाम तक बजाता ही रहता था । रात को गुमटी बंद हो जाती थी । अगले साल के होली के इंतजार में । गुमटी ठीक है ठीक सामने एक लोहे का 5 फुट का दरवाजा था। बबनी के घर के आंगन का दरवाजा था। बबली की हाइट 5 फुट 4 इंच थी और वह जब भी दरवाजे के पास आकर खड़ी होती थी तो उसके 4 इंच का हिस्सा दरवाजे से बाहर की तरफ दिखता था अर्थात उसकी गर्दन से लेकर उसका चेहरा दरवाजे के बाहर दिखता था। और मैं इसी गुमटी के पास आकर खड़ा हो जाया करता था बबनी को देखने के लिए। बबनी भी अपने आंगन के दरवाजे के पास आकर खड़ी हो जाया करती थी। चुकी मेरी भी हाइट बहुत ज्यादा नहीं थी मैं भी 5' फुट 5" इंच का था। इस वजह से कॉलोनी में कई दोस्त यार और बबनी की सहेलियां कहती थी कि तुम तुम राजेश से लंबी हो। ठीक इसके उल्टे मेरे मित्र कहते थे कि तुम बबनी से नाटे हो। पर सच यह था कि बबनी मुझसे थोड़ी सी छोटी थी पर उसकी बॉडी पर्सनालिटी ऐसी थी। लंबी दिखती थी । बबनी जितनी लंबी दिखती थी उसके बाल छोटे थे तब उसने बालों की कटिंग करा रखी थी। बबनी को मैं सातवीं क्लास से ही जानता था। और मैं सातवीं क्लास से उसे प्रेम करने लगा था ऐसा समझ लीजिए कि मैं सातवीं क्लास में बहुत रोमांटिक था और बबनी भी शायद उतनी ही रोमांटिक थी। उन दिनों ना मोबाइल था, न फेसबुक था ,ना मैसेंजर था,ना वॉट्सएप था। उन दिनों फोन तो था। पर हम दोनों के घर नहीं था। किसी एक आध के ही घर फोन था उसी से दस घरों का काम हो जाता था। सही मायने में जिसके घर फोन लग जाता था उसका आधा काम तो पीसीओ का हो जाता था। यह ऐसा पीसीओ होता था जो ऐसी फ्री सेवा देता था जहां इनकमिंग तो कबूल था पर आउटगोइंग करना मुश्किल था। मैं और बबनी अपनी बातें पत्र के द्वारा ही कहते थे और उस समय पत्र लिखने का अपना एक बड़ा सुकून,मन की बात लिखने जैसा फिर उसे चोरी से पढ़ना एक अलग आनंद देता था। उस दिन बबनी अपने

आंगन में खड़ी थी और मैं पत्र लेकर आसपास घूम रहा था। अक्सर पत्र देने के समय में ऐसे ही आंगन के आसपास घूमा करता था। मैंने जैसे ही मौका देखा मैं उसके आंगन के पास गया और उसे पर्ची थमा दी ठीक उसी तरह बबनी ने भी मेरे हाथ में एक पर्ची थमा दी। बबनी ने मेरी पर्ची को अपने टूपीस के रबड़ में दबा लिया । वह अक्सर मेरे पत्रों को इसी तरह कहीं ना कहीं कपड़ों के अंदर ही छुपा लिया करती थी।

हमारी कॉलोनी के एक तरफ खाली ग्राउंड था और वहां कुछ पेड़ भी लगे हुए थे। मैं अक्सर वहीं कहीं किसी पेड़ के नीचे बैठ जाता था और वहीं पर बबनी का पत्र पढ़ा करता था। पता नहीं कौन सी ऐसी टाइमिंग ट्यूनिंग थी कि दोनों एक दूसरे का जवाब-सवाल हम पहले ही जान जाते थे उसी तरह का पत्र भी हम दोनों के हाथों में होता था। मैं आज भी बबनी का पत्र पढ़ने लगा "तुम्हारा एग्जाम कैसा गया मेरा तो सो -सो गया है । बहुत डर लग रहा है। बस किसी तरह निकल जाऊं।"

बबनी अक्सर पत्र लेकर पलंग पर जाकर बैठ जाया करती थी और पत्र को निकालकर किताब के अंदर खोलकर पढ़ने लगती थी सबको ऐसा लगे कि वह किताब पढ़ रही है । बल्कि वह मेरा पत्र पढ़ रही होती थी मैंने भी जवाब दिया था" मेरा एग्जाम ठीक गया है और तुम्हारा कैसा गया है खैर डरो मत निकल जाओगी।

इस तरह मैंने उसे एग्जाम के लिए ढांढस बांध दिया था लेकिन अक्सर हम एक दूसरे को इसी तरह किसी ना किसी बात के लिए हौसला देते रहते थे।

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